तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, जनवरी 25, 2011

उमर गलत तो भाजपा भी कहां सही है

इन दिनों श्रीनगर के लालचौक पर भाजयुमो की ओर से 26 जनवरी को तिरंगा झंडा फहराने के ऐलान को लेकर राजनीति अपने पूरे उबाल पर है। एक ओर जहां भाजयुमो व भाजपा ने इसे राष्ट्रवाद से जोड़ कर प्रतिष्ठा व राष्ट्रीय अस्मिता का सवाल बना रखा है, वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार ने भाजयुमो कार्यकर्ताओं को रोकने के लिए राज्य की सीमाएं सील कर दी हैं। इस बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस बयान से कि गणतंत्र दिवस जैसे मौके पर पार्टियों को विभाजनकारी एजेंडे को बढ़ावा नहीं देना चाहिए और उन्हें राजनीतिक फायदा उठाने से बचना चाहिए, को लेकर भाजपा उबल पड़ी है।
यह सही है कि भारत में कोई भी कहीं पर भी तिरंगा फहराने के लिए स्वतंत्र है और इसके लिए उसे किसी की इजाजत लेने की जरूरत नहीं है। तिरंगा फहराना हमारा हक है और राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक भी। भारतीय जनता पार्टी की यह दलील वाकई पूरी तरह जायज है, लेकिन इसे जिन हालात में ऐसा करने की जिद है, वह समस्या के समाधान की बजाय उसे उलझाने वाली ज्यादा है।
जहां तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की भूमिका का सवाल है, उनका यह कहना कि लालचौक पर तिरंगा फहराने से दंगा हो जाएगा और उसके लिए भाजपा जिम्मेवार होगी, बेशक उग्रवादियों के आगे घुटने टेकने वाला है। यह साफ है कि सरकार का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है। भले ही उन्होंने कानून-व्यवस्था के लिहाज से ऐसा वक्तत्व दिया था, मगर ऐसा कहने से जाहिर तौर पर भाजपाई और उग्र हो गए। वे अगर ये कहते कि तिरंगा फहराना गलत नहीं, वे भी यह चाहते हैं कि कोई भी तिरंगा फहराये, किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, मगर चूंकि अभी हालात ठीक नहीं हैं, इस कारण अभी भाजपाइयों को संयम बरतना चाहिए तो कदाचित भाजपा को अपनी राजनीतिक मुहिम के प्रति जनसमर्थन बनाने का मौका नहीं मिलता। भाजपा को यह मुद्दा बनाने का मौका उमर के बयान से अधिक उस बयान से भी मिला, जो कि आतंकियों ने चुनौती के रूप में दिया था। उस चुनौती को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। ऐसे में राष्ट्रीय एकता व अस्मिता के लिहाज से भाजपा का रुख निस्संदेह पूरी तरह से सही है और उसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं है।
मगर... मगर इन सब के बावजूद यदि हम सिक्के का दूसरा पहलू नजरअंदाज करेंगे तो यह सब कुछ समझने के बावजूद नासमझ बनने का नाटक ही कहलाएगा। असल में जम्मू-कश्मीर की समस्या आज अचानक पैदा नहीं हुई है। यह विभाजन के साथ ही पैदा हुई और जाहिर तौर पर इसके लिए तत्कालीन हालात और जाहिर तौर पर आजादी में अग्रणी भूमिका अदा करने वाली कांग्रेस जिम्मेदार है। वस्तुत: यह केवल राष्ट्रीय समस्या नहीं, बल्कि इसकी गुत्थी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में उलझी हुई है। इसका समाधान स्वयं भाजपानीत सरकार भी नहीं निकाल पाई थी। जब तक भाजपा विपक्ष रही तब तो उसे केवल देश और देश के अंदर के हालात का पता था, मगर जब उसे सत्ता में आने का मौका मिला तो उसे भी पूरी दुनिया नजर आने लगी। उसे भी समझ में आने लगा कि अंतर्राष्ट्रीय कारणों से उलझी राष्ट्रीय समस्याएं सुलझाने में कितने अंतर्राष्ट्रीय दबाव झेलने पड़ते हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण ये है कि भाजपा सरकार को विमान के हाईजैक होने पर भारतीय यात्रियों को बचाने की खातिर आतंकवादियों को छोडऩे के लिए मौके पर जाना पड़ा था। सत्ता में रह चुकी भाजपा को यह भी अहसास होगा कि अरसे तक आग में धधक रहे जम्मू-कश्मीर में अब जा कर स्थिति थोड़ी संभली है। यदि यह सच है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है तो यह भी उतना ही कठोर सच है कि वहां के हालात राष्ट्रवाद के नाम पर भावनाएं भुना कर छेडख़ानी करने के नहीं हैं। अव्वल तो भाजपा को जम्मू कश्मीर में राज करने का मौका मिलना नहीं है, गर मिल भी जाए तो उसे भी पता लग जाएगा कि जितनी आसानी से वे लाल चौक पर तिरंगा फहराने की बात करते हैं, उतना आसान काम है नहीं। और उससे भी बड़ी बात ये कि वे तो राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर एक दिन के लिए वहां झंडा फहरा कर दिल की आग शांत कर आएंगे, बाकी के तीन सौ चौंसठ दिन की आग तो वहां के लोगों को झेलनी होगी।
असल में जम्मू-कश्मीर में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का खैरियत से गुजर जाना पिछले दो दशकों से राष्ट्रीय चिंता का विषय रहता है। अलगाववादियों के जुलूसों पर फायरिंग के चलते पिछले कुछ महीनों के दौरान ठंडे कश्मीर में आग धधक-धधक कर जलती रही है। हिंसा का वह दौर, जिसने करीब-करीब मुख्यमंत्री उमर अब्दु्ल्ला की कुर्सी ले ही ली थी, बड़ी मुश्किल से शांत हुआ है। हाल में उस राज्य में कुछ सकारात्मक संकेत नजर आए हैं। अमन की दिशा में लोगों ने एक बड़ा कदम उठाया है। नेशनल कांफ्रेंस और मुफ्ती सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच लंबे अरसे बाद संवाद फिर शुरू होने जा रहा है। अब्दुल गनी भट और सज्जाद लोन जैसे अलगाववादी नेताओं ने आतंकवादी हिंसा पर कुछ जोखिम भरे वक्तव्य दिए हैं। हिंसा के लंबे दौर के बाद सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल और केंद्र सरकार के वार्ताकारों के प्रयासों से जम्मू कश्मीर के हालात कुछ सामान्य हुए हैं। एक बार बमुश्किल कुर्सी बचाने में सफल रहे उमर अब्दुल्ला भी शायद अब किसी किस्म का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। वस्तुत: तिरंगा झंडा न फहराने देने को जहां भाजपा सहित हर भारतीय देश विरोधी समझता है, वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार की नजर में फिलहाल वह देश हित में है। भाजपा राष्ट्रीय स्वाभिमान और अस्मिता का सवाल बना रही है, मगर उमर की नजर में मौजूदा हालात में कानून-व्यवस्था बनाए रखना ज्यादा प्रासंगिक है। मौजूदा हालात में प्रत्क्षत: भले ही भाजपा इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हो, मगर उसके पीछे छिपा राजनीतिक एजेंडा भी किसी वे छिपा नहीं है।  हालांकि मुद्दा आधारित राजनीति में माहिर भाजपाइयों को यह बात गले नहीं उतरेगी और वे अपनी जिद पर अड़े रहेंगे, मगर देशप्रेम के नाम पर यह यात्रा निकालने से कोई बड़ा देश हित सिद्ध होने वाला नहीं है। अव्वल तो उमर भाजपाइयों को घुसने नहीं देंगे। गर घुस भी गए तो तिरंगा भारी भरकम सुरक्षा इंतजामों में ही फहराया जा सकेगा। इससेे तस्वीर चाहे बदले न बदले, हंगामा करने का मकसद तो पूरा हो ही जाएगा। और उस हंगामे को तो वहां की सरकार को ही भुगतना होगा।

