लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से पराजित होने के बाद नैतिकता के आधार पर राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोडऩे के पश्चात काफी दिन बाद भी नया पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं बनने से कांग्रेस के नेता व कार्यकर्ता चिंतित हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्यों कि इस मसले के साथ उनका राजनीतिक भविष्य जुड़ा हुआ है। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि उनसे भी अधिक चिंता मीडिया को है। यह वही मीडिया है जो कि कांग्रेस के परिवारवाद पर लगातार हमले करता है, मगर साथ यह भी कहता है कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का वजूद ही खत्म हो जाएगा। जब राहुल इस्तीफा देते हैं तो पहले कहते हैं कि वे नौटंकी कर रहे हैं, मगर जब राहुल अपने इस्तीफे पर अड़ ही जाते हैं तो कहता है कि उन्हें रणछोड़दास नहीं बनना चाहिए, इससे आम कांग्रेस कार्यकर्ता हतोत्साहित है और कांग्रेस बिखर जाएगी। गहन चिंतन-मनन के बाद जब पार्टी के अधिसंख्य नेता दबाव बनाते हैं तो सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनने को राजी हो जाती हैं, इस पर फिर वही राग छेड़ते हैं कि देखा, आखिर पार्टी परिवारवाद से छुटकारा नहीं कर पा रही। इस मुद्दे पर वाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के आदतन टिप्पणीकार बाकायदा मुहिम छेड़ हुए हैं, जिनमें कई अभद्र टिप्पणियां हैं।
चलो मीडिया को तो करंट मुद्दा चाहिए होता है, डिस्कशन करने को, मगर भाजपा नेता भी बड़े परेशान हैं। बात वे यह कह कर शुरू करते हैं कि यह कांग्रेस का आंतरिक मामला है, मगर फिर घूम फिर कर इस बात पर आ जाते हैं कि कांग्रेस परिवारवाद से बाहर नहीं आ पाएगी।
पहले मीडिया की बात। अमूमन कांग्रेस विरोधी व प्रो. मोदी रहे जाने-माने पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने हाल ही एक पोस्ट शाया की है। उनकी चिंता है कि कांग्रेस अपना अध्यक्ष कैसे चुने। वे कहते हैं कि कांग्रेस-जैसी महान पार्टी कैसी दुर्दशा को प्राप्त हो गई है ? राहुल गांधी के बालहठ ने कांग्रेस की जड़ों को हिला दिया है। कांग्रेस के सांसद और कई प्रादेशिक नेता रोज-रोज पार्टी छोडऩे का ऐलान कर रहे हैं। मुझे तो डर यह लग रहा है कि यही दशा कुछ माह और भी खिंच गई तो कहीं कांग्रेस का हाल भी राजाजी की स्वतंत्र पार्टी, करपात्रीजी की रामराज्य परिषद, लोहियाजी की समाजवादी पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरह न हो जाए।
वे सीधे तौर पर कांग्रेस की हालत बयां कर रहे हैं, मगर साथ ही यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत चिंताजनक चुनौती होगी। इस समय देश को एक मजबूत, परिपक्व और जिम्मेदार विपक्ष की बहुत जरूरत है। उसके बिना भारत एक बिना ब्रेक की मोटर कार बनता चला जाएगा।
