तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, जुलाई 20, 2013

अन्ना और मीडिया में से कौन सच्चा, कौन झूठा?

जन लोकपाल के लिए आंदोलन छेडऩे वाले समाजसेवी अन्ना हजारे एक बार फिर अपने बयान को लेकर विवाद में आ गए हैं। पहले उनके हवाले से छपा कि वे नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक नहीं मानते, दूसरे दिन जैसे ही इस खबर ने मीडिया में सुर्खियां पाईं तो वे पलटी खा गए और बोले कि उन्होंने कभी सांप्रदायिकता पर मोदी को क्लीन चिट नहीं दी। उन्होंने कहा कि मीडिया ने उनके बयान को गलत रूप में छापा।
ज्ञातव्य है कि मध्यप्रदेश में जनतंत्र यात्रा के आखिरी दिन गत बुधवार को इंदौर पहुंचे अन्ना ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर सांप्रदायिक विचारधारा के नेता होने के सियासी आरोपों पर कहा कि मोदी के सांप्रदायिक नेता होने का अब तक कोई सबूत मेरे सामने नहीं आया है। बाद में बयान बदल कर कहा कि मैं कैसे कह सकता हूं कि मोदी सांप्रदायिक नहीं हैं? वे सांप्रदायिक हैं। उन्होंने कभी गोधरा कांड की निंदा नहीं की।
असल में विवाद हुआ ही इस कारण कि जब अन्ना से पूछा गया कि क्या आप मोदी को सांप्रदायिक मानते हैं, तो उन्होंने सीधा जवाब देने की बजाय चालाकी से कह दिया कि मोदी के सांप्रदायिक नेता होने का अब तक कोई सबूत मेरे सामने नहीं आया है। यही चालाकी उलटी पड़ गई। उनका यह कहना कि सबूत नहीं है, अर्थात बिना सबूत के वे मोदी को सांप्रदायिक कैसे कह दें। उन्होंने सीधे-सीधे मोदी को सांप्रदायिक करार देने अथवा न देने की बजाय यह जवाब दिया। कदाचित वे सीधे-सीधे यह कह देते कि वे मोदी को सांप्रदायिक मानते हैं, तो प्रतिप्रश्न उठ सकता था कि आपके पास क्या सबूत है, लिहाजा घुमा कर जवाब दिया। उसी का परिणाम निकला कि मीडिया ने उसे इस रूप में लिया कि अन्ना मोदी को सांप्रदायिक नहीं मानते। स्पष्ट है कि कोई भी अतिरिक्त चतुराई बरतते हुए मीडिया के सवाल का जवाब घुमा कर देगा, तो फिर मीडिया उसका अपने हिसाब से ही अर्थ निकालेगा। इसे मीडिया की त्रुटि माना जा सकता है, मगर यदि जवाब हां या ना में होता तो मीडिया को उसका इंटरपिटेशन करने का मौका ही नहीं मिलता। हालांकि मीडिया को भी पूरी तरह से निर्दोष नहीं माना जा सकता। कई बार वह भी अपनी ओर से घुमा-फिरा कर सामने वाले के मुंह में जबरन शब्द ठूंसता नजर आता है, ऐसे में शब्दों का कमतर जानकार उलझ जाता है। इसका परिणाम ये निकलता है कि कई बार राजनेताओं को यह कह पल्लू झाडऩे का मौका मिल जाता है कि उन्होंने ऐसा तो नहीं कहा था, मीडिया ने उसका गलत अर्थ निकाला है।
वैसे अन्ना के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वे कई बार अस्पष्ट जवाब देते हैं, नतीजतन उसके गलत अर्थ निकलते ही हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि हिंदी भाषा की जानकारी कुछ कम होने के कारण वे कहना क्या चाहते हैं और कह कुछ और जाते हैं। कई बार जानबूझ कर मीडिया को घुमाते हैं। उनके प्रमुख सहयोगी रहे अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी आम आदमी पार्टी को समर्थन देने अथवा न देने के मामले में भी वे कई बार पलटी खा चुके हैं। कभी कहते हैं कि उनके अच्छे प्रत्याशियों को समर्थन देंगे तो कभी कहते हैं समर्थन देने का सवाल ही नहीं उठता। इंदौर में भी उन्होंने ये कहा कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी एक सियासी दल है। लिहाजा मैं इस पार्टी का भी समर्थन नहीं कर सकता। इसके पीछे तर्क ये दिया कि भारतीय संविधान उम्मीदवारों को समूह में