तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, सितंबर 27, 2024

बहुत रहस्य छुपे हुए हैं हमारी छाया में

हम जानते हैं कि प्रकाष के सामने आने वाली वस्तु के पीछे बनने वाली आकृति को छाया कहा जाता है। हम यही समझते हैं कि छाया का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं। उसका भला क्या महत्व हो सकता है? बात ठीक भी लगती है। मगर हमारी संस्कृति में इस पर भी बहुत काम हुआ है। आइये, विस्तार से समझने की कोषिष करते हैं इस विशय के बारे मेंः-

हमारे शरीर की छाया के बारे में बात करने से पहले हम चर्चा कर लेते हैं छाया के कारण से होने वाले सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण की। हम सब जानते हैं कि ये छाया की ही परिणाम स्वरूप घटित होते हैं। इस पर बड़े वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति में बहुत पहले ही खोज हो चुकी है कि इनका मानव सहित चराचर जगत पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि ज्योतिष विज्ञानी बताते हैं कि सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण के दौरान कौन कौन से काम नहीं करने चाहिए।

आपको यह भी जानकारी होगी कि किसी व्यक्ति में असामान्य लक्षण पाए जाने पर कहा जाता है कि उस पर किसी की छाया पड गई है। अमूमन यह बात किसी भूत-प्रेत आदि के संदर्भ में कही जाती है। परियों की छाया पड जाने के बारे में भी आपने सुना होगा। किसी व्यक्ति के विचारों या आचरण पर किसी व्यक्ति का प्रभाव दिखाई देने पर भी कहा जाता है कि उस पर उस अमुक व्यक्ति की छाया पड गई है। जिन लोगों ने तंत्र विद्या के बारे में पढ़ा अथवा सुना है, उनकी जानकारी में होगा कि तांत्रिकों ने भी लक्षित परिणाम पाने के लिए छाया का प्रयोग किया है।

खैर, अब चर्चा करते हैं हमारे शरीर की छाया की। इस बारे में मुझे जो जानकारी मिली है, वह आपसे साझा करना चाहता हूं। छाया के महत्व के बारे में शिव स्वरोदय में विस्तार से चर्चा की गई है। शिव स्वरोदय भारतीय प्राकृतिक विज्ञान है। इसमें भगवान शिव प्रकृति के रहस्यों के बारे में माता पार्वती को जानकारी देते हैं।

शिव स्वरोदय में बताया गया है कि एकान्त निर्जन स्थान में जाकर और सूर्य की ओर पीठ करके खड़ा हो जाएं या बैठ जाएं। फिर अपनी छाया के कंठ भाग को देखे और उस पर मन को थोड़ी देर तक केन्द्रित करें। इसके बाद आकाश की ओर देखते हुए ह्रीं परब्रह्मणे नमः मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए अथवा तब तक जप करना चाहिए, जब तक आकाश में भगवान शिव की आकृति न दिखने लगे। छह मास तक इस प्रकार अपनी छाया की उपासना करने पर साधक को शुद्ध स्फटिक की भांति आलोक युक्त भगवान शिव की आकृति का दर्शन होता है। यदि वह रूप (भगवान शिव की आकृति) कृष्ण वर्ण का दिखाई पड़े, तो साधक को समझना चाहिए कि आने वाले छह माह में उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। यदि वह आकृति पीले रंग की दिखाई पड़े, तो साधक को समझ लेना चाहिए कि वह निकट भविष्य में बीमार होने वाला है। लाल रंग की आकृति दिखने पर भयग्रस्तता, नीले रंग की दिखने पर उसे हानि, दुख तथा अभावग्रस्त होने का सामना करना पड़ता है। यदि आकृति बहुरंगी दिखाई पड़े, तो साधक पूर्णरूपेण सिद्ध हो जाता है।

यदि चरण, टांग, पेट और बाहें न दिखाई दें, तो साधक को समझना चाहिए कि निकट भविष्य में उसकी मृत्यु निश्चित है। यदि छाया में बायीं भुजा न दिखे, तो पत्नी और दाहिनी भुजा न दिखे, तो भाई या किसी घनिष्ट मित्र अथवा समबन्धी एवं स्वयं की मृत्यु निकट भविष्य में निश्चित है। यदि छाया का सिर न दिखाई पड़े, तो एक माह में, जंघा और कंधा न दिखाई पड़ें तो आठ दिन में और छाया न दिखाई पड़े, तो तुरन्त मृत्यु निश्चित है। यदि छाया की उंगलियां न दिखाई पड़ें, तो तुरन्त मृत्यु समझना चाहिए। कान, सिर, चेहरा, हाथ, पीठ या छाती का भाग न दिखाई पड़े, तो भी समझना चाहिए कि मृत्यु एकदम सन्निकट है। लेकिन यदि छाया का सिर न दिखे और दिग्भ्रम हो, तो उस व्यक्ति का जीवन केवल छरू माह समझना चाहिए।

शिव स्वरोदय में जिस प्रकार लिखा गया है, उससे यह तो समझ में आता ही है कि हमारे ऋषियों ने छाया का गहन अध्ययन किया है और उसका अपना विशेष महत्व है।


क्या मृतात्मा तक भोजन पहुंचता है?

