तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2013

तिवाड़ी ने खोली भाजपाई एकता की पोल

ghanshyam tiwariलंबी जद्दोजहद के बाद भले ही पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे व संघ लॉबी के बीच सुलह हो गई हो और इस एकता से कथित अनुशासित पार्टी भाजपा के कार्यकर्ता उत्साहित हों, मगर वरिष्ठ भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी इस एकता की पोल खोलने को उतारु हैं। वे अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से जताने की जिद पर अड़े हैं, भले ही इससे पार्टी एकता की छीछालेदर हो जाए। उन्होंने इसका इसका ताजा नमूना पेश किया राजस्थान विधानसभा सत्र के पहले दिन राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान। उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर राज्यपाल के अंग्रेजी में पढ़े जाने वाले अभिभाषण पर व्यवस्था का सवाल उठाते हुए ऐतराज किया। यह बात दीगर है कि राज्यपाल ने उनके विरोध को देखते हुए अभिभाषण के कुछ पैरे हिंदी में पढ़े, मगर इससे भाजपाई रणनीति की कमजोरी तो उजागर हो ही गई।
अव्वल तो वे भाजपा विधायक दल की बैठक में गए ही नहीं, जिसमें कि रणनीति तैयार की गई थी। इसी से अंदाजा लग जाता है कि उन्हें पार्टी गाइड लाइन की कोई परवाह ही नहीं है। इतना ही नहीं, उन्होंने जो कहा था वह करके दिखाया। ज्ञातव्य है कि जब यह बात सामने आई कि राज्यपाल मारग्रेट अल्वा अंग्रेजी में अभिभाषण पढ़ेंगी तो भाजपा का रुख स्पष्ट नहीं था कि वह इसका विरोध करेगी या नहीं, जबकि तिवाड़ी ने पहले ही कह दिया कि वे तो इसका विरोध करेंगे, चाहे कोई उनका साथ दे या नहीं। वे अकेले ही इस मुद्दे को उठाने का ऐलान कर चुके थे। और ठीक इसके अनुरूप किया। हालांकि भाजपा विधायक दल की बैठक में यह तय हुआ था कि राज्यपाल के अभिभाषण की भाषा को लेकर नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया विरोध दर्ज करवाएंगे, लेकिन तिवाड़ी ने इस फैसले की परवाह किए बिना ही विधानसभा में अभिभाषण शुरू होने से पहले ही हिंदी-अंग्रेजी का मुद्दा उठा लिया। बाद में कटारिया को यह कह सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने विधायक दल की बैठक खत्म होने के बाद तिवाड़ी को बता दिया था कि क्या रणनीति तय हुई है। इस प्रकार भले ही कटारिया ने पार्टी में एकजुटता होने का संकेत दिया हो, मगर यह साफ है कि तिवाड़ी बेहद नाराज हैं। उनके तल्खी भले जवाब को दिखिए-मुझे विधायक दल की बैठक की सूचना नहीं थी। मैंने कोई मुद्दा हाईजेक नहीं किया। मैंने सदन में व्यवस्था का प्रश्न उठाया था कि राज्यपाल अंग्रेजी में अभिभाषण नहीं पढ़ सकतीं। ये बात जो जानता होगा वही तो बोलेगा! मैंने कोई पार्टी लाइन नहीं तोड़ी। ये विधानसभा के स्वाभिमान और राष्ट्रभाषा की रक्षा का मसला था। कुल मिला कर यह स्पष्ट है कि तिवाड़ी को अभी राजी नहीं किया जा सका है और वे आगे भी फटे में टांग फंसाते रहेंगे।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश भाजपा में नए तालमेल के प्रति उनकी असहमति तभी पता लग गई थी, जबकि दिल्ली में सुलह वाले दिन वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए। उन्होंने दुबारा उप नेता बनने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। उनके मन में पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अंदाजा इसी बयान से लगा जा सकता है कि मैं ब्राह्मण के घर जन्मा हूं। ब्राह्मण का तो मास बेस हो ही नहीं सकता। मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा।
-तेजवानी गिरधर

