इन दिनों वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के हाफिज सईद से मिलने का मुद्दा गरमाया हुआ है। चूंकि वे बाबा रामदेव से सीधे जुड़े हुए हैं और बाबा रामदेव तथा उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान भी मोदी व भाजपा को जितवाने के प्रयास किए, इस कारण भाजपा खेमे की सिट्टी पिट्टी गुम है। वे इसे पत्रकारिता का मुद्दा बता कर पल्लू झाड़ रहे हैं। उनके गुण-अवगुण को पत्रकार जगत पर छोड़े दे रहे हैं। जाहिर है वे उन्हें बचाना चाहते हैं। यहां तक कि बड़े-बड़े पत्रकार भी पत्रकारिता की खेमेबाजी के कारण उनकी तरफदारी कर रहे हैं। दूसरी ओर कांग्रेस ने इसे बड़ा मुद्दा बना कर आसमान सिर पर उठा रखा है कि वैदिक ने चूंकि देश के सबसे बड़े दुश्मन से मुलाकात की है, इस कारण उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए।
सवाल ये उठता है कि आखिर माजरा क्या है? जैसा कि कुछ वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि बेशक वैदिक का सईद से मिलना कानूनी अपराध नहीं हो सकता है, विशेष रूप से पत्रकार होने के नाते, क्योंकि पत्रकारिता का कर्म ही ऐसा है कि पत्रकार को कई लोगों से मिलना होता है, मगर क्या वे केवल पत्रकार हैं? क्या उससे पहले भारत देश के नागरिक नहीं? क्या उनका पत्रकारिता का धर्म राष्ट्र भक्ति व देश के वफादारी से कहीं अधिक हो गया? और अफसोस तो तब होता है जबकि आप इस मुलाकात पर इठला रहे हैं कि आपने कोई बड़ा तीर मार लिया है। मुलाकात पर हंगामा होते ही उन्होंने इसे अपनी बड़ी उपलब्धि करार दिया। यहां तक कहा कि कोई कांग्रेसी नेता होता तो उसका पायजामा गीला हो जाता। उनका जो दंभ सामने आया, उससे तो यही लगता है कि भले ही वे किसी मिशन के तहत सईद से नहीं मिले, मगर उससे मिलने पर क्या बवाल होना है, इससे अच्छी तरह से वाकिफ थे। वे ये भी जानते थे कि वे यह कह आसानी से बच जाएंगे कि वे तो पत्रकार हैं, इस कारण कई नेताओं से मिलते रहते हैं।
जो तथ्य हैं उससे साफ है वे मिले ही भले एक पत्रकार के नाते, मगर उन्होंने वहां पत्रकारिता जैसा कोई काम नहीं किया। बात रही उनके पत्रकार होने के नाते वरिष्ठ पत्रकारों के उनकी तरफदारी की तो वजह स्पष्ट है, अनेक उनके शिष्य रहे हैं या फिर किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं, इस कारण व्यक्तिगत द्वेष से बचाना चाहते हैं। एक वर्ग इस मुद्दे को पत्रकारिता की स्वतंत्रता की वजह से चुप है।
तस्वीर का एक रुख ये भी है कि भले ही वैदिक को एक पत्रकार के रूप में देखा जा रहा हो, चूंकि उनका अधिकतर जीवन पत्रकारिता में ही बीता है, मगर सच ये भी है कि हाल ही के लोकसभा चुनाव में वे खुल कर भाजपा के पक्ष में लिखने लग गए थे। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में उनकी भी भूमिका रही, जिसे वे स्वयं स्वीकार करते हैं। यहां तक कहते हैं कि मोदी का नाम उन्होंने ही प्रस्तावित किया था। ऐसे में क्या ये सवाल नहीं उठता कि पत्रकार कब से किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के लिए काम करने लगे। उन्होंने भले ही भाजपा की सदस्यता नहीं ली, जिसका तर्क दे कर भाजपा उनसे पल्लू झाड़ रही है, मगर उनके सारे कृत्य तो भाजपा के ही पक्ष में थे। मोदी के लिए प्रचार करने वाले योग गुरू बाबा रामदेव के साथ उनकी कितनी घनिष्ठता है, ये किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अगर उन पर भाजपाई होने का आरोप लग रहा है तो उसमें गलत क्या है?
