तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, मार्च 28, 2017

सत्ता परिवर्तन को हवा देने के लिए माथुर भी जिम्मेदार

भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर लाख मना करें कि राजस्थान में चल रही सत्ता परिवर्तन की बातें सिर्फ राजनीति से प्रेरित हैं और इन बातों को में कोई दम नहीं है, मगर साफ दिख रहा है कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ है। और सबसे बड़ी बात ये कि ऐसी गड़बड़ होने के जो कारक हैं, उसके जिम्मेदार वे खुद हैं। न वे समर्थकों को अपने स्वागत में आयोजित समारोह इत्यादि की इजाजत दें और न ही ऐसा माहौल बने। वे चाहें तो समर्थकों को स्वागत करने से इंकार कर सकते हैं। अव्वल तो समर्थकों को पता कैसे लगता है कि वे कब, कितने बजे, कहां से गुजरेंगे।
असल में जब से उत्तर प्रदेश में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला है और मोदी और ताकतवर हुए हैं, तभी से यह माहौल बना हुआ है। रोजाना इस आशय की खबरें छप रही हैं। जब वे जानते हैं कि उनके स्वागत की खबरों से ही यह संदेश जा रहा है कि राज्य में सत्ता परिवर्तन हो रहा है, तो काहे को स्वागत करवा रहे हैं। आखिरकार वे पार्टी के जिम्मेदार नेता हैं, उन्हें पार्टी के बीच हो रही गुटबाजी को रोकना चाहिए, न कि बढऩे देना चाहिए। स्पष्ट है कि उनकी रुचि इसी बात में है कि स्वागत के बहाने शक्ति प्रदर्शन होता रहे। साथ ही यह भी संदेश जाए कि वे भी मुख्यमंत्री पद की लाइन में हैं। अगर यह मान भी लिया जाए कि भाजपा हाईकमान राज्य में सत्ता परिवर्तन करने के मूड में नहीं है तो भी जिस प्रकार उनका उत्साह से स्वागत हो रहा है, वह इस बात का संकेत है कि भाजपा का एक धड़ा वसुंधरा की जगह उनको देखना चाहता है। और अगर दबाव ज्यादा बना व भाजपा के कर्ताधर्ता नरेन्द्र मोदी जो जच गई कि वसुंधरा को हटाना है तो सत्ता परिवर्तन में देर भी नहीं लगेगी।
एक बात और। भाजपा नेता सत्ता परिवर्तन की संभावना से नकारते हुए कहते हैं कि यह सब मीडिया की ओर से पैदा की गई खबरें हैं। यानि कि पार्टी के भीतर हो रही हलचल को स्वीकार करने की बजाय उसका दोषी मीडिया को बनाया जा रहा है। सवाल ये उठता है कि क्या मीडिया को कोई सपना है कि आपकी पार्टी मेें कुछ चल रहा है। मीडिया उसी खबर को उजागर करता है, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कहीं न कहीं वजूद में होती है। कोरी हवा में कोई भी खबर नहीं बनाई जाती।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, मार्च 23, 2017

आगे चल कर मोदी के लिए समस्या बन सकते हैं योगी?

