तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, मार्च 25, 2011

क्या अंजुमनों का फूल मोहम्मद के खानदान को मदद करना जायज है?

महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में तकरीबन आठ सौ साल से खिदमत करने की खुशकिस्मती हासिल खादिमों की दोनों अंजुमनों ने सवाई माधोपुर के सूरवाल थाना इलाके में जला कर मारे गए थानेदार फूल मोहम्मद के खानदान को पचास हजार रुपए की माली इमदाद करने का फैसला किया है। इस फैसले की खबर पढ़ कर यकायक एक सवाल मेरे जेहन में उभर आया। हो सकता है ये सवाल चूंकि एक खास जमात को लेकर है, इस वजह से उन्हें तो उनके मामले में नाजायज दखल सा लग सकता है, मगर उस जमात का हर जमात के लोगों में एक खास दर्जा है, खास इज्जत है, खास यकीन है, इस वजह से जायज न सही, सोचने लायक तो लगता ही है। सवाल आप सुर्खी को देख कर ही चौंके होंगे। इस पर मेरे जेहन में आए कुछ ख्याल तफसील से रख रहा हूं। इसे बुरा न मानते हुए न लेकर खुले दिल और दिमाग से सोचेंगे, ऐसी मेरी गुजारिश है।
दरअसल आज के जमाने में हमारा पूरा समाज धर्म, संप्रदाय और जातिवाद बंट चुका है। हर जाति वर्ग के लोग अपने जाति वर्ग की बहबूदी के लिए काम कर रहे हैं। इसे बुरा नहीं माना जाता। मोटे तौर पर इस लिहाज से अंजुमनों का फूल मोहम्मद के खानदान वालों के लिए हमदर्दी रखना जायज ही माना जाएगा। उस पर ऐतराज की गुंजाइश नहीं लगती। वजह साफ है। फूल मोहम्मद इस्लाम को मानने वाले थे और खादिम भी इस्लाम को मानते हैं। इस लिहाज से हमदर्दी में मदद करने में कुछ भी गलत नजर नहीं आता। मगर सवाल ये है कि खादिम भले ही जाति तौर पर इस्लाम को मानने वाले हों, मगर वे उस कदीमी आस्ताने के खिदमतगार हैं, जहां से पूरी दुनिया में इत्तेहादुल मजाहिब और मजहबों में भाईचारे का पैगाम जाता है। यह उस महान सूफी दरवेश की बारगाह है, जिसमें केवल इस्लाम को मानने वालों का ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के हर मजहब और जाति के करोड़ों लोगों का अकीदा है। अगर ये कहा जाए कि इस मुकद्दस स्थान पर मुसलमानों से ज्यादा हिंदू और दीगर मजहबों के लोग सिर झुकाते हैं, गलत नहीं होगा। वे सब ख्वाजा साहब को एक मुस्लिम संत नहीं, बल्कि सूफी संत मान कर दौड़े चले आते हैं, क्योंकि उन्होंने इंसानियत का संदेश दिया, जो कि हर मजहब के मानने वाले के दिल को छूता है। और यही वजह है कि इस दरगाह की खिदमत करने वालों को भी एक खास दर्जा हासिल है। हर मजहब के लोग आस्ताने में उनका हाथ और चादर अपने सिर पर रखवाने को अपनी खुशनसीबी मानते हैं। बड़ी अकीदत के साथ उनके हाथ चूमते हैं। किसी आम मुसलमान का तो हाथ नहीं चूमते। ऐसी खास जमात के लोग जाति तौर पर भले ही इस्लाम को मानते हैं, मगर सभी मजहबों के लोगों को बराबरी का दर्जा दे कर ही जियारत करवाते हैं। ऐसे में उनकी अंजुमन का इस्लाम को मानने वाले के खानदान के लिए खास हमदर्दी कुछ अटपटी सी लगती है। खासतौर पर यह मामला तो पहले से ही मजहब परस्ती का रुख अख्तियार कर रहा है, इस कारण और भी ज्यादा होशियार रहने की जरूरत है। ख्वाजा साहब के आस्ताने से तो इसे खत्म किए जाने का पैगाम जाना चाहिए। यह भी एक सच है कि अंजुमन ने कई बार सभी मजहबों के लोगों के बीच भाईचारे के जलसे किए हैं। यहां तक कि जब कभी मुल्क में कोई कुदरती आफत आई है तो बढ़-चढ़ कर प्रधानमंत्री कोष और मुख्यमंत्री कोष में मदद की है। यही वजह है कि अंजुमन को नजराना देने वालों में हर मजहब के लोग शुमार हैं। उसी नजराने से इकट्ठा हुई रकम में से एक खास मजहब के परिवार वालों को देना कुछ अटपटा सा लगता है। इसे थोड़ा और खुलासा किए देता हूं। गर कोई मीणा संगठन किसी मीणा को इमदाद देता है तो उस पर कोई ऐतराज नहीं। कोई सिंधी संगठन किसी सिंधी की मदद करता है तो कोई ऐतराज नहीं। ऐसे ही कोई इस्लामिक संगठन किसी मुसलमान की मदद करता है तो भी कोई ऐतराज नहीं। मगर खादिम जमात उन सब से अलहदा है। ऐसा भी नहीं कि इस पचास हजार रुपए की रकम से उस खानदान को बहुत बड़ी राहत मिल जाएगी, जबकि सरकार ने पहले से ही पुलिस का फर्ज निभाते हुए शहीद होने की वजह से काफी मदद कर दी है। ऐसे में महज पचास हजार रुपए की इमदाद की खातिर अपने खास दर्जे से हटना नाजायज नहीं तो सोचने लायक तो है ही।
मेरा मकसद किसी जमात के अंदरूनी मामलात में न तो दखल करने का है और न ही किसी की हमदर्दी पर ऐतराज करने का। असल में मकसद कुछ है नहीं। बस एक ख्याल है, जिसे मैने जाहिर किया है। उम्मीद है इसे बुरा न मानते हुए थोड़ा सा गौर फरमाएंगे। मेरा ख्याल गर दिल को छूता हो तो उसे दाद बेशक न दीजिए, मगर उस पर ख्याल तो कर लीजिए। ताकि एक खास दर्जे की जमात की ओर से ऐसी मिसाल पेश न कर दी जाए, जिसे तंगदिली या तंग जेहनियत माना जाए।
-गिरधर तेजवानी

