तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, फ़रवरी 14, 2019

क्या संघ तिवाड़ी को कांग्रेस में जाने से रोकेगा?

राजनीतिक गलियारों में एक सवाल गूंज रहा है कि क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारत वाहिनी पार्टी के अध्यक्ष घनश्याम तिवाड़ी को कांग्रेस में जाने से रोकेगा? यह सवाल इस कारण उठा है कि प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद तिवाड़ी तीन बार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मुलाकात कर चुके हैं  और कयास ये लगाए जा रहे हैं कि वे कांग्रेस में जा सकते हैं।
ज्ञातव्य है कि तिवाड़ी ने विधानसभा चुनावों से पहले भारत वाहिनी पार्टी का गठन किया था। इससे पहले वे भाजपा में थे। पार्टी ने विधानसभा चुनावों में 62 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे, जिसमें से एक भी प्रत्याशी जीतने में सफल नहीं हुआ। यहां तक कि खुद घनश्याम तिवाड़ी भी अपनी सांगानेर सीट से बुरी तरह से हार कर अपनी जमानत जब्त करा बैठे थे। ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उन्हें कोई तो रुख अख्तियार करना ही होगा, अन्यथा वे व उनकी पार्टी राजनीति में अप्रासंगिक हो जाएगी। इसी सिलसिले में उन्होंने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव लडऩे की इच्छुक नहीं है, क्योंकि प्रदेश में दो ही दल भाजपा और कांग्रेस की स्वीकारोक्ति है और उनकी पार्टी इन्हीं में से किसी एक में अपना भविष्य देख रही है। किस पार्टी में शामिल होना है, इसको लेकर पार्टी के प्रमुख नेताओं की बैठक के बाद मार्च के पहले ही हफ्ते में एलान कर देंगे कि वे किसके साथ जा रहे हैं।
चूंकि उन्होंने भाजपा छोड़ कर नई पार्टी बनाई थी, इस कारण यह सवाल प्रासंगिक हो गया कि उनका प्रयोग फेल होने के बाद क्या वे भाजपा में लौट सकते हैं, इस पर वे कहते हैं कि उन्हें बीजेपी से निकाला नहीं गया था, बल्कि उन्होंने खुद बीजेपी छोड़ी थी। इसके अतिरिक्त उनकी दो ही मांग थी, एक तो सवर्ण आरक्षण और दूसरा वसुंधरा सरकार को हटाना। दोनों ही मांगें पूरी हो चुकी हैं, ऐसे में अब भारतीय जनता पार्टी क्या सोचती है, प्रस्ताव भेजती है तो उस पर विचार किया जाएगा।
उनके इस बयान से साफ है कि भले ही वे कांग्रेस में शामिल होने के मन से गहलोत से मुलाकातें कर रहे हों, मगर भाजपा में जाने का रास्ता भी बंद नहीं करना चाहते। वैचारिक रूप से भाजपा उनके लिए अधिक अनुकूल है। वे संघ पृष्ठभूमि से हैं और उन्होंने जब नई पार्टी बनाई, तब भी अधिसंख्य समर्थक या तो संघ से जुड़े हुए थे या फिर वसुंधरा के विरोधी। अब जब कि वसुंधरा को राष्ट्रीय राजनीति में ले कर राजस्थान में उनकी भूमिका को सीमित कर दिया गया है, संभावना इस बात की अधिक है कि संघ उन पर भाजपा में लौटने का दबाव बनाए। बस तिवाड़ी को देखना ये है कि उनको कितने सम्मान के साथ वापस लिया जाता है।
जहां तक उनके कांग्रेस में जाने का सवाल है तो कांग्रेस के लिए यह एक उपलब्धि होगी कि संघ विचारधारा से जुड़ी पार्टी उसके साथ आ रही है, मगर सवाल ये है कि ऐसा होने पर क्या पूरी की पूरी पार्टी कांग्रेस में आएगी? तिवाड़ी को भले ही राजनीतिक मजबूरी के कारण कांग्रेस में जाना ठीक लग रहा हो, मगर उनके संघ विचारधारा के कार्यकर्ता भी उनके साथ कांग्रेस में आएंगे, इसमें तनिक संशय हो सकता है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि विधानसभा चुनाव और उसके बाद जयपुर महापौर का उपचुनाव हार चुकी भाजपा में भारत वाहिनी पार्टी से जुड़े चार पदाधिकारियों की घर वापसी हो गई। ये चारों प्रत्याशी इससे पहले भाजपा से ही जुड़े थे।
