किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है बनाम ये मेरा घर है, मेरी जां, मुफ्त की सराय थोड़ी है
बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुबारा सत्ता में आने के बाद सबका साथ, सबका विकास नारे के साथ सबका विश्वास जोड़ दिया है, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि जिसको विश्वास में लेने की बात कही जा रही है, आज वही तबका मन ही मन भयभीत सा दिखता है। अपने हक-हकूक को लेकर चिंतित है। इसी की प्रतिध्वनि पिछले दिनों लोकसभा में सुनाई दी, जब सपा सांसद आजम खान ने लगभग कातर स्वर में ताजा हालात पर चिंता जाहिर की। तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोहित्रा के भाषण में तो वह और अधिक मुखर नजर आई। उन्होंने राहत इंदौरी के इन दो शेरों को बड़ी शिद्दत के साथ पढ़ कर अपना भाषण समाप्त किया-
जो आज साहिबे मसनद हैं
वो कल नहीं होंगे
किराएदार हैं
जाति मकान थोड़ी है
सभी का खून शामिल है
यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का
हिंदुस्तान थोड़ी है
जिस भाव से राहत इंदौरी में ये शेर कहे, ठीक वैसी ही तल्खी महुआ मोहित्रा के अंदाज में नजर आई। जरा दूसरे शेर पर गौर फरमाइये। इसका अर्थ साफ है कि सभी समुदायों का खून इस मिट्टी में है, भारत केवल किसी एक समुदाय का थोड़े ही है।
यह तो हुआ सिक्के का एक पहलु। मगर पलट कर दूसरा पहलु आया तो लगा कि राहत इंदौरी ने जिस हक की बात कर रहे हैं, दूसरा पक्ष उनकी ही शिद्दत से दूसरे समुदाय पर तंज कसने से बाज नहीं आ रहा।
कोई अशोक प्रीतमानी हैं, जिनके नाम से सोशल मीडिया पर दूसरा पहलु वायरल हो रहा है। यह प्रीतमानी ने ही लिखा है या किसी और के लिखे हुए की कॉपी की है, पता नहीं। यहां उसे हूबहू दिया जा रहा है:-
राहत इंदौरी साहब मेरे कुछ पसंदीदा शायरों में से एक शायर हैं। मैं उनकी तहे दिल से इज्जत करता हूं। पर इज्जतदार बने रहना उनकी जिम्मेदारी थी और है। मैंने राहत इन्दौरी के शेर को सुना है, लेकिन इस शेर को पढऩे का उनका अंदाज इतना तल्ख था कि हैरानी हुई और दुख भी। हुआ यूं कि जब उन्होंने मुल्क को अपनी जागीर बनाने की कोशिश की तब मैंने उनके इस रवैये का प्रतिरोध उनके लहजे में कर दिया था। अब दुर्भाग्य यह है कि उसी संदर्भ को ले कर सांसद महुआ मोइत्रा राहत इंदौरी साहब के हवाले से तकरीर पेश कर रही हैं। ऐसे में पेश है मेरी अपनी प्रतिक्रिया-
उनको उन्ही की भाषा में विनम्र जवाब:-
खफा होते हैं हो जाने दो, घर के मेहमान थोड़ी हैं।
जहां भर से लताड़े जा चुके हैं, इनका मान थोड़ी है।
ये कृष्ण-राम की धरती, सजदा करना ही होगा।
मेरा वतन, ये मेरी मां है, लूट का सामान थोड़ी है।
मैं जानता हूं, घर में बन चुके है सैकड़ों भेदी।
जो सिक्कों में बिक जाए वो मेरा ईमान थोड़ी है।
मेरे पुरखों ने सींचा है इसे लहू के कतरे कतरे से।
बहुत बांटा मगर अब बस, खैरात थोड़ी है।
जो रहजन थे, उन्हें हाकिम बना कर उम्र भर पूजा।
मगर अब हम भी सच्चाई से अनजान थोड़ी हैं।
बहुत लूटा फिरंगी तो कभी बाबर के पूतों ने।
ये मेरा घर है, मेरी जां, मुफ्त की सराय थोड़ी है।
आप मेरे पसंदीदा शायर हैं, होंगे पर मुल्क से बढ़ कर थोड़ी हैं।
समझे राहत इंदौरी।
वंदे मातरम .... जय हिंद।
समझा जा सकता है कि भारत पर अपने हक को लेकर दोनों समुदायों के कुछ लोग किस कदर खींचतान करने पर आमादा हैं। बेशक दूसरा पक्ष राहत इंदौरी की तल्खी का प्रत्युत्तर है, मगर यह तो स्पष्ट है कि दोनों ओर विष भरा हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी भले ही सबका विश्वास जीतने की बात कह रहे हों, मगर धरातल पर इस प्रकार का संदेश नहीं पहुंच पाया है। यही चिंता का विषय है। जब तक जमीन पर सदाशयता नहीं होगी, तब तक मोदी की प्रतिबद्धता के कोई मायने नहीं हैं। उससे भी ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि उनकी ही विचारधारा के लोगों पर उनका असर नहीं दिखाई पड़ रहा। वे लगातार ऐसी वारदातें कर रहे हैं, बयानबाजी कर रहे हैं, मानों उन्हें किसी बात की परवाह ही नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
