तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जुलाई 25, 2012

बैंसला की खिलाफत के चलते नहीं होगी एकजुटता


गुर्जर समाज को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर गुर्जर संयुक्त आरक्षण संचालन समिति के बैनर तले समाज को एकजुट करने का प्रयास यूं तो बड़ा साफ सुथरा प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें व्यक्ति विशेष की बजाय सामूहिक नेतृत्व पर जोर दिया जा रहा है, मगर साथ ही अब तक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की खिलाफत के चलते एकजुटता होती नजर नहीं आ रही है।
इसका नजारा हाल ही पुष्कर सरोवर के तट पर स्थित वीर गुर्जर घाट पर आयोजित जिला स्तरीय बैठक में ही नजर आ गया। एक तो इसमें पर्याप्त संख्या में समाज बंधु उपस्थित नहीं हुए, दूसरा बैंसला के खिलाफत किए जाने से बैठक में मौजूद आधे से अधिक बैंसला समर्थक समाज बंधु बैठक का बहिष्कार कर लौट गए।
ज्ञातव्य है कि गुर्जर समाज को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर गुर्जर संयुक्त आरक्षण संचालन समिति के बैनर पर किए जाने वाले आंदोलन से पूर्व समाज बंधुओं को संगठित करने के मुख्य उद्देश्य से प्रदेश के सभी जिलों में 21 जुलाई से 22 अगस्त तक जिलास्तरीय बैठक आयोजित की जा रही है। इसी क्रम में अजमेर जिले के समाज बंधुओं की दूसरी बैठक पूर्व विधायक अतर सिंह भड़ाना की अगुवाई में पुष्कर में आयोजित की गई। वक्ताओं ने आरक्षण की मांग को लेकर पूर्व में किए गए आंदोलन की विफलता के लिए सीधे तौर पर किरोड़ी सिंह बैंसला को जिम्मेदार ठहराया तथा उन पर जमकर बरसे। वक्ताओं ने बैंसला को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि बैंसला सिर्फ सरकार से समझौता करते आ रहे हैं। अब समझौता नहीं फैसला होगा। यही नहीं वक्ताओं ने कहा कि आंदोलन किसी एक नेता का नहीं है, बल्कि पूरे समाज का है। पूर्व विधायक भडाना का कहना रहा कि पूर्व में गुर्जरों के आरक्षण दिलाने के लिए बड़े आंदोलन हुए, लेकिन एक व्यक्ति विशेष के फैसले की वजह से हम हार गए। मगर अब पूरे देश में उग्र आंदोलन होगा। जिसका आगामी 5 सितंबर को सिकंदरा में होने वाली समाज की महापंचायत में आगाज किया जाएगा।
भडाना की बात कहने-सुनने में तो सही लगती है, मगर यदि ऐसा बैंसला को निशाने पर रख कर किया जाता है तो एकजुटता की उम्मीद उतनी ही कम हो जाती है। उलटा इससे फूट और बढ़ेगी। भले ही यह बात सही हो कि बैंसला के कुछ गलत निर्णयों के कारण समाज को सफलता हासिल नहीं हुई, मगर साथ ही यह भी सच है कि आंदोलन को परवान चढ़ाने में उनकी अहम भूमिका रही है और उसे एक झटके में नकारा नहीं जा सकता। आज भी बैंसला में यकीन करने वालों की बड़ी भारी तादात है। अगर बैंसला से बात करके उन्हें शामिल करते हुए सामूहिक नेतृत्व की बात की जाती है तो संभव है समाज अपने लक्ष्य को हासिल कर ले।
समाज के ताजा हालात पर गहरी नजर डालें तो बेशक इसके पीछे राजनीतिक महत्वाकांक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है, मगर कहीं न कहीं इसके लिए खुद बैंसला भी जिम्मेदार हैं। शुरू में वे एक सशक्त सामाजिक नेता के रूप में उभर कर आए थे, जिससे समाज को भारी उम्मीदें थीं। उनका अक्खड़ और अडियल रुख भी समाज को बहुत रास आ रहा था। समाज को लग रहा था कि वे कोई राजनीति नहीं कर रहे हैं, इस कारण समाज को आरक्षण का लाभ मिल जाएगा। मगर चूंकि वे राजनीतिक चालबाजियों से अनभिज्ञ थे, इस कारण जल्द ही राजनीति की दलदल में फंस गए। पहले पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने गुर्जरों को वोट बैंक हासिल करने के लिए उन्हें अपना मोहरा बनाया। वे भी चक्कर में आ गए। अपने जवानों को शहीद करवाया और ऐसा आरक्षण हासिल किया, जो प्रत्यक्षत: तो ऐसा दिखता था कि कोई बहुत बड़ा गढ़ जीत लिया हो, मगर उसमें अनेक प्रकार की कानूनी अड़चनें थीं। वहां तक भी बात ठीक थी, लेकिन जैसे ही उन्होंने जाट नेता ज्ञानप्रकाश पिलानिया का इतिहास दोहराते हुए भाजपा में शामिल होने का कदम उठाया, उनका कद छोटा हो गया। आमतौर पर कांग्रेस विचारधारा के साथ चलने वाले गुर्जर उनसे नजदीकी रखने से कतराने लगे।
पिछले दिनों जब बैंसला ने दुबारा आंदोलन शुरू किया तो उन पर पूर्व में किए गए आंदोलन को सिरे तक पहुंचाने का सामाजिक दबाव बना हुआ था। इधर सरकार की मजबूरी ये है थी कि वह हाईकोर्ट की ओर से सीमा से अधिक आरक्षण पर उठाए गए सवाल की वजह से किंकर्तव्यविमूढ़ थी, जबकि गुर्जर समाज को किसी भी हालत में आरक्षण चाहिए था। बैंसला इन दोनों स्थितियों के बीच फंसे हुए थे।
चूंकि बैंसला भाजपा में शामिल हो चुके थे, इस कारण कांग्रेसियों को भारी परेशानी थी, मगर सामाजिक दबाव की मजबूरी के चलते कांगे्रस विचारधारा के गुर्जरों को भी समर्थन देना पड़ा। इधर कुआं, उधर खाई वाली स्थिति थी। वे जानते थे कि यदि कर्नल बैंसला को सफल होने से रोकते हैं तो समाज खिलाफ हो जाएगा, मगर दूसरी ओर बैंसला का साथ देकर अपनी राजनीति भी खत्म नहीं करना चाहते थे। उधर सरकार हाईकोर्ट की आड़ लेकर आंदोलन को लंबा खिंचवाने लगी। उसका आकलन था कि जैसे ही आंदोलन लंबा खिंचेगा, उसके कमजोर होने की संभावना बढ़ जाएगी। बैंसला को भी लग रहा था कि और अधिक समय गंवाया तो आंदोलन बिखर जाएगा। इस बीच गृह मंत्री शांति धारीवाल ने भी पैंतरा चला। कि सरकार की ओर से दिया जा रहा पैकेज मंजूर करने पर ही अन्य मांगें पूरी की जाएंगी। विशेष रूप से पूर्व में हुए आंदोलन के दौरान दर्ज मुकदमों को वापस लेने की मांग की आड़ में  सरकार दबाव बनाना चाह रही थी। जाहिर तौर पर कर्नल बैंसला पर यह दबाव रहा कि वे आरक्षण दिलवाने के साथ पूर्व के मुकदमों से भी मुक्ति दिलवाएं। यदि सरकारी पैकेज को मंजूर करते हैं तो आंदोलन का रुख सरकार के बताए तरीके की ओर मुड़ जाता है। हुआ भी यही। उन्हें एक प्रतिशत आरक्षण पर हां भरनी पड़ी। इसी के साथ उनका भाजपा से इस्तीफा देना भी चौंकाने वाला रहा। जाहिर तौर पर यह किसी गुप्त समझौते का ही प्रतिफल माना जा सकता है।
हालांकि बैंसला ने यह समझौता अपनी खाल बचाने के लिए किया और कानूनी बाध्यताओं में इससे ज्यादा मिल भी नहीं सकता था, मगर एक प्रतिशत आरक्षण से नाराज गुर्जर नेताओं ने बैंसला पर आरोप जड़ दिया है कि उन्होंने स्वार्थ की खातिर ऐसा किया है। उनका कहना है कि बैंसला ने दोनों सरकारों से किए तीन समझौतों में से एक में अपनी गरीबी दूर की, दूसरे में भाजपा में शामिल  हो कर लोकसभा चुनाव का टिकट लिया, समधी को देवनारायण बोर्ड में और एक रिश्तेदार ब्रह्मसिंह गुर्जर को राजस्थान लोक सेवा आयोग में नियुक्ति दिलवाई और तीसरे में अपनी बेटी सुनीता को कांग्रेस की ओर से राज्यसभा का टिकट दिलवाना तय किया है। बैंसला पर समाज का लाखों रुपया हजम करने का भी आरोप लगाया गया।  कुल मिला कर ताजा गुर्जर आंदोलन की परिणति ये रही है कि बैंसला ने अपनी साख पर बट्टा लगवा लिया है, भले ही कोई निजी लाभ हासिल कर लिया हो। दूसरा ये कि आंदोलन दो फाड़ हो गया है। समाज का दूसरा धड़ा आंदोलन को सामूहिक नेतृत्व में जारी रखने पर आमादा है। देखना ये है कि बैंसला का विरोध करने के चलते इस सामूहिक नेतृत्व के प्रति समाज अपना विश्वास जाहिर करता है अथवा नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

ये वही संगमा हैं, जो सोनिया से माफी मांग चुके हैं


देश के इतिहास में कदाचित पहली बार राष्ट्रपति जैसे गरिमापूर्ण पद के चुनाव में इतनी छीछालेदर हुई है। हालांकि चुनाव की सीधी टक्कर में पी ए संगमा को स्वाभाविक रूप से चुनाव प्रचार के दौरान बयानबाजी करने का अधिकार था, मगर उन्होंने जिस तरह स्तर से नीचे जा कर प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी पर हमले किए, उससे दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र शर्मसार हुआ है। अफसोसनाक बात है कि लोकतंत्र के तहत मिले अधिकारों का उपयोग करते हुए वे अब भी इस चुनाव को लेकर सियापा जारी रखे हुए हैं। वे जानते हैं कि होना जाना कुछ नहीं है, मगर कम से कम मीडिया की हैड लाइंस में तो बने ही रहेंगे।
 असल में वे जानते थे कि नंबर गेम में वे कहीं नहीं ठहरते, बावजूद इसके मैदान में उतरे और वास्तविकता के धरातल को नजरअंदाज कर किसी चमत्कार से जीतने का दावा करते रहे। न वह चमत्कार होना था और न हुआ, मगर राष्ट्रपति पद जैसे अहम चुनाव को जिस तरह से नौटंकी करते हुए उन्होंने लड़ा, उससे न केवल इस पद की गरिमा पर आंच आई, संगमा का घटियापन भी उभर आया। कभी घटिया बयानबाजी तो कभी ढ़ोल बजाते हुए चुनाव प्रचार के लिए निकल कर उन्होंने इस चुनाव को पार्षद के चुनाव सरीखा कर दिया। माना कि भारत की राजनीति में जातिवाद का बोलबाला है और जाति समूह को संतुष्ट करने की कोशिशें की जाती रहीं हैं, मगर संगमा ने इसे एक आदिवासी को राष्ट्रपति पद पर पहुंचाने की मुहिम बना कर नए पैमाने बनाने की कुत्सित कोशिश की। और यही वजह रही कि विपक्षी गठबंधन एनडीए के कई घटकों तक ने उन्हें समर्थन देना मुनासिब नहीं समझा।
असल में संगमा इससे पहले भी अपनी स्वार्थपरक और घटिया सोच का प्रदर्शन कर चुके हैं। स्वार्थ की खातिर राजनीति में लोग किस कदर गिर जाते हैं, इसका नमूना वे पहले भी पेश कर चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा बना कर लंबी-चौड़ी बहस करने वाले और फिर सिर्फ इसी मुद्दे पर कांग्रेस से अलग हो कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले संगमा ने सोनिया से बाद में जिस तरह से माफी मांगी, कदाचित उन्हीं जैसों के लिए थूक कर चाटने वाली कहावत बनी है। उन्होंने न केवल माफी मांगी, अपितु साथ में निर्लज्जता से यह और कह दिया कि विदेशी मूल का अब कोई मुद्दा ही नहीं है। संगमा के बदले हुए रवैये को सब समझ रहे थे कि यकायक उनका हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था। उन्हें अचानक माफी मांगने की क्या सूझी थी? जाहिर है वे अपनी बेटी अगाथा संगमा को केन्द्र सरकार में मंत्री बनाए जाने से बेहद अभिभूत थे। यानि जैसे ही आपका स्वार्थ पूरा हुआ और आपके सारे सिद्धांत हवा हो गए।
संगमा के बयान से सवाल उठता है कि क्या कभी इस तरह मुद्दे समाप्त होते हैं। मुद्दा समाप्त कैसे हो गया, वह तो मौजूद है ही न। चलो एक बार सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनीं, कल कोई और विदेशी मूल का व्यक्ति बन सकता है। तब भी तो आपकी विचारधारा वाले सवाल उठाएंगे। यानि कि मुद्दा समाप्त नहीं होगा। मुद्दा तो जारी ही है, तभी तो केवल सोनिया का विरोध करके कांग्रेस से अलग होने के बाद अब भी कांग्रेस से अलग ही बने हुए हैं। लौटे नहीं हैं। इस यूं भी समझा जा सकता है कि सोनिया के प्रधानमंत्री नहीं बनने के साथ यदि मुद्दा समाप्त हो गया है तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में अब कोई फर्क नहीं रह गया है। केवल सोनिया को प्रधानमंत्री न बनाने की मांग को लेकर ही तो आप अलग हुए थे। जब आपकी मंशा पूरी हो गई तो आपको कांग्रेस के चले जाना चाहिए। और यह मंशा तो तभी पूरी हो गई थी। क्या बेटी के मंत्री बनने पर अक्ल आई?
वैसे अकेले संगमा ने ही नहीं, टीम अन्ना के सेनापति अरविंद केजरीवाल ने भी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ कर बयानबाजी जारी रखी है। भले ही टीम अन्ना से जुड़े लोग तर्क के आधार पर जायज ठहराएं, मगर इससे राष्ट्रपति के गरिमापूर्ण पद पर तो आंच आई ही है। केजरीवाल आज राजनीति की गंदगी की वजह से लोकतंत्र के स्वरूप को घटिया करार दे रहे हैं, मगर ये उसी लोकतंत्र की विशालता ही है कि आप सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को गाली बक कर रहे हैं और आपका कुछ नहीं बिगड़ रहा। उलटे इतने बड़े पद हमला करके अपने आप को महान समझ रहे होंगे। और कोई तंत्र होता तो आपको गोली से उड़ा दिया जाता। अफसोस, लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का अधिकार हमें न जाने और क्या दिखाएगा?
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com