तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जून 08, 2011

क्या बाबा रामदेव खुद को भी माफ कर पाएंगे?

आज जब कि बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है, जो कि उचित ही प्रतीत होता है, खासकर के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के लिए तो बेहद जरूरी, मगर ऐसे में अनेक ऐसी बातें दफन हो गई हैं, जिन पर भी विचार की जरूरत महसूस करता हूं।
असल में हुआ ये है कि पुलिस की कार्यवाही इतनी ज्यादा हाईलाइट हुई है, मीडिया द्वारा की गई है, कि इस पूरे मसले से जुड़े अनेक तथ्य सायास हाशिये पर डाल दिए गए हैं। अगर किसी को समझ में आ भी रहे हैं तो केवल इसी कारण नहीं बोल रहा कि कहीं उसकी बात वक्त की धारा के खिलाफ न मान ली जाए। कि कहीं उसे कांग्रेसी विचारधारा न मान लिया जाए। कि उसे आज के सबसे अहम और जरूरी भ्रष्टाचार के मुद्दे का विरोधी न मान लिया जाए।
हालांकि मैं जानता हूं कि इस लेख में जो सवाल खड़े करूंगा, उनसे बाबा रामदेव के भक्तों और हिंदूवादियों को भारी तकलीफ हो सकती, मगर सत्य का दूसरा चेहरा भी देखना जरूरी है। चूंकि बाबा रामदेव का आंदोलन एक पवित्र उद्देश्य के लिए है, चूंकि वे एक संन्यासी हैं, चूंकि उन्होंने हमारे लिए आदरणीय भगवा वस्त्र पहन रखे हैं, चूंकि उनका कोई स्वार्थ नहीं है, इस कारण उनकी ओर से की गई सारी हरकतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
वस्तुत: जब ये सवाल उठा कि बाबा को केवल अपने योग पर ही ध्यान देना चाहिए और राजनीति के पचड़े में नहीं पडऩा चाहिए, यह तर्क दे कर उसे नकारा गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना ठीक नहीं है। बात ठीक भी लगती है, मगर जो बाबा एक बार सारी राजनीतिक पार्टियों को गाली बक कर अपनी नई पार्टी बनाने की घोषणा कर चुके हैं, तो उन्हें भी उसी प्रकार आलोचना के लिए तैयार रहना होगा, जैसे ही अन्य राजनेता सहज सहन करते हैं। मगर दिखाई ये दिया कि उनके भक्त अथवा कुछ और लोग भगवा के सुरक्षा कवच पर प्रहार बर्दाश्त नहीं कर पा रहे।
चलो, बाबा की एक ताजा तरीन हरकत से बात शुरू करते हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोने का नाटक करते हैं और पुलिस की बजाय उसे संचालित करने वाली सरकार और यहां तक सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते हैं तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से माफ भी कर देते हैं। अव्वल तो उनसे माफी मांगी ही किसने जो उन्होंने माफ कर दिया। उन्हें ये गलतफहमी कैसे हो गई कि वे सरकार से भी ऊंचे हैं। कैसी विडंबना है कि एक ओर तो उनके समर्थकों पर अत्याचार को लेकर भाजपा सहित पूरा देश आक्रोश में है, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। यानि मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त। यानि उनका साथ देने वाले बेवकूफ हैं। इससे तो यह साबित होता है कि उनका कोई स्टैंड ही नहीं है। वे पल-पल बदलते हैं। एक ओर लोगों को योग के जरिए चित्त वृत्ति निरोध: का उपदेश देते हैं तो दूसरी ओर अपना चित्त ही स्थिर नहीं रख पा रहे। स्थिर रखना तो दूर, वैसे ही उद्वेलित होते हैं, जैसे आम आदमी होता है। जरा तुलना करके देखिए बाबा और अन्ना की भाषा का। आप देख सकते हैं लगातार टीवी चैनलों के केमरों से घिरे बाबा का। देशभक्ति के नाम पर जो मन में आ रहा है, बक रहे हैं, जबकि अन्ना हजारे ठंडे दिमाग से तर्कपूर्ण बात करते दिखाई देते हैं। बाबा देशभक्ति के नाम पर उत्तेजना फैला कर अपने आपको जबरन 120 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि बताते हैं। इससे तो यही साबित होता है कि दंभ से भरे हुए बाबा योगाचार्य नहीं, बल्कि मात्र योगासनाचार्य और आयुर्वेदाचार्य हैं। व्यवहार से वे अपरिपक्व भी नजर आते हैं। दूसरी ओर गांधीवादी अन्ना खुद तो परिपक्व हैं ही, उनके साथी भी तार्किक और बुद्धिमान।