चुनाव लडऩे की इजाजत नहीं देता। जनता को संविधान की मूल भावना के मुताबिक निर्वाचन की पार्टी आधारित व्यवस्था को खत्म करके खुद अपने उम्मीदवार खड़े करना चाहिए। केजरीवाल के बारे उनसे अनगिनत बार सवाल किए जा चुके हैं, मगर बेहद रोचक बात ये है कि मीडिया और पूरा देश आज तक नहीं समझ पाया है कि वे क्या चाहते हैं और क्या करने वाले हैं? अब इसे भले ही समझने वालों की नासमझी कहा जाए, मगर यह साफ है कि अन्ना के जवाबों में कुछ न कुछ गोलमाल है। इसी कारण कई बार तो यह आभास होने लगता है कि देश जितना उन्हें समझदार समझता है, उतने वे हैं नहीं। मीडिया भी मजे लेता प्रतीत होता है। वह उन्हें राजनीतिक व सामाजिक विषयों का विशेषज्ञ मान कर ऐसे-ऐसे सवाल करता है, जिसके बारे में न तो उनको जानकारी है और न ही समझ। और इसी कारण अर्थ के अनर्थ होते हैं। बीच में तो जब उनकी लोकप्रियता का ग्राफ आसमान की ऊंचाइयां छू रहा था, तब तो मीडिया वाले देश की हर छोटी-मोटी समस्या के जवाब मांगने पहुंच जाते थे। ऐसे में कई बार ऊटपटांग जवाब सामने आते थे। और फिर पूरा मीडिया उनके पोस्टमार्टम में जुट जाता था। विशेष रूप से इलैक्ट्रॉनिक मीडिया, जिसे हर वक्त चटपटे मसाले की जरूरत होती है। वह चटपटा इस कारण भी हो जाता था कि शब्दों के सामान्य जानकार के बयानों के बाल की खाल शब्दों के खिलाड़ी निकालते थे। ताजा विवाद भी शब्दों का ही हेरफेर है।
लब्बोलुआब, अन्ना एक ऐसे आदर्शवादी हैं, जिनकी बातें लगती तो बड़ी सुहावनी हैं, मगर न तो वैसी परिस्थितियां हैं और न ही व्यवस्था। और बात रही व्यवस्था बदलने की तो यह महज कपड़े बदलने जितना आसान भी नहीं है। इसी कारण अन्ना के आदर्शवाद ने कई बार मुंह की खाई है। जनलोकपाल के लिए हुए बड़े आंदोलन में तो उनकी अक्ल ही ठिकाने पर आ गई। एक ओर वे सारे राजनीतिज्ञों को पानी-पानी पी कर कोसते रहे, पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट बताते रहे, मगर बाद में समझ में आया कि यदि उन्हें अपनी पसंद का लोकपाल बिल पास करवाना है तो लोकतंत्र में एक ही रास्ता है कि राजनीतिकों का सहयोग लिया जाए। जब ये कहा जा रहा था कि कानून तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए जनप्रतिनिधि ही बनाएंगे, खुद को जनता का असली प्रतिनिधि बताने वाले महज पांच लोग नहीं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता था, मगर बाद में उन्हें समझ में आ गया कि अनशन और आंदोलन करके माहौल और दबाव तो बनाया जा सकता है, वह उचित भी है, मगर कानून तो वे ही बनाने का अधिकार रखते हैं, जिन्हें वे बड़े ही नफरत के भाव से देखते हैं। इस कारण वे उन्हीं राजनीतिज्ञों के देवरे ढोक रहे थे, जिन्हें वे सिरे से खारिज कर चुके थे। आपको याद होगा कि अपने-आपको पाक साफ साबित करने के लिए उन्हें समर्थन देने को आए राजनेताओं को उनके समर्थकों ने धक्के देकर बाहर निकाल दिया था, मगर बाद में हालत ये हो गई है कि समर्थन हासिल करने के लिए राजनेताओं से अपाइंटमेंट लेकर उनको समझा रहे थे कि उनका लोकपाल बिल कैसे बेहतर है? पहले जनता जनार्दन को संसद से भी ऊपर बता रहे थे, बाद में समझ में आ गया कि कानून जनता की भीड़ नहीं, बल्कि संसद में ही बनाया जाएगा। यहां भी शब्दों का ही खेल था। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सत्ता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। अन्ना ऐसी ही जनता के अनिर्वाचित प्रतिनिधि हैं, जिनका निर्वाचित प्रतिनिधियों से टकराव होता ही रहेगा।
-तेजवानी गिरधर
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