मंगलवार, मार्च 22, 2011

दवाइयों में लूट मची है ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से

यूं तो दवाइयों के मूल्य पर नियंत्रण रखने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू है और उसकी पालना करने के लिए औषधि नियंत्रक संगठन बना हुआ है, लेकिन दवा निर्माता कंपनियों की मनमानी और औषधि नियंत्रक 6ड्रग कंट्रोलर8 की लापरवाही के कारण अनेक दवाइयां बाजार में लागत मूल्य से कई गुना महंगे दामों में बिक रही हैं। जाहिर तौर पर इससे इस गोरखधंधे में ड्रग कंट्रोलर की मिलीभगत का संदेह होता है और साथ ही डॉक्टरों की कमीशनबाजी की भी पुष्टि होती है।
वस्तुत: सरकार ने बीमारों को उचित दर पर दवाइयां उपलब्ध होने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू कर रखा है। इसके तहत सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों पर अधिकतम विक्रय मूल्य सभी कर सहित 6एमआरपी इन्क्लूसिव ऑफ ऑल टैक्सेज8 छापना जरूरी है। इस एमआरपी में मटेरियल कॅास्ट, कन्वर्जन कॉस्ट, पैकिंग मटेरियल कॉस्ट व पैकिंग चार्जेज को मिला कर एक्स-फैक्ट्री कॉस्ट, एक्स फैक्ट्री कॉस्ट पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई, एक्साइज ड्यूटी, सेल्स टैक्स-वैल्यू एडेड टैक्स और अन्य लोकल टैक्स को शामिल किया जाता है। अर्थात जैसे किसी दवाई की लागत या एक्स फैक्ट्री कॉस्ट एक रुपया है तो उस पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई को मिला कर उसकी कीमत दो रुपए हो जाती है और उस पर सभी कर मिला कर एमआरपी कहलाती है। कोई भी रिटेलर उससे अधिक राशि नहीं वसूल सकता।
नियम ये भी है कि सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों की एमआरपी निर्धारित करने के लिए ड्रग कंट्रोलर से अनुमति लेनी होती है। उसकी स्वीकृति के बाद ही कोई दवाई बाजार में बेची जा सकती है। लेकिन जानकारी ये है कि इस नियम की पालना ठीक से नहीं हो रही। या तो दवा निर्माता कंपनियां ड्रग कंट्रोलर से अनुमति ले नहीं रहीं या फिर ले भी रही हैं तो ड्रग कंट्रोलर से स्वीकृत दर से अधिक दर से दवाइयां बेच रही हैं।
एक उदाहरण ही लीजिए। हिमाचल प्रदेश की अल्केम लेबोरेट्री लिमिटेड की गोली च्ए टू जेड एन एसज् की 15 गोलियों की स्ट्रिप की स्वीकृत दर 10 रुपए 52 पैसे मात्र है, जबकि बाजार में बिक रही स्ट्रिप पर अधिकतम खुदरा मूल्य 57 रुपए लिखा हुआ है। इसी से अंदाजा हो जाता है कि कितने बड़े पैमाने पर लूट मची हुई है। इसमें एक बारीक बात ये है कि स्वीकृत गोली का नाम तो च्ए टू जेडज् है, जबकि बाजार में बिक रही गोली का नाम च्ए टू जेड एन एसज् है। यह अंतर जानबूझ कर किया गया है। च्एन एसज् का मतलब होता है न्यूट्रिनेंटल सप्लीमेंट, जो दवाई के दायरे बाहर आ कर उसे एक फूड का रूप दे रही है। अर्थात दवाई बिक्री की स्वीकृति ड्रग कंट्रोलर से दवा उत्पाद के रूप में