खैर, सवाल ये है कि सरकार को माफ करने वाले बाबा क्या खुद को कभी माफ कर पाएंगे? बेशक सरकार ने जो तरीका अपनाया, वह दुर्भाग्यपूर्ण था, मगर बाबा ने जो हरकतें कीं, वे उनके समर्थकों के लिए एक सदमे से कम नहीं हैं। चूंकि वे अपने भक्तों के लिए भगवान तुल्य हैं, इस कारण उनकी आलोचना करने में जरा हिचक होती है, मगर प्रश्न ये है कि अनशन और सत्याग्रह के नाम पर हजारों समर्थकों को एकत्रित करने वाले बाबा मौत से इतना घबरा गए कि खुद औरतों के कपड़े पहन कर महिलाओं के बीच दो घंटे तक दुबक कर बैठे रहे। इतना ही नहीं मौका पा कर भागने की भी कोशिश की। कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि महिलाओं के पिटने पर रोने का नाटक करने वाले बाबा खुद महिलाओं पिटता देख दुबके रहे। खुद की सुरक्षा की इतनी चिंता कि स्वयं उन्होंने महिलाओं से अपील की कि वे उनके चारों ओर सुरक्षा घेरा बना लें। ऐसा करके उन्होंने अपने आपको शिखंडी तक साबित कर दिया।
असल में अनशन का अर्थ होता ही ये है कि व्यक्ति अपने उद्देश्य के प्रति इतना अडिग है कि मौत को भी गले लगाने को तैयार है। तो फिर वे मौत से इतना जल्दी कैसे घबरा गए? ऐसे में उनका सत्याग्रह दो कौड़ी का साबित हो गया। मजे की बात देखिए कि इस पर वे कितना बचकाना जवाब देते हैं कि वे देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की रक्षा करने को मजबूर थे। जरा दंभ देखिए कि इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से करते हैं, जबकि वे उनके चरणों की धूल भी नहीं हैं। एक बिंदु ये भी है कि वे ये आरोप लगा रहे हैं कि उनको मार देने का षड्यंत्र था। एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह आरोप कितना थोथा है।
चलते रस्ते एक बात और भी कर लें। अनशन स्थल पर अचानक धारा 144 लागू करने और पांडाल में आंसू गैस छोडऩे की कानूनी विवेचना करने वाले ये भूल जाते हैं कि बाबा को योग करने के लिए अनुमति दी गई थी, वो भी अधिकतम पांच हजार लोगों के लिए, मगर वे वहां अनशन और आंदोलन पर उतारू हो गए और साथ ही हजारों लोगों को एकत्रित कर लिया। यदि पुलिस कानून-कायदों को ताक पर रख कर अत्याचार करने पर आलोचना की पात्र है तो बाबा भी कानून को धोखा देने पर निंदा के पात्र होने चाहिए। मगर नहीं, चूंकि वे एक पवित्र उद्देश्य के लिए ऐसा कर रहे थे, इस कारण इस बारे में चर्चा मात्र को पसंद नहीं किया जा रहा। पुलिस अत्याचार पर कानून की दुहाई देने वाले बाबा पुलिस अधिकारी की फीत उतारने वाली महिलाओं को बहादुर बता कर कौन से कानून की हिमायत कर रहे हैं? और अगर महिलाओं तक ने ये हरकत की है तो पुलिस ने भी ठोक दिया तो क्या गलत कर दिया। और सबसे अहम सवाल ये कि क्या योग के नाम पर जमा लोगों को तो पता नहीं था कि वे आंदोलन करने को जुटे हैं, वहां कोई लड्डू थोड़े ही बंटने वाले हैं।