वास्तव में वैदिक को पहली बार में ही हाफिज से मिलने के लिए साफ मना करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने राष्ट्र धर्म नहीं निभाया। और सबसे बड़ा सवाल ये कि वे ऐसी कौन सी पत्रकारिता करने का आतुर थे कि राष्ट्रधर्म निभाना ही भूल गए? सबसे बड़ा सवाल ये कि वैदिक को सईद से मिलने की इतनी जरूरत क्या आ पड़ी थी? बहरहाल अब मामला तूल पकड़ चुका है। उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया है। अब कोर्ट ही तय करेगा कि उनका कृत्य उचित था या अनुचित।
-तेजवानी गिरधर
सवाल ये उठता है कि आखिर माजरा क्या है? जैसा कि कुछ वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि बेशक वैदिक का सईद से मिलना कानूनी अपराध नहीं हो सकता है, विशेष रूप से पत्रकार होने के नाते, क्योंकि पत्रकारिता का कर्म ही ऐसा है कि पत्रकार को कई लोगों से मिलना होता है, मगर क्या वे केवल पत्रकार हैं? क्या उससे पहले भारत देश के नागरिक नहीं? क्या उनका पत्रकारिता का धर्म राष्ट्र भक्ति व देश के वफादारी से कहीं अधिक हो गया? और अफसोस तो तब होता है जबकि आप इस मुलाकात पर इठला रहे हैं कि आपने कोई बड़ा तीर मार लिया है। मुलाकात पर हंगामा होते ही उन्होंने इसे अपनी बड़ी उपलब्धि करार दिया। यहां तक कहा कि कोई कांग्रेसी नेता होता तो उसका पायजामा गीला हो जाता। उनका जो दंभ सामने आया, उससे तो यही लगता है कि भले ही वे किसी मिशन के तहत सईद से नहीं मिले, मगर उससे मिलने पर क्या बवाल होना है, इससे अच्छी तरह से वाकिफ थे। वे ये भी जानते थे कि वे यह कह आसानी से बच जाएंगे कि वे तो पत्रकार हैं, इस कारण कई नेताओं से मिलते रहते हैं।
जो तथ्य हैं उससे साफ है वे मिले ही भले एक पत्रकार के नाते, मगर उन्होंने वहां पत्रकारिता जैसा कोई काम नहीं किया। बात रही उनके पत्रकार होने के नाते वरिष्ठ पत्रकारों के उनकी तरफदारी की तो वजह स्पष्ट है, अनेक उनके शिष्य रहे हैं या फिर किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं, इस कारण व्यक्तिगत द्वेष से बचाना चाहते हैं। एक वर्ग इस मुद्दे को पत्रकारिता की स्वतंत्रता की वजह से चुप है।
तस्वीर का एक रुख ये भी है कि भले ही वैदिक को एक पत्रकार के रूप में देखा जा रहा हो, चूंकि उनका अधिकतर जीवन पत्रकारिता में ही बीता है, मगर सच ये भी है कि हाल ही के लोकसभा चुनाव में वे खुल कर भाजपा के पक्ष में लिखने लग गए थे। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में उनकी भी भूमिका रही, जिसे वे स्वयं स्वीकार करते हैं। यहां तक कहते हैं कि मोदी का नाम उन्होंने ही प्रस्तावित किया था। ऐसे में क्या ये सवाल नहीं उठता कि पत्रकार कब से किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के लिए काम करने लगे। उन्होंने भले ही भाजपा की सदस्यता नहीं ली, जिसका तर्क दे कर भाजपा उनसे पल्लू झाड़ रही है, मगर उनके सारे कृत्य तो भाजपा के ही पक्ष में थे। मोदी के लिए प्रचार करने वाले योग गुरू बाबा रामदेव के साथ उनकी कितनी घनिष्ठता है, ये किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अगर उन पर भाजपाई होने का आरोप लग रहा है तो उसमें गलत क्या है?
वास्तव में वैदिक को पहली बार में ही हाफिज से मिलने के लिए साफ मना करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने राष्ट्र धर्म नहीं निभाया। और सबसे बड़ा सवाल ये कि वे ऐसी कौन सी पत्रकारिता करने का आतुर थे कि राष्ट्रधर्म निभाना ही भूल गए? सबसे बड़ा सवाल ये कि वैदिक को सईद से मिलने की इतनी जरूरत क्या आ पड़ी थी? बहरहाल अब मामला तूल पकड़ चुका है। उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया है। अब कोर्ट ही तय करेगा कि उनका कृत्य उचित था या अनुचित।
-तेजवानी गिरधर