ली गई है, जबकि बाजार में उसका स्वरूप दवाई का नहीं, बल्कि खाद्य पदार्थ का है। इसका मतलब साफ है कि जब कभी बाजार में बिक रही दवाई को पकड़ा जाएगा तो निर्माता कंपनी यह कह कर आसानी से बच जाएगी कि यह तो खाद्य पदार्थ की श्रेणी में आती है, ड्रग कंट्रोल एक्ट के तहत उसे नहीं पकड़ा जा सकता। मगर सवाल ये उठता है कि जिस उत्पाद को सरकान ने दवाई मान कर स्वीकृत किया है तो उसे खाद्य पदार्थ के रूप में कैसे बेचा जा सकता है?
एक और उदाहरण देखिए, जिससे साफ हो जाता है कि एक ही केमिकल की दवाई की अलग-अलग कंपनी की दर में जमीन-आसमान का अंतर है। रिलैक्स फार्मास्यूटिकल्स प्रा. लि., हिमाचल प्रदेश द्वारा उत्पादित और मेनकाइंड फार्मा लि., नई दिल्ली द्वारा मार्केटेड गोली च्सिफाकाइंड-500ज् की दस गोलियों का अधिकतम खुदरा मूल्य 189 रुपए मात्र है, जबकि ईस्ट अफ्रीकन ओवरसीज, देहरादून-उत्तराखंड द्वारा निर्मित व सिट्रोक्स जेनेटिका इंडिया प्रा. लि. द्वारा मार्केटेड एलसैफ-50 की दस गोलियों की स्ट्रिप का अधिकतम खुदरा मूल्य 700 रुपए है। इन दोनों ही गोलियों में सेफ्रोक्सिम एक्सेटाइल केमिकल 500 मिलीग्राम है। एक ही दवाई की कीमत में इतना अंतर जाहिर करता है कि दवा निर्माता कंपनियां किस प्रकार मनमानी दर से दवाइयां बेच रही हैं और ड्रग कंट्रोलर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। इससे यह भी साबित होता है कि बाजार में ज्यादा कीमत पर दवाइयां बेचने वाली कंपनियां डॉक्टरों व रिटेलरों को किस प्रकार आकर्षक कमीशन देती होंगी।
दरों में अंतर एक और गोरखधंधा देखिए। जयपुर की टोलिमा लेबोरेट्रीज  का अजमेर के एक मेडिकल स्टोर को दिए गए बिल में 300 एमएल की टोल्युविट दवाई की 175 बोतलों की टे्रड रेट 18 रुपए के हिसाब से 3 हजार 150 रुपए और उस पर कर जोड़ कर उसे 3 हजार 621 रुपए की राशि अंकित की गई है, जबकि उसी बिल में दवाई की एमआरपी 70 रुपए दर्शा कर कुल राशि 12 हजार 250 दर्शायी गई है। अर्थात मात्र 18 रुपए की दवाई को रिटेलर को 70 रुपए में बेचने का अधिकार मिल गया है। तस्वीर का दूसरा रुख देखिए कि बीमार जिस दवाई के 70 रुपए अदा कर खुश हो रहा है कि वह महंगी दवाई पी कर जल्द तंदरुस्त हो जाएगा, उस दवाई को निर्माता कंपनी ने जब रिटेलर को ही 18 रुपए में बेचा है तो उस पर लागत कितनी आई होगी। यदि मोटे तौर पर एक सौ प्रतिशत एमएपीई ही मानें तो उसकी लागत बैठती होगी मात्र नौ रुपए। वह नौ रुपए लागत वाली दवाई कितनी असरदार होगी, इसकी सहज की कल्पना की जा सकती है।
कुल मिला कर यह या तो ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से हो रहा है या फिर मिलीभगत से। सवाल ये उठता है कि ऐसी दवा निर्माता कंपनियों व ड्रग कंट्रोलर को कंट्रोल कौन करेगा?
-गिरधर तेजवानी

शुक्रवार, मार्च 18, 2011

सांसद कोष : मांगने वाले भी खुद ही, देने वाले भी खुद ही, भई वाह !

