प्रदेश भाजपा में मचा ताजा घमासान कोई नया नहीं है। इससे पहले भी पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष पद से हटाने व फिर मजबूरी में बनाने के दौरान भी विवाद यही था कि भाजपा का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें नापसंद करता है और वह उन्हें दुबारा मुख्यमंत्री बनने नहीं देना चाहता। आज भी स्थिति जस की तस है। ताजा विवाद तो बासी कढ़ी में उबाल मात्र है।
प्रदेश के संघनिष्ठ नेताओं को श्रीमती वसुंधरा राजे से कितनी एलर्जी है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के यह साफ कर देने पर कि आगामी विधानसभा चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा, गुलाब चंद कटारिया व ललित किशोर चतुर्वेदी ने यह कह विवाद पैदा किया कि ऐसा पार्टी में तय नहीं किया गया है। उसी कड़ी में जब संघ के नेताओं को पता लगा कि वसुंधरा जल्द ही प्रदेश में अपने आपको स्थापित करने के लिए रथ यात्रा निकालने की तैयारी कर रही हैं, कटारिया ने खुद मेवाड़ अंचल में यात्रा निकालने की घोषणा कर दी। इस पर जैसे ही वसुंधरा के इशारे पर कटारिया से व्यक्तिगत रंजिश रखने वाली पार्टी महासचिव व राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने विरोध किया तो बवाल हो गया। उसी का परिणाम है ताजा जलजला, जिसमें वसुंधरा ने एक बार फिर इस्तीफों का हथकंडा अपना कर केन्द्रीय नेतृत्व को मुश्किल में डाल दिया है। हालांकि विवाद बढऩे पर कटारिया अपनी यात्रा स्थगित करने की घोषणा कर चुके हैं, अर्थात अपनी ओर से विवाद समाप्त कर चुके हैं, मगर इस बार वसुंधरा ने भी तय कर लिया है कि बार-बार की रामायण को समाप्त ही कर दिया जाए। इस कारण उनके समर्थक मांग कर रहे हैं कि पार्टी स्तर पर घोषणा की जाए कि आगामी चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा और भाजपा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री भी वसुंधरा ही होंगी।
सवाल ये उठता है कि आखिर संघ के एक बड़े वर्ग को वसुंधरा से तकलीफ क्या है? जैसा कि संघ का मिजाज है, वह खुले में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता, मगर भीतर ही भीतर पर इस बात पर निरंतर मंथन चलता रहा है कि वसुंधरा को किस प्रकार कमजोर किया जाए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजस्थान में भाजपा के पास वसुंधरा राजे के मुकाबले का कोई दूसरा आकर्षक व्यक्तित्व नहीं है। अधिसंख्य विधायक व कार्यकर्ता भी उनसे प्रभावित हैं। उनमें जैसी चुम्बकीय शक्ति और ऊर्जा है, वैसी किसी और में नहीं दिखाई देती। उनके जितना साधन संपन्न भी कोई नहीं है। उनकी संपन्नता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भाजपा हाईकमान उनके विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर नहीं रहने पर अड़ गया था, तब उन्होंने एकबारगी तो नई पार्टी के गठन पर विचार ही शुरू कर दिया था। राजनीति के जानकार समझ सकते हैं कि नई पार्टी का गठन कितना धन साध्य और श्रम साध्य है। वस्तुत: साधन संपन्नता और शाही ठाठ की दृष्टि से वसुंधरा के लिए मुख्यमंत्री का पद कुछ खास नहीं है। उन्हें रुचि है तो सिर्फ पद की गरिमा में, उसके साथ जुड़े सत्ता सुख में। वे उस विजया राजे सिंधिया की बेटी हैं, जो तब पार्टी की सबसे बड़ी फाइनेंसर हुआ करती थीं, जब पार्टी अपने शैशवकाल में थी। मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी वसुंधरा ने पार्टी को बेहिसाब आर्थिक मदद की। जाहिर तौर पर ऐसे में जब उन पर ही अंगुली उठाई गई थीं तो बिफर गईं, जैसे कि हाल ही बिफरीं हैं। वे अपने और अपने परिवार के योगदान को बाकायदा गिना चुकी हैं। बहरहाल, कुल मिला कर उनके मुकाबले का कोई नेता भाजपा में नहीं है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भाजपा में एक मात्र वे ही जिताऊ हैं, जो पार्टी को फिर से सत्ता में लाने का माद्दा रखती हैं। पिछली बार भी हारीं तो उसकी वजुआत में संघ की नाराजगी भी शामिल है।
