हमारे यहां पूर्णिमा के दिन भगवान सत्यनारायण की कथा करने का प्रचलन है। किसी शुभारंभ के मौके पर भी यह कथा करवाई जाती है। इस कथा में पांच अध्याय होते हैं, जिनमें यह वर्णन होता है कि अमुक व्यक्ति ने कथा की तो उसे बहुुत फायदा हुआ और अमुक ने भूल से कथा नहीं की या कथा का अनादर किया तो उसका अनिष्ट हो गया। आज हम जो कथा कर रहे हैं, वह वाकई सत्यनाराण भगवान की कथा ही है, चूंकि उसमें भगवान की महिमा है, मगर सवाल ये उठता है कि पांचों अध्यायों में जिन लोगों ने कथा की वह आखिर कौन सी कथा थी? यह बिलकुल साफ है कि हम जो कथा कर रहे हैं, वह उन पांच अध्यायों में कथा करने वालों ने नहीं की थी। वह कथा कोई और ही है। वह कहां खो गई? यदि पांच अध्याय वाली कथा से हमें सुख-संपत्ति मिलती है तो मौलिक कथा का न जाने कितना लाभ होगा।
इस बारे में मैने अनेक विद्वानों व पंडितों से जानकारी चाही तो वे ये नहीं बता पाए कि वह कथा कौन सी थी।
जहां तक मुझे समझ में आता है, पांच अध्यायों में जिस कथा का उल्लेख है, वह मूलतरू कोई कथा नहीं थी। वह व्रत करते हुए धार्मिक विधि विधान पूर्वक सत्यनारायण भगवान की पूजा-अर्चना व आरती थी। गलती से उसे कथा कह दिया गया है। वर्तमान में हम जिस कथा की पुस्तक का पूजा-अर्चना के दौरान पाठ करते हैं, वह तो भिन्न-भिन्न प्रकरणों के पांच अध्यायों का संगलन मात्र है।