केन्द्र सरकार ने अंतत: निर्णय कर ही लिया कि सांसद कोष को दो करोड़ से बढ़ा कर पांच करोड़ कर दिया जाए। सरकार ने क्या, सांसदों ने ही निर्णय किया है। मांग करने वाले भी सांसद और मांग पूरी करने वाले भी सांसद। खुद ने खुद को ही सरकारी खजाने से तीन करोड़ रुपए ज्यादा देने का निर्णय कर लिया। सांसद निधि बढ़ाने के निर्णय का कोई और विकल्प है भी नहीं। और दिलचस्प बात ये है कि राजनीतिक विचारधाराओं में लाख भिन्नता के बावजूद इस मसले पर सभी सांसद एकमत हो गए। भला अपने हित के कौन एक नहीं होता। मगर आमजन को यह सवाल करने का अधिकार तो है ही कि जिस मकसद से यह निर्णय किया गया है, वह पूरा होगा भी या नहीं? क्या वास्तव में इसका सदुपयोग होगा?
हालांकि कोष बढ़ाने के निर्णय के साथ यह तर्क दिया गया है कि इससे दूरदराज गांव-ढ़ाणी में रह रहे गरीब का उत्थान होगा, मगर इस तर्क से उस पूरे प्रशासनिक तंत्र पर सवालिया निशान लग जाता है, जो कि वास्तव में सरकार की रीढ़ की हड्डी है। एक सांसद तो फिर भी अपने कार्यकाल में संसदीय क्षेत्र के गांव-गांव ढ़ाणी-ढ़ाणी तक नहीं पहुंच पाता, जबकि प्रशासनिक तंत्र छोटे-छोटे मगरे-ढ़ाणी तक फैला हुआ है। 
सवाल ये उठता है सांसद निधि बढ़ाए जाने के निर्णय से पहले धरातल पर जांच की गई कि क्या वास्तव में सांसद अपने विवेकाधीन कोष का लाभ जरूरतमंद को ही दे रहे हैं? क्या किसी सरकारी एजेंसी से जांच करवाई गई है कि सांसद निधि की बहुत सारी राशि ऐसी संस्थाओं को रेवड़ी की तरह बांट दी जाती है, जिससे व्यक्तिगत का व्यक्तिगत हित सधता है? चाहे वह वोटों के रूप में हो अथवा कमीशनबाजी के रूप में। कमीशनबाजी का खेल काल्पनिक नहीं है, कई बार ऐसे मामले सामने आ चुके हैं। सवाल ये भी है कि सांसद निधि बढ़ाए जाने से पहले क्या इसकी भी जांच कराई गई कि पहले जो दो करोड़ की राशि थी, वह भी ठीक से काम में ली गई है या नहीं?
हालांकि इस सभी सवालों के मायने यह नहीं है कि सांसद निधि का दुरुपयोग ही होता है, लेकिन यह तो सच है ही कि अनेक सांसद ऐसे हैं जो सांसद निधि का उपयोग करने में रुचि लेते ही नहीं। और जो लेते हैं वे किस तरह से अपने निकटस्थों और उनकी संस्थाओं को ऑब्लाइज करते हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। इस सिलसिले में अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को दे वाली कहावत अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं कही जाएगी। इसके अतिरिक्त जिन संस्थाओं को सांसद कोष से राशि दी जाती है, वे संस्थाएं अमूमन प्रभावशाली लोगों की होती हैं। इनमें पत्रकारों के संगठन व पत्रकार क्लबों को शामिल किया जा सकता है। जयपुर के पिंक सिटी क्लब में भी अनेक सांसदों व विधायकों के कोष की राशि खर्च की गई है। यानि जिन संस्थाओं को राशि दी जाती है, वे उतनी जरूरतमंद नहीं, जितने कि गरीब तबके के लोग। एक उदाहरण और देखिए। अजमेर के दो सांसदों औंकारसिंह लखावत व डॉ. प्रभा ठाकुर ने देशनोक स्थित करणी माता मंदिर के लिए इसलिए अपने कोष से राशि इसीलिए दे दी क्योंकि उन पर अपनी चारण जाति के प्रभावशाली लोगों का दबाव था। या फिर इसे उनकी श्रद्धा की उपमा दी जा सकती है। हालांकि यह सही है कि दोनों सांसदों ने नियमों के मुताबिक ही यह राशि दी होगी, इस कारण इसे चुनौती देना बेमानी होगा, मगर सवाल ये है कि देशभर में इस प्रकार खर्च की गई राशि से ठेठ गरीब आदमी को कितना लाभ मिलता है?
वस्तुस्थिति तो ये है कि इस राशि का उपयोग अपनी राजनीतिक विचारधारा का पोषित के लिए किया जाता है। अनेक सांसदों ने अपनी पार्टी की विचारधारा से संबद्ध दिवंगत अथवा जीवित नेताओं के नाम पर स्मारक, उद्यान आदि बनाने के लिए राशि दी है।
ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें आपको सांसद कोष से बने निर्माणों की दुर्दशा होती हुई मिल जाएगी। अजमेर का ही एक छोटा सा उदाहरण ले लीजिए। तत्कालीन भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत ने पत्रकारों को ऑब्लाइज करने के लिए सूचना केन्द्र में छोटा सा पत्रकार भवन बनाया, मगर उसका आज तक उपयोग नहीं हो पाया है। उस पर ताले ही लगे हुए हैं। रखरखाव के अभाव में वह जर्जर होने लगा है।
ऐसे में सांसद निधि को दो करोड़ से बढ़ा कर यकायक पांच करोड़ रुपए कर दिया जाना नि:संदेह नाजायज ही लगता है। सांसदों को अपनी निधि बढ़ाने से पहले ये तो सोचना चाहिए था कि यह पैसा आमजन की मेहनत की कमाई से बने कोष में से निकलेगा। एक ओर गरीबी हमारे देश की लाइलाज बीमारी बन गई है। सरकार के लाख प्रयासों और अनेकानेक योजनाओं के बाद भी बढ़ती जनसंख्या और महंगाई के कारण गरीबी नहीं मिटाई जा सकी है, दूसरी ओर सांसद निधि के नाम पर सरकारी कोष से करीब आठ सौ सांसदों को मिलने वाले अतिरिक्त चौबीस सौ करोड़ रुपए  क्या जायज हैं? खैर, आमजन केवल सवाल ही उठा सकते हैं, उस पर निर्णय करना तो जनप्रतिनिधियों के ही हाथ में है। जब तक ये सवाल उनके दिल को नहीं छू लेते, तब तक कोई भी उम्मीद करना बेमानी है।
-गिरधर तेजवानी