यह सही है कि भाजपा केडर बेस पार्टी है और उसका अपना नेटवर्क है। कोई भी व्यक्ति पार्टी से बड़ा नहीं माना जाता। कोई भी नेता पार्टी से अलग हट कर कुछ भी नहीं है, मगर वसुंधरा के साथ ऐसा नहीं है। उनका अपना व्यक्तित्व और कद है। और यही वजह है कि सिर्फ उनके चेहरे को आगे रख कर ही पार्टी चुनावी वैतरणी पार सकती है। ऐसा नहीं है कि संघ इस बात को नहीं समझता। वह भलीभांति जानता है। मगर उसे उनके तौर तरीकों पर ऐतराज है। वसुंधरा की जो कार्य शैली है, वह संघ के तौर-तरीकों से मेल नहीं खाती।
संघ का मानना है कि राजस्थान में आज जो पार्टी की संस्कृति है, वह वसुंधरा की ही देन है। वसुंधरा की कार्यशैली के कारण भाजपा की पार्टी विथ द डिफ्रंस की छवि समाप्त हो गई। इससे पहले पार्टी साफ-सुथरी हुआ करती थी। अब पार्टी में पहले जैसे अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव है। निचले स्तर पर भले ही कार्यकर्ता आज भी समर्पित हैं, मगर मध्यम स्तर की नेतागिरी में कांग्रेसियों जैसे अवगुण आ गए हैं। आम जनता को भी कांग्रेस व भाजपा में कोई खास अंतर नहीं दिखाई देता। इसके अतिरिक्त संघ की एक पीड़ा ये भी है कि पिछले मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान वसुंधरा ने पार्टी की वर्षों से सेवा करने वाले नेताओं को हाशिये पर खड़ा कर दिया, उन्हें खंडहर तक की संज्ञा देने लगीं, जिससे कर्मठ कार्यकर्ता का मनोबल टूट गया। प्रदेश भाजपा अध्यक्षों को जिस प्रकार उन्होंने दबा कर रखा, उसे भी संघ नहीं भूल सकता। वे तो हर दम पावर में बनी रहीं, मगर एक के बाद एक तीन प्रदेश अध्यक्ष ललित किशोर चतुर्वेदी, डा. महेश शर्मा व ओमप्रकाश माथुर शहीद हो गए। वसुंधरा पर नकेल कसने के लिए अरुण चतुर्वेदी को अध्यक्ष बनाया गया, मगर वे भी वसुंधरा के आभा मंडल के आगे फीके ही साबित हुए हैं। हालांकि संघ भी अब समझने लगा है कि केवल चरित्र के दम पर ही पार्टी को जिंदा नहीं रखा जा सकता। उसके लिए पैसे की जरूरत भी होती है। राजनीति अब बहुत खर्चीला काम है। और पैसे के लिए जाहिर तौर पर वह सब कुछ करना होता है, जिससे अलग रह कर पार्टी अपने आप को पार्टी विथ द डिफ्रेंस कहाती रही है। वसुंधरा की कूटनीति का संघ भी कायल है, मगर सोच ये है कि उनकी कूटनीति की वजह से पार्टी को जितना फायदा होता है, उससे कहीं अधिक पार्टी की छवि को धक्का लगता है। चलो उसे भी स्वीकार कर लिया जाए, मगर उसे ज्यादा तकलीफ इस बात से है कि वसुंधरा उसके सामने उतनी नतमस्तक नहीं होतीं, जितना अब तक भाजपा नेता होते रहे हैं।
यह सर्वविदित है कि संघ के नेता लोकप्रियता और सत्ता सुख के चक्कर में नहीं पड़ते, सादा जीवन उच्च विचार में जीते हैं, मगर चाबी तो अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं। और उसकी एक मात्र वजह ये है कि संघ भाजपा का मातृ संगठन है। भाजपा की अंदरूनी ताकत तो संघ ही है। वह अपनी अहमियत किसी भी सूरत में खत्म नहीं होने देना चाहता। वह चाहता है कि पार्टी संगठन पर संघ की ही पकड़ रहनी चाहिए।
