कुख्यात आनंदपाल के एनकाउंटर मामले में एक ओर जहां भाजपा का राजपूत वोट बैंक खिसकने का खतरा उत्पन्न हो गया था, वहीं पार्टी में भी बगावत के हालात पैदा हो गए थे, तब जा कर सरकार को मामले की सीबीआई जांच के लिए घुटने टेकने पड़े।
असल में राजपूत आंदोलन जिस मुकाम पर आ कर खड़ा हो गया था, वहां पार्टी के राजपूत विधायकों व मंत्रियों की स्थिति अजीबोगरीब हो गई थी। जिस जाति के नाम पर वे राजनीति कर सत्ता का सुख भोग रहे हैं, अगर वही जनाधार ही खिसकने की नौबत आ गई तो उनके लिए पार्टी में बने रहना कठिन हो गया। वे हालात पर गहरी नजर रखे हुए थे। कैसी भी स्थिति आ सकती थी। इसी बीच वरिष्ठ भाजपा नेता व विधायक नरपत सिंह राजवी मुखर हो गए। ज्ञातव्य है कि वे पूर्व उपराष्ट्रपति व पूर्व मुख्यमंत्री स्व. भैरोंसिंह शेखावत के जंवाई हैं और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से उनके राजनीतिक रिश्ते किसी से छिपे हुए नहीं हैं। उन्होंने प्रदेश नेतृत्व को दरकिनार करके सीधे राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को पत्र लिख कर आनंदपाल मामले में राजपूतों पर पुलिस द्वारा की जा रही मनमानीपूर्ण कार्रवाई में दखल देने की मांग कर दी। उन्होंने कहा कि राजस्थान में राजपूत समाज के साथ पुलिस द्वारा अत्यंत निंदनीय बर्ताव किया जा रहा है। राजपूत समाज में असमंजस और आक्रोश की स्थिति उत्पन्न हो गई है। यह समाज अब तक के सभी चुनावों में 90 प्रतिशत तक पार्टी के साथ खड़ा रहा है, लेकिन दुख की बात है कि उसी भाजपा की सरकार में यही राजपूत समाज अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है। इस पत्र के मायने साफ समझे जा सकते हैं। अगर सरकार सीबीआई जांच के लिए राजी नहीं होती तो अन्य विधायक भी मुखरित हो सकते थे।
शायद ही ऐसी भद पिटी किसी गृहमंत्री की
आनंदपाल मामले में गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया की जितनी भद पिटी, उतनी शायद ही किसी की पिटी हो। पहले जब आनंदपाल राजनीतिक संरक्षण की वजह से पकड़ से बाहर था तो उनसे जवाब देते नहीं बनता था और एनकाउंटर के बाद पुलिस कार्यवाही को सही बताते हुए सीबीआई जांच की मांग किसी भी सूरत में नहीं मानने पर अड़े तो मुख्यमंत्री के कहने पर उसी बैठक में सरकार की ओर से बैठना पड़ा, जिसमें सीबीआई जांच का समझौता करना पड़ा। इससे बड़ी कोई विडंबना हो नहीं सकती। होना तो यह चाहिए कि इतनी किरकिरी के बाद उन्हें पद त्याग देना चाहिए। उनकी जिद के कारण ही आंदोलन इतना लंबा खिंचा, जिसमें हिंसा और जन-धन की हानि हुई। प्रदेश के कुछ हिस्सों में तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई। एनकाउंटर को सही ठहराने के लिए पुलिस के तीन आला अधिकारियों को प्रेस वार्ता करनी पड़ी। खुद भी यही बोले कि अपनी पुलिस का मनोबल नहीं गिरने दे सकता। चाहो हाईकोर्ट से जांच के आदेश करवा दो। और फिर यकायक यू टर्न ले लिया। सवाल ये उठता है कि अगर मांग माननी ही थी तो क्यों आनंदपाल के शव की दुर्गति करवाई? क्यों प्रदेश को हिंसक आंदोलन के मुंह में धकेला?
क्या पुलिस ने खो दिया है विश्वास?