शनिवार, मार्च 12, 2011

हत्या के लिए पुलिस जिम्मेदार कैसे हो गई?

किशनगढ़ के कांग्रेस विधायक नाथूराम सिनोदिया के पुत्र भंवर सिनोदिया का अपहरण होने के बाद हत्या कर दिए जाने पर राजस्थान विधानसभा में भाजपा ने जम कर हंगामा किया। भाजपा विधायकों ने पुलिस पर ढि़लाई का आरोप लगाते हुए गृहमंत्री शांति धारीवाल से इस्तीफे की मांग कर डाली। धारीवाल के जवाब से असंतुष्ट विपक्ष ने सदन का बहिष्कार भी कर दिया। विपक्ष की यह भूमिका यंू तो सहज ही लगती है, मगर गहराई से विचार किया जाए तो यह पूरी तरह से बेमानी ही है।
अव्वल तो ऐसे विवादों में होने वाली हत्याएं सुनियोजित होते हुए भी उसकी जानकारी पुलिस को नहीं होती, जब तक कि संबंधित पक्ष इस प्रकार की आशंका न जाहिर करें। भंवर सिनोदिया की हत्या को भी ऑर्गेनाइज क्राइम की श्रेणी नहीं गिना जा सकता, जिसके बारे में पुलिस को घटना से पहले पता लग जाए। यदि किसी के बीच किसी सौदेबाजी का विवाद हो गया है और उसको लेकर अचानक किसी की हत्या कर दी जाती है, तो पुलिस को सपना कैसे आ सकता है कि इस प्रकार की वारदात हो सकती है? ऐसी हत्या के लिए भी पुलिस को दोषी देने की प्रवृत्ति  कत्तई उचित नहीं कही जा सकती। भला इसमें पुलिस की ढि़लाई कहां से आ गई? पुलिस भला इस हत्या को कैसे रोक सकती थी? रहा सवाल हत्या के बाद पुलिस की भूमिका का तो उसने त्वरित कार्यवाही करके लाश का पता लगा लिया और दो आरोपियों को गिरफ्तार भी कर लिया। इतना ही नहीं उसने कानून-व्यवस्था के मद्देनजर तब हत्या के तथ्य को उजागर नहीं किया, जब तक कि लाश नहीं मिल गई। पुलिस को शाबाशी देना तो दूर, उसे गाली बकने की हमारी आदत सी बन गई है। इससे पुलिस अपना कर्तव्य निर्वहन करने को बाध्य हो न हो, हतोत्साहित जरूर होती है। माना कि विपक्ष को दबाव बनाने के लिए इस प्रकार विरोध जताना पड़ता है, मगर ऐसी हत्या, जिसके लिए न तो पुलिस जिम्मेदार है, न कानून-व्यवस्था और न ही गृहमंत्री, पुलिस को दोषी ठहाराना व गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग करना हमारी इस प्रवृत्ति को उजागर करता है कि हंगामा करना ही हमारा मकसद है, हालात से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। सवाल ये उठता है कि क्या भाजपा के राज में इस प्रकार ही हत्याएं नहीं हुईं? हालांकि तब कांग्रेस ने भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति का इजहार किया था, लेकिन न तो तब के गृहमंत्री ने इस्तीफा दिया और न ही इस सरकार के गृहमंत्री इस्तीफा देने वाले हैं, मगर हमारी आदत है, इस्तीफा मांगने की सो मांगेगे। अकेले राजनीतिक लोग ही नहीं, हमारे मीडिया वाले भी कभी-कभी इस प्रकार की गैरजिम्मेदार हरकत कर बैठते हैं। गुरुवार को जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सिनोदिया गांव में भंवर सिनोदिया के पिता विधायक नाथूराम सिनोदिया व परिजन को सांत्वना देने पहुंचे तो एक मीडिया वाले यह सवाल दाग दिया कि पहले बीकानेर में युवक कांग्रेस नेता की हत्या और अब विधायक पुत्र की हत्या को आप किस रूप में लेते हैं? एक अन्य  ने पूछा कि क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बिगड़ गई है? जाहिर तौर पर गहलोत को यह कहना पड़ा कि क्राइम तो क्राइम है, इसका राजनीतिक अर्थ नहीं होता। सवाल ये उठता है कि हम सवाल पूछते वक्त ये ख्याल क्यों नहीं रखते कि ऐसे सवाल का क्या उत्तर आना है?  अगर एक ही मामले में राजनीतिक रंजिश के कारण कांग्रेसियों की हत्या होती तो समझ में आ सकता था कि यह सवाल जायज है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि हम केवल कुछ पूछने मात्र के लिए ऐसे सवाल दागते हैं।
बहरहाल, अब जब कि जांच ओएसजी को दी जा चुकी है, उम्मीद की जानी चाहिए कि हत्या के पीछे अकेले व्यक्तिगत या व्यापारिक रंजिश थी, या फिर इसके पीछे कोई राजनीतिक द्वेषता थी, इसका पता लग जाएगा। वैसे पुलिस अब ज्यादा सतर्क होना पड़ेगा, क्योंकि जिस प्रकार विधायक के जवान बेटे की हत्या की गई है, उससे प्रतिहिंसा की आशंका तो उत्पन्न होती ही है।