सोमवार, जनवरी 24, 2011

शराब की लत तो वसुंधरा ने ही लगाई थी

जोधपुर व पाली में हाल ही जहरीली शराब से कई लोगों की मौत नि:संदेह दुखद है और शासन-प्रशासन की ढि़लाई और पुलिस व आबकारी विभाग की मिलीभगत का परिणाम है, मगर इस मुद्दे पर पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे किस मुंह से सरकार पर जम कर बरस रही हैं, यह सवाल हर एक की जुबान पर है। इसकी एक मात्र वजह ये है कि राजे के राज में ही शराब की नदियां बहाई गई थीं। शराब को सहज सुलभ करवा कर लोगों को शराब का आदी उन्होंने ही बनाया था।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अशोक गहलोत पर खजाना खाली होने पर रोने का उलाहना देने वाली श्रीमती राजे ने ही सरकार का खजाना बढ़ाने के लिए गली-गली में शराब की दुकानें खुलवा दी थीं। तुर्रा ये कि खजाना खाली होने का रोना रोने की बजाय खजाना भरने का तरीका आना चाहिए। तब ये जुमला आम था कि बच्चे के रोने पर डेयरी बूथ पर दूध भले ही पीने को न मिले, मगर गम गलत करने के लिए आदमी को शराब हर गली के नुक्कड़ पर सहज सुलभ है। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि उन्हीं के राज में यह आदेश जारी हुआ था कि शराब की दुकानों के आसपास पुलिस वाले न फटकें, क्योंकि इससे शराब का धंधा खराब होता है। तर्क ये दिया गया कि लोग पुलिस के डर से शराब की दुकान पर चढऩे से कतराते हैं। इससे राजस्व में कमी आती है। इस सर्कूलर का परिणाम ये हुआ कि लोग शराब की दुकानों के पास ही बैठ कर बेधडक़ मदहोश होते थे और पुलिस उनका मुंह ताकती रहती थी।
तब खुद को सबसे ज्यादा सच्चरित्र और राष्ट्रवादी बताने वाले भाजपाइयों की बोलती बंद थी। जब भी शराब की दुकानों के सिलसिले में बात चलती थी तो भाजपाई इधर-उधर बगलें झांकते थे। किसी संभ्रांत महिला के बारे में इस तरह की टिप्पणी भले ही अशोभनीय लगे, मगर खुद वसुंधरा राजे तक के बारे में एट पीम नो सीएम कह कर परिहास किया जाता था। यह जुमला भले ही कांग्रेस की ओर से उछाला गया, मगर इसे सुन कर भाजपाई भी मंद-मंद मुस्कराते थे।
तब कांग्रेस बहुत चिल्लाई, मगर राजे ने उसकी एक नहीं सुनी। आज राजे यह कह कर गहलोत सरकार की आलोचना कर रही है कि गली-गली में बीयर बार खुल गए हैं, तो क्या यह सच नहीं है कि उनके राज में गली-गली में शराब के ठेके दे दिए गए थे? आज श्रीमती राजे यह कह कर मौजूदा सरकार की खिंचाई कर रही हैं कि शराब की दुकानें तो आठ बजे बंद करवा दीं, मगर बीयर बार आधी रात तक खोलने की छूट दी हुई है। यानि कि वे यह कहना चाहती हैं कि बीयर बार भी आठ बजे ही बंद कर दी जानी चाहिए। ऐसा कह कर वे शराब की दुकानें जल्द बंद करने के निर्णय का समर्थन कर रही हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि अशोक गहलोत ने आते ही सबसे पहले शराब की दुकानें रात आठ बजे बंद करने का जो कठोर कदम उठाया और शराब पी कर वाहन चलाने वालों पर जो सख्ती बरती, उसकी सराहना हर एक की जुबान पर है। विशेष रूप से महिलाओं को तो बेहद खुशी है कि रात आठ बजे शराब की दुकानें बंद होने से उन्हें काफी राहत मिली है।
रहा सवाल अवैध और जहरीली शराब का तो वह राजे के राज में भी धड़ल्ले से बिकती थी और आज भी बिक रही है। तब न राजे उस पर अंकुश लगा पाई थीं और न ही आज गहलोत सरकार कुछ कर पा रही है। शराब की तस्करी पहले भी होती थी और आज भी हो रही है। कुछ विशेष मोहल्लों में शराब पहले भी बनती थी और थडिय़ों पर बिकती थी और आज भी वैसा ही है। इसके ये मायने नहीं है कि चूंकि राजे के राज में शराब की नदियां बहती थीं तो आज भी उसके समंदर होने चाहिए, मगर कम से कम राजे को तो आलोचना का अधिकार नहीं दिया जा सकता, जिन्होंने खुद लोगों को शराब पीने का आदी बनाया।

गुरुवार, जनवरी 20, 2011

पहले सरकारी डॉक्टरों से तो जेनेरिक दवाई लिखवा लीजिए !