हवाई है राजस्थानी बिन गूंगो राजस्थान अभियान

rajasthani 1न्यूयॉर्क में अखिल भारतीय राजस्थानी मान्यता संघर्ष समिति ने विश्व भाषा दिवस पर गत दिवस गोष्ठी कर राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग करते हुए कहा कि ऐसा नहीं होने तक समिति चुप नहीं बैठेगी। समिति के अंतरराष्ट्रीय संयोजक प्रेम भंडारी, न्यूयॉर्क में समिति के संयोजक सुशील गोयल तथा सह संयोजक चंद्र प्रकाश सुखवाल ने अपने मुंह पर राजस्थानी बिना गूंगो राजस्थान लिखी पट्टी बांधकर अपनी मांग रखी। इस मौके पर न्यूयॉर्क के काउंसिल जनरल ऑफ इंडिया प्रभु दयाल के सम्मान में भंडारी ने भोज भी दिया। इस कार्यक्रम से साफ नजर आ रहा था कि यह मात्र एक रस्म थी, जिसे हर साल भाषा दिवस अथवा अन्य मौकों पर गाहे-बगाहे निभाया जाता है, बाकी इस मांग को वाकई मनवाने के प्रति न तो जज्बा है और न ही समर्पण। आज जब किसी भी मांग के लिए लंबा और तेज आंदोलन देखे बिना उसे पूरा करने की सरकारों की प्रवृत्ति सी बन गई है, भला इस प्रकार के रस्मी आयोजनों से क्या होने वाला है?
rajasthani 2कुछ इसी तरह की रस्म अजमेर में राजस्थानी भाषा मोट्यार परिषद के बैनर तले निभाई गई, जिसमें राजस्थानी भाषा में उच्च योग्यता हासिल कर चुके छात्रों ने कलेक्टर को मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन दिया। इस मौके पर अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति अजमेर संभाग के संभागीय अध्यक्ष नवीन सोगानी के नेतृत्व में कलेक्ट्रेट कार्यालय पर रस्मी धरना दिया गया, जिस में चंद लोगों ने शिरकत की।
कुछ इसी तरह का प्रहसन राजस्थान लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में राजस्थानी भाषा का अलग प्रश्न पत्र रखने की मांग करने वाली अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति ने आरटेट में भी राजस्थानी भाषा को शामिल करने की अलख तो जगाने की कोशिश की थी, मगर उसका असर कहीं नजर नहीं आया। समिति ने परीक्षा वाले दिन को दिन काला दिवस के रूप में मनाया। इस मौके पर पदाधिकारियों ने आरटेट अभ्यर्थियों व शहरवासियों को पेम्फलेट्स वितरित कर अभ्यर्थियों से काली पट्टी बांध कर परीक्षा देने का आग्रह किया, मगर एक भी अभ्यर्थी ने काली पट्टी बांध कर परीक्षा नहीं दी। अनेक केंद्रों पर तो अभ्यर्थियों को यह भी नहीं पता था कि आज कोई काला दिवस मनाया गया है। अजमेर ही नहीं, राज्य स्तर पर यह मुहिम चलाई गई। यहां तक कि न्यूयॉर्क से अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति के अंतरराष्ट्रीय संयोजक तथा राना के मीडिया चेयरमैन प्रेम भंडारी ने भी राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए काली पट्टी नत्थी कर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र प्रेषित किया।
rajasthaniसवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास पिछले दस साल से पड़ा है और उस पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम राजनेताओं में इस मांग को पूरा करवाने के लिए इच्छा शक्ति ही नहीं जगा पाए? राजनेताओं की छोडिय़े क्या वजह है किराजस्थानी संस्कृति की अस्मिता से जुड़ा यह विषय आम राजस्थानी को आंदोलित क्यों नहीं कर रहा? कहीं ऐसा तो नहीं कि समिति की ओर उठाई गई मांग केवल चंद राजस्थानी भाषा प्रेमियों की मांग है, आम राजस्थानी को उससे कोई सरोकार नहीं? या आम राजस्थानी को समझ में ही नहीं आ रहा कि उनके हित की बात की जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस मुहिम को चलाने वाले नेता हवाई हैं, उनकी आम लोगों में न तो कोई खास पकड़ है और न ही उनकी आवाज में दम है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये नेता कहने भर को जाने-पहचाने चेहरे हैं, उनके पीछे आम आदमी नहीं जुड़ा हुआ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि समिति लाख कोशिश के बाद भी राजनीतिक नेताओं का समर्थन हासिल नहीं कर पाई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह पूरी मुहिम केवल मीडिया के सहयोग की देन है, इस कारण धरातल पर इसका कोई असर नहीं नजर आता? जरूर कहीं न कहीं गड़बड़ है। इस पर समिति के सभी पदाधिकारियों को गंभीर चिंतन करना होगा। उन्हें इस पर विचार करना होगा कि जनजागृति लाने के लिए कौन सा तरीका अपनाया जाए। आम राजस्थानी को भी समझना होगा कि ये मुहिम उसकी मातृभाषा की अस्मिता की खातिर है, अत: इसे सहयोग देना उसका परम कर्तव्य है।
-तेजवानी गिरधर