मंगलवार, मार्च 08, 2011

केवल कांग्रेस पर हमले से बदली बाबा रामदेव के आंदोलन की दिशा

इन दिनों प्रख्यात योग गुरू बाबा रामदेव और कांग्रेस के बीच हो रहा टकराव सुर्खियों में है। जाहिर तौर पर योग को पुनर्स्थापित करने वाले बाबा रामदेव के प्रति श्रद्धा की वजह से अधिसंख्य लोग उनकी तरफदारी करते नजर आ रहे हैं, जबकि राजनीतिज्ञों के प्रति कायम अश्रद्धा की भावना के कारण कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को मानसिक रूप से कुछ विक्षिप्त होने की संज्ञा दी जा रही है। मगर इस जद्दोजहद में बाबा रामदेव की भारत स्वाभिमान वाली मूल मुहिम गलत दिशा में जाती दिखाई दे रही है।
असल में जब तक बाबा रामदेव केवल योग व आयुर्वेद की शिक्षा दे रहे थे, तब तक सभी श्रद्धालु अपनी राजनीतिक विचारधारा को घर पर रख कर आ रहे थे। कांग्रेसी हो या भाजपाई, हिंदू के साथ-साथ प्रगतिशील विचारधारा का मुस्लिम भी बाबा के आगे श्रद्धावनत था। इसके बाद जैसे ही बाबा रामदेव ने जब भ्रष्टाचार और विदेशों में जमा काले धन के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी तो वह उनके श्रद्धालुओं को कुछ अटपटी तो लगी, लेकिन चूंकि मुहिम का उद्देश्य पवित्र था और उनके विचारों में एकनिष्ठ देशप्रेम छलक रहा था, इस कारण लोग उन्हें बड़े शौक से सुन रहे थे। उनकी मुहिम राजनीति में व्याप्त अनीति के खिलाफ एक बड़ी जनक्रांति दिखाई दे रही थी। तर्क नीतिगत थे, इस कारण एक साधु के राजनीतिक चर्चा करने को जायज माना जा रहा था। उन्होंने जब राजनीति में शुचिता की खातिर देशभर में रैलियां निकालीं तो लोगों को उनमें जयप्रकाश नारायण के दर्शन होने लगे और ऐसा महसूस किया जाने लगा है कि ऋषि दयानंद सरस्वती के बाद वे एक बड़े समाजोद्धारक के रूप में उभरने लगे हैं। कई दिग्गज बुद्धिजीवियों ने उनका खुल कर समर्थन भी किया, मगर चंद दिन बाद ही ऐसा प्रतीत होने लगा है कि बाबा रामदेव बयानों की दलदल में फंसते नजर आ रहे हैं।
यह सही है कि कांग्रेस को देश पर राज करने का मौका ज्यादा मिला है, उसके नेताओं ने ज्यादा सत्ता सुख भोगा है, इस कारण उनका काला धन विदेशों में अपेक्षाकृत ज्यादा होने की संभावना है। मगर इसका अर्थ ये भी नहीं है कि अकेले कांग्रेस के ही नेता भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार हमारी रग-रग में शामिल हो चुका है। पूरे तंत्र पर छा गया है। इससे कांग्रेस सहित अन्य कोई भी दल अछूता नहीं है। धर्मनिरपेक्षता और हिंदूवाद की विचारधाराओं के कारण कांग्रेस और भाजपा में नीतिगत अंतर तो नजर आता है, मगर राजनीति में भ्रष्टाचार के मामले में दोनों के बीच कोई अंतर रेखा नजर नहीं आती है। प्रारंभ में बाबा रामदेव जब बिना किसी पक्षपात के भ्रष्ट हो चुके तंत्र पर हमला बोल रहे थे और उसे पलटने के लिए अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारने की बात कर रहे थे, तब यही प्रतीत हो रहा था कि न तो वे केवल कांग्रेस के खिलाफ हैं और न ही भाजपा के प्रति