तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, दिसंबर 22, 2016

नोटबंदी की नाकामी का ठीकरा बैंकों पर फूटेगा?

क्या चंद भ्रष्ट बैंक वाले ही दोषी हैं, सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं? 
हालांकि नोटबंदी का फैसला जिस प्रकार जल्दबाजी में उठाया गया और उससे आम जनता को हो रही परेशानी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले ही घिरते दिखाई दे रहे थे, मगर जिस प्रकार लगातार बैंकों से मिलीभगत करके करोड़ों रुपए के नोट बैंकों से बाहर निकले और पकड़े गए, उसे देख कर लगता है कि इस ऐतिहासिक कदम की नाकामी का पूरा ठीकरा बैंकों पर ही फूटने वाला है।
ज्ञातव्य है कि आजकल रोजाना ही इलैक्ट्रॉनिक मीडिया व अखबारों मे नये करेंसी नोट बड़ी तादाद में पकड़ में आने के समाचार आ रहे हैं। सवाल ये उठता है कि एक ओर जहां एटीएम मशीनों के बाहर लाइन लगा कर भी एक आदमी को मात्र दो हजार रुपए ही हासिल हो पा रहे हैं या बैंकों से दस हजार और अधिकतम 24 हजार रुपए मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर लाखों और करोड़ों रुपए के दो हजार रुपए के नोट कैसे पकड़े जा रहे हैं? सीधे आरबीआई या नोट प्रिटिंग प्रेस से तो बाहर आ नहीं सकते। स्वाभाविक सी बात है कि इतने नोट किसी बैंक की करेंसी चेस्ट या फिर बैंक के मैनेजर अथवा किसी कर्मचारी से मिलीभगत करके हासिल किए गए हैं। चर्चा तो यह तक है कि जितनी बरामदगी दिखाई जा रही है, वास्तव में उससे कहीं अधिक बरामद हो रहे हैं, मगर उस स्तर पर भी पुलिस से मिलीभगत हो रही है, जैसी कि पुलिस की छवि बनी हुई है।
कैसी विडंबना है कि बिना तैयारी या कुछ खामियों के साथ ही सही, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इतना बड़ा कदम उठाया, मगर वह न केवल नकारा साबित हो रहा है, अपितु बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का कारोबार चालू और हो गया। जो बैंक कर्मचारी आम तौर पर भ्रष्टाचार नहीं किया करते थे, जैसे ही उन्हें मौका मिला, उन्होंने जम कर लूट मचा दी। बेशक इसके लिए ऐसा करने वाले बैंक कर्मचारी ही जिम्मेदार हैं, मगर सवाल ये उठता है कि क्या सरकार को इतना भी ख्याल नहीं रहा कि इतना बड़ा लीकेज बैंकों के जरिए हो जाएगा, जिसके भरोसे ही उसने यह कदम क्रियान्वित किया। आपको याद होगा कि नोटबंदी के बाद कुछ दिन तक जब देखा गया कि बैंक के कर्मचारियों को बहुत अधिक अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही है तो खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शाबाशी दी थी, मगर उन्हीं में चंद भ्रष्ट बैंक कर्मचारियों ने इस मुहिम की पूरी हवा ही निकाल दी। स्पष्ट है कि बैंकों के जरिए नए नोट बाजार में लाने की जो प्रक्रिया थी, उसमें बहुत अधिक लचीलापन था। कोई पुख्ता नीति नहीं बनाई गई। बैंक के मैनेजर और केशियर को ही यह लिबर्टी थी कि वह चाहे तो निर्धारित पूरे चौबीस हजार दे और चाहे तो केवल दो हजार की पकड़ाए या फिर बैंक में राशि न होने का बहाना बना कर लौटा दे। क्या सरकार को यह पता नहीं था कि जहां भी राशनिंग होगी, वहीं पर ब्लैक होने लगेगी? और उसी का परिणाम निकला कि जहां-जहां बैंक वालों को मौका लगा, वहीं पर उन्होंने कमीशन लेकर नए नोट दे दिए। ऐसा नहीं कि यह केवल कुछ ही स्थानों पर हुआ, अधिकतर बैंकों में छोटे स्तर पर नोटों की अदला बदली हुई है। स्थानीय स्तर पर प्रभावशाली लोग पूरे चौबीस हजार रुपए निकलवा कर ला रहे हैं, जबकि आम आदमी धक्के खा रहा है। बैंकों में हुए इस भ्रष्टाचार की खबरें तो तब सामने आईं, जब नए नोट बड़ी तादाद में पकड़े जाने लगे, मगर उससे भी पहले बाजार में यह खुली चर्चा थी कि कुछ लोग बीस से तीस प्रतिशन कमीशन ले कर नोट बदलने का काम कर रहे हैं। खुफिया तंत्र या तो विफल हो गया, या फिर उसकी सूचना को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। अन्यथा तुरंत ऐसे भ्रष्टाचार पर रोक के कदम उठाए जाते। आज जब कि बड़े पैमाने पर नए नोट पकड़े जा रहे हैं और आरबीआई व सीबीआई हरकत में आए हैं और दोषियों की धरपकड़ हो रही है, उसके बाद भी कमीशन का धंधा जारी होने की चर्चाएं हैं। ये ठीक है कि पुराने नोटों के बदले ही नए नोट ही लिए गए हैं, जिससे सीधे तौर पर सरकार को कोई नुकसान नहीं माना जा सकता, मगर एक ओर जहां आम जन त्राहि त्राहि कर रहा है, रोजी रोटी की विकट समस्या उत्पन्न हो गई, बाजार बुरी तरह अस्त व्यस्त हो रहा है, वहीं चंद लोग इस प्रकार पीछे के रास्ते से करोड़ों रुपए हासिल कर रहे हैं, तो असंतोष बढऩा ही है। अर्थात यदि ये लूट नहीं मची होती तो जनता को उतनी तकलीफ नहीं होती, जितनी कि हो रही है। एक तो वैसे ही नए नोटों की सप्लाई की सीमा के कारण आम जन कष्ट पा रहा था, ऊपर से इस प्रकार मची लूट से उसकी तकलीफ और बढ़ गई है।
कुल मिला कर मोदी का यह ऐतिहासिक कदम बुरी तरह विवादित और विफल होने जा रहा है। इसके लिए जहां सरकार की तैयारी का अभाव एक प्रमुख कारक है, उससे कहीं अधिक बैंकों की बदमाशी जिम्मेदार है। ऐसे में मोदी समर्थक इस नाकामी का पूरा ठीकरा बैंकों पर फोड़ते दिखाई दे रहे हैं। मगर सवाल ये उठता है कि सरकार ने इतनी लापरवाही कैसे बरती कि बैंक वालों को लूट मचाने का मौका मिल गया। इसका एक परिणाम ये रहा कि आज हर बैंक वाला चोर नजर आता है, जबकि कुकृत्य लाखों बैंक कर्मचारियों में से गिनती के भ्रष्ट बैंक वालों ने किया या कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, दिसंबर 08, 2016

