तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, मई 06, 2012

संघ को आखिर तकलीफ क्या है वसुंधरा मेडम से?

प्रदेश भाजपा में मचा ताजा घमासान कोई नया नहीं है। इससे पहले भी पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष पद से हटाने व फिर मजबूरी में बनाने के दौरान भी विवाद यही था कि भाजपा का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें नापसंद करता है और वह उन्हें दुबारा मुख्यमंत्री बनने नहीं देना चाहता। आज भी स्थिति जस की तस है। ताजा विवाद तो बासी कढ़ी में उबाल मात्र है।
प्रदेश के संघनिष्ठ नेताओं को श्रीमती वसुंधरा राजे से कितनी एलर्जी है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के यह साफ कर देने पर कि आगामी विधानसभा चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा, गुलाब चंद कटारिया व ललित किशोर चतुर्वेदी ने यह कह विवाद पैदा किया कि ऐसा पार्टी में तय नहीं किया गया है। उसी कड़ी में जब संघ के नेताओं को पता लगा कि वसुंधरा जल्द ही प्रदेश में अपने आपको स्थापित करने के लिए रथ यात्रा निकालने की तैयारी कर रही हैं, कटारिया ने खुद मेवाड़ अंचल में यात्रा निकालने की घोषणा कर दी। इस पर जैसे ही वसुंधरा के इशारे पर कटारिया से व्यक्तिगत रंजिश रखने वाली पार्टी महासचिव व राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने विरोध किया तो बवाल हो गया। उसी का परिणाम है ताजा जलजला, जिसमें वसुंधरा ने एक बार फिर इस्तीफों का हथकंडा अपना कर केन्द्रीय नेतृत्व को मुश्किल में डाल दिया है। हालांकि विवाद बढऩे पर कटारिया अपनी यात्रा स्थगित करने की घोषणा कर चुके हैं, अर्थात अपनी ओर से विवाद समाप्त कर चुके हैं, मगर इस बार वसुंधरा ने भी तय कर लिया है कि बार-बार की रामायण को समाप्त ही कर दिया जाए। इस कारण उनके समर्थक मांग कर रहे हैं कि पार्टी स्तर पर घोषणा की जाए कि आगामी चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा और भाजपा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री भी वसुंधरा ही होंगी।
सवाल ये उठता है कि आखिर संघ के एक बड़े वर्ग को वसुंधरा से तकलीफ क्या है? जैसा कि संघ का मिजाज है, वह खुले में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता, मगर भीतर ही भीतर पर इस बात पर निरंतर मंथन चलता रहा है कि वसुंधरा को किस प्रकार कमजोर किया जाए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजस्थान में भाजपा के पास वसुंधरा राजे के मुकाबले का कोई दूसरा आकर्षक व्यक्तित्व नहीं है। अधिसंख्य विधायक व कार्यकर्ता भी उनसे प्रभावित हैं। उनमें जैसी चुम्बकीय शक्ति और ऊर्जा है, वैसी किसी और में नहीं दिखाई देती। उनके जितना साधन संपन्न भी कोई नहीं है। उनकी संपन्नता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भाजपा हाईकमान उनके विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर नहीं रहने पर अड़ गया था, तब उन्होंने एकबारगी तो नई पार्टी के गठन पर विचार ही शुरू कर दिया था। राजनीति के जानकार समझ सकते हैं कि नई पार्टी का गठन कितना धन साध्य और श्रम साध्य है। वस्तुत: साधन संपन्नता और शाही ठाठ की दृष्टि से वसुंधरा के लिए मुख्यमंत्री का पद कुछ खास नहीं है। उन्हें रुचि है तो सिर्फ पद की गरिमा में, उसके साथ जुड़े सत्ता सुख में। वे उस विजया राजे सिंधिया की बेटी हैं, जो तब पार्टी की सबसे बड़ी फाइनेंसर हुआ करती थीं, जब पार्टी अपने शैशवकाल