उनका विशेष लगाव है। लेकिन जैसे ही उन्होंने सीधे कांग्रेस व गांधी-नेहरू परिवार पर निशाना साधना शुरू किया है, उनके आंदोलन की दिशा ही बदल गई है। अब ऐसा लगने लगा है कि उनकी पूरी मुहिम केवल कांग्रेेस को सत्ता से बाहर करने के लिए है। संघ और भाजपा की ओर से उनके आंदोलन को समर्थन दिए जाने की वजह से कदाचित बाबा के नहीं चाहते भी वे मात्र कांग्रेस विरोधी दिखाई देने लगे हैं। बुद्धिजीवी बाबा रामदेव और संघ व भाजपा के बीच किसी अंतर्गठजोड़ के सूत्र तलाश रहे हैं।
हालत ये हो गई है कि जो बुद्धिजीवी बाबा रामदेव को महान समाज सुधारक कहते हुए नहीं थक रहे थे, उन्हीं में कुछ बाबा रामदेव के ट्रस्टों का पोस्टमार्टम करने को उतारू हैं। लोगों को इस बात को हजम करने में दिक्कत आ रही है कि कल तक जिस स्वामी रामदेव को वे साइकिल पर घूमता देखते थे, वह अब हैलीकाप्टर में घूमता है और उसके पास दुनिया का अत्याधुनिक आश्रम है। अब ये बातें भी की जाने लगी हैं कि उनके साधकों को ज्यादा दिलचस्पी अपने आरोग्य मे हैं, न कि योगी के मुख से आध्यात्मिक बातों के साथ अचानक राजनीति की कड़वी बातें सुनने में। यहां तक कहा जाने लगा है कि शिष्टाचार, श्रद्दा और विश्वास के चलते जुटी भीड़ के समर्थन का गुमान स्वामी रामदेव को होने लगा है, लेकिन इस भीड़ से उन्हें अप्रत्याशित रूप से वोट के रूप में देशभक्त लोग मिल जायेंगे, ऐसी उम्मीद करनी तो बेमानी ही होगी। सवाल ये भी उठाये जा रहे हैं कि जिस आम आदमी की बात स्वामी रामदेव करते हैं, उसके अन्दर इतना मानसिक और सामाजिक साहस नहीं है कि वह पतंजलि योगपीठ की भव्य ओपीडी में एंट्री भी कर पाए। स्वदेशी आंदोलन पर सर्वाधिक मुखर बाबा रामदेव को मिली लगभग एक दर्जन से ज्यादा विदेशी गाडियां आंखों में चुभने लगी हैं। प्रश्न ये भी उठाया जा रहा है कि जिन भ्रष्ट राजनीतिकों पर बाबा हमले पर हमले करते रहे हैं, उन्हीं पर अपनी पकड़ का प्रदर्शन करने के लिए विभिन्न सेवा प्रकल्पों के शिलान्यास समारोहों में मुख्यमंत्रियों को बुलाते रहे हैं। इन बड़े नेताओं में वे चेहरे भी शामिल हैं, जिन पर देश की अदालतों में घोटालों के मुकदमे भी चल रहे हैं।
विवादग्रसत हो चुके बाबा रामदेव को एक बार फिर अपनी मुहिम पर पुनर्विचार करना होगा। आशाभरी निगाहों से बाबा रामदेव को देख रहे करोड़ों भारतीयों की निष्ठा उनमें बनी रहे, इसके लिए जरूरी है कि बाबा बयानबाजी और विवादों से बचें। हालांकि हमारे अन्य आध्यात्मिक व धार्मिक गुरू भी राजनीति में शुचिता पर बोलते रहे हैं। मगर बाबा रामदेव जितने आक्रामक हो उठे हैं और देश के उद्धार के लिए खुल कर राजनीति में आने का आतुर हैं, उसमें उनको कितनी सफलता हासिल होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आंच आती साफ दिखाई दे रही है। यदि समय रहते बाबा रामदेव ने आंदोलन की दिशा पर ध्यान नहीं दिया तो खतरा इस बात का ज्यादा है कि उत्थान और पतन की कहानियों अटे पड़े इस देश में वे भी इतिहास का विषय बन जाएंगे