उत्तर प्रदेश में बंपर बहुमत के बाद जिस नाटकीय ढंग से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर योगी आदित्यनाथ काबिज हुए हैं, उसको लेकर इस आशंका का बीजारोपण हो गया है कि आगे चल कर योगी मोदी के लिए परेशानी का कारण बन सकते हैं। यह सवाल इसलिए मौजूं हैं क्योंकि मोदी एक तानाशाह की तरह काम कर रहे हैं, जो कि फिलहाल भाजपा के लिए मुफीद है, मगर मोदी स्टाइल का दूसरा फायर ब्रांड स्थापित होता है तो वह मोदी के लिए दिक्कत पैदा कर सकता है। हालांकि मोदी अपनी जिस तूफानी लहर पर सवार हो कर प्रधानमंत्री बने हैं और अब भी उनके नाम का जलवा कायम है, मगर योगी के मुख्यमंत्री बनते ही जिस प्रकार उन्हें युवा हिंदू सम्राट के नाम से विभूषित किया जा रहा है, जिस प्रकार कट्टर हिंदूवादी भावना हिलोरें ले रही है, वह इस आशंका को जन्म देती है कि अगर उन्होंने राम मंदिर के अतिरिक्त हिंदू हित पर कुछ अतिरिक्त करके दिखा दिया तो बहुसंख्यक हिंदू समाज में उनकी प्रतिष्ठा मोदी से भी कहीं अधिक न हो जाए।
बात अगर मुख्यमंत्री के चयन को लेकर हो रही कवायद की करें तो मीडिया में यह आमराय थी कि मोदी ने मनोज सिन्हा के नाम पर हरी झंडी दे दी थी। नाम तय होने के साथ ही जिस प्रकार उनका गर्मजोशी के साथ स्वागत हो रहा था, वह इस बात की पुष्टि करता है। जानकारी के अनुसार इस बीच योगी यकायक सक्रिय हो गए। जीत कर आए भाजपा विधायकों का एक समूह भी दबाव बनाने लगा, जिसे टालना असंभव प्रतीत हो रहा था। संघ ने भी उन्हीं के पक्ष में वीटो जारी कर दिया। ऐसे में मोदी न चाह कर भी योगी के नाम पर सहमति देने को मजबूर हो गए। इस सिलसिले में योगी के शपथग्रहण समारोह में मोदी के चेहरे पर पसरे तनाव को नोटिस किया गया है। बताते हैं कि वे आम दिनों में जिस तरह लोगों से गर्मजोशी के साथ मिलते हैं, वह गर्मजोशी काफूर थी। उलटे होना तो यह चाहिए था कि वे और अधिक उत्साहित होते, क्योंकि उन्हीं की कथित सुनामी पर सवार हो कर भाजपा प्रचंड बहुमत से उत्तरप्रदेश पर काबिज हुई।
बताया जाता है कि मोदी खेमे की ओर से अध्यक्ष अमित शाह का तर्क था कि योगी आक्रामक शैली के कट्टर हिंदूवादी नेता हैं, जो कि मोदी के सबका साथ, सबका विकास के नारे के अनुकूल नहीं है। इस पर संघ की ओर से दलील आई कि छवि तो मोदी की भी गुजरात का मुख्यमंत्री रहते कट्टर हिंदूवादी की थी, फिर भी दूरगामी सोच रख कर उनको प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया गया। ऐसे में योगी की छवि पर सवाल करना बेमानी है। समझा जाता है कि संघ ने सोची समझी रणनीति के तहत योगी को मुख्यमंत्री पद पर सुशोभित करवाया है। यह संघ के हिंदूवादी बनाम राष्ट्रवादी एजेंडे का हिस्सा है। राजनीतिक विचारकों का मानना है कि ऐसा इसलिए भी किया गया कि अगर मोदी संघ पर हावी होते हैं तो उनका विकल्प पहले से तैयार कर लिया जाए। इसके अतिरिक्त जिन नारों की बदोलत मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, वे पूरे होने असंभव हैं, ऐसे में अगर आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी की चमक कम होने लगी तो कट्टर हिंदूवादी चेहरे के मालिक योगी को बहुसंख्यक हिंदुओं को लामबंद आगे ला कर दुबारा चुनाव जीता जा सकता है। कुल मिला कर ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी की योगी नामक संतति पिता से भी अधिक शौर्यवान निकली, जिसे कि कुछ लोग भस्मासुर तक की संज्ञा दे रहे हैं, जिस प्रकार भस्मासुर वरदान प्राप्त करने के बाद शिवजी को ही भस्म करने पर उतारु हो गया था।
योगी का मोदी के पहली पसंद न होने की बात से नाइत्तफाकी रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक हालांकि यहीं कहते हैं कि भाजपा, संघ व मोदी एक लाइन पर ही काम कर रहे हैं और कोई अंतरविरोध नहीं है, मगर वे भी यह बात तो स्वीकार करते ही हैं कि योगी का अभिषेक दीर्घकालिक एजेंडे के तहत दक्षिणपंथी राजनीति का एक बड़ा खिलाड़ी तैयार करना है, जो 2024 में मोदी का उपयुक्त उत्तराधिकारी बन सके। वस्तुत: मोदी ब्रांड के नाम पर फिलहाल भाजपा ने जो इमारत खड़ी की है, उसकी मजबूरी है कि सबका साथ, सबका विकास मंत्र ले कर ही कायम रह पाएगी। मोदी की भूमिका सिर्फ यहीं तक है। हिंदूवाद के अगले लक्ष्य हिंदू राष्ट के लिए योगी जैसा चेहरा ही काम आएगा। जिस प्रकार दो के अंक से दहाई के अंक तक भाजपा को लाने वाले लालकृष्ण आडवाणी को भूमिका पूरी होने के बाद हाशिये पर रख दिया गया, ठीक वैसे ही मोदी की भूमिका समाप्त होने के बाद उन्हें भी हाशिये पर टांग दिया जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। असल में संघ की नजर अपने दर्शन पर रहती है, व्यक्ति उसके लिए गौण होता है, वह साधन मात्र होता है।
तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, मार्च 21, 2017

क्या राजस्थान में भी मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा चुनाव?

उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में किसी का चेहरा सामने रखने की बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव लडऩे से मिली बंपर कामयाबी के बाद भाजपा में इस बात पर गंभीरता से विचार हो रहा बताया कि राजस्थान में भी आगामी विधानसभा चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा जाए।
यह लगभग सर्वविदित हो चुका है कि मोदी और राजस्थान की मौजूदा मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के बीच ट्यूनिंग ठीक नहीं है और इसी वजह से यह चर्चा कई बार सामने आई है कि मोदी उनके स्थान पर किसी और को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, बस उन्हें पलटने का मौका नहीं मिला या फिर साहस नहीं हुआ। इस सिलसिले वरिष्ठ भाजपा नेता व मोदी के विश्वासपात्र ओम प्रकाश माथुर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। सांसद भूपेन्द्र सिंह यादव भी लाइन में हैं। हाल ही उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम के बाद भी इस आशय की चर्चा शुरू हुई है। विचार इस बात पर हो रहा है कि ओम प्रकाश माथुर अथवा किसी और को मुख्यमंत्री बनाया जाए अथवा नहीं। चुनावी रणनीति के रूप में अभी से यह तैयारी कर ली जाए कि आगामी चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा जाए या नहीं। इस सिलसिले में वसुंधरा राजे का वह बयान भी जेहन में रखना होगा कि अगला चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, जो कि उन्होंने सरकार के तीन साल पूरे होने पर दिया था। ज्ञातव्य है कि इसका विरोध घनश्याम तिवाड़ी ने किया था। राजनीतिक पंडित वसुंधरा के बयान के निहतार्थ खोजने में लग गए थे।
बहरहाल, यह आम धारणा है कि चूंकि वसुंधरा राजे के चेहरे में वह आकर्षण नहीं रह गया है, जिसके दम पर पिछली बार कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था। हालांकि इस पर भी विवाद था कि वह मोदी लहर थी या वसुंधरा का जलवा। भाजपा भी जानती है कि इस बार वसुंधरा के चेहरे पर चुनाव लडऩे पर अपेक्षित परिणाम आना संदिग्ध है, इस कारण मुख्यमंत्री बदलने की चर्चा हुई, मगर समस्या ये रही कि उनसे बेहतर चेहरा पार्टी के पास है नहीं। इसी बीच उत्तर प्रदेश के चुनाव हो गए। इसके परिणामों ने पार्टी में यह आम राय कायम होने लगी है कि मोदी के नाम में अब भी जादू है, लिहाजा वसुंधरा राजे की जगह किसी और का चेहरा सामने लाने की बजाय मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ा जाए। इससे एक लाभ ये हो सकता है कि मुख्यमंत्री पद की दौड़ वाले दावेदारों के बीच खींचतान समाप्त हो जाएगी और पार्टी एकजुट रहेगी। दूसरा ये भी ख्याल है कि जैसे पिछली बार जीत का श्रेय वसुंधरा राजे के लेेने पर तनिक विवाद हुआ था, वह नहीं होगा। उससे भी बड़ी बात ये कि जब मोदी के नाम पर जीत हासिल कर ली जाएगी तो मोदी को अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनाने में आसानी रहेगी।
वैसे राजनीति के जानकारों का मानना है कि केवल मोदी के नाम पर चुनाव लडऩे से पहले पार्टी उत्तर प्रदेश व राजस्थान के राजनीतिक समीकरणों की तुलना जरूर करेगी। उसकी वजह ये है कि उत्तर प्रदेश में तो भाजपा को बीस साल की एंटी इन्कंबेंसी का लाभ मिला, जब कि राजस्थान में तो भाजपा का राज और यहां उसके खिलाफ एंटी इन्कंबेंसी का फैक्टर काम करेगा। एक सोच ये भी है कि मोदी का नाम आने पर एंटी इन्कंबेंसी का फैक्टर गौण हो जाए।
बहरहाल, इतना तय है कि राजस्थान में पार्टी नई रणनीति के तहत ही चुनाव मैदान में उतरेगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