में थी। मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी वसुंधरा ने पार्टी को बेहिसाब आर्थिक मदद की। जाहिर तौर पर ऐसे में जब उन पर ही अंगुली उठाई गई थीं तो बिफर गईं, जैसे कि हाल ही बिफरीं हैं। वे अपने और अपने परिवार के योगदान को बाकायदा गिना चुकी हैं। बहरहाल, कुल मिला कर उनके मुकाबले का कोई नेता भाजपा में नहीं है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भाजपा में एक मात्र वे ही जिताऊ हैं, जो पार्टी को फिर से सत्ता में लाने का माद्दा रखती हैं। पिछली बार भी हारीं तो उसकी वजुआत में संघ की नाराजगी भी शामिल है।
यह सही है कि भाजपा केडर बेस पार्टी है और उसका अपना नेटवर्क है। कोई भी व्यक्ति पार्टी से बड़ा नहीं माना जाता। कोई भी नेता पार्टी से अलग हट कर कुछ भी नहीं है, मगर वसुंधरा के साथ ऐसा नहीं है। उनका अपना व्यक्तित्व और कद है। और यही वजह है कि सिर्फ उनके चेहरे को आगे रख कर ही पार्टी चुनावी वैतरणी पार सकती है। ऐसा नहीं है कि संघ इस बात को नहीं समझता। वह भलीभांति जानता है। मगर उसे उनके तौर तरीकों पर ऐतराज है। वसुंधरा की जो कार्य शैली है, वह संघ के तौर-तरीकों से मेल नहीं खाती।
संघ का मानना है कि राजस्थान में आज जो पार्टी की संस्कृति है, वह वसुंधरा की ही देन है। वसुंधरा की कार्यशैली के कारण भाजपा की पार्टी विथ द डिफ्रंस की छवि समाप्त हो गई। इससे पहले पार्टी साफ-सुथरी हुआ करती थी। अब पार्टी में पहले जैसे अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव है। निचले स्तर पर भले ही कार्यकर्ता आज भी समर्पित हैं, मगर मध्यम स्तर की नेतागिरी में कांग्रेसियों जैसे अवगुण आ गए हैं। आम जनता को भी कांग्रेस व भाजपा में कोई खास अंतर नहीं दिखाई देता। इसके अतिरिक्त संघ की एक पीड़ा ये भी है कि पिछले मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान वसुंधरा ने पार्टी की वर्षों से सेवा करने वाले नेताओं को हाशिये पर खड़ा कर दिया, उन्हें खंडहर तक की संज्ञा देने लगीं, जिससे कर्मठ कार्यकर्ता का मनोबल टूट गया। प्रदेश भाजपा अध्यक्षों को जिस प्रकार उन्होंने दबा कर रखा, उसे भी संघ नहीं भूल सकता। वे तो हर दम पावर में बनी रहीं, मगर एक के बाद एक तीन प्रदेश अध्यक्ष ललित किशोर चतुर्वेदी, डा. महेश शर्मा व ओमप्रकाश माथुर शहीद हो गए। वसुंधरा पर नकेल कसने के लिए अरुण चतुर्वेदी को अध्यक्ष बनाया गया, मगर वे भी वसुंधरा के आभा मंडल के आगे फीके ही साबित हुए हैं। हालांकि संघ भी अब समझने लगा है कि केवल चरित्र के दम पर ही पार्टी को जिंदा नहीं रखा जा सकता। उसके लिए पैसे की जरूरत भी होती है। राजनीति अब बहुत खर्चीला काम है। और पैसे के लिए जाहिर तौर पर वह सब कुछ करना होता है, जिससे अलग रह कर पार्टी अपने आप को पार्टी विथ द डिफ्रेंस कहाती रही है। वसुंधरा की कूटनीति का संघ भी कायल है, मगर सोच ये है कि उनकी कूटनीति की वजह से पार्टी को जितना फायदा होता है, उससे कहीं अधिक पार्टी की छवि को धक्का लगता है। चलो उसे भी स्वीकार कर लिया जाए, मगर उसे ज्यादा तकलीफ इस बात से है कि वसुंधरा उसके सामने उतनी नतमस्तक नहीं होतीं, जितना अब तक भाजपा नेता होते रहे हैं।
यह सर्वविदित है कि संघ के नेता लोकप्रियता और सत्ता सुख के चक्कर में नहीं पड़ते, सादा जीवन उच्च विचार में जीते हैं, मगर चाबी तो अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं। और उसकी एक मात्र वजह ये है कि संघ भाजपा का मातृ संगठन है। भाजपा की अंदरूनी ताकत तो संघ ही है। वह अपनी अहमियत किसी भी सूरत में खत्म नहीं होने देना चाहता। वह चाहता है कि पार्टी संगठन पर संघ की ही पकड़ रहनी चाहिए।