क्या अब समय आ गया है कि पुलिसकर्मियों को अपने हथियार मालखाने में जमा करा देने चाहिए, क्योंकि अब पुलिस को दिए गए हथियारों के इस्तेमाल पर जनता को भरोसा नहीं रहा है। देशभर के न्यायालय, राजनेता, सामाजिक संगठना व मीडिया अब पुलिस के हथियारों के प्रयोग पर इतना गहरा संदेह करने लग गए हैं कि पुलिसकर्मी चाहे जितनी गोलियां खा कर घायल हो जाये, तब भी पुलिस के कामकाज पर भरोसा नहीं है। बहुत सोचनीय है कि सोसायटी पुलिस की बजाय खूंखार अपराधी के साथ खड़ी हो जाती है। वस्तुत: कुख्यात अपराधियों के साथ हुए तथाकथित एनकाउंटर की घटनाओं में सुप्रीम कोर्ट व सीबीआई की दखलंदाजी के बाद एनकाउंटर की थ्योरी गलत साबित होने लगी है व कई पुलिसकर्मी जेलों में बंद हुए हैं। क्या ऐसी स्थिति में पुलिस को जनता का विश्वास फिर से हासिल करने के बाद ही हथियारों का इस्तेमाल करना चाहिए? एक तरह से पुलिस की सच्चाई व अस्मिता पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। इस पर यदि समय रहते गंभीर चिंतन कर रास्ता नहीं निकाला गया तो समाज को बहुत बुरे अंजाम देखने होंगे।
तेजवानी गिरधर
7742067000
असल में राजपूत आंदोलन जिस मुकाम पर आ कर खड़ा हो गया था, वहां पार्टी के राजपूत विधायकों व मंत्रियों की स्थिति अजीबोगरीब हो गई थी। जिस जाति के नाम पर वे राजनीति कर सत्ता का सुख भोग रहे हैं, अगर वही जनाधार ही खिसकने की नौबत आ गई तो उनके लिए पार्टी में बने रहना कठिन हो गया। वे हालात पर गहरी नजर रखे हुए थे। कैसी भी स्थिति आ सकती थी। इसी बीच वरिष्ठ भाजपा नेता व विधायक नरपत सिंह राजवी मुखर हो गए। ज्ञातव्य है कि वे पूर्व उपराष्ट्रपति व पूर्व मुख्यमंत्री स्व. भैरोंसिंह शेखावत के जंवाई हैं और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से उनके राजनीतिक रिश्ते किसी से छिपे हुए नहीं हैं। उन्होंने प्रदेश नेतृत्व को दरकिनार करके सीधे राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को पत्र लिख कर आनंदपाल मामले में राजपूतों पर पुलिस द्वारा की जा रही मनमानीपूर्ण कार्रवाई में दखल देने की मांग कर दी। उन्होंने कहा कि राजस्थान में राजपूत समाज के साथ पुलिस द्वारा अत्यंत निंदनीय बर्ताव किया जा रहा है। राजपूत समाज में असमंजस और आक्रोश की स्थिति उत्पन्न हो गई है। यह समाज अब तक के सभी चुनावों में 90 प्रतिशत तक पार्टी के साथ खड़ा रहा है, लेकिन दुख की बात है कि उसी भाजपा की सरकार में यही राजपूत समाज अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है। इस पत्र के मायने साफ समझे जा सकते हैं। अगर सरकार सीबीआई जांच के लिए राजी नहीं होती तो अन्य विधायक भी मुखरित हो सकते थे।
शायद ही ऐसी भद पिटी किसी गृहमंत्री की
आनंदपाल मामले में गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया की जितनी भद पिटी, उतनी शायद ही किसी की पिटी हो। पहले जब आनंदपाल राजनीतिक संरक्षण की वजह से पकड़ से बाहर था तो उनसे जवाब देते नहीं बनता था और एनकाउंटर के बाद पुलिस कार्यवाही को सही बताते हुए सीबीआई जांच की मांग किसी भी सूरत में नहीं मानने पर अड़े तो मुख्यमंत्री के कहने पर उसी बैठक में सरकार की ओर से बैठना पड़ा, जिसमें सीबीआई जांच का समझौता करना पड़ा। इससे बड़ी कोई विडंबना हो नहीं सकती। होना तो यह चाहिए कि इतनी किरकिरी के बाद उन्हें पद त्याग देना चाहिए। उनकी जिद के कारण ही आंदोलन इतना लंबा खिंचा, जिसमें हिंसा और जन-धन की हानि हुई। प्रदेश के कुछ हिस्सों में तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई। एनकाउंटर को सही ठहराने के लिए पुलिस के तीन आला अधिकारियों को प्रेस वार्ता करनी पड़ी। खुद भी यही बोले कि अपनी पुलिस का मनोबल नहीं गिरने दे सकता। चाहो हाईकोर्ट से जांच के आदेश करवा दो। और फिर यकायक यू टर्न ले लिया। सवाल ये उठता है कि अगर मांग माननी ही थी तो क्यों आनंदपाल के शव की दुर्गति करवाई? क्यों प्रदेश को हिंसक आंदोलन के मुंह में धकेला?
क्या पुलिस ने खो दिया है विश्वास?
क्या अब समय आ गया है कि पुलिसकर्मियों को अपने हथियार मालखाने में जमा करा देने चाहिए, क्योंकि अब पुलिस को दिए गए हथियारों के इस्तेमाल पर जनता को भरोसा नहीं रहा है। देशभर के न्यायालय, राजनेता, सामाजिक संगठना व मीडिया अब पुलिस के हथियारों के प्रयोग पर इतना गहरा संदेह करने लग गए हैं कि पुलिसकर्मी चाहे जितनी गोलियां खा कर घायल हो जाये, तब भी पुलिस के कामकाज पर भरोसा नहीं है। बहुत सोचनीय है कि सोसायटी पुलिस की बजाय खूंखार अपराधी के साथ खड़ी हो जाती है। वस्तुत: कुख्यात अपराधियों के साथ हुए तथाकथित एनकाउंटर की घटनाओं में सुप्रीम कोर्ट व सीबीआई की दखलंदाजी के बाद एनकाउंटर की थ्योरी गलत साबित होने लगी है व कई पुलिसकर्मी जेलों में बंद हुए हैं। क्या ऐसी स्थिति में पुलिस को जनता का विश्वास फिर से हासिल करने के बाद ही हथियारों का इस्तेमाल करना चाहिए? एक तरह से पुलिस की सच्चाई व अस्मिता पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। इस पर यदि समय रहते गंभीर चिंतन कर रास्ता नहीं निकाला गया तो समाज को बहुत बुरे अंजाम देखने होंगे।
तेजवानी गिरधर
7742067000