गुरुवार, मार्च 16, 2017

उत्तरप्रदेश ने जातीय राजनीति व क्षेत्रीय दलों को दिया करारा झटका

इसमें कोई दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला, जो कि दिल्ली व बिहार की हार के बाद फिर से मोदी कथित लहर का प्रमाण है, मगर इसका असल फायदा देश को हुआ है। एक तो ये कि क्षेत्रीय दलों सपा व बसपा को करारा झटका लगा है, और दूसरा ये कि केवल जातीय राजनीति करके भारतीय लोकतंत्र में छा जाने वालों का गणित छिन्न-भिन्न हो गया।
विषय के विस्तार से पहले आते हैं, भाजपा की जीत पर। चूंकि यहां प्रचार की पूरी कमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही संभाल रखी थी, वे ही स्टार कैंपेनर थे, इस कारण भाजपा की जीत का पूरा श्रेय मोदी के खाते में ही माना जाएगा। इसे मोदी लहर की संज्ञा दी जाती है, मगर तथ्यों का बारीकी से विश्लेषण करें तो इस लहर के भीतर भी कई तरह की लेयर हैं।
असल में उत्तर प्रदेश की जनता सपा व बसपा के पिछले बीस साल के गुंडा राज से त्रस्त थी। दोनों को दो-दो बार आजमाने के बाद ऊब कर परिवर्तन चाहती थी। दूसरा अहम कारण है, हिंदू वोटों का धु्रवीकरण।  हिंदू-मुस्लिम के बीच खाई पैदा की गई। भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। स्वाभाविक रूप से यह हिंदुओं को लामबंद करने का संदेश था। चुनाव के आखिरी दौर में कसाब, श्मशान-कब्रिस्तान, सैफुल्लाह के अतिरिक्त राम-मंदिर का जिस तरह प्रयोग किया गया, वह सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं को एकजुट करने के काम आया। रहा सवाल मुस्लिमों का तो वे सपा-कांग्रेस व बसपा में बंट गए। उसमें भी तीन तलाक के मुद्दे ने मुस्लिम महिला वोटों को भाजपा की ओर आकर्षित किया। रही सही कसर यादव कुनबे में हुई सरे आम जंग ने पूरी कर दी। अखिलेश को उम्मीद थी लोग उनके काम को ख्याल में रखेंगे, मगर वह सब पारिवारिक कलह में धुल गया।
भाजपा की जीत का एक फंडा ये भी है कि मोदी ने बातें तो आदर्शवाद की बहुत कीं, मगर जीतने के लिए जातिवाद और वंशवाद के आधार पर टिकट देते समय आंखें मूंद लीं।
बात मायावती की। उनका खास फोकस मुस्लिम मतदाताओं पर था। इसलिए मायावती ने चुनावों से पहले बाहुबली और आपराधिक छवि के मुख्तार अंसारी तक को अपनी पार्टी में शामिल कराया। मायावती ने इन चुनावों में 97 मुस्लिम उम्मीदवारों को प्रदेश में टिकट दिया था। लेकिन इससे उनकी वह सोशल इंजीनियरिंग बिगड़ गई, जिसके दम पर वे एक बार सत्ता पर काबिज हो गई थीं।
कांग्रेस की चर्चा का कोई अर्थ इसलिए नहीं है, क्योंकि वह तो अनुसूचित जाति, ओबीसी व मुस्लिम वोट बैंक को खो कर पहले ही बेहद कमजोर हो चुकी थी। तभी तो वहां सपा व बसपा जैसे क्षेत्रीय व जाति आधारित दल उभरे। इन्होंने न केवल उत्तरप्रदेश में दादागिरी की, अपितु केन्द्र के कामकाज में भी खूब टांग अड़ाई। कांग्रेस ने तो अखिलेश के साथ रह कर जिंदा रहने की कोशिश मात्र की, मगर जब अखिलेश ही नहीं तैर पाए तो कांग्रेस को डूबने से कैसे बचाया जा सकता था। शायद कांग्रेस पार्टी को इसका अंदाजा पहले ही हो गया था, इसलिए सोनिया गांधी भी चुनाव प्रचार से दूर रहीं। कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता माने जानी वाली प्रियंका गांधी भी एक-दो कार्यक्रमों को छोड़कर प्रदेश में ज्यादा सक्रिय नहीं रहीं।