बहरहाल, संघ की खासियत ये रही है कि वह मौलिक रूप से संघ से जुड़े राजनीतिक कार्यकर्ता के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखती है, मगर यदि उसे जच जाए कि उसे किल करना है तो उसे भी पूरी निष्ठुरता के साथ अंजाम देता है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है लाल कृष्ण आडवाणी। देखते हैं कि तिवाड़ी के कांग्रेस में जाने के कयासों के बीच संघ क्या खेल खेलता है।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, फ़रवरी 05, 2019

राजनीति के क्षितिज पर प्रियंका की एंट्री से सनसनी

-तेजवानी गिरधर-
जब से प्रियंका गांधी सक्रिय राजनीति में कांग्रेस महासचिव की हैसियत से आई हैं, राजनीतिक हलकों में सनसनी सी फैल गई है। विशेष रूप से सोशल मीडिया पर जिस तरह से प्रियंका को निशाने पर लेकर बहसबाजी की जा रही है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस ने भले ही नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए यह ब्रह्मास्त्र चला हो, मगर असल में उनको लेकर भाजपा में भारी दहशत है।
वस्तुत: कांग्रेस कार्यकर्ता लंबे अरसे से प्रियंका को राजनीति में लाने की मांग करते रहे थे, मगर कांग्रेस हाईकमान इस हथियार को रिजर्व में रखे हुए था और उसको उचित अवसर की तलाश थी। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ही यह तथ्य सामने आया कि तीन राज्यों में भाजपा की हार के बाद मोदी का तिलिस्म फीका पडऩे लगा है, आगामी लोकसभा चुनाव में उसे झटका देने के लिए प्रियंका को मैदान में उतार दिया गया है। प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने से भाजपा में खौफ की एक मात्र प्रमुख वजह ये है कि उनमें देश की लोकप्रिय नेता रहीं इंदिरा गांधी का अक्स नजर आता है। जो मीडिया परिवारवाद व व्यक्तिवाद की आलोचना करता है, वही स्वीकार करता है कि प्रियंका की एंट्री धमाकेदार है। वजह है उनका चुंबकीय व्यक्तित्व।  उनका ताजगी से लबरेज रंग-रूप, जनता से संवाद करने का प्रभावोत्पादक तरीका, गांधी-नेहरू परिवार की विरासत और थके-उबाऊ-बदनाम चेहरों से मुक्त होने को तैयार राजनीतिक पृष्ठभूमि। वास्तविकता क्या है, ये तो कांग्रेस हाईकमान के चंद रणनीतिकार जानते हैं, मगर मीडिया की धारणा है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में सरकारों की कमान किसे सौंपी जाए, इसकी व्यूहरचना में प्रियंका की अहम भूमिका रही है।
बहरहाल, लोकसभा चुनाव के नजदीक आते ही जब प्रचार अभियान की तेजी के साथ पूरे राजनीतिक परिदृश्य में जो नई उत्तेजना और नये नजारे सामने आयेंगे, उनमें प्रियंका गांधी की उपस्थिति स्पष्ट दस्तक दे रही होगी। प्रियंका की मौजूदगी न केवल मोदी को अपसारित करेगी, अपितु मायावती और अखिलेश की तरह के दलितों और पिछड़ों के मतों पर एकाधिकार रखने वाले दावेदारों को भी पीछे धकेलेगी। उनकी बोदी पड़ चुकी सूरतों से दलितों-पिछड़ों का चिपके रहना कोई ईश्वरीय अटल सत्य नहीं है, जिसे काफी हद तक 2014 में भी देखा जा चुका है।
इस स्थिति का शब्द चित्र एक लेखक ने कुछ इस तरह चित्रित किया है:- किसी भी जुनून या जिद में यदि मायावती-अखिलेश राहुल के साथ प्रियंका के उतरने से पैदा होने वाली नई परिस्थिति की अवहेलना करते हैं तो हमारे अनुसार ठोस चुनावी परिस्थिति का आकलन करने में वे एक बड़ी भारी भूल करेंगे।