वैसे संघ की वास्तविक मंशा तो वसुंधरा को निपटाने की ही है, या उनसे पार्टी को मुक्त कराने की है, यह बात दीगर है कि अब ऐसा करना संभव नहीं। ऐसे में संघ की कोशिश यही रहेगी कि आगामी विधानसभा के मद्देनजर ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे वसुंधरा को भले ही कुछ फ्रीहैंड दिया जाए, मगर संघ की भी अहमियत बनी रहे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बेकाबू सोशल मीडिया चाहता है भड़ास निकालने की स्वच्छंदता


जानकारी है कि केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया पर सख्ती करने की तैयारी कर ली है। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने संकेत दिए हैं कि इस पर विचार-विमर्श चल रहा है और इसके तकनीकी पहलुओं पर गंभीरता से फोकस किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि देश में ज्यादातर सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल दूसरे की साख पर हमला करने के लिए हो रहा है। उनका कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कुछ लोग गलत फायदा उठा रहे हैं। सोशल मीडिया का इस्तेमाल प्रोपेगेंडा करने के लिए अधिक हो रहा है।
उनकी बात में कुछ तो सच्चाई है। बेशक अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी सूरत में अंकुश नहीं होना चाहिए, मगर सोशल मीडिया को इतना तो ख्याल रखना ही होगा कि स्वतंत्रता की सीमाएं लांघते हुए उसका उपयोग स्वच्छंदता व भड़ास के लिए न होने लगे।
ज्ञातव्य है कि हाल ही में पूर्व कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की कथित सैक्स सीडी सोशल मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक कर दी गई। सीडी पर विवाद इतना अधिक गहरा गया कि अभिषेक मनु सिंघवी को अपने सभी राजनीतिक पदों से इस्तीफा तक देना पड़ा। हालांकि सिंघवी के इस प्रकार बेनकाब होने को बड़ी उपलब्धि बता कर कई लोग सोशल मीडिया को स्वतंत्र रखने की पैरवी कर रहे हैं, मगर यदि यह स्वच्छंदता की पराकाष्ठा तक पहुंचने लगे तो यह देश के लिए घातक हो सकता है। जिस सीडी के प्रसारण पर कोर्ट ने रोक लगा दी, उसे पिं्रट मीडिया व इलैक्ट्रोनिक मीडिया प्रकाशित-प्रसारित नहीं कर पाया। दूसरी ओर सोशल मीडिया ने उसे जारी कर के यह संदेश दिया कि सोशल मीडिया की वजह से ही सीडी प्रकाश में आई। यह सच भी है, मगर क्या ऐसा करके कोर्ट के आदेश को धत्ता नहीं बता दिया गया है? सवाल ये है कि जब कोर्ट ने सीडी पर पाबंदी लगा दी थी तो उसे कैसे दिखाया जाता रहा? क्या सोशल मीडिया देश की न्यायपालिका से ऊपर है? एक ब्लोगर ने तो बाकायदा पिं्रट व इलैक्ट्रोनिक मीडिया को कायर बताते हुए कोर्ट को ओवरटेक करने पर सोशल मीडिया को उसकी बहादुरी के लिए शाबाशी दी। सोशल मीडिया ने नैतिकता, मर्यादा और कानून की धज्जियां उड़ाते हुए उस सीडी को न सिर्फ दिखाया है बल्कि उस पर टीका टिप्पणियां भी कीं। यदि सोशल मीडिया इस प्रकार कोर्ट को अंगूठा दिखा कर मदमस्त हो कर इठलाता है तो यह कभी हमारे देश की अखंडता व संप्रभुता के लिए घातक भी हो सकता है।
सवाल ये उठता है अभिव्यक्ति की आजादी की पैरवी करते हुए एक सीडी को उजागर करने की सफलता की आड़ में लोगों को बेहूदा टिप्पणियां करने अथवा भड़ास निकालने छूट कैसे दी जा सकती है?