नागौर में बेहतरीन जिला कलेक्टर के रूप में ख्याति अर्जित करने के बाद हाल ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक बने डॉ. समित शर्मा ने ऐलान किया है कि सरकारी के साथ-साथ निजी अस्पतालों के चिकित्सकों को भी जेनेरिक दवाई लिखने को बाध्य किया जाएगा। कहने को तो यह बयान बड़ा सुकून देता है, मगर ऐसा लगता है कि शर्मा जी को जमीनी हकीकत ही पता नहीं है। हालत ये है कि आज भी सरकारी डाक्टरों को जेनेरिक दवाई लिखने में जोर आता है। सरकार और निदेशालय उन्हीं पर सख्ती नहीं आजमा पाए हैं।
अपने एक बयान में खुद शर्मा जी ने माना है कि जेनेरिक दवाइयों के खिलाफ माहौल बनाने में चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों ने ही अहम भूमिका अदा की है। उसमें अगर यह जोड़ दिया जाए कि सत्ता के दलालों की ताकत बिना ऐसे लोग भूमिका अदा ही नहीं कर सकते तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसकी वजह साफ है कि ब्रांडेड दवाइयां लिखने पर बतौर कमीशन डॉक्टरों तक हिस्सा पहुंचता है। ऐसे में वे भला जेनेरिक दवाई क्यों लिखेंगे। और सरकारी तनख्वाह के अतिरिक्त कमीशन से मिलने वाली राशि से ही डॉक्टर मनपसंद की जगहों पर तैनात होते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। हालांकि कहने को सरकार बार-बार डॉक्टरों पर जेनेरिक दवाई लिखने का दबाव बना रही है, लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि उसे अभी पूरी कामयाबी नहीं मिली है। मेडिकल माफिया का एक बड़ा समूह सरकारी आदेशों की धज्जियां उड़ा रहा है। सख्ती का आलम ये है कि किसी भी डॉक्टर के खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही नहीं की जा सकी है। असल बात तो ये है कि वह डॉक्टरों की कमी से ही जूझ रही है। ऐसे में भला वह सख्त कदम कैसे उठा सकती है।
यदि यह मान भी लिया जाए कि वह डॉक्टरों से जेनेरिक दवाई लिखवाने में कामयाब हो गई है तो भी नतीजा ढ़ाक के तीन पात है। मार्केट में जेनेरिक दवाई पूरी तरह से उपलब्ध ही नहीं है। मरीज चाह कर भी जेनेरिक दवाई से वंचित है। उसे कई दुकानों के धक्के खाने पड़ते हैं। उतनी मशक्कत करने को कोई तैयार ही नहीं है। आम मरीज को तो पता ही नहीं है कि ये जेनेरिक दवाई होती क्या है। इससे भी बड़ी सच्चाई ये है कि खुद पढ़े-लिखे मरीज में ही जेनेरिक दवाई के प्रति विश्वास नहीं है। वह खुद ही ब्रांडेड दवाई ले कर जल्द से जल्द ठीक होना चाहता है। इस कारण पर्ची पर जेनेरिक दवाई लिखी भी हो तो वह मेडिकल स्टोर से मांग करता है कि जेनेरिक दवाइयों के कॉम्बीनेशन वाली किसी ब्रांडेड कंपनी की दवाई दे दे। इस जमीनी हकीकत के बाद भी शर्माजी अगर ये भभकी देते हैं कि अब प्राइवेट डाक्टरों को भी जेनेरिक दवाई लिखने के लिए बाध्य किया जाएगा, महज कल्पना ही दिखाई देती है।
शर्मा जी का एक तर्क यह है कि जेनेरिक दवाई पूरी तरह से असरकारक होती है। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। हालांकि यह सही है कि मेडिकल माफिया जेनेरिक दवाई को घटिया बता कर माहौल खराब कर रहा है, लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जेनेरिक दवाई कम असरकारक ही पाई गई है। इसकी वजह ये है कि जो कंपनियां जेनेरिक दवाई बना रही हैं, वे आलू-चालू सी मानी जाती हैं। उनके पास दवाई बनाने के अत्याधुनिक संसाधन ही नहीं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे कि जेनेरिक दवाई से तो मरीज ठीक नहीं हुआ और ब्रांडेड कंपनी की दवाई से ठीक हो गया। शर्मा जी का यह तर्क खूबसूरत तो है कि सस्ती होने के कारण जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता में कमी नहीं आती, मगर ऐसा कहने का आधार कुछ भी नहीं है। माना कि जेनेरिक दवाई के साथ कमीशन का चक्कर नहीं है और उसके विज्ञापन आदि पर भी खर्च नहीं होता, मगर वह गुणवत्ता के लिहाज से अच्छी ही होती है, इसकी क्या गारंटी है? जब तक सरकार इस बारे में कोई पुख्ता इंतजाम नहीं करेगी और आम जनता में विश्वास कायम नहीं करेगी, जेनेरिक दवाइयों के बारे में दी जा रही तमाम दलीलें काम नहीं आने वाली हैं।

आयोग ने निकाल दी सवर्णों के हंगामे की हवा

हाल ही अन्य पिछड़ा वर्ग के सर्वे फार्म को लेकर जो बवाल खड़ा हुआ था, राजस्थान राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने उसकी हवा पूरी तरह से निकाल दी है। आयोग ने साफ कर दिया है कि उसकी ओर से सवर्ण जातियों के संदर्भ में कोई सर्वे किया ही नहीं जा रहा, तो ऐसे काल्पनिक सर्वे पर हंगामे का औचित्य ही क्या है। आयोग ने इस सिलसिले में बाकायदा एक प्रेस रिलीज जारी किया है, मगर अफसोसनाक पहलू ये है कि सर्वे में पूछे गए सवालों को घटिया बता कर सवर्णों को भडक़ाने वाले और बाद में सवर्णों के भडक़ जाने पर उसकी खबरें सुर्खियों में छापने वाले मीडिया ने उसे प्रकाशित ही नहीं किया। यदि किसी अखबार ने प्रकाशित भी किया होगा तो किसी कोने-खोचरे में दिया होगा, ताकि वह नजर में ही नहीं आए।
आयोग ने जो प्रेस रिलीज जारी किया है, उसमें साफ तौर पर कहा गया है कि सवर्णों के बारे में इस प्रकार का सर्वे उसके क्षेत्राधिकार में ही नहीं आता है, अपितु उसके लिए अलग से आर्थिक पिछड़ा वर्ग आयोग है। आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी. के. तिवारी का कहना है कि जो सर्वे फार्म जिला कलेक्टरों को भेजा गया है, उसका सवर्ण जातियों से तो कोई संबंध ही नहीं है।
ऐसा लगता है कि जो सर्वे फार्म एक अखबार में छपा, वह प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह की ओर से ही उपलब्ध करवाया गया होगा, जिसके बारे में संबंधित रिपोर्टर ने पूरी छानबीन की ही नहीं और बाईलाइन फ्रंट पर छपने के चक्कर में जल्दबाजी में सवर्णों को भडक़ाने  का काम कर दिया। खबर छपने के बाद जाहिर तौर पर सवर्ण भडक़े भी और उन्होंने बाकायदा आयोग के दफ्तर पर हंगामा भी किया। आखिरकार आयोग के अध्यक्ष को स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी। अहम सवाल ये भी है कि जो सर्वे फार्म जिला कलेक्टरों को भेजा गया है, वह महावीर सिंह के हाथ आया कहां से? यदि आ भी गया तो उन्होंने यह कह कर गुमराह कैसे किया कि वह ब्राह्मण, वैश्य व राजपूत वर्ग से संबंधित है? लगता है कि उन्हें भी नेतागिरी करने की जल्दी थी कि कहीं किसी और नेता के हाथ वह सर्वे फार्म आ जाएगा तो हंगामे का श्रीगणेश करने का श्रेय ले जाएगा।
उल्लेखनीय है कि कथित रूप से ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों का पता लगाने के लिए भेजे गए सर्वे फार्म में पूछे गए सवालों को ही पिछड़ा करार देते हुए आपत्ति दर्ज कराई गई थी  कि वे अपमानजनक हैं। प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह ने तो बाकायदा यह तक आरोप लगाया कि ऐसे सवाल पूछ कर सरकार गरीब राजपूतों को आरक्षण का लाभ देने से वंचित करना चाहती है। इसी प्रकार एक समाजशास्त्री प्रो. राजीव गुप्ता ने अपनी विद्वता का परिचय देते हुए कहा था कि सरकार भले ही किसी को उसका अधिकार दे या न दे, मगर उसके सम्मान व स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ न करे। दूसरी ओर राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्य सचिव ए. के. हेमकार का कहना था कि सर्वे फार्म के सवाल आपत्तिजनक नहीं हैं और ओबीसी में शामिल किए जाने के मापदंड हैं, जो कि पहले से ही निर्धारित हैं। मगर दुर्भाग्य से उन्होंने तब ही यह स्पष्ट नहीं किया कि जिस सर्वे फार्म को लेकर आपत्ति की जा रही है, उसका सवर्णों से कोई ताल्लुक ही नहीं है और इसी कारण विवाद को बढऩे को जगह मिल गई।