इस चुनाव में नोटबंदी की भी खूब चर्चा रही। आज भले ही नाकाम नोटबंदी पर जनता की मुहर लगने की बात कही जा रही हो, मगर यह मोदी की कलाकारी ही कही जाएगी कि आम आदमी दर दर की ठोकरें खाने के बावजूद इससे खुश था कि धनपतियों की तिजोरियां तो खाली हो गईं।
इन सबके बाद भी अगर इस जीत को मोदी लहर की संज्ञा दी जाती है, तो कदाचित यह कुछ त्रुटिपूर्ण होगा। मूलत: यह एंटी एस्टेब्लिशमेंट फैक्टर था। अगर ये मोदी लहर थी तो वह पंजाब में क्यों नहीं चली? पंजाब कोई यूरोप का प्रांत तो है नहीं। पंजाब में भी एंटी एस्टेब्लिशमेंट फैक्टर ने ही कांग्रेस को जीत दिलवा दी। अगर ये मोदी लहर थी तो मणिपुर, गोवा में उत्तर प्रदेश जैसी प्रचंड क्यों नहीं थी? हां, इतना जरूर है कि मणिपुर में भाजपा का प्रदर्शन पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कांग्रेस को चुनौती देता हुई नजर आ रहा है। उत्तराखंड की बात करें तो वहां भी स्थानीय समीकरणों ने भूमिका निभाई। उत्तराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी की आपसी कलह ने काम किया। उत्तराखंड में कांग्रेस के ज्यादातर बड़े नेता भाजपा में शामिल हो चुके थे। हरीश रावत कांग्रेस में अकेले पड़ गए थे। इसका पूरा-पूरा फायदा उत्तराखंड में भाजपा ने उठाया।
इन सब तथ्यों का निहितार्थ मोदी लहर को नकारना नहीं है। मोदी की लोकप्रियता आज भी कायम है, जैसी लोकसभा चुनावों के वक्त थी। ये तो दिल्ली और बिहार में भाजपा की करारी से मोदी ब्रांड को जो नुकसान हो गया था, वह मजबूती के साथ खड़ा रहे, इस कारण सारे समीकरणों को गड्ड मड्ड कर मोदी लहर बरकरार होने का प्रोजेक्शन मात्र है। मगर साथ ही पार्टी हित में विचार की बजाय व्यक्तिवाद की पूजा करना कितना देश हित में है, इस पर भी तनिक विचार कर लेना चाहिए।
लब्बोलुआब, यदि मोदी लहर को मान भी लिया जाए तो भी उत्तरप्रदेश का चुनाव परिणाम देशहित में है। जो वोट बैंक जातिवाद में फंस कर क्षेत्रीय दलों की प्राणवायु बना हुआ था, वह मुख्य धारा में आया है। यह एक शुभ संकेत है। कम से कम जातीय राजनीति कर क्षेत्र विशेष के हित साधक बने दलों की देश की राष्ट्रीय राजनीति में दखलंदाजी तो कम हुई। वरना यह सर्वविदित है कि सपा-बसपा जैसे दलों ने किस प्रकार केन्द्र की सरकारों को नचाया है। जैसे ईमानदार मनमोहन सिंह को द्रमुक ने बेईमानी के कटघरे में खड़ा कर दिया, वैसे ही अटल बिहारी वाजपेयी को ममता, माया व जयललिता ने आसानी से काम नहीं करने दिया। उचित तो ये रहेगा कि क्षेत्रीय दलों से लोकसभा चुनाव लडऩे का अधिकार छीन लेना चाहिए, भले अपने-अपने राज्यों में सत्ता चला कर क्षेत्रीय हित साधते रहें।
तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

सोमवार, मार्च 13, 2017

उत्तर प्रदेश में मोदी सुनामी का असर राजस्थान पर भी पड़ेगा?

उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत से जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  और मजबूत हुए हैं, वहीं अनुमान है कि उसका असर राजस्थान पर भी पड़ सकता है। हालांकि राजनीति में जोड़ बाकी गुणा भाग का योग आखिर में क्या निकलेगा, इस बारे में पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर कयासों से कुछ कुछ इशारे तो मिल ही जाते हैं। जैसे ही जीत का ऐलान हुआ, उसके दूसरे ही दिन बधाई के होर्डिंग्स में मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ ओम प्रकाश माथुर का फोटो चस्पा दिखाई दिया। संभव है यह कृत्य माथुर के निजी समर्थकों का हो, मगर इसी के साथ इस चर्चा को बल मिला है कि राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन हो सकता है। माथुर के एक पक्के समर्थक ने तो बाकायदा वाट्स ऐप पर यह चर्चा छेड़ दी है कि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को गोवा का मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है और उनके स्थान पर राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को भेजा जाएगा व राजस्थान के मुख्यमंत्री ओम प्रकाश माथुर होंगे। हो सकता है कि यह अफवाह ही हो, मगर भाजपा में कुछ न कुछ पक रहा है, इसके संकेत तो मिल ही रहे हैं।
हालांकि राजस्थान विधानसभा चुनाव में अभी तकरीबन दो साल बाकी हैं, मगर उत्तर प्रदेश में चली मोदी लहर राजस्थान पर क्या असर डालेगी, राजनीतिक पंडित इस पर नजर जमाए हुए हैं। कोई माने या न माने, मगर भाजपा खेमे में एक कौतुहल तो बना हुआ ही है कि क्या अगला चुनाव वसुंधरा के ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा? यद्यपि खुद वसुंधरा राजे ने अपनी सरकार के तीन साल पूरे होने पर मनाए जा रहे जश्र के दौरान साफ इशारा किया कि अगला चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा, मगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उनके बीच जिस तरह की कैमेस्ट्री है, उसे देखते हुए कम से कम राजनीतिक प्रेक्षक तो इस बात में संशय ही मानते हैं कि भाजपा उनके चेहरे पर दाव खेलेगी।
हालांकि यह कहना बिलकुल अनुचित होगा कि वसुंधरा राजे का मौजूदा कार्यकाल असफल रहा है, मगर यह एक आम धारणा सी बनती जा रही है कि राजस्थान में वसुंधरा राजे के साथ भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है। कम से कम इतना तो तय है कि जनता ने कांग्रेस की सत्ता पलट कर भाजपा को जिस तरह का बंपर समर्थन दिया, उसके अनुरूप यह सरकार खरी नहीं उतरी है। समझा जा सकता है कि जिस मतदाता ने कांग्रेस को हाशिये पर ला खड़ा किया, भाजपा से कितनी अधिक उम्मीदें रही होंगी। हालात जस के तस हैं, सुराज जैसा कुछ कहीं नजर नहीं आता। स्वयं भाजपा के कार्यकर्ता भी मौन स्वीकृति देते दिखाई देते हैं कि वसुंधरा का यह कार्यकाल उनके पिछले कार्यकाल से बेहतर नहीं है। उसकी एक बड़ी वजह भी है। वो यह कि पिछली बार वे अपने आकर्षक चेहरे के दम पर भाजपा को सत्ता में लेकर आई थीं, इस कारण उनके कदमों व निर्णयों में स्वच्छंदता दिखाई देती थी। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व उन पर हावी नहीं था। उलटा ये कहना ज्यादा उचित रहेगा कि वे ही हावी थीं। सर्वविदित है कि जब कुछ कारणों से वे सत्ता च्युत हुईं और उन पर दबाव बनाया गया कि नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ दें तो उन्होंने एकाएक उस निर्देश को मानने से इंकार कर दिया था। बमुश्किल पद छोड़ा। और ऐसा छोड़ा कि उस पद पर किसी को बैठाया ही नहीं जा सका। फिर जब चुनाव नजदीक आए तो विकल्प के अभाव में भाजपा को फिर से उन्हीं को नेतृत्व सौंपना पड़ा।
समझा जा सकता है कि तब वे कितनी ताकतवर थीं।  मगर अब स्थिति उलट है। केन्द्र में भाजपा सत्ता में है और वह भी नरेन्द्र मोदी जैसे चमत्कारिक नेतृत्व के साथ, ऐसे में हर राजनीतिक फैसले से पहले वसुंधरा को केन्द्र की ओर ताकना पड़ता है। स्वाभाविक रूप से वे इस बार स्वच्छंदता के साथ काम नहीं कर पाई हैं। हालांकि इस बार वे जबदस्त बहुमत के साथ सत्ता में हैं, मगर ये माना जाता है कि यह चमत्कार मोदी लहर की वजह से हुआ। लोकसभा चुनाव में भी जब पच्चीस की पच्चीस सीटें भाजपा ने जीतीं और उसका श्रेय वसुंधरा ने लेने की कोशिश की तो नरेन्द्र मोदी को यह नहीं सुहाया था। केन्द्रीय मंत्रीमंडल में राजस्थान को प्रतिनिधित्व दिलाने में भी वसुंधरा की नहीं चली। बताया जाता है कि तब से ही दोनों के बीच ट्यूनिंग बिगड़ी हुई है। सच क्या है ये तो पार्टी नेतृत्व ही जानें, मगर चर्चाएं तो यहां तक होने लगीं थीं कि मोदी उनके स्थान पर किसी और को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपना चाहते हैं।
इस सिलसिले में वरिष्ठ भाजपा नेता ओमप्रकाश माथुर का नाम प्रमुखता से लिया जाता रहा है। उत्तर प्रदेश के परिणामों ने एक बार फिर चर्चा को गरम कर दिया है। यूं भूपेन्द्र सिंह यादव का भी नाम चर्चा में आया है। सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि वसुंधरा को हटाना इतना आसान भी नहीं, जितना कहना आसान है। वस्तुस्थिति ये है कि ग्राउंड पर वसुंधरा ने अपनी पकड़ बना रखी है। हालांकि उनका चेहरा अब पहले की तुलना में निस्तेज हुआ है, मगर फिर भी उनके मुकाबले किसी और चेहरे में चमक नहीं है। बताया जाता है कि बावजूद इसके वसुंधरा के रूप में क्षेत्रीय क्षत्रप की मौजूदगी मोदी को पसंद नहीं। पार्टी की भी यही सोच है कि चुनाव तो मोदी के नाम पर ही लड़ा जाना चाहिए। और ऐसा तभी संभव है जब किसी और को जो कि मोदी का नजदीकी हो, उसे आगे लाया जाए।
इन हालातों के बीच जब पिछले दिनों जब वसुंधरा राजे ने यह कहा कि आगामी विधानसभा चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा तो यह किसी दुस्साहस से कम नहीं था। आज भी जो फेस वैल्यू वसुंधरा की है, वैसी किसी और भाजपा नेता की नहीं। यह बात खुद वसुंधरा भी जानती हैं और इसी कारण बड़ी हिम्मत के साथ कह दिया। हो सकता है कि उन्होंने ऐसा कंकर फैंक कर उठने वाली लहर को नापने के लिए किया हो, मगर फिलहाल मोदी खेमे से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। अलबत्ता रूठे भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी ने आपत्ति की, मगर उस पर किसी ने गौर नहीं किया। बेशक, फिलवक्त शांति है, मगर आगे कुछ भी हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

बुधवार, मार्च 08, 2017

पकड़ ढ़ीली होती जा रही है वसुंधरा की?