इसी प्रकार एक लेखक को चिंता है कि आखिर कौन संभालेगा अब सौ वर्ष से भी ज्यादा पुरानी पार्टी को? विशेष रूप से धारा 370 हटने के बाद जिस प्रकार पार्टी के बड़े नेताओं ने पार्टी लाइन से हट कर निर्णय का स्वागत किया है, उससे बगावत के हालात बन रहे हैं। उन्हें चिंता है कि जब कांग्रेस का स्वयं का नेतृत्व ही कमजोर है, तो विपक्ष की एकता क्या होगा? यानि कि वे कांग्रेस की अहमियत को भी समझ रहे हैं। इसी लिए सलाह देते हैं कि कांग्रेस को अपनी भूमिका जल्द तय करनी चाहिए। साथ ही राहुल गांधी को ये सलाह देते हैं कि वे यह अच्छी तरह समझ लें कि गांधी परिवार के बगैर कांगे्रस का कोई वजूृद नहीं है।
एक लेखक को दिक्कत है कि जिन सोनिया गांधी ने कभी राहुल गांधी को कहा था कि सत्ता जहर है, उन्होंने वापस कांग्रेस अध्यक्ष का पद इसलिए संभाल लिया, क्योंकि उन्हें पता है कि अब कांग्रेस को कई साल तक यह जहर पीना नसीब नहीं होगा। वे घोषित कर रहे हैं कि भले ही सोनिया ने पार्टी के उद्धार के लिए उसे अपने आंचल में समेट लिया है, मगर अब वह शायद जल्द संभव नहीं है। अधिसंख्य पत्रकारों की तरह उनको भी चिंता है कि कांग्रेस हालत देश और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। ये स्थिति सत्ता पक्ष को बेलगाम और तानाशाह बना सकती है।
कुल जमा निष्कर्ष ये है कि सभी कांग्रेस के परिवारवाद की आलोचना भी कर रहे हैं, साथ ये भी स्वीकार कर रहे हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस खत्म हो जाएगी। साथ ही यह चिंता भी जता रहे हैं कि अगर कांग्रेस की हालत खराब हुई तो मजबूत विपक्ष का क्या होगा, लोकतंत्र का क्या होगा? कैसा विरोधाभास है? अपने तो समझ से बाहर है। अपुन को तो यही लगता है कि मीडिया का जो भी मकसद हो, मगर ये मीडिया ही कांग्रेस के वजूद को कायम करने वाला है।
वैसे असल बात ये है कि भले ही कांग्रेस एक परिवार पर ही टिकी हो, मगर दरअसल यह एक पार्टी से कहीं अधिक एक विचारधारा है। चाहे हिंदूवादी विचारधारा कितनी भी प्रखर हो जाए, मगर धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा सदैव कायम रहेगी। किसी भी नाम से। कहते हैं न कि विचार कभी समाप्त नहीं होता। एक जमाना था, जब भाजपा के महज दो ही सांसद लोकसभा में थे। मगर पार्टी हतोत्साहित नहीं हुई। अपने विचार को लेकर चलती रही और आज सत्ता पर प्रचंड बहुमत के साथ काबिज है।
एक बड़ी सच्चाई ये भी है कि आम भारतीय कट्टर नहीं है, कभी हवा में बहता जरूर है, मगर फिर लिबरल हो जाता है, क्यों कि यही उसका स्वभाव है। ठीक वैसे ही, जैसे पानी को कितना भी गरम कर लो, मगर फिर अपने स्वभाव की वजह से शीतल हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
चलो मीडिया को तो करंट मुद्दा चाहिए होता है, डिस्कशन करने को, मगर भाजपा नेता भी बड़े परेशान हैं। बात वे यह कह कर शुरू करते हैं कि यह कांग्रेस का आंतरिक मामला है, मगर फिर घूम फिर कर इस बात पर आ जाते हैं कि कांग्रेस परिवारवाद से बाहर नहीं आ पाएगी।
पहले मीडिया की बात। अमूमन कांग्रेस विरोधी व प्रो. मोदी रहे जाने-माने पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने हाल ही एक पोस्ट शाया की है। उनकी चिंता है कि कांग्रेस अपना अध्यक्ष कैसे चुने। वे कहते हैं कि कांग्रेस-जैसी महान पार्टी कैसी दुर्दशा को प्राप्त हो गई है ? राहुल गांधी के बालहठ ने कांग्रेस की जड़ों को हिला दिया है। कांग्रेस के सांसद और कई प्रादेशिक नेता रोज-रोज पार्टी छोडऩे का ऐलान कर रहे हैं। मुझे तो डर यह लग रहा है कि यही दशा कुछ माह और भी खिंच गई तो कहीं कांग्रेस का हाल भी राजाजी की स्वतंत्र पार्टी, करपात्रीजी की रामराज्य परिषद, लोहियाजी की समाजवादी पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरह न हो जाए।
वे सीधे तौर पर कांग्रेस की हालत बयां कर रहे हैं, मगर साथ ही यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत चिंताजनक चुनौती होगी। इस समय देश को एक मजबूत, परिपक्व और जिम्मेदार विपक्ष की बहुत जरूरत है। उसके बिना भारत एक बिना ब्रेक की मोटर कार बनता चला जाएगा।
इसी प्रकार एक लेखक को चिंता है कि आखिर कौन संभालेगा अब सौ वर्ष से भी ज्यादा पुरानी पार्टी को? विशेष रूप से धारा 370 हटने के बाद जिस प्रकार पार्टी के बड़े नेताओं ने पार्टी लाइन से हट कर निर्णय का स्वागत किया है, उससे बगावत के हालात बन रहे हैं। उन्हें चिंता है कि जब कांग्रेस का स्वयं का नेतृत्व ही कमजोर है, तो विपक्ष की एकता क्या होगा? यानि कि वे कांग्रेस की अहमियत को भी समझ रहे हैं। इसी लिए सलाह देते हैं कि कांग्रेस को अपनी भूमिका जल्द तय करनी चाहिए। साथ ही राहुल गांधी को ये सलाह देते हैं कि वे यह अच्छी तरह समझ लें कि गांधी परिवार के बगैर कांगे्रस का कोई वजूृद नहीं है।
एक लेखक को दिक्कत है कि जिन सोनिया गांधी ने कभी राहुल गांधी को कहा था कि सत्ता जहर है, उन्होंने वापस कांग्रेस अध्यक्ष का पद इसलिए संभाल लिया, क्योंकि उन्हें पता है कि अब कांग्रेस को कई साल तक यह जहर पीना नसीब नहीं होगा। वे घोषित कर रहे हैं कि भले ही सोनिया ने पार्टी के उद्धार के लिए उसे अपने आंचल में समेट लिया है, मगर अब वह शायद जल्द संभव नहीं है। अधिसंख्य पत्रकारों की तरह उनको भी चिंता है कि कांग्रेस हालत देश और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। ये स्थिति सत्ता पक्ष को बेलगाम और तानाशाह बना सकती है।
कुल जमा निष्कर्ष ये है कि सभी कांग्रेस के परिवारवाद की आलोचना भी कर रहे हैं, साथ ये भी स्वीकार कर रहे हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस खत्म हो जाएगी। साथ ही यह चिंता भी जता रहे हैं कि अगर कांग्रेस की हालत खराब हुई तो मजबूत विपक्ष का क्या होगा, लोकतंत्र का क्या होगा? कैसा विरोधाभास है? अपने तो समझ से बाहर है। अपुन को तो यही लगता है कि मीडिया का जो भी मकसद हो, मगर ये मीडिया ही कांग्रेस के वजूद को कायम करने वाला है।
वैसे असल बात ये है कि भले ही कांग्रेस एक परिवार पर ही टिकी हो, मगर दरअसल यह एक पार्टी से कहीं अधिक एक विचारधारा है। चाहे हिंदूवादी विचारधारा कितनी भी प्रखर हो जाए, मगर धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा सदैव कायम रहेगी। किसी भी नाम से। कहते हैं न कि विचार कभी समाप्त नहीं होता। एक जमाना था, जब भाजपा के महज दो ही सांसद लोकसभा में थे। मगर पार्टी हतोत्साहित नहीं हुई। अपने विचार को लेकर चलती रही और आज सत्ता पर प्रचंड बहुमत के साथ काबिज है।
एक बड़ी सच्चाई ये भी है कि आम भारतीय कट्टर नहीं है, कभी हवा में बहता जरूर है, मगर फिर लिबरल हो जाता है, क्यों कि यही उसका स्वभाव है। ठीक वैसे ही, जैसे पानी को कितना भी गरम कर लो, मगर फिर अपने स्वभाव की वजह से शीतल हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000