एक उल्लेखनीय बात देखिए, सोते हुए लोगों, बेचारी महिलाओं पर अत्याचार की बात चिल्ला-चिल्ला कर कहने वाले ये तर्क देते हैं कि उन निहत्थे और निरीह लोगों से क्या खतरा था, मगर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि क्या भीड़ का भी कोई धर्म होता है? उनके पास इस बात का जवाब है क्या कि बाबा ने दूसरे दिन और ज्यादा लोगों को निमंत्रित क्यों किया था? और कानून-व्यवस्था बिगड़ती तो कौन जिम्मेदार होता? क्या इस बात को भुला दिया जाए कि जिस विचारधारा वालों का समर्थन हासिल कर आंदोलन को बाबा आगे बढ़ा रहे हैं, उन्होंने बाबरी मस्जिद मामले में सरकार और कोर्ट को आश्वस्त किया था, मगर फिर भी बाबरी मस्जिद तोड़ दी। और मजे की बात ये है कि यह कह कर अपना पल्लू झाड़ लिया कि उन्होंने कुछ नहीं किया, भीड़ बेकाबू हो गई थी। सवाल ये उठता है कि उसी किस्म के लोग जब ज्यादा तादात में वहां जमा होते और कुछ कर बैठते तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होता? बाबा तो कह देते कि उन्होंने कुछ नहीं किया, भीड़ बेकाबू हो गई थी। और ये सच भी है कि भीड़ जुटा लेना तो आसान है, पर उस पर नियंत्रण खुद उनके नेताओं का नहीं रह पाता है।
एक अहम बात और। शुरू से उन पर ये आरोप लग रहा था कि वे आरएसएस व भाजपा की कठपुतली हैं तो वे क्यों कर अपने आपको निष्पक्ष बताते हुए कांग्रेस सहित सभी पार्टियों को समान बता रहेे थे? मुद्दे को समर्थन देने के नाम पर आगे आई भाजपा को यह कह समर्थन लेने से क्यों इंकार नहीं किया कि उनका आंदोलन दूषित हो जाएगा? आंदोलन के पहले ही दिन उन्होंने किसी वक्त देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाले साध्वी ऋतम्भरा को पास में कैसे बैठा लिया? ऐसे में आंदोलन का दूसरा दिन किस ओर जाने वाला था, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यदि उनमें जरा भी निष्पक्षता होती तो भाजपा को उनके मामले न पडऩे की कहते। जब पूरे देश के कुल गांवों की संख्या गिना कर वहां अपने समर्थक होने का दंभ भरते हैं तो उन्हीं के भरोसे रह लेते। लोग अभी नहीं भूले हैं अन्ना के अनशन वाली बात, जिसमें साध्वी उमा भारती व अन्य नेताओं को अन्ना के समर्थकों ने ही खदेड़ दिया था। यही फर्क है बाबा व अन्ना में।
 अब जरा बात कर लें बाबा की मांगों की। उनकी अधिकतर मांगें, ऐसी हैं जो जाहिर करती हैं कि बाबा को कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की कितनी समझ है। वे मांग कर रहे हैं कि आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा दो, अब बाबा को कौन समझाए कि दुनिया में हिंसा करने वालों तक को फांसी की सजा नहीं दिए जाने पर चर्चा हो रही है और वे ऐसी बचकानी मांग कर रहे हैं। फिर बड़े नोट समाप्त करने की मांग भी ऐसी ही बाल हठ जैसी है। ये तो अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं कि यह संभव और व्यावहारिक भी है या नहीं। सीधे प्रधानमंत्री का चुनाव और तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगें भी हवाई ही हैं। रहा सवाल विदेशी बैंकों में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने का तो भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर आंदोलन करने वाले अन्ना हजारे और उसके विधि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि यह आसान नहीं है और इसमें काफी वक्त लगेगा। चाहे सरकार कांग्रेस की हो या किसी और की, क्या उसमें इतनी ताकत है कि इसका आदेश एक पंक्ति में जारी कर दे?