मंगलवार, जनवरी 18, 2011

जिस दर पर है बम फोडऩे का इल्जाम, उसी दर से है बरी होने की ख्वाहिश


दरगाह ख्वाजा साहब का दर भी कितना कमाल का दर है, जिस दर पर बम फोडऩे का इल्जाम है आरएसएस नेता इन्द्रेश कुमार पर, उसी दर से इल्तजा है बरी होने की। फौरी तौर पर भले ही यह लगता हो कि इन्द्रेश कुमार की सलामती की दुआ तो छत्तीसगढ़ हज कमेटी व मदरसा बोर्ड के सदर सलीम रजा ने मांगी है, मगर क्या इस बात पर यकीन किया जा सकता है इन्द्रेश कुमार को बताए बिना ही वे यहां दुआ मांगने आ गए होंगे। गर आए भी हैं तो क्या ये कम बात है कि उसी दर से उनके सलामत होने की उम्मीद की जा रही है, जिसे सलामत न रहने देने के लिए बम ब्लास्ट करने की कोशिश का उन पर इल्जाम लगा हुआ है। और अगर दुआ कबूल हो गई तो वाकई ये कमाल हो जाएगा। असल में ख्वाजा साहब की बारगाह के बारे में ऐसा यकीन है कि यहां अकीदत और शिद्दत से की गई हर दुआ कुबूल होती है। फिर भले ही वो इसी मुकाम पर बम फोडऩे के इल्जाम में क्यों न फंसा हो।
ये तो हुई रूहानी बात, मगर सलीम राज ने जिस मकसद से आस्ताना शरीफ पर चादर चढ़ाई है, उसके तौर-तरीके के पीछे क्या राज छिपा है, इसको लेकर कई तरह की सवाली अबाबीलें उडऩे लगी हैं। अव्वल तो ये नौटंकी नजर आती है। गर इन्द्रेश कुमार की सलामती की खातिर दुआ मांगने ही आए थे तो सिर्फ ख्वाजा साहब के सामने ही तो सवाल करना था, उसे सबके सामने इजहार करके सवाल क्यों खड़े कर गए? ये तो वो ही हुआ न कि तस्वीर बदले न बदले, हंगामा जरूर खड़ा होना चाहिए। क्या इससे ये शक नहीं होता कि राज को इन्द्रेश कुमार ने ही भेजा होगा, ताकि पूरे मुल्क में यह संदेश जाए कि मुस्लिमों को भी यकीन नहीं कि वे दरगाह में बम फोडऩे की हरकत करवा सकते हैं और उन पर लग रहा इल्जाम कुछ फीका पड़ जाए? या फिर राज ने यह सब महज दोस्ती की खातिर ही किया है? दुआ मंजूर हुई तो भले ही इन्द्रेश कुमार बरी हो जाएं, मगर राज की इस तरह की सियासी ख्वाहिश से खैरियत से बैठे चंद मुस्लिम नेता तो सवालों की गिरफ्त में आ ही गए हैं।
अव्वल तो जियारत करवाने वाले खादिम व कांग्रेस नेता शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती की ही बोलती बंद है। उन्हें यह कह कर बचना पड़ रहा है कि उन्हें तो पता ही नहीं था कि सलीम राज इन्द्रेश कुमार की ओर से चादर पेश करने आए थे। उनकी बात पर यकीन हो भी जाए, मगर राज के साथ आए राजस्थान वक्फ बोर्ड के साबिक सदर व भाजपा नेता सलावत खां और कांग्रेस अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के प्रदेश महामंत्री नईम खान तो ये कहने की हालत में भी नहीं हैं कि उन्हें क्या पता कि वे इन्द्रेश कुमार की सलामती के लिए चादर चढ़ाने आए हैं। और तो और जयपुर बैठे प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री मुमताज मसीह तक संदेह के दायरे में आ गए हैं कि उन्होंने राज को शानदार तरीके से जियारत करवाने के लिए सिफारिश करते हुए नईम खान को क्यों भेजा? क्या वे ये नहीं जानते थे कि सलीम राज किस मकसद से अजमेर शरीफ जा रहे हैं? और अगर वाकई इन सभी को धोखे में रख कर सलीम ने यहां चादर चढ़ाई है तो उनसे बड़ा सियासतदान मिलना मुश्किल है। वाकई वे दाद के काबिल हैं। ढ़ेर सारे सवाल खड़े कर जाने वाले ऐसे गुरू घंटाल से सिर्फ एक ही सवाल-उन्होंने अपने मकसद का खुलासा जियारत करने बाद क्यों किया? सवाल और भी मगर उसका जवाब वे खुद ही दे गए हैं, और वो ये कि अगर वे जोर दे कर कह रहे हैं कि इन्द्रेश कुमार संघ से जुड़े होते हुए भी हिंदू-मुस्लिम एकता का हिमायती हैं, माने.......माने, ऐसा कह कर उन्होंने जाने-अनजाने संघ के और नेताओं को तो हिंदू-मुस्लिम एकता के खिलाफ ठहरा ही दिया है।

शनिवार, जनवरी 15, 2011

सवाल पूछे बिना भला कैसे पता लगेगा कि कौन पिछड़ा है?