वैसे संघ की वास्तविक मंशा तो वसुंधरा को निपटाने की ही है, या उनसे पार्टी को मुक्त कराने की है, यह बात दीगर है कि अब ऐसा करना संभव नहीं। ऐसे में संघ की कोशिश यही रहेगी कि आगामी विधानसभा के मद्देनजर ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे वसुंधरा को भले ही कुछ फ्रीहैंड दिया जाए, मगर संघ की भी अहमियत बनी रहे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
प्रदेश के संघनिष्ठ नेताओं को श्रीमती वसुंधरा राजे से कितनी एलर्जी है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के यह साफ कर देने पर कि आगामी विधानसभा चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा, गुलाब चंद कटारिया व ललित किशोर चतुर्वेदी ने यह कह विवाद पैदा किया कि ऐसा पार्टी में तय नहीं किया गया है। उसी कड़ी में जब संघ के नेताओं को पता लगा कि वसुंधरा जल्द ही प्रदेश में अपने आपको स्थापित करने के लिए रथ यात्रा निकालने की तैयारी कर रही हैं, कटारिया ने खुद मेवाड़ अंचल में यात्रा निकालने की घोषणा कर दी। इस पर जैसे ही वसुंधरा के इशारे पर कटारिया से व्यक्तिगत रंजिश रखने वाली पार्टी महासचिव व राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने विरोध किया तो बवाल हो गया। उसी का परिणाम है ताजा जलजला, जिसमें वसुंधरा ने एक बार फिर इस्तीफों का हथकंडा अपना कर केन्द्रीय नेतृत्व को मुश्किल में डाल दिया है। हालांकि विवाद बढऩे पर कटारिया अपनी यात्रा स्थगित करने की घोषणा कर चुके हैं, अर्थात अपनी ओर से विवाद समाप्त कर चुके हैं, मगर इस बार वसुंधरा ने भी तय कर लिया है कि बार-बार की रामायण को समाप्त ही कर दिया जाए। इस कारण उनके समर्थक मांग कर रहे हैं कि पार्टी स्तर पर घोषणा की जाए कि आगामी चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा और भाजपा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री भी वसुंधरा ही होंगी।
सवाल ये उठता है कि आखिर संघ के एक बड़े वर्ग को वसुंधरा से तकलीफ क्या है? जैसा कि संघ का मिजाज है, वह खुले में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता, मगर भीतर ही भीतर पर इस बात पर निरंतर मंथन चलता रहा है कि वसुंधरा को किस प्रकार कमजोर किया जाए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजस्थान में भाजपा के पास वसुंधरा राजे के मुकाबले का कोई दूसरा आकर्षक व्यक्तित्व नहीं है। अधिसंख्य विधायक व कार्यकर्ता भी उनसे प्रभावित हैं। उनमें जैसी चुम्बकीय शक्ति और ऊर्जा है, वैसी किसी और में नहीं दिखाई देती। उनके जितना साधन संपन्न भी कोई नहीं है। उनकी संपन्नता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भाजपा हाईकमान उनके विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर नहीं रहने पर अड़ गया था, तब उन्होंने एकबारगी तो नई पार्टी के गठन पर विचार ही शुरू कर दिया था। राजनीति के जानकार समझ सकते हैं कि नई पार्टी का गठन कितना धन साध्य और श्रम साध्य है। वस्तुत: साधन संपन्नता और शाही ठाठ की दृष्टि से वसुंधरा के लिए मुख्यमंत्री का पद कुछ खास नहीं है। उन्हें रुचि है तो सिर्फ पद की गरिमा में, उसके साथ जुड़े सत्ता सुख में। वे उस विजया राजे सिंधिया की बेटी हैं, जो तब पार्टी की सबसे बड़ी फाइनेंसर हुआ करती थीं, जब पार्टी अपने शैशवकाल में थी। मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी वसुंधरा ने पार्टी को बेहिसाब आर्थिक मदद की। जाहिर तौर पर ऐसे में जब उन पर ही अंगुली उठाई गई थीं तो बिफर गईं, जैसे कि हाल ही बिफरीं हैं। वे अपने और अपने परिवार के योगदान को बाकायदा गिना चुकी हैं। बहरहाल, कुल मिला कर उनके मुकाबले का कोई नेता भाजपा में नहीं है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भाजपा में एक मात्र वे ही जिताऊ हैं, जो पार्टी को फिर से सत्ता में लाने का माद्दा रखती हैं। पिछली बार भी हारीं तो उसकी वजुआत में संघ की नाराजगी भी शामिल है।