बुधवार, मार्च 02, 2011

वसुंधरा की वापसी से आएगी भाजपा में जान

लंबी जद्दोजहद के बाद आखिरकार भाजपा हाईकमान को भले ही अपने पूर्व के निर्णय को वापस लेना पड़ा हो, मगर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को फिर से विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाने से पार्टी में नई जान आने की पूरी संभावना है। पार्टी के और मजबूत होने से तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यदि विपक्ष मजबूत होगा तो सरकार भी सतर्कता और सावधानी से काम करेगी।
हालांकि भाजपा हाईकमान के लिए यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति ही थी कि उसे तकरीबन एक साल तक विधानसभा में विपक्ष का नेता पद खाली रखने के बाद भी आखिरकार श्रीमती वसुंधरा को ही फिर स्वीकार करना पड़ा। वस्तुत: यह पद खाली था ही इस कारण कि पार्टी में गतिरोध बना हुआ था। संघ लॉबी ने बमुश्किल वसुंधरा राजे को पद से इस्तीफा दिलवाया था, इस कारण उनके दुबारा काबिज होने के लिए कत्तई तैयार ही नहीं था। हाईकमान को उम्मीद थी कि मसले को थोड़ा लंबा खींचा जाएगा तो वसुंधरा राजे समझौतावादी रुख अपना लेंगी। उनका प्रदेश से ध्यान बंटाने के लिए राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया, लेकिन चूंकि वसुंधरा राजे के समर्थक विधायकों में उनके सिवाय किसी पर सहमति बन ही नहीं रही थी, इस कारण हाईकमान को मजबूर होना पड़ा। आखिर में तो स्थिति यहां तक आ गई थी वसुंधरा खुद तो प्रदेश अध्यक्ष बन कर पार्टी पर काबिज होना चाहती थीं और विपक्ष के नेता पद पर अपने ही किसी समर्थक विधायक को बैठाना चाहती थीं। यही वजह रही कि वे आखिरी क्षण तक विधायक दल का नेता बनने को राजी नहीं हो रही थीं। पूर्व प्रधानमंत्री व भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी के विशेष आग्रह पर उन्होंने पद ग्रहण किया।
जरा पीछे मुड़ कर देखें तो विधानसभा में विपक्ष का नेता पद खाली होने और वसुंधरा समर्थकों व शहर भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के बीच एक विभाजक रेखा सी खिंच जाने के कारण पार्टी कार्यकर्ता निरुत्साहित सा बैठा था। प्रदेश में पार्टी संगठन की कमान चतुर्वेदी को देने के बाद भी वे श्रीमती वसुंधरा राजे के सामने कमजोर स्थिति में थे।   वसुंधरा राजे कितनी प्रभावशाली थीं, इसकी कल्पना इसी से की जा सकता है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु चतुराई व साम-दाम-दंड-भेद से उन्हें जितवा भी दिया। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की कमान है, मगर असली ताकत श्रीमती वसुंधरा के पास है। आम भाजपाइयों में भी वसुंधरा के प्रति स्वीकारोक्ति ज्यादा थी। कुल मिला कर पार्टी का कार्यकर्ता असमंजस में था और प्रदेश में दमदार विपक्ष न होने के कारण कांग्रेस भी लापरवाह हो चली थी। इसका परिणाम ये हुआ कि प्रदेश के विकास में शिथिलता आने लगी थी। 
अब जब कि वसुंधरा फिर से अपनी पुरानी भूमिका में आ चुकी हैं, कार्यकर्ताओं में तो उत्साह का संचार हुआ ही है, कांग्रेस भी सकते में आ गई है। चूंकि वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और अशोक गहलोत सरकार कैसा काम कर रही है, इसको भलीभांति समझती हैं कि सरकार को किस प्रकार से घेरना है। कांग्रेस भी जानती है कि वसुंधरा का व्यक्तित्व आकर्षक है और अब अगर सावधानी नहीं बरती गई तो आगामी चुनाव आने तक कांग्रेस का जनाधार खिसक जाएगा। ऐसे में वह खुद-ब-खुद सतर्क हो गई है। अब उसके मंत्री पहले जैसी लापरवाही और ऊलजलूल हरकतें करेंगे तो ज्यादा परेशानी में आएंगे। इस कारण अब उसका जोर भी पूरी तरह से विकास पर होने की उम्मीद की जा रही है। कुल मिला कर प्रदेश भाजपा के ढ़ांचे में इस परिवर्तन को कांग्रेस में भी सुधार होने के साथ सरकार का ध्यान जनहित पर रहेगा। अगर उसने लापरवाही बरती तो वसुंधरा फिर से सत्ता पर काबिज होने को आतुर हैंं।