जनता त्रस्त, सरकार मस्त

इसमें कोई दोराय नहीं कि नोटबंदी के कदम से आम जनता बेहद, बेहद परेशान है, जिसे कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मानते हैं, तभी तो हालात सुधारने के लिए पचास दिन की मोहलत मांगते हैं, बावजूद इसके विपक्ष सरकार को घेरने में कामयाब नहीं हो पाया। बेशक संसद में विपक्ष ने हंगामा कर कार्यवाही को बाधित किया, मगर धरातल पर सरकार के कदम के खिलाफ वह रोष नजर नहीं आया, जो कि उसकी विकट परेशानी की एवज में नजर आना चाहिए था। इसके कई कारण हो सकते हैं, मगर फिलहाल हालत ये है कि जनता को कोई राहत मिलती नजर नहीं आ रही, सरकार इतनी बेखौफ है कि व्यवस्था सुधारने के नाम पर रोज नए नियम लागू कर रही है और विपक्ष समझ ही नहीं पा रहा कि आखिर माजरा क्या है? इससे कहीं न कहीं यह प्रतीत होता है कि लाख परेशानी के बावजूद मोदी जनता में यह संदेश देने में कामयाब हो गए हैं कि उन्होंने देशहित में एक क्रांतिकारी कदम उठाया है, जिसके लिए थोड़ी बहुत तकलीफ तो उठानी ही होगी।
असल में काले धन के नाम पर जिस प्रकार हल्ला बोलते हुए मोदी ने यह कदम उठाया, वह इस अर्थ में लिया जा रहा है कि वे देश हित में कड़वी दवा पिला रहे हैं। जिस प्रकार हड़बड़ी में ये कदम उठाया गया और उसके बाद अस्त व्यस्त हुए बाजार व जनता में मची अफरा तफरी से यह तो स्थापित हो ही गया है कि सरकार ने पूर्व तैयारी के नाम पर कुछ नहीं किया था। सारे नए नियम बाद में हालात को सुधारने के लिए लागू किए जा रहे हैं, हालांकि उनसे राहत पहुंची हो, ऐसा कहीं नजर नहीं आ रहा। धरातल पर हालात बेहद खराब हैं, फिर भी जनता का आक्रोष फूटा नहीं तो जरूर इसके कुछ कारण हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रयोजित तरीके से जिस प्रकार मोदी एक अवतार के रूप में उभर कर आए और जादूई तरीके से सत्ता पर काबिज हुए, जनता में वह नशा कहीं न कहीं अब भी बरकरार है। बेशक लोग परेशान जरूर हैं, मगर शायद वे यही सोच रहे हैं इस कदम से आगे चल कर हालात बेहतर होंगे। कदाचित काला धन रखने वालों की हालत देख कर जो खुशी मिल रही है, वह कहीं उनकी तकलीफ से ज्यादा भारी है। इसमें स्थाई समाधान की उम्मीद में अस्थाई परेशानी को झेलने का भाव भी नजर आ रहा है।
एक वजह और नजर आती है। वो यह कि जनता प्रतिदिन बैंकों व एटीएम के बाहर लाइन लगा कर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने में इतनी व्यस्त है, जो कि उसकी प्राथमिकता भी है, कि आक्रोष जाहिर करना गैरजरूरी और व्यर्थ हो गया है। स्वाभाविक सी बात है, आम आदमी रोजी रोटी का जुगाड़ करे कि रोष जाहिर करने में अपना वक्त जाया करे। उसके रोष को मुखर करने में विपक्ष भी नाकामयाब रहा। इसमें विपक्ष की एकजुटता का अभाव तो एक बड़ा कारण है ही, पहले से परेशान जनता को बंद अथवा कोई और आंदोलन करके परेशानी में डालने पर दाव उलटा पडऩे का भी अंदेशा रहा।