रहा सवाल भाजपा के पलटवार का तो वह कितना अभद्र है, इसका आगाज चंद भाजपा नेताओं की ओर से चाकलेटी चेहरे की उपमा देने से हो गया है। हमले का घटिया स्तर किस स्तर तक जा रहा है, वह मोदी भक्तों की ओर से प्रियंका की तुलना रावण की बहन सूर्पनखा और हिरणकश्यप की बहन होलिका से करने के साथ ही स्पष्ट हो गया है। देश के इतिहास में ऐसा पहली हो रहा हो, ऐसा नहीं है। एक विचारधारा महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर सोनिया गांधी व राहुल गांधी तक का चरित्र हनन करने की आदी रही है। यह भी एक निरी सच्चाई है कि जितने निजी हमले इस परिवार पर हुए हैं, उतना ही यह भारतीय जनमानस  में गहरे पैठता गया है।
कांग्रेस विचारधारा के एक ब्लॉगर ने दुष्प्रचार की भयावहता को महसूस करते हुए लिखा है कि भाजपा आईटी सेल से जुड़े हुए सैकड़ों लोगों ने प्रियंका गांधी के चरित्र हनन पर काम करना शुरू कर दिया है। कुछ तस्वीरों  में प्रियंका गांधी को यूपी के दौरे के दौरान ईंट पत्थरों पर चलते हुए दिखाया गया है, जिसके नीचे इतने घटिया अल्फाज लिखे गए हैं, जो कि शायद इस ब्लॉग में लिखने योग्य नहीं हैं। वे कट्टरवादी व उन्मादी युवा पीढ़ी से सवाल करते हैं कि क्या हमारे देश में राजनीति का स्तर अब इतना रसातल तक जाएगा, जहां हम सत्ता की हवस में एक सभ्रांत महिला का चरित्र हनन करने से भी नहीं चूकेंगे। किसी को भी नहीं भूलना चाहिए की प्रियंका गांधी स्व. प्रधानमंत्री भारत रत्न राजीव गांधी की बेटी हैं। उस पिता की, जिसे देश की एकता और अखंडता की रक्षा करने की वजह से बम से उड़ा दिया गया था। क्या हम एक शहीद की बेटी के साथ यह शर्मनाक व्यवहार करेंगे?
ऐसा नहीं कि कांग्रेस विचारधारा के ब्लॉगर ही चिंतित हैं, मोदी समर्थक भी प्रियंका के हाईलाइट होने से परेशान हैं। सोशल मीडिया पर चल रही एक पोस्ट की बानगी देखिए:-
प्रियंका को मैदान में उतारना निश्चित रूप से एक मास्टर स्ट्रोक है और बीजेपी इस जाल में न फंसे, इसलिए भाजपा के थिंकटैंक को इन बातों पर जरूर गौर करना चाहिए-
1. अपने अति उत्साही कार्यकर्ताओं को समझाइश दी देनी चाहिए कि प्रियंका पर अभद्र चुटकुले न बनाएं और न सोशल मीडिया पर फैलायें। प्रियंका के व्यक्तिगत मामलों पर टिप्पणी करके किया गया हमला एक महिला का अपमान प्रचारित होगा, जो बूमरैंग साबित होगा।
2. राहुल और अन्य कांग्रेसियों को उनके पुराने कारनामों पर करारा जवाब दीजिये क्योंकि कांग्रेस की कोशिश यही है कि बीजेपी की तोप का मुंह राहुल, सोनिया और कांग्रेस के 10  साल के कुशासन से हट के प्रियंका की तरफ हो जाये।
3. भाषाई मर्यादा का पालन करें, याद कीजिये 2014 जब हर विपक्षी मोदी विरोध के चक्कर में सारी सामाजिक मर्यादाएं भूल गए थे, जिसके परिणाम स्वरूप वे बहुमत से विजयी हुए।
4. भाजपा कार्यकर्ता और नेता भाषा की मर्यादा रखें और प्रियंका को पूरी तरह नजरअंदाज करने की नीति पर चलें। हां, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का तड़का बीच-बीच मे जरूर लगाते रहें क्योंकि ये दो मुद्दों पर ही विपक्ष डिफेंसिव हो जाता है। ये एक स्वयंसेवक के विचार हैं, बाकी तो फिर चाणक्य और चंद्रगुप्त सब हैं ही भाजपा में।
लगे हाथ बात राहुल गांधी की करें तो तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि जिस मोदी ब्रांड को भगवान के रूप में अवतरित किया गया, अब उसी को राहुल गांधी नामक उस नौजवान ने ललकारना शुरू कर दिया है, जिसे बाकायदा प्रायोजित तरीके से नौसीखिया करार दे दिया गया था। राहुल गांधी की आक्रामक शैली मोदी के चेहरे पर झलकते दंभ, चाल में इठलाहट और जुबान की लफ्फाजी को दिक्कत पैदा करने लगी है। बेशक मोदी ब्रांड अभी जिंदा है और अब भी वे भाजपा के लिए आशा की आखिरी किरण हैं, मगर सत्ता के नग्न दुरुपयोग व भ्रष्टाचार के प्रति नॉन टोलरेंस के तिरोहित होते वादे से उनका राजनीतिक ग्राफ गिरने लगा है। ऐसे में प्रियंका का अवतार तस्वीर में नए रंग भरेगा, इसकी पूरी संभावना नजर आती है।