स्तुतः यह प्रकृति आदमी व औरत दोनों के संयुक्त प्रयास से चलती है। दोनो का संयुक्त अस्तित्व है प्रकृति। दोनों की अपनी-अपनी भूमिका है। न तो आदमी अपेक्षाकृत बेहतर है और न ही औरत तुलनात्मक रूप से कमतर। हर व्यक्ति में नर तत्व है और नारी तत्व भी। बस फर्क इतना है कि जिसमें नर तत्व की अधिकता है, वह नर कहलाता है और जिसमें नारी तत्व अधिक है, वह नारी कही जाती है। और दोनों तत्वों की समानता हो जाती है तो वह ईश्वर की अवस्था कहलाती है, यथा अर्धनारीश्वर। इससे स्पष्ट होता है कि नर व नारी दोनों अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। दोनों भिन्न हैं। कोई किसी से कम नहीं। दोनों की कोई बराबरी भी नहीं। बावजूद इसके समाज की संरचना में आरंभ से पुरुष की प्रधानता रही। यही वजह है कि धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक रूप से पुरुष अग्रणी रहा।
आप देखिए, बेशक, नाम स्मरण करते हुए राधे-श्याम, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण कहा जाता है, अर्थात पहले स्त्री का नाम लिया जाता है, स्त्री तत्त्व को विशेष सम्मान दर्शाया जाता है, मगर सच्चाई ये है कि प्रधानता पुरुष की ही रही है। सारे भगवान पुरुष हैं। चित्रों में भगवान विष्णु शेष नाग पर लेटे होते हैं और माता लक्ष्मी उनके चरणों बैठी दिखाई जाती है। अन्य भगवानों व देवी-देवताओं में भी पुरुष की ही प्रधानता है। बेशक, इतिहास में विदुषी महिलाओं के विशेष सम्मान के उदाहरण हैं, सारे आश्रमों के प्रमुख ऋषि रहे हैं। लगभग सारे मठाधीश पुरुष ही रहे हैं। सभी शंकराचार्य पुरुष हैं। अधिसंख्य मंदिरों में पुजारी पुरुष हैं। तीर्थराज पुष्कर में पवित्र सरोवर की पूजा-अर्चना पुरुष पुरोहित ही करवाते हैं। हालत यहां तक है कि आज भी ऐसे मंदिर हैं, जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है और कोर्ट को दखल देना पड़ रहा है।
इसी प्रकार रामायण व श्रीमद्भागवत की कथा करने वाली चंद महिलाएं ही व्यास पीठ पर बैठती हैं, अधिकतर कथावाचक पुरुष ही हैं। आज भी धर्म के प्रति कट्टर मठाधीश किसी महिला के व्यास पीठ पर बैठने पर आपत्ति करते हैं। उनका तर्क ये है कि महिला चूंकि माहवारी के दौरान चार दिन अपवित्र होती है, इस कारण वह अनवरत कथा नहीं कर सकती। आप देख सकते हैं कि यूट्यूब पर ऐसे वीडियो भरे पड़े हैं, जिनमें साध्वी चित्रलेखा व साध्वी जयाकिशोरी जी के व्यास पीठ पर बैठ कर कथा करने को शास्त्र विरुद्ध करार दिया जा रहा है।
जैन धर्म की बात करें। जैन समाज के सभी तीर्थंकर पुरुष हैं। जैन मुनियों के नाम के आगे 108 व जैन साध्वियों के नाम के आगे 105 लिखा जाता है। उसके पीछे बाकायदा तर्क दिया जाता है जैन साध्वियों में जैन मुनियों की तुलना में तीन गुण कम हैं।
इस्लाम की बात करें तो पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब पुरुष है। सारे मौलवी पुरुष हैं। मस्जिदों में नमाज की इमामत पुरुष करते हैं। यहां तक कि सार्वजिनक नमाज के दौरान महिलाओं की सफें पुरुषों से अलग लगती हैं। अजमेर की विश्व प्रसिद्ध दरगाह ख्वाजा साहब की दरगाह में खिदमत का काम पुरुष खादिम करते हैं। दरगाह स्थित महफिलखाने में महिलाएं पुरुषों के साथ नहीं बैठ सकतीं। उनके लिए अलग से व्यवस्था है। जानकारी तो ये भी है कि दरगाह परिसर में महिला कव्वालों को कव्वाली करने की इजाजत नहीं है। इसी प्रकार इसाई धर्म में भी ईश्वर के दूत ईसा मसीह पुरुष हैं। गिरिजाघरों में प्रार्थना फादर करवाते हैं।
सामाजिक व्यवस्था में भी पुरुषों की प्रधानता है। अधिसंख्य समाज प्रमुख पुरुष ही होते हैं। पारिवारिक इकाई का प्रमुख पुरुष है। वंश परंपरा पुरुष से ही रेखांकित होती है। स्त्रियां ब्याह कर पुरुष के घर जाती हैं, न कि पुरुष स्त्री के घर। यह तो ठीक है कि पैदा होने के साथ नारी को अपनी नियति पता होती है, इस कारण वह उसे चुपचाप स्वीकार कर लेती है, मगर अऋारह-बीस साल पिता के घर पलने के बाद जब उसे अपना परिवार छोड़ कर पति के घर जाना होता है तो उस पर क्या बीतती होगी, इसकी अनुभूति सिर्फ उसे ही है?