किसी समय में भाजपा हाईकमान से भिड़ जाने वाली प्रदेश की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की पकड़ क्या अब कमजोर पड़ती जा रही है? पिछले कुछ समय की घटनाओं से तो यही आभास होता है। वे समझौते दर समझौते कर रही हैं। ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि ये परिवर्तन आया कैसे और ये भी कि उनको परेशानी में डालने व चुनौती देने वालों को किस का सपोर्ट है?
जरा पीछे मुड़ कर देखिए। जब राज्य में भाजपा पराजित हुई तो हार की जिम्मेदारी लेने के तहत उनको हाईकमान ने नेता प्रतिपक्ष का पद छोडऩे के निर्देश दिए, जिसे उन्होंने मानने से साफ इंकार कर दिया। बिफर कर उन्होंने न केवल पार्टी की नींव रखने में अहम भूमिका निभाने वाली अपनी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया की याद दिलाई, अपितु विधायकों को लामबंद कर हाई कमान को लगभग चुनौती दे दी। बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाया। बाद में बमुश्किल मानीं तो ऐसी कि लंबे समय तक यह पद खाली ही पड़ा रहा। जब चुनाव नजदीक आए तो हाईकमान को उनको विकल्प के अभाव में फिर से प्रदेश की कमान सौंपनी पड़ी। प्रदेश पर अपनी पकड़ को उन्होंने बंपर जीत दर्ज करवा कर साबित भी कर दिया। यह दीगर बात है कि इसका श्रेय मोदी लहर को भी दिया गया। वे कितनी प्रभावशाली नेता रही हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजस्थान का एक ही सिंह कहलाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत को पूरी तरह से नकार दिया। वसुंधरा का इतना खौफ था कि पार्टी के कार्यकर्ता व नेता शेखावत के नजदीक तक फटकने से कतराने लगे थे।
खैर, ताजा हालात पर नजर डालें तो पार्टी में ही रह कर लगातार पर बगावती सुर अलापने वाले घनश्याम तिवाड़ी बेलगाम हो चुके हैं, मगर वसुंधरा चुप हैं। वसुंधरा राजे की हां में हां मिला कर चलने वाले प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी भी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। स्पष्ट है कि वसुंधरा में उनके खिलाफ कार्यवाही करने की आत्मशक्ति नहीं है। पार्टी की ब्राह्मण लॉबी के बगावत कर देने का खतरा बना हुआ है। बीकानेर के दिग्गज राजपूत नेता देवी सिंह भाटी ने भी समय पर अपने वजूद का अहसास कराया है। हाल ही उन्होंने सक्रिय राजनीति से अलग होकर आमजन के साथ आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है। उनका कहना है कि कंपनी राज की तरह चल रही वर्तमान प्रजातांत्रिक व्यवस्था से मैं संतुष्ट नहीं हूं। भविष्य में किसी तरह का चुनाव नहीं लडूंगा, न ही किसी तरह के राजनीतिक दल का गठन करूंगा। मैं सात बार एमएलए रहा, बेटा सांसद रहा और कुछ नहीं चाहिए। जब ये पूछा गया कि पार्टी में आपके पास दायित्व रहा है, फिर भी आंदोलन करने जा रहे हैं, इस पर वे कहते हैं कि प्रदेश कार्यकारिणी में दायित्व था, लेकिन वहां सिर्फ मूकदर्शक बनकर रहना पड़ता था। जैसे पिछली बार भूपेंद्र यादव को राज्यसभा के चुनाव के दौरान मैंने पूछ लिया- ये कौन है? तो नेतृत्व की मुझ पर भौंहें तन गईं। वैसे अभी स्वदेशी जागरण मंच से जुड़ा हूं। परदे के पीछे काम नहीं करूंगा। समझा जा सकता है कि वे वसुंधरा के लिए कितना बड़ा सिरदर्द हैं।
एक और उदाहरण देखिए। कभी उनकी ही लॉबी में माने जाने वाले श्रीचंद कृपलानी को जब उन्होंने यूआईटी चेयरमैन बनाने के आदेश दे दिए, तो उन्होंने वह पद लेने से साफ इंकार कर दिया। वे इस बात से नाराज थे कि उन्हें उनके कद के हिसाब से मंत्री क्यों नहीं बनाया गया। काफी जद्दोजहद के आखिरकार मंत्रीमंडल विस्तार में उन्हें केबिनेट मंत्री बनाना पड़ा। मजेदार बात देखिए कि जिसे मात्र यूआईटी के अध्यक्ष के योग्य माना गया, वे राज्यभर के सभी स्थानीय निकायों का मंत्री बन कर माने। हालांकि इसके पीछे का गणित कुछ और लगता है। वो ये कि वे सिंधी कोटे के राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी को हटाना चाहती थीं, मगर संघ का इतना दबाव था कि उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाईं। ऐसे में देवनानी की टक्कर में दूसरा सिंधी नेता खड़ा करने के लिए कृपलानी को मंत्री पद दे कर उपकृत किया। दूसरे सिंधी विधायक को राजी किया तो तीसरे सिंधी विधायक ज्ञानदेव आहूजा पसर गए। उन्होंने मंत्री न बनाए जाने से नाराज हो कर विधानसभा की सभी समितियों से इस्तीफा दे दिया है।
कुल मिला कर लगता है कि शेरनी की उपमा से अलंकृत वसुंधरा का प्रभामंडल कुछ फीका होता जा रहा है। बेशक इस प्रकार के बगावती तेवर उभरने के पीछे कुछ तो राज है। अनुमान है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व संघ लॉबी उनको अंडर प्रेशर रख रही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

गुरुवार, मार्च 02, 2017

सत्ता पक्ष के विधायकों का गुस्सा, यानि जनाक्रोष की घंटी

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। इस कारण कोई भी सरकार कितना भी जनहित का ध्यान रखे, असंतोष बना ही रहता है। रहा सवाल विपक्ष का तो वह उद्देश्य विशेष से भी विरोध कर सकता है, जो जनाक्रोष मान लिया जाता है, लेकिन अगर सत्ता पक्ष ही विपक्ष की भूमिका अदा करने लगे तो यह शर्तिया मान लिया जाना चाहिए कि जनता में वाकई असंतोष है। राजस्थान विधानसभा सत्र में प्रश्नकाल के दौरान सत्ता पक्ष के ही विधायकों का मंत्रियों का घेरना इसका ताजा उदाहरण है।
असल में सत्ता पक्ष के विधायक आम तौर पर अनुशासन के कारण चुप रहते हैं। यदि कोई विशेष अपेक्षा है भी तो संबंधित मंत्री से व्यक्तिगत रूप से मिल कर उसका समाधान करवा लेते हैं। चूंकि विपक्ष का तो धर्म ही है सरकार को घेरना तो वे हंगामा करते ही हैं। लेकिन जब सत्ता पक्ष के विधायक पार्टी की नैतिक लाइन तोड़ कर सरकार पर आक्रमण करते हैं, इसका अर्थ ये है कि जनता में इतना गुस्सा है कि उन्हें बोलना पड़ ही रहा है। आखिरकार जिस क्षेत्र से चुन कर आते हैं, वहां की जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं। आगामी चुनाव में दो साल से भी कम समय रह गया है। ऐसे में विधायक अपने अपने क्षेत्र में सक्रिय हो गए हैं। जाहिर तौर पर जनआंकांक्षाएं उनकी नजर में आ रही हैं। जनता में पेठ रखने के लिए वे विधानसभा में सक्रिय दिखाई देना चाहते हैं। वे जानते हैं कि अगर जनता की आवाज नहीं उठाई तो चुनाव में जनता उलाहना देगी कि आपने हमारी फिक्र क्यों नहीं की। एक ओर पार्टी लाइन है तो दूसरी ओर जनता में दुबारा जाने पर होने वाली परेशानी। स्वाभाविक रूप से उन्हें जनता की अपेक्षाओं को तवज्जो देनी पड़ रही है। इसका परिणाम ये है कि जनता का गुस्सा वे विधानसभा में निकाल रहे हैं। प्रश्रकाल में भाजपा के ही विधायकों का अपने मंत्रियों से सवाल जवाब करना इस बात का सबूत है कि वे मजबूर हैं कि जनता की आवाज बन कर सामने आएं। इसका यह सीधा सा अर्थ है कि जनता में सरकार के प्रति असंतोष है। इसे मुख्यमंत्री व भाजपा संगठन को समझना होगा। बेशक अपने ही विधायकों के इस रवैये से सरकार को तकलीफ हो रही होगी, मगर उसे यह भी समझना होगा कि वे खतरे की घंटी बजा रहे हैं। अगर सरकार ने अपने कामकाज को नहीं सुधारा तो भाजपा को आगामी चुनाव में दिक्कत पेश आ सकती है।
इस विषय का एक पहलु ये है कि चूंकि वर्तमान में राजस्थान विधानसभा में कांग्रेस के विधायकों की संख्या बहुत कम है, इस कारण उनकी आवाज में वह दम नहीं आ पाता, जो कि होना चाहिए। दूसरी ओर चूंकि इस बार भाजपा बंपर बहुमत के साथ विधानसभा में मौजूद है, इस कारण उन्हीं में से कुछ का रवैया ऐसा होने लगा है, मानो वे विपक्ष की भूमिका में हैं। उसकी एक खास वजह है। वो ये कि किसी भी मुख्यमंत्री के लिए इतने सारे पार्टी विधायकों को संतुष्ट रख पाना नितांत मुश्किल है। जैसे हर प्रभावशाली विधायक मंत्री बनना चाहता है, मगर चूंकि मंत्रीमंडल में सदस्यों की संख्या अनुपात के हिसाब से तय है, ऐसे में मंत्री नहीं बन पाए ऐसे विधायक नाराज चलते हैं। इसके अतिरिक्त हर विधायक को बजट अथवा राजनीतिक नियुक्ति के मामले में संतुष्ट नहीं किया जा सकता, ऐसे में वंचित विधायक भी रुष्ठ रहते हैं। वर्तमान में विधानसभा में कमोबेश स्थिति यही है। मुख्यमंत्री अनेक राजनीतिक नियुक्तियां तीन साल बाद भी नहीं कर पाई हैं, जिनमें विधायकों की सिफारिशें लगी हुई हैं। वे सभी विधायक नाराज हैं।
-तेजवानी गिरधर