हाल ही अन्य पिछड़ा वर्ग के सर्वे फार्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों का पता लगाने के लिए भेजे गए सर्वे फार्म में पूछे गए सवालों को ही पिछड़ा करार देते हुए आपत्ति दर्ज कराई गई है कि वे अपमानजनक हैं। प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह ने तो यह तक आरोप लगाया है कि ऐसे सवाल पूछ कर सरकार गरीब राजपूतों को आरक्षण का लाभ देने से वंचित करना चाहती है। इसी प्रकार एक समाजशास्त्री प्रो. राजीव गुप्ता ने  अपनी विद्वता का परिचय देते हुए कहा है कि सरकार भले ही किसी को उसका अधिकार दे या न दे, मगर उसके सम्मान व स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ न करे। दूसरी ओर राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्य सचिव ए. के. हेमकार का कहना है कि सर्वे फार्म के सवाल आपत्तिजनक नहीं हैं और ओबीसी में शामिल किए जाने के मापदंड हैं, जो कि पहले से ही निर्धारित हैं।
सर्वप्रथम अगर हेमकार के तर्क को आधार मानें तो जब यह स्पष्ट ही है कि अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का मापदंड ही वह सर्वे फार्म है तो उस पर किसी को आपत्ति करने का अधिकार ही नहीं बनता। जब पूर्व में उसी आधार पर ही कुछ जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ दिया गया है, तो इस वर्ग में शामिल करने के लिए ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य के लिए अलग तरह का सर्वे फार्म कैसे बनाया जा सकता है? उनके लिए अलग मापदंड कैसे बनाए जा सकते हैं? अगर उन्हें इस वर्ग का लाभ हासिल करना है तो इस सर्वे फार्म से तो गुजरना ही होगा। रहा सवाल गरीब राजपूतों अथवा गरीब ब्राह्मण-बनियों को आरक्षण से वंचित करने का तो इसमें दो बिंदू विचारणीय लगते हैं। एक तो यदि राजपूत जाति का कोई व्यक्ति गरीब है तो उसे अन्य गरीबों की तरह बीपीएल के तहत लाभ मिल सकता है। उसके लिए अलग से आरक्षण की जरूरत ही क्या है। और यदि पूरे समूह को ही आर्थिक रूप से पिछड़ा होने के नाते अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ हासिल करना है तो जाहिर तौर पर उनके पिछड़ेपन की मूल वजह के आधार पर ही तय किया जाएगा कि वे पिछड़ हुए हैं। सर्वे फार्म में जो मापदंड दिए गए हैं, भले ही वे कहने और बताने में अपमानजनक लगें, मगर असल में उन्हीं मापदंडों से ही तो पता लगता है कि अमुक जाति वर्ग पिछड़ा हुआ है। जैसे सर्वे फार्म के कुछ सवाल, जिन पर आपत्ति की जा रही है, उनमें पूछा गया है कि क्या उस जाति वर्ग को अन्य जातियां नीच व शूद्र समझती हैं, क्या इस जाति वर्ग को आपराधिक प्रवृत्ति का माना जाता है, क्या इस जाति वर्ग के लोग जीविकोपार्जन के लिए भिक्षा वृत्ति, पूजा-पाठ, संगीत, व नृत्य पर निर्भर हैं? ये सारे वे सवाल हैं, जो इस बात का उत्तर देने के लिए पर्याप्त हैं कि कोई जाति वर्ग उन कथित अपमानजनक कारणों से आर्थिक रूप से पिछड़ा रहा या फिर उसके पिछडऩे की वजह वे कारण रहे। कैसी विडंबना है कि एक ओर तो आर्थिक रूप से पिछड़े होने के नाते अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ लेना भी चाहते हैं, मगर सर्वे फार्म में दिए गए सवालों की परिभाषा में आना भी नहीं चाहते। असल बात है ही ये कि कोई जाति सम्मानजनक स्थिति में हो ही तभी सकती है, जबकि वह शुरू से आर्थिक रूप से संपन्न रही हो। यदि अपमानजनक स्थिति में रही है तो उसके लिए भले ही समाज के संपन्न और उच्च जातियों के लोग जिम्मेदार रहे हों, मगर इसे तो स्वीकार करना ही होगा न कि वे अपमानजनक कारणों की वजह से आर्थिक रूप से पिछड़ गए थे। क्या यह सही नहीं है कि कोई जाति वर्ग आर्थिक रूप से पिछड़ी रही ही इसलिए होगी कि उसे सम्मानजनक तरीके से कमाने नहीं दिया जाता होगा और उसे गा, बजा व नाच कर आजीविका चलाने अथवा आपराधिक तरीकों से पेट पालने को मजबूर होना पड़ा होगा? जब यह स्पष्ट है कि अनेक जातियां आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण ही अन्य जातियों से हेय मानी जाती रहीं तो इस हेय शब्द पर आपत्ति करने को कोई मतलब ही नहीं रहता।
सर्वे फार्म में पूछे गए इस सवाल पर कि क्या उसे नीच या शूद्र समझा जाता रहा है, पर अगर ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य को आपत्ति है तो इसका अर्थ ये है कि वह अपने आपको उच्च जाति का मानते हैं, जो कि प्रत्यक्षत: दिखाई भी दे रहा है। क्या यह सही नहीं है कि आम धारणा में ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों को उच्च वर्ग का माना जाता है? उच्च वर्ग का माना ही इसलिए जाता है कि वे सामाजिक व आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक संपन्न रहे हैं। रहा सवाल इस बात का कि ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों में से कुछ जाति वर्ग सर्वे फार्म में पूछे गए कारणों की बजाय अन्य कारणों से आर्थिक रूप से पिछड़ गए तो उन्हें प्रारंभ में ही यह दर्ज करवाना चाहिए था। आज जब ये जाति वर्ग अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ हासिल करना चाहते हैं तो उन्हें उस मापदंड को भी मानना चाहिए, जिसके तहत अन्य जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ मिला है। ऐसा नहीं हो सकता कि उन्हें उच्च वर्ग का भी माना जााए और आर्थिक रूप से पिछड़ा भी माना जाए। अगर यह मान भी लिया जाए कि कुछ लोग थे तो उच्च वर्ग के, लेकिन किन्हीं कारणों से विपन्न हो गए तो उसे स्पष्ट करते हुए आरक्षण की मांग की जानी चाहिए थी।
बहरहाल, बहस की शुरुआत हो गई है और इसी प्रकार नुक्ताचीनी और राजनीति की जाती रही तो ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों में जो लोग वाकई जरूरतमंद हैं, वे आरक्षण का लाभ लेने से वंचित हो जाएंगे। और अगर आरक्षण का लाभ लेना है तो सामाजिक रूप से पिछड़ेपन को स्वीकार करने को मूूंछ का सवाल नहीं बनाना चाहिए।

बुधवार, जनवरी 12, 2011

क्या विस्फोट से हिंदुओं को दरगाह में जाने से रोका जा सकता है?

सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में सन् 2007 में हुए बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद ने खुलासा किया है कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। इकबालिया बयान में दी गई इस जानकारी को अगर सच मान लिया जाए तो यह वाकई एक बचकाना हरकत है। कदाचित वे यह बयान देते कि हिंदू धर्म स्थलों पर बम विस्फोट की प्रतिक्रिया में विस्फोट किया गया था तो बात गले उतर सकती थी, मगर विस्फोट करके हिंदुओं को दरगाह में जाने से रोकने का प्रयास किया गया था, यह नितांत असंभव है। असंभव इसलिए कि उसकी एक खास वजह है, जिसका किसी भी कट्टरपंथी के पास कोई उपाय नहीं है।
अव्वल तो अगर हिंदुओं को डराने के लिए विस्फोट किया था तो विस्फोट करने से पहले या उसके तुरंत बाद हिंदुओं को चेतावनी क्यों नहीं दी गई? इतनी ही हिम्मत थी तो विस्फोट करके उसकी जिम्मेदारी लेते। उनके मकसद का आज जा कर खुलासा हो रहा है। भला हिंदुओं को सपना थोड़े ही आएगा कि असीमानंद जी महाराज ने उन्हें दरगाह में न जाने की हिदायत में तोप दागी है। और अगर हिदायत दी भी है तो कौन सा हिंदू उसको मानने वाला है? दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी कट्टरपंथी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। इसकी एक महत्वपूर्ण वजह भी है। हालांकि यह सच है कि कट्टवादी हिंदुओं की सोच है कि हिंदुओं को दरगाह अथवा मुस्लिम धर्म स्थलों में नहीं जाना चाहिए। कट्टरपंथी तर्क ये देते हैं कि जब मुसलमान हिंदुओं के मंदिरों में नहीं जाते तो हिंदू क्यों मुस्लिम धर्मस्थलों पर मत्था टेकें। हिंदूवादी विचारधारा की पोषक भाजपा से जुड़े कट्टरपंथियों को भी यही तकलीफ है कि हिंदू दरगाह में क्यों जाते हैं, मगर स्वयं को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष साबित करने अथवा स्वयं को कट्टरपंथ से दूर रखने और मुस्लिमों के भी वोट चाहने की मजबूरी में भाजपा के नेता दरगाह जियारत करते हैं। वे दरगाह में जाने से परहेज करके अपने आपको कोरा हिंदूवादी कहलाने से बचते हैं। कट्टरपंथी जब भाजपा नेताओं को ही दरगाह में जाने से नहीं रोक पाए तो भला आम हिंदू को दरगाह में जाने से कैसे रोक सकते हैं।
वस्तुत: धर्म और अध्यात्म निजी आस्था का मामला है। किसी को किसी धर्म का पालन करने के लिए जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती। यदि किसी हिंदू की अपने देवी-देवताओं के साथ पीर-फकीरों में भी आस्था है तो इसका कोई इलाज नहीं है। इसकी वजह ये है कि चाहे हिंदू ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवीमाता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। गलत नजर आने का सवाल भी नहीं है। किसी भी हिंदू धर्म ग्रंथ में भी यह कहीं नहीं लिखा है कि दरगाह, चर्च आदि पर जाना धर्म विरुद्ध है। इस बारे में एक लघु कथा बहुत पुरानी है कि नदी में डूबती नाव में मुस्लिम केवल इसी कारण बच गया कि क्यों कि उसने केवल अल्लाह को याद किया और हिंदू इसलिए डूब गया क्यों कि उसने एक के बाद एक देवी-देवता को पुकारा और सभी देवी-देवता एक दूसरे के भरोसे रहे। यानि ज्यादा मामा वाला भानजा भूखा ही रह गया।
जहां तक हिंदुओं की अपने धर्म के अतिरिक्त इस्लाम के प्रति भी श्रद्धा का सवाल है तो सच्चाई ये है कि अधिसंख्य हिंदू टोने-टोटकों के मामले में हिंदू तांत्रिकों की बजाय मुस्लिम तांत्रिकों के पास ज्यादा जाते हैं। वजह क्या है, ठीक पता नहीं, मगर कदाचित उनकी ये सोच हो सकती है कि मुस्लिम तंत्र विज्ञान ज्यादा प्रभावशाली है।
रहा सवाल मुस्लिमों को तो इस्लाम जिस मूल अवधारणा पर खड़ा है, उसमें जरूर मंदिर में मूर्ति के सामने सिर झुकाने को गलत माना जाता है। वह तो खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। जिस प्रकार हिंदू धर्म का ही एक समुदाय आर्य समाज मूर्ति प्रथा के खिलाफ खड़ा हुआ है। जैसे आर्यसमाजी को मूर्ति के आगे झुकने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता, वैसे ही मुस्लिम को भी बुतपरस्ती की प्रेरणा नहीं दी जा सकती। ये बात अलग है कि चुनाव में वोट पाने के लिए अजमेर के पांच बार सांसद रहे प्रमुख आर्यसमाजी प्रो. रासासिंह रावत अपने सामज के वोट पाने के लिए जातिसूचक लगाते रहे और राम मंदिर आंदोलन में भी खुल कर भाग लिया। एकेश्वरवाद की नींव पर विकसित हुए इस्लाम में अकेले खुदा को ही सर्वोच्च सत्ता माना गया है। एक जमाना था जब अलग कबीलों के लोग अपने बुजुर्गों को ही अपना खुदा मानते थे, मगर इस्लाम के पैगंबर ने यह अवधारणा स्थापित की कि अल्लाह एक है, उसी को सर्वोच्च मानना चाहिए। सम्मान में भले किसी के आगे झुकने की छूट है, मगर सजदा केवल खुदा के सामने ही करने का विधान है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है। और यही वजह है कि दरगाह में मुस्लिमों से ज्यादा हिंदू हाजिरी देते हैं। इसका ये मतलब नहीं कि हिंदुओं की आस्था मुस्लिमों से ज्यादा है, अपितु इसलिए कि हिंदू बहुसंख्यक हैं। स्वाभाविक रूप से जियारत करने वालों में हिंदू ज्यादा होते हैं। यह बात दीगर है कि उनमें से कई इस कारण दरगाह जाते हैं कि उनका मकसद सिर झुकाना अथवा आस्था नहीं, बल्कि दरगाह को एक पर्यटन स्थल मानना है।

शुक्रवार, जनवरी 07, 2011

...तो फिर मुख्यमंत्री पद छोड़ क्यों नहीं देते उमर अब्दुल्ला?

जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर स्थित लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भाजयुमो के निर्णय और उस पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयान पर बवाल शुरू हो गया है। बवाल होना ही है। जब अपने ही देश में तिरंगा फहराने पर दंगा होने की चेतावनी दी जाएगी तो आग लगेगी ही। होना तो यह चाहिए था कि उमर अब्दुल्ला ये कहते कि भले ही कैसे भी हालात हों, मगर वे झंडा फहराने के लिए पूरी सुरक्षा मुहैया करवाएंगे। मगर उन्होंने यह कह कर कि भाजयुमो के झंडा फहराने पर दंगा हुआ तो उसकी जिम्मेदारी उसी की होगी, एक तरह से साफ मान लिया है कि वहां सरकार आतंवादियों के दबाव में ही काम कर रही है और सरकार का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है। और यदि नियंत्रण नहीं है तो फिर उनको पद बने रहने का कोई अधिकार भी नहीं है। असल बात तो ये है कि उन्हें एक कमजोर मुख्यमंत्री होने के कारण पहले ही हटाने की नौबत आ गई थी, मगर तब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यह कह कर बचा लिया कि उन्हें हालात से निपटने के लिए और समय दिया जाना चाहिए। लेकिन उमर अब्दुल्ला के ताजा बयान देने से यह साफ हो गया है कि उनका राज्य के जमीनी हालात पर नियंत्रण बिलकुल नहीं है। वे एक अनुभवहीन राजनेता हैं, जिनके लिए कश्मीर जैैसे जटिलताओं से भरे राज्य का नेतृत्व संभालना कत्तई संभव नहीं है। उनको और समय देने का कोई फायदा ही नहीं है।
हालांकि यह सही है आतंकवादियों ने यह चुनौती दी है कि भाजयुमो झंडा फहरा कर तो देखे अर्थात वे टकराव करने की चेतावनी दे रहे हैं, मगर एक मुख्यमंत्री का झंडा न फहराने की नसीहत देना साबित करता है कि वे आतंकवादियों से घबराये हुए हैं। भले ही उन्होंने कानून-व्यवस्था के लिहाज से ऐसा वक्तत्व दिया होगा, मगर क्या उन्होंने यह नहीं सोचा कि ऐसा कहने पर आतंकवादियों के हौसले और बुलंद होंगे। ऐसा करके न केवल उन्होंने हर राष्ट्रवादी को चुनौती दी है, अपितु आतंकवादियों को भी शह दे दी है।
यहां उल्लेखनीय है कि भाजयुमो के मूल संगठन भाजपा शुरू से कहती रही है कि कश्मीर के हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। भाजपा का आरोप स्पष्ट आरोप है कि पाकिस्तान कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी को आसान और प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इसके लिए अलगाववाद प्रभावित जिलों में बाकायदा ट्रकों में भर-भरकर पत्थर लाए जाते हैं। प्रति ट्रक एक हजार से बारह सौ रुपए की दर से पत्थरों की सप्लाई होती है और पथराव करने वाले युवकों को पांच सौ रुपए प्रति दिन के हिसाब से भुगतान किया जाता है। केंद्र और राज्य सरकार ने भाजपा के आरोप को गंभीरता से नहीं लिया था। बाद में केंद्र और राज्य को इस बात का अहसास हुआ है कि पत्थरबाजी कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है, बल्कि बाकायदा फिलस्तीन की तर्ज पर रणनीति के बतौर इस्तेमाल की जा रही है। कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर किए जा रहे हमले भी इसी रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जरूरत तो इस बात की थी कि अपनी जान जोखिम में डालकर घाटी में आतंकवादियों का सामना कर रहे सुरक्षा बलों के हाथ मजबूत किए जाते और उन्हें जमीनी हालात को ध्यान में रखते हुए जवाबी कार्रवाई करने की छूट दी जाती। उलटे सीआरपीएफ  को तथाकथित असंयमित प्रतिक्रिया के लिए कटघरे में खड़ा कर दिया गया। केंद्र सरकार शायद पाकिस्तान के साथ जारी बातचीत की ताजा प्रक्रिया के मद्देनजर इस दिशा में चुप्पी साधे हुए है, लेकिन गौर करने की बात यह है कि क्या दूसरा पक्ष पाकिस्तान भी ऐसा ही नजरिया अपना रहा है? राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर जरूरत से ज्यादा संयम दिखाकर हम भारत विरोधी तत्वों और कश्मीर की जनता को सही संकेत नहीं दे रहे। एक ओर पूरा देश कश्मीर की घटनाओं से चिंतित है और दूसरी तरफ  राज्य सरकार की निष्क्रियता और अदूरदर्शिता ने हालात को और नाजुक बना दिया है।
जम्मू कश्मीर की ताजा गुत्थी को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा फौरन कदम उठाए जाने की जरूरत है। वहां पाकिस्तान, अलगाववादियों, आतंकवादियों, विपक्षी दलों और लापरवाह प्रशासन जैसे सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए प्रभावी रणनीति बनाने की जरूरत है।