हमारे यहां तो पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह पति को भगवान माने। पति की लंबी आयु के लिए पत्नियां करवा चौथ का व्रत करती हैं, जबकि पुरुष ऐसा कोई व्रत नहीं करते। मैने नारी स्वातंर्त्य की समर्थक प्रगतिशील महिलाओं तक को करवा चौथ का व्रत करते देखा है। इस तरह की धारणा चलन में हैं कि महिला यदि कोई पुण्य करे तो उसका आधा फल पुरुष को मिलता है, जबकि पुरुष को उसके पुण्य का पूरा फल मिलता है। स्त्री से अपेक्षा की जाती है कि वह पतिव्रता हो, जबकि पुरुष अनेक विवाह करते हैं। पत्नी की मृत्यु पर पति को दूसरी शादी की छूट है, जबकि लंबे समय तक यह परंपरा रही कि पति की मृत्यु पर पत्नी दूसरा विवाह नहीं करती थी। हालांकि विधवा व परित्यक्ता के लिए विशेष कानूनी प्रावधान किए गए हैं और अब विधवा विवाह होने लगे हैं, बावजूद इसके अधिसंख्य विधवाएं व परित्यक्ताएं दूसरा विवाह नहीं करतीं। धीरे-धीरे महिलाओं में जागृति आई है तो अब उन्हें भी बराबरी का हक देने की कोशिशें की जाती है, फिर भी सामाजिक ढ़ांचा आज भी पुरुष प्रधान है। आधुनिक युग में पुरुषों की प्रधानता की भले ही आलोचना की जाए, मगर सच्चाई ये है कि अभी भी
महिलाएं पुरुष के आधिपत्य से मुक्त होने का संपूर्ण साहस नहीं जुटा पाई हैं। हालांकि लोकतांत्रक व्यवस्था में महिलाओं को भी आरक्षण दिया जाने लगा है, इस कारण राजनीति में महिलाएं पदों पर काबिज होती जा रही हैं। बड़े पदों की बात अलग है, मगर गांव-कस्बों में जा कर देखिए, आज भी महिला सरपंच का काम पति देख रहे हैं, महिलाए पार्षद पति की देखरेख में ही काम कर रही हैं। यानि कि लक्ष्य हासिल करने में अभी और वक्त लगेगा।
वस्तुतरू पुरुष चूंकि अधिक बलशाली, बहादुर, साहसी व कर्मठ माना जाता है, उसके इसी गुण के कारण सेनाओं, अर्द्धसैनिक बलों व पुलिस में पुरुषों का वर्चस्व है। यह एक सुखद बात है कि अब महिलाओं की विंग अलग से बनाई गई हैं।
ऐसा माना जाता है कि महिलाएं अपेक्षाकृत कमजोर होती हैं। अकेले इसी वजह से पुरुष व महिला मजदूर की मजदूरी में अंतर है। हालांकि पुरुष नर्तक भी हैं, मगर नर्तकियों की बहुतायत क्यों है? अब तो मुजरे होना बंद हो गए, मगर फिल्मों में देखिए किस तरह महिला मुजरा करती है और पुरुष वर्ग उसका आनंद उठाते हैं। साफ झलकता है कि महिला की स्थिति क्या बना कर रखी गई है?
कुल मिला कर पुरुष की प्रधानता के कारण ही पुरुष से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पुरुषोचित व्यवहार करे। अगर कोई स्त्रियोचित व्यवहार अथवा कार्य करता है या उसमें स्त्रैणता पाई जाती है तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। किन्नर तक की उपमा दी जाती है। इसके विपरीत अगर कोई महिला पुरुषोचित व्यवहार या काम करती है, उच्च पदों पर पहुंचती है तो उसे बड़े गर्व की दृष्टि से देखा जाता है। झांसी की रानी की उपमा दी जाती है। समय के बदलाव के साथ नारी स्वांतर्त्य आंदोलनों के मुखर होने के कारण महिलाएं अब बराबरी करने की स्थिति में आने लगी हैं, यह एक सुखद संकेत हैं। चूंकि आरंभ से नर प्रधान है, नारी दमन की शिकार हुई है, इस कारण आज नारी उसके बराबर होने की हक मांग रही है। उसे मिलने भी लगा है।
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