भारत बंद के आह्वान का ही मसला लीजिए, जिसकी कि कहीं स्पष्ट घोषणा नहीं हुई थी, फिर भी मोदी की आईटी सेना और भाजपा इस रूप में भुना ले गई कि भारत बंद विफल हो गया है। उसने इसे रूप में भुनाया कि जनता मोदी के कदम से खुश है, इस कारण बंद में विपक्ष का साथ नहीं दिया। सोशल मीडिया पर तो हालत ये थी कि कथित से आहूत बंद के पक्ष में एक पोस्ट आती तो उससे दस गुना ज्यादा बंद के खिलाफ अपीलें पसर जातीं। इसे भाजपा की चतुराई ही कहा जाएगा कि जो बंद आहूत ही नहीं किया गया, वह उसके विफल हो जाने को साबित करने में कामयाब हो गई। इस उदाहरण से यह पता चलता है कि देश को किस खतरनाक झूठ का शिकार बनाया गया। भारत बंद का सोशल मीडिया में कुप्रचार एक दिलचस्प शोध का विषय है। एक काल्पनिक दैत्य पैदा करके उससे छद्म युद्ध करना कितना रोमांचक है? वाम दलों ने बिहार, बंगाल और केरल में राज्यस्तरीय बंद बुलाया था, लेकिन उसे भारत बंद की संज्ञा नहीं दी जा सकती। राजस्थान में भी प्रमुख विपक्षी दल ने बंद का आह्वान नहीं किया था, क्योंकि वह पहले ही जिला स्तर पर विरोध प्रदर्शन कर चुकी थी।
हालांकि मीडिया में इस प्रकार की खबरें छायी रहीं कि नोटबंदी की जानकारी भाजपा खेमे को पहले से थी, मगर उस पर यह संदेश ज्यादा प्रभावी हो गया कि विपक्ष इसलिए चिल्ला रहा है कि मोदी ने उनकी कमर तोड़ दी है। यह मोदी की चतुराई ही कही जाएगी कि जब विपक्ष ने कहा कि सरकार ने बिना तैयारी के कदम उठाया, जो कि सही भी है, मगर इसका जवाब विपक्ष का मुंह बंद करने वाला रहा कि हां, उन्हें अपना काला धन ठिकाने लगाने की तैयारी का वक्त नहीं मिला।
नोटबंदी की वजह से जो परेशानी हुई है और हो रही है, वह अपनी जगह है, मगर सोशल मीडिया पर आलम ये है कि तकलीफ से जुड़ी वीडियो क्लिपिंग से कई गुना अधिक मोदी के कदम की तारीफ वाली वीडियो क्लिपिंग रोज जारी हो रही हैं। दिलचस्प बात ये है कि परेशानी वाले संदेश व लंबी लाइनों में हो रही परेशानी के वीडियो जहां वास्तविक हैं, वहीं तारीफ वाले संदेष स्पष्ट रूप से प्रायोजित हैं, फिर भी वे भारी पड़ रहे हैं। यानि कि मोदी का आईटी सेल जबदस्त है। उसकी तुलना में विपक्ष बिखरा बिखरा सा है। हालत ये है कि राजनीतिक पंडित यह दावे के साथ कहने की स्थिति में नहीं हैं कि मोदी के इस कष्टदायक कदम का लाभ आगामी विधानसभा चुनावों में विपक्ष को मिलेगा या नहीं।
तेजवानी गिरधर