यह सही है कि भाजपा केडर बेस पार्टी है और उसका अपना नेटवर्क है। कोई भी व्यक्ति पार्टी से बड़ा नहीं माना जाता। कोई भी नेता पार्टी से अलग हट कर कुछ भी नहीं है, मगर वसुंधरा के साथ ऐसा नहीं है। उनका अपना व्यक्तित्व और कद है। और यही वजह है कि सिर्फ उनके चेहरे को आगे रख कर ही पार्टी चुनावी वैतरणी पार सकती है। ऐसा नहीं है कि संघ इस बात को नहीं समझता। वह भलीभांति जानता है। मगर उसे उनके तौर तरीकों पर ऐतराज है। वसुंधरा की जो कार्य शैली है, वह संघ के तौर-तरीकों से मेल नहीं खाती।
संघ का मानना है कि राजस्थान में आज जो पार्टी की संस्कृति है, वह वसुंधरा की ही देन है। वसुंधरा की कार्यशैली के कारण भाजपा की पार्टी विथ द डिफ्रंस की छवि समाप्त हो गई। इससे पहले पार्टी साफ-सुथरी हुआ करती थी। अब पार्टी में पहले जैसे अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव है। निचले स्तर पर भले ही कार्यकर्ता आज भी समर्पित हैं, मगर मध्यम स्तर की नेतागिरी में कांग्रेसियों जैसे अवगुण आ गए हैं। आम जनता को भी कांग्रेस व भाजपा में कोई खास अंतर नहीं दिखाई देता। इसके अतिरिक्त संघ की एक पीड़ा ये भी है कि पिछले मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान वसुंधरा ने पार्टी की वर्षों से सेवा करने वाले नेताओं को हाशिये पर खड़ा कर दिया, उन्हें खंडहर तक की संज्ञा देने लगीं, जिससे कर्मठ कार्यकर्ता का मनोबल टूट गया। प्रदेश भाजपा अध्यक्षों को जिस प्रकार उन्होंने दबा कर रखा, उसे भी संघ नहीं भूल सकता। वे तो हर दम पावर में बनी रहीं, मगर एक के बाद एक तीन प्रदेश अध्यक्ष ललित किशोर चतुर्वेदी, डा. महेश शर्मा व ओमप्रकाश माथुर शहीद हो गए। वसुंधरा पर नकेल कसने के लिए अरुण चतुर्वेदी को अध्यक्ष बनाया गया, मगर वे भी वसुंधरा के आभा मंडल के आगे फीके ही साबित हुए हैं। हालांकि संघ भी अब समझने लगा है कि केवल चरित्र के दम पर ही पार्टी को जिंदा नहीं रखा जा सकता। उसके लिए पैसे की जरूरत भी होती है। राजनीति अब बहुत खर्चीला काम है। और पैसे के लिए जाहिर तौर पर वह सब कुछ करना होता है, जिससे अलग रह कर पार्टी अपने आप को पार्टी विथ द डिफ्रेंस कहाती रही है। वसुंधरा की कूटनीति का संघ भी कायल है, मगर सोच ये है कि उनकी कूटनीति की वजह से पार्टी को जितना फायदा होता है, उससे कहीं अधिक पार्टी की छवि को धक्का लगता है। चलो उसे भी स्वीकार कर लिया जाए, मगर उसे ज्यादा तकलीफ इस बात से है कि वसुंधरा उसके सामने उतनी नतमस्तक नहीं होतीं, जितना अब तक भाजपा नेता होते रहे हैं।
यह सर्वविदित है कि संघ के नेता लोकप्रियता और सत्ता सुख के चक्कर में नहीं पड़ते, सादा जीवन उच्च विचार में जीते हैं, मगर चाबी तो अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं। और उसकी एक मात्र वजह ये है कि संघ भाजपा का मातृ संगठन है। भाजपा की अंदरूनी ताकत तो संघ ही है। वह अपनी अहमियत किसी भी सूरत में खत्म नहीं होने देना चाहता। वह चाहता है कि पार्टी संगठन पर संघ की ही पकड़ रहनी चाहिए।
वैसे संघ की वास्तविक मंशा तो वसुंधरा को निपटाने की ही है, या उनसे पार्टी को मुक्त कराने की है, यह बात दीगर है कि अब ऐसा करना संभव नहीं। ऐसे में संघ की कोशिश यही रहेगी कि आगामी विधानसभा के मद्देनजर ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे वसुंधरा को भले ही कुछ फ्रीहैंड दिया जाए, मगर संघ की भी अहमियत बनी रहे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com