बुधवार, जनवरी 05, 2011

बेदाग होते ही डॉ. बाहेती को ललकारा धर्मेश जैन ने

सीडी के लंका दहन कांड से निकल कर सुंदरकांड में पहुंचते ही नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन ने उन्हें शहीद करवाने में अहम भूमिका अदा करने वाले पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को ललकार दिया है। इतना ही नहीं उन्होंने खुद के कार्यकाल के साथ डॉ. बाहेती और पिछले दो साल के कार्यकाल की जांच करवाने की चुनौती दे दी है। समझा जाता है कि आने वाले दिनों वे न्यास को लेकर अन्य अनेक मामलों में ताबड़तोड़ हमले कर सकते हैं।
नए साल में बदली ग्रह दशा से उत्साहित जैन ने यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि यहा पता लगाया जाए कि आखिर सीडी आई कहां से थी। एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि जिस ऑडियो सीडी की वजह से उन्होंने नैतिकता के आधार पर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, उस सीडी को सीआईडी सीबी ने जांच में संदिग्ध करार दे दिया है, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि वह सीडी उनके खिलाफ एक बड़ा षड्यंत्र था। सीडी बनाने वालों ने न केवल उन्हें अपितु प्रदेश की श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार को भी बदनाम करने की साजिश रची थी। उन्होंने कहा कि कदाचित भाजपा शासन काल में जांच रिपोर्ट पेश होती तो उस पर संदेह की गुंजाइश होती, मगर कांग्रेस शासन काल में ही जांच रिपोर्ट रखे जाने से साफ हो गया है कि उनके खिलाफ कितना बड़ा षड्यंत्र किया गया था।
जैन ने कहा कि सीआईडी सीबी ने साफ तौर पर माना है कि एफएसएल रिपोर्ट के अनुसार रिकार्डिंग की आवाज में कई अवरोध व जोड़ हैं, जिससे आवाज का प्रवाह जोड़-जोड़ कर बनाया गया है, अत: सीडी संदिग्ध प्रतीत होती है। हालांकि सीआईडी सीबी ने सीडी बनाने वाले का पता लगाना असंभव माना है, लेकिन यह सवाल आज भी मुंह बाये खड़ा है कि विधानसभा के पटल पर रखी गई सीडी आखिर आई कहां से? सरकार ने इसकी जांच क्यों नहीं की? सरकार से आग्रह है कि वह यह जांच कराए कि विधानसभा के में पेश की गई सीडी का मूल स्रोत क्या है? सरकार कांग्रेस के तत्कालीन पुष्कर विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती से भी जवाब-तलब करे कि वे सीडी कहां से ले कर आए? कहीं इसमें वे स्वयं तो संलिप्त नहीं हैं? आज जब कि वह सीडी संदिग्ध करार दे दी गई है, वह कहां से आई, इसका जवाब देने के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं कांग्रेस के तत्कालीन पुष्कर विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व अन्य विधायक, जिन्होंने बिना किसी ठोस आधार के विधानसभा की कार्यवाही को तुरंत रोक कर चर्चा करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने न केवल झूठ का सहारा लेकर स्थगन प्रस्ताव के जरिए विधानसभा की कार्यवाही बाधित की, अपितु तत्कालीन भाजपा सरकार और उन्हें बदनाम करने की साजिश भी रची। हालांकि सीआईडी सीबी ने सीडी बनाने वाले का पता लगाना असंभव माना है, लेकिन जब तक सीडी के मूल स्रोत का पता नहीं लग जाता, तब तक यह खुलासा होना कठिन है कि उस षड्यंत्र में शामिल कौन था?
जैने ने कहा कि जैसे ही सीडी उजागर हुई, उन्होंने स्वयं पहल कर नैतिकता के आधार पर पद त्याग दिया और उनके कार्यकाल की जांच कराने का आग्रह किया। अब मौजूदा कांग्रेस सरकार को खुली चुनौती है कि वह न केवल उनके कार्यकाल, अपितु सीडी प्रकरण को उछालने वाले तत्कालीन विधायक डॉ.श्रीगोपाल बाहेती के न्यास के अध्यक्षीय कार्यकाल के साथ पिछले दो साल के कार्यकाल की भी जांच कराए, ताकि यह खुलासा हो सके कि न्यास में किस हद तक भ्रष्टाचार किया जा रहा है और आम जनता कितनी पीडि़त है।
उन्होंने कहा कि बिना किसी ठोस आधार पर सीडी प्रकरण को उछालने का परिणाम ये हुआ कि उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया और उनके द्वारा शुरू किए गए सारे विकास कार्य ठप हो गए, जिसके लिए अजमेर की जनता डॉ. बाहेती को कोस रही है। कांग्रेस के सत्ता में आने बाद तो विकास कार्य पूरी तरह से बंद ही कर दिए गए हैं। अर्थात अकेले डॉ. बाहेती की वजह से अजमेर के तकरीबन तीन साल खराब हो गए हैं और कितना बड़ा नुकसान हुआ है। क्या बाहेती यह जवाब देंगे कि उनकी पार्टी की सरकार के बनने के बाद विकास कार्य क्यों बंद कर दिए और प्रशासन को भ्रष्टाचार करने की खुली छूट क्यों दी हुई है, जिससे आम जनता त्रस्त है? हालात ये है कि कांग्रेस सरकार दो साल बाद तक भी न्यास में जनता के प्रतिनिधित्व वाला बोर्ड गठित नहीं कर पाई है। इन दो सालों में न्यास में किस प्रकार भ्रष्टाचार का नग्न तांडव हो रहा है, इसका खुलासा खुद कांग्रेस के ही जिम्मेदार पदाधिकारी ही कर रहे हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि सरकारी संरक्षण में ही प्रशासनिक अधिकारियों को भ्रष्टाचार करने की छूट दे रखी गई है?
जैन ने कहा कि अकेले एक मामले से ही स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस केवल झूठ पर ही टिकी हुई है। कांग्रेस ने आम जनता को बरगला कर पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगाए। वे बार-बार खुली चुनौती दे रही हैं कि आरोपों को साबित करके दिखाएं, मगर आज दो साल बाद तक एक भी आरोप को वह सच साबित नहीं कर पाई है। आम जनता अच्छी तरह से जान गई है कि कांग्रेस को आम जनता के हित और विकास से कोई लेना-देना नहीं है और वह खुद भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है।
न्यास में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अब भाजपा भी करेगी हमला
अजमेर नगर सुधार न्यास में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर सत्तारूढ़ दल ने तो आसमान सिर पर उठा ही रखा है, अब भाजपा भी इस मामले में न्यास को घेरने जा रही है। हालांकि पूर्व में बुधवार को ही प्रदर्शन कर ज्ञापन देने की योजना थी, मगर उस दिन पूर्व राज्यपाल बलिराम भगत के निधन की वजह से अवकाश घोषित होने के कारण उसे टाल दिया गया। अब समझा जाता है कि नई जिला कलेक्टर मंजू राजपाल के कार्यभार संभालने के बाद ही भाजपा हल्ला बोलेगी। लंबे समय की चुप्पी के बाद भाजपा भी चाहती है कि सक्रियता दिखाई जाए, वरना आम जनता में गलत संदेश जाएगा कि कांग्रेस सत्ता में होते हुए भी जनहित के मुद्दे को उठा रही है, जबकि भाजपा चुप बैठी है। समझा जाता है कि न्यास पर हमले की जिम्मेदारी मौटे तौर पर न्यास के पूर्व सदर धर्मेश जैन को सौंपी जा सकती है, क्यों कि उनकी न्यास के मामलों में अच्छी जानकारी है।
जानकारी के अनुसार भाजपा ने भी न्यास में हो रहे करोड़ों रुपए के भ्रष्टाचार के तथ्य जुटा लिए हैं और साथ ही उन कामों को भी सूचीबद्ध किया जा रहा है, जिनको भाजपा शासनकाल में शुरू किया गया, लेकिन कांग्रेस ने सत्ता में आते ही उन्हें बंद कर दिया।
मामले का दिलचस्प पहलु ये है कि कांग्रेस ने भले ही केवल न्यास सचिव अश्फाक हुसैन व विशेषाधिकारी अनुराग भार्गव को निशाना बनाया है, मगर न्यास के पदेन अध्यक्ष होने के नाते जिला कलेक्टर राजेश यादव पर भी इसकी जिम्मेदारी है। उनका तबादला कर मुख्यमंत्री कार्यालय में लगाए जाने पर भी कई तरह की चर्चाएं हैं। कुछ लोग कह रहे हंै कि यादव को बचाने के लिए सरकार ने ऐसा किया है, जबकि कुछ लोग मानते हैं कि उन्हें इसी कारण हटाया गया है, क्यों कि यादव तक भी आंच वाली थी। सच क्या है यह सरकार ही जाने, मगर चर्चा है कि कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन के बाद भी कोई कार्यवाही न होने के कारण अब भ्रष्टाचार के मामलों की सूची बना कर तथ्यों के साथ एसीबी को देने की रणनीति भी बनाई जा रही है। इसके अतिरिक्त सीबीआई जांच भी कराने पर जोर डाला जाएगा। समझा जाता है कि जिस प्रकार के प्रमाण हैं, न केवल जिम्मेदार अधिकारी अपितु कुछ प्रमुख भूमि दलाल शिकंजे में आ सकते हैं।