तेजवानी गिरधर |
जो आज साहिबे मसनद हैं
वो कल नहीं होंगे
किराएदार हैं
जाति मकान थोड़ी है
सभी का खून शामिल है
यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का
हिंदुस्तान थोड़ी है
जिस भाव से राहत इंदौरी में ये शेर कहे, ठीक वैसी ही तल्खी महुआ मोहित्रा के अंदाज में नजर आई। जरा दूसरे शेर पर गौर फरमाइये। इसका अर्थ साफ है कि सभी समुदायों का खून इस मिट्टी में है, भारत केवल किसी एक समुदाय का थोड़े ही है।
यह तो हुआ सिक्के का एक पहलु। मगर पलट कर दूसरा पहलु आया तो लगा कि राहत इंदौरी ने जिस हक की बात कर रहे हैं, दूसरा पक्ष उनकी ही शिद्दत से दूसरे समुदाय पर तंज कसने से बाज नहीं आ रहा।
कोई अशोक प्रीतमानी हैं, जिनके नाम से सोशल मीडिया पर दूसरा पहलु वायरल हो रहा है। यह प्रीतमानी ने ही लिखा है या किसी और के लिखे हुए की कॉपी की है, पता नहीं। यहां उसे हूबहू दिया जा रहा है:-
राहत इंदौरी साहब मेरे कुछ पसंदीदा शायरों में से एक शायर हैं। मैं उनकी तहे दिल से इज्जत करता हूं। पर इज्जतदार बने रहना उनकी जिम्मेदारी थी और है। मैंने राहत इन्दौरी के शेर को सुना है, लेकिन इस शेर को पढऩे का उनका अंदाज इतना तल्ख था कि हैरानी हुई और दुख भी। हुआ यूं कि जब उन्होंने मुल्क को अपनी जागीर बनाने की कोशिश की तब मैंने उनके इस रवैये का प्रतिरोध उनके लहजे में कर दिया था। अब दुर्भाग्य यह है कि उसी संदर्भ को ले कर सांसद महुआ मोइत्रा राहत इंदौरी साहब के हवाले से तकरीर पेश कर रही हैं। ऐसे में पेश है मेरी अपनी प्रतिक्रिया-
उनको उन्ही की भाषा में विनम्र जवाब:-
खफा होते हैं हो जाने दो, घर के मेहमान थोड़ी हैं।
जहां भर से लताड़े जा चुके हैं, इनका मान थोड़ी है।
ये कृष्ण-राम की धरती, सजदा करना ही होगा।
मेरा वतन, ये मेरी मां है, लूट का सामान थोड़ी है।
मैं जानता हूं, घर में बन चुके है सैकड़ों भेदी।
जो सिक्कों में बिक जाए वो मेरा ईमान थोड़ी है।
मेरे पुरखों ने सींचा है इसे लहू के कतरे कतरे से।
बहुत बांटा मगर अब बस, खैरात थोड़ी है।
जो रहजन थे, उन्हें हाकिम बना कर उम्र भर पूजा।
मगर अब हम भी सच्चाई से अनजान थोड़ी हैं।
बहुत लूटा फिरंगी तो कभी बाबर के पूतों ने।
ये मेरा घर है, मेरी जां, मुफ्त की सराय थोड़ी है।
आप मेरे पसंदीदा शायर हैं, होंगे पर मुल्क से बढ़ कर थोड़ी हैं।
समझे राहत इंदौरी।
वंदे मातरम .... जय हिंद।
समझा जा सकता है कि भारत पर अपने हक को लेकर दोनों समुदायों के कुछ लोग किस कदर खींचतान करने पर आमादा हैं। बेशक दूसरा पक्ष राहत इंदौरी की तल्खी का प्रत्युत्तर है, मगर यह तो स्पष्ट है कि दोनों ओर विष भरा हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी भले ही सबका विश्वास जीतने की बात कह रहे हों, मगर धरातल पर इस प्रकार का संदेश नहीं पहुंच पाया है। यही चिंता का विषय है। जब तक जमीन पर सदाशयता नहीं होगी, तब तक मोदी की प्रतिबद्धता के कोई मायने नहीं हैं। उससे भी ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि उनकी ही विचारधारा के लोगों पर उनका असर नहीं दिखाई पड़ रहा। वे लगातार ऐसी वारदातें कर रहे हैं, बयानबाजी कर रहे हैं, मानों उन्हें किसी बात की परवाह ही नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000