सवाल ये उठता है कि जब आपको कुछ समझ ही नहीं है तो आप क्यों कर योग सीखने आए अथवा अपना इलाज करवाले आए लोगों को बेवकूफ बना कर फोकट नारे लगवा कर आंदोलित कर रहे हैं। खुद को गांधी के बराबर कहलवाने को आतुर बाबा को पता भी है कि गांधी जी गाधी जी कितना पढ़े थे, कितने योग्य थे, उनके प्रशंसक किस श्रेणी के लोग थे? भला कौन बाबा को समझाएगा कि भले ही आपको राजनीति करने का अधिकार है, मगर उसके लिए आपको विश्व की राजनीतिक स्थिति, वैदेशिक नियम और परस्पर संधियों, प्रोटोकोल आदि को समझना होगा। चलो ये मान भी लिया जाए कि आपको भले ही जानकारी नहीं है, मगर आपका उद्देश्य तो पवित्र है, तो क्या वजह है कि इसी मुद्दे पर संघर्ष कर रहे अन्ना हजारे में मंच पर नाच कर नौटंकी करने के बाद भी आप उनसे अलग ढपली बजाने लग गए। इतना ही आपने तो सिविल सोसायटी की हवा निकालने तक की बचकाना हरकत भी की।
आखिर में एक बात और। बाबा रामदेव ने भगवा कपड़े में राजनीति करके भले ही अपने संवैधानिक अधिकार का उपयोग किया हो, मगर असल में उन्होंने इन्हीं भगवा कपड़ों को कलंकित करने की कोशिश की है। बाबा की हरकतों के बाद अब कोई सच्चा योग गुरु भी शक की नजर से देखा जाएगा।
अब जरा बाबा के प्रमुख सहयोगी आचार्य बालकृष्ण की भी थोड़ी चर्चा कर ली जाए। एक ओर बाबा कह रहे थे कि बालकृष्ण किसी मिशन पर हैं, इस कारण सामने नहीं आ रहे, जबकि बाद में स्वयं बालकृष्ण ने सामने आने पर फूट-फूट कर रोते हुए बताया कि वे गिरफ्तारी के डर से बचने के लिए भटक  रहे थे। कैसा बहादुर सेनापति रखा है बाबा ने। देश भक्ति और देश को विश्व गुरू बनाने की मुहिम में जुटे बाबा व उनके सहयोगी की ये कैसी बहादुरी है कि गिरफ्तारी मात्र से घबरा रहे हैं। फूट-फूट कर रो रहे सो अलग। कहते हैं कि मैने तो सुना मात्र था कि पुलिस बर्बरता करती है, लेकिन देखा पहली बार। हो लिया ऐसे रोवणे देशभक्तों के रहते देश का कल्याण।
मैं यहां साफ कर देना चाहता हूं कि मैंने केवल तस्वीर के दूसरे रुख को ही प्रस्तुत किया है। एक रुख पर तो भेड़ चाल की तरह खूब चर्चा हो रही है। समझदार व नासमझ, सभी एक ही सुर में बोल रहे हैं। इसका मतलब ये कत्तई नहीं निकाला जाना चाहिए कि पहले रुख से मेरा कोई सरोकार नहीं है या फिर मैं देशभक्ति, भ्रष्टाचार आदि विषयों पर बाबा व अन्ना से इतर राय रखता हूं। यद्यपि तस्वीर का दूसरा रुख तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की है, पर मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि दिमाग से नहीं बल्कि केवल दिल से हर बात को देखने वालों को ये बातें गले नहीं उतरेंगी। उलटे गुस्सा भी आ सकता है। मैं उन सभी से माफी मांगते हुए उम्मीद करता हूं कि इस लेख को दुबारा तार्किक बुद्धि से पढ़ेंगे। इसके बाद भी लानत देते हैं तो मुझे वह स्वीकार है।