हिंदू धर्म में मान्यता है कि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर पुनर्जन्म होता है। अर्थात एक शरीर त्यागने के बाद आत्मा दूसरा शरीर ग्रहण करती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब हमारे किसी पूर्वज की आत्मा मत्योपरांत कहीं और, किसी और शरीर में होती है तो श्राद्ध के दौरान हम उन्हें पंडित के माध्यम से जो भोजन अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंच सकता है? 

आइये, इस विशय पर विस्तार से चर्चा करेंः-

यह सुस्पश्ट है कि मृतात्मा के स्वयं आ कर भोजन ग्रहण करने का तो सवाल ही नहीं उठता। बावजूद इसके हम जब श्राद्ध करते हैं तो पंडित को उतना ही सम्मान देते हैं, जितना पूर्वज को। वस्तुतः हम पंडित में हमारे पूर्वज की उपस्थिति मान कर ही व्यवहार करते हैं। भोजन अर्पित करने के विषय से हट कर बात करें तो भी इस सवाल का क्या उत्तर है कि उन्हें हम जो याद करते हैं अथवा श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंचती होगी?

इससे जुड़ी एक बात और। क्या किसी ने अनुभव किया है कि पूर्व जन्म में वह क्या था, कहां था? वस्तुतरू प्रकृति की व्यवस्था ही ऐसी है कि वह पूर्व जन्म की सारी स्मृतियों को लॉक कर देती है। वह उचित भी है। अन्यथा सारा गड़बड़ हो जाएगा। स्मृति समाप्त हो जाने का स्पष्ट मतलब है कि हमारा पूर्व जन्म से कोई नाता नहीं रहता। तब सवाल ये उठता है कि क्या हमें भी हमारे पूर्वजन्म के परिजन की ओर से किए जा रहे श्राद्ध कर्म का अनुभव होता है? क्या किसी ने अनुभव किया है कि श्राद्ध पक्ष के दौरान किसी तिथी पर पूर्व जन्म के परिजन हमें भोजन करवा रहे हैं? क्या कभी हमने अनुभव किया है कि बिन भोजन किए ही हमारा पेट भर गया हो? यदि हमारा कोई श्राद्ध रहा है तो ऐसा होना चाहिए, मगर होता नहीं है। 

वाकई गुत्थी बहुत उलझी हुई है। अब चूंकि शास्त्र के अनुसार श्राद्ध पक्ष माना जाता है, श्राद्ध कर्म किया जाता है, तो जरूर इस व्यवस्था के पीछे कोई तो विज्ञान होगा ही। हजारों से साल ये यह परंपरा यूं ही तो नहीं चली आ रही। इस बारे में अनेक पंडितों व विद्वानों से चर्चा की, मगर आज तक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया है। हद से हद ये उत्तर आया कि भोजन पूर्वज तक पहुंचता हो या नहीं, मगर श्राद्ध के बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करने, उनके प्रति सम्मान प्रकट करने 

और उनकी बताई गई अच्छी बातों का अनुसरण करने के लिए पखवाड़ा मनाते हैं।

इस बारे प्रसिद्ध मायथोलॉजिस्ट श्री देवदत्त पटनायक का अध्ययन बताता है कि मृत्यु के बाद शरीर का एक हिस्सा, जो उसके ऋणों की याद है, जीवित रहता है। वह हिस्सा वैतरणी पार कर यमलोक में प्रवेश करता है। वहां पितर के रूप में रहता है। यदि वह वैतरणी पार नहीं कर पाता तो प्रेत बन कर धरती लोक पर रहता है और तब तक परेशान करता है, जब तक कि उसका वैतरणी पार करने का अनुष्ठान पूरा नहीं किया जाता। वे बताते हैं कि हर पूर्वज के लिए हर साल उसकी पुण्यतिथि पर अनुष्ठान करना संभव नहीं है, इसलिए श्राद्ध पक्ष का निर्धारण किया गया। इस काल में मृतक जीवित लोगों के सबसे करीब होता है। उन्होंने एक बहुत दिलचस्प बात भी कही है। वह ये कि हम पूर्वजों को याद तो करते है, सम्मान भी देते हैं, मगर साथ ही डरते भी हैं, उन्हें बहुत सुखद भी अनुभव नहीं करने देते, अन्यथा वे फिर प्रेत बन कर धरती लोग पर आ सकते हैं। हालांकि उन्होंने इसका खुलासा नहीं किया है कि उन्हें कैसे सुखद अनुभव नहीं होने देते, मगर लगता ऐसा है कि श्राद्ध के दौरान सामान्य दाल-चावल का भोजन इसीलिए दिया जाता है। विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजन नहीं खिलाते कि कहीं वह फिर आकर्षित हो कर पितर लोक छोड़ कर न आ जाएं। 

कई बार मुझे ख्याल आया है कि अगर हम अपने पूर्वजों का बहुत सम्मान करते हैं, उन्हें सुख पहुंचाना चाहते हैं तो पंडित को वह भोजन करवाना चाहिए, जो कि हमारे पूर्वज को अपने जीवन काल में प्रिय रहा हो। यथा हमारे किसी पूर्वज को शराब, बीड़ी, मांसाहार आदि पसंद रहा हो तो, हमें वहीं अर्पित करना चाहिए। मगर ऐसा नहीं करके सादा भोजन परोसते हैं।  मेरी इस शंका का समाधान श्री पटनायक की जानकारी से होता है, अगर उनका अध्ययन सही है तो।