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की दुहाई देते हुए जहां कई लोग इसे संविधान की मूल भावना के विपरीत और तानाशाही की संज्ञा दे रहे हैं, वहीं कुछ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने चाहे जिस का चरित्र हनन करने और अश्लीलता की हदें पार किए जाने पर नियंत्रण पर जोर दे रहे हैं।
यह सर्वविदित ही है कि इन दिनों हमारे देश में इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बढ़ रहा है। आम तौर पर प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर जो सामग्री प्रतिबंधित है अथवा शिष्टाचार के नाते नहीं दिखाई जाती, वह इन साइट्स पर धड़ल्ले से उजागर हो रही है। किसी भी प्रकार का नियंत्रण न होने के कारण जायज-नाजायज आईडी के जरिए जिसके मन जो कुछ आता है, वह इन साइट्स पर जारी कर अपनी कुंठा शांत कर रहा है। अश्लील चित्र और वीडियो तो चलन में हैं ही, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली सामग्री भी पसरती जा रही है। सोशल मीडिया पर आने वाले कमेंट देखिए, आप हैरान रह जायेंगे कि उनसे किसी का खून भी खौल सकता है। असामाजिक तत्त्व किसी भी शहर में धार्मिक उन्माद फैला कर दंगा करवा सकते हैं। पिछले दिनों राजस्थान के भीलवाड़ा में तो ऐसी ही टिप्पणी के कारण दंगे जैसी उत्पन्न हो गई थी। यानि कि साफ है कि हम अभिव्यक्ति की आजादी की पैरवी करते वक्त उसके दुरुपयोग की ओर आंखें मूंद लेना चाहते हैं। ऐसा करके हम असामाजिक तत्त्वों को गुंडागर्दी करने का लाइसेंस देना चाहते हैं।
राजनीति और नेताओं के प्रति उपजती नफरत के चलते सोनिया गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह सहित अनेक नेताओं के बारे में शिष्टाचार की सारी सीमाएं पार करने वाली टिप्पणियां और चित्र भी धड़ल्ले से डाले जा रहे हैं। प्रतिस्पद्र्धात्मक छींटाकशी का शौक इस कदर बढ़ गया है कि कुछ लोग अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के बारे में भी टिप्पणियां करने से नहीं चूक रहे। ऐसे में पिछले दिनों केन्द्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने जैसे ही यह कहा कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रहा है तो बवाल हो गया। सिब्बल के इस कदम की देशभर में आलोचना शुरू हो गई। बुद्धिजीवी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के रूप में परिभाषित करने लगे, वहीं मौके का फायदा उठा कर विपक्ष ने इसे आपातकाल का आगाज बताना शुरू कर दिया।
जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, मोटे तौर पर यह सही है कि ऐसे नियंत्रण से लोकतंत्र प्रभावित होगा। इसकी आड़ में सरकार अपने खिलाफ चला जा रहे अभियान को कुचलने की कोशिश कर सकती है, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने यह हैं कि फेसबुक, ट्विटर, गूगल, याहू और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं, विचारों और व्यक्तिगत भावना से खेलने तथा अश्लील तस्वीरें पोस्ट करने की छूट दे दी जाए? व्यक्ति विशेष के प्रति अमर्यादित टिप्पणियां और अश्लील फोटो जारी करने दिए जाएं? किसी के खिलाफ भड़ास निकालने की खुली आजादी दे दी जाए? सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों जो कुछ हो रहा है, क्या उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वीकार कर लिया जाये?
चूंकि ऐसी स्वच्छंदता पर काबू पाने का काम सरकार के ही जिम्मे है, इस कारण जैसे ही नियंत्रण की बात आई, उसने राजनीतिक लबादा ओढ लिया। राजनीतिक दृष्टिकोण से हट कर भी बात करें तो यह सवाल तो उठता ही है कि क्या हमारा सामाजिक परिवेश और संस्कृति ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आ रही अपसंस्कृति को स्वीकार करने को राजी है? माना कि इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग के फैलते जाल में दुनिया सिमटती जा रही है और इसके अनेक फायदे भी हैं, मगर यह भी कम सच नहीं है कि इसका नशा बच्चे, बूढ़े और खासकर युवाओं के ऊपर इस कदर चढ़ चुका है कि वह मर्यादाओं की सीमाएं लांघने लगा है। अश्लीलता व अपराध का बढ़ता मायाजाल अपसंस्कृति को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। जवान तो क्या, बूढ़े भी पोर्न मसाले के दीवाने होने लगे हैं। इतना ही नहीं फर्जी आर्थिक आकर्षण के जरिए धोखाधड़ी का गोरखधंधा भी खूब फल-फूल रहा है। साइबर क्राइम होने की खबरें हम आए दिन देख-सुन रहे हैं। जिन देशों के लोग इंटरनेट का उपयोग अरसे से कर रहे हैं, वे तो अलबत्ता सावधान हैं, मगर हम भारतीय मानसिक रूप से इतने सशक्त नहीं हैं। ऐसे में हमें सतर्क रहना होगा। सोशल नेटवर्किंग की  सकारात्मकता के बीच ज्यादा प्रतिशत में बढ़ रही नकारात्मकता से कैसे निपटा जाए, इस पर गौर करना होगा। हमें इस बात को समझना होगा कि जिम्मेदारी और प्रतिबंधों के बिना मिला कोई भी अधिकार निरंकुशता की ओर ले कर जाता है और निरंकुशता अराजकता की ओर।
-तेजवानी गिरधर
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