रविवार, नवंबर 27, 2016

राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के लिए बच्चों का इस्तेमाल

राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप तो होता ही रहता है। मतभिन्नता और उसकी अभिव्यक्ति लोकतंत्र की पहचान भी है। हर किसी को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है। पहले अपना पक्ष रखने के लिए पर्याप्त मंच नहीं मिलता था, लेकिन अब सोशल मीडिया इतना व्यापक हो गया है कि बड़ी आसानी से बाकायदा वीडियो बना कर अपनी बात कहने लगे हैं लोग। इतना ही नहीं, बात को और अधिक प्रभावोत्पादक बनाने केलिए इसके लिए बच्चों का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। ऐसा करके हमारी भड़ास निकालने की क्षुधा तो शांत होती ही है, मगर ऐसा करके हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या संस्कार दे रहे हैं, ये सोचने का विषय है। कहते हैं न कि पूत का पग पालने में ही दिख जाते हैं, कुछ वैसा ही जयश्री राम वाली सेना का भावी रूप कैसा होगा, इसकी हल्की झलक इस वीडियो में:-
https://youtu.be/ZNAIQZvN38Q

ये पढ़ाया और सिखाया जा रहा है स्कूल में?

नोटबंदी के बाद सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप की बाढ़ आई हुई है। कई तरह के वीडियो शेयर किए जा रहे हैं। विपक्षी जहां नोटबंदी से हुई परेशानी के वीडियो डाल रहे हैं तो मोदी समर्थक नोटबंदी को जायज ठहराने वाले वीडियो जारी कर रहे हैं। इस भीड़ में एक वीडियो ऐसा भी नजर आया, जहां नोटबंदी के पक्ष में बने एक गाने पर एक सरकारी स्कूल के बच्चे झूम कर नाच रहे हैं। साफ नजर आ रहा है कि यह सुनियोजित है, क्योंकि मौके पर जिम्मेदार शिक्षक भी मौजूद हैं। सवाल ये उठता है कि क्या हमारे सरकारी स्कूल अब इस काम में आने लगे हैं?
ये पढ़ाया और सिखाया जा रहा है स्कूल में?
नोटबंदी के बाद सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप की बाढ़ आई हुई है। कई तरह के वीडियो शेयर किए जा रहे हैं। विपक्षी जहां नोटबंदी से हुई परेशानी के वीडियो डाल रहे हैं तो मोदी समर्थक नोटबंदी को जायज ठहराने वाले वीडियो जारी कर रहे हैं। इस भीड़ में एक वीडियो ऐसा भी नजर आया, जहां नोटबंदी के पक्ष में बने एक गाने पर एक सरकारी स्कूल के बच्चे झूम कर नाच रहे हैं। साफ नजर आ रहा है कि यह सुनियोजित है, क्योंकि मौके पर जिम्मेदार शिक्षक भी मौजूद हैं। सवाल ये उठता है कि क्या हमारे सरकारी स्कूल अब इस काम में आने लगे हैं?
वीडियो देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए:-
https://youtu.be/rs3cirGqHek

शुक्रवार, नवंबर 25, 2016

मोदी के नाम पर कहीं ये अराजकता के संकेत तो नहीं

नोटबंदी की वजह से देश में फैली आर्थिक अराजकता के विरोध में आगामी 28 नवंबर को विपक्ष की ओर से आहूत भारत बंद के दौरान जगह-जगह मोदी समर्थकों व विरोधियों के बीच भिड़ंत होने का अंदेशा नजर आ रहा है। कम से कम सोशल मीडिया पर जिस प्रकार की पोस्ट धड़ल्ले से डाली जा रही हैं, उससे तो यही लगता है कि कहीं ये आभासी दुनिया हकीकत के धरातल पर न उतर आए। दिलचस्प बात ये है कि बंद के समर्थन से संबंधित जितनी पोस्ट हैं, उससे कहीं अधिक बंद के विरोध में हैं। आम तौर पर बंद के समर्थन में न होने की सामान्य पोस्ट हैं, मगर कई जगह बाकायदा चेतावनी युक्त पोस्ट डाली गई हैं, जिसमें कानून हाथ में लेने की अपील की गई है। इस प्रकार की पोस्ट को लेकर सोशल मीडिया पर भी लेखन युद्ध छिड़ा हुआ है, जिसमें एक दूसरे को चैलेंज तक दिया जा रहा है।
बानगी के बतौर एक पोस्ट देखिए:-
राष्ट्र हित में जारी सूचना :-
सभी सच्चे भारतीयों से निवेदन है कि वो सभी भारतीय जो देश का भला चाहते हैं, वे 28 नवम्बर को अपने घर व अपनी दुकान के मुख्य दरवाजे पर एक अच्छा सा ल_ तैयार रखें। भारत बन्द के दौरान जो भी आपकी दुकान बन्द करवाने के लिए आये, उसकी अच्छे से धुलाई करें। देश हित में ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।
सवाल ये उठता है कि कानून हाथ में लेना कैसा राष्ट्र हित है। हो सकता है, ऐसे अतिवादी लोग गिनती में ज्यादा न हों, मगर इन पर अंकुश लगना ही चाहिए।
राजनीतिक मतभिन्नता किस प्रकार निजी वितृष्णा का रूप ले सकती है, इसका उदाहरण ये पोस्ट है-
जो दुकान 28 नवम्बर को भारत बंद में बंद होगी, उस दुकान से मैं आजीवन कुछ नहीं खरीदूंगा। ये मेरी अखंड प्रतिज्ञा है।
एक पोस्ट ऐसी भी है, जिसमें नोटबंदी की वजह से हो रही परेशानी की स्वीकारोक्ति तो है, मगर साथ ही बंद का सफल न होने देने का आग्रह किया गया है। देखिए:-
तमाम मतभेदों और नोट चेंज के अभियान की जो भी कमियां या खामियां हैं, उनको भुला कर हम लोगों को विपक्षी दलों के 28 तारीख के भारत बंद को सफल नहीं होने देना चाहिए। यदि आज ये संगठन 28 तारीख के बंद को सफल कर लेते हैं, तो आप और हम सभी को इससे भी ज्यादा बुरे दिनों को देखने के लिए तैयार रहना होगा, क्योंकि जो पार्टिया बंद आहूत कर रही हैं, वे और उनके समर्थक वर्ग से सभी परिचित हैं। इसलिए 28 को 10 बजे खुलने वाला बाजार 9 बजे ही खुलना चाहिए, और जिन स्थानों पर सोमवार की छुट्टी रहती है, वहां स्थानीय प्रशासन से विशेष अनुमति ले कर बाजार खोलने का प्रयास करना चाहिये। देश प्रथम है हमारे लिए।
कदाचित देश के इतिहास में ऐसा व्यापक अभियान पहली बार अंजाम दिया जा रहा है, वरना अब तक तो यही देखा गया है कि जब भी कोई विरोधी दल किसी मुद्दे पर बंद आहूत करता है तो सत्तापक्ष शांत रहता है। स्थानीय स्तर पर छिटपुट टकराव जरूर होता है, मगर आम तौर पर शांति ही रहती है। अगर अशांति होती भी है तो प्रदर्शनकारियों व पुलिस के बीच टकराव की वजह से।
ऐसा प्रतीत होता है कि नोटबंदी का यह मुद्दा पार्टीगत से हट कर व्यक्ति केंद्रित होने से हुआ है, जहां विरोध व्यक्ति का है तो समर्थन के केन्द्र में भी व्यक्ति ही है। एक दूसरी वजह ये है कि एक ओर जहां नोटबंदी के तरीके का विरोध हो रहा है तो दूसरी ओर तकलीफ पा कर भी इस कदम का समर्थन करने वाले खम ठोक कर खड़े हैं। एक ऐप के जरिए सर्वे करवा कर तो बाकायदा यह साबित करने की कोशिश की गई है कि देश की अधिसंख्य जनता नोटबंदी के समर्थन में है, हालांकि जितने छोटे पैमाने पर यह हुआ है, इसको लेकर विपक्ष का कहना है कि चंद लाख लोगों की राय को सवा करोड़ लोगों का सर्वे कैसे माना जा सकता है। वैसे यह भी एक अजीब बात है कि कदम पहले उठा लिया गया और जनमतसंग्रह बाद में उसे सही बताने के लिए किया जा रहा है।
बहरहाल, यह स्पष्ट है कि मोदीवादी और भाजपाई कदम को सही ठहराने के लिए विरोध में हो रहे बंद को विफल करना चाहते हैं। राजनीतिक दाव पेच तक तो इसमें कोई आपत्ति नहीं, मगर यदि इसको लेकर हो रही ल_बाजी की अपील आभासी दुनिया से निकल कर कार्य रूप में परिणित हो गई तो यह ठीक नहीं होगा। नोटबंदी सही है या गलत, ये विवाद का विषय हो सकता है, मगर यह निर्विवाद होना चाहिए कि इसको लेकर यदि लड़ाई-झगड़ा होता है तो वह देशहित में कत्तई नहीं। भगवान करे, सोशल मीडिया पर लाठियां भांजने वाले देश हित में वहीं बने रहें।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, नवंबर 22, 2016

मोदीवादी इतने आशंकित क्यों?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से 8 नवंबर की रात यकायक पांच सौ व एक हजार का नोट बंद करने की घोषणा के बाद बाजार में जो अफरातफरी मची, बैंकों व एटीएम मशीनों पर जो लंबी लंबी कतारें लगीं, और जिस प्रकार आम लोगों का गुस्सा फूट रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि मोदीवादी आशंकित हैं कि जिस कदम से मोदी के और अधिक लोकप्रिय होने की उम्मीद थी, उसके विपरीत कहीं आम जनता मोदी विरोधी तो नहीं हो जाएगी? खुद मोदी के बाद के भाषणों से भी यही परिलक्षित हो रहा है कि वे जल्दबाजी में उठाए गए इस कदम से हुई परेशानी को देखते हुए मरहम लगाने की कोशिश कर रहे हैं। कष्ट पा रही जनता को मस्का लगाने के लिए महान बता रहे हैं। काम के अतिरिक्त बोझ के तले दबे बैंक कर्मियों की तारीफ कर रहे हैं। जब देखा कि स्थिति बेहद विस्फोटक हो गई है तो उन्हें पचास दिन की मोहतल मांगनी पड़ गई। और उसकी पराकाष्ठा ये है कि एक प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ गया कि अगर पचास दिन में हालात न सुधरें तो उन्हें सार्वजजिनक रूप से चाहे जो सजा दी जाए। सवाल उठता है कि यकायक फैसला लेते वक्त इन पचास दिनों का ख्याल क्यों नहीं रहा? इतना ही नहीं, इस मुद्दे पर उनका भावुक हो जाना भी यह संदेह पैदा कर रहा है कि भले ही वे अपने आप को बहादुर बता रहे हों, मगर कहीं न कहीं खुद को कमजोर महसूस कर रहे हैं। संदेह ये भी है कि कहीं भाजपा के अंदर ही एक प्रेशर ग्रुप तैयार नहीं हो गया है जो नोटबंदी के तरीके की आलोचना कर रहा है। