तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, अगस्त 21, 2024

सुकून संन्यास में भी नहीं है?

कुछ विद्वानों को आपने यह कहते सुना होगा कि वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम में जितनी तपस्या है, उससे कहीं अधिक तपस्या गृहस्थ में है। असल तपस्या गृहस्थ में ही है। वह इसलिए कि संसार में बहुत संघर्श है, समस्याएं हैं, अहम का टकराव है, वर्चस्व की होडा होडी है। तलवार की धार पर चलने के समान है गृहस्थ। अर्थात यहां संतुलन के साथ सफल होने में बहुत तप करना होता है। इस धारणा से ऐसा प्रतीत होता है कि वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम में बहुत आनंद है, बहुत सुकून है, अध्यात्मिक दुनिया चिंता से रहित है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। रूहानी दुनिया में भौतिक सुख सुविधाओं के अभाव की वजह से जो कष्ट हैं, जो तप है, उससे कहीं अधिक तप है, विभिन्न षक्तियों के बीच सामंजस्य बैठाना। वहां भी तथाकथित दिव्य षक्तियां एक दूसरे को दबाने की कोषिष करती हैं। आसुरी षक्तियों से तो मुकाबला करना होता ही है, दैवीय षक्तियों के बीच भी कडी प्रतिस्पर्धा है। संन्यासी का भी एक तरह का साम्राज्य होता है। जिसके जितने अधिक षिश्य, अनुयायी, वह उतना ही बडा संन्यासी। वहां बस नाते रिष्तेदार नहीं, मगर उससे अधिक भीड होती है षिश्यों की, अनुयाइयों की। अहम और भी घनीभूत हो जाता है। गृहस्थ की तरह ही अहम की एशणा है। तभी तो कभी कोई ऋशि घोर तपस्या करता है तो इंद्र को अपना आसन हिलता नजर आता है और वे उसकी तपस्या को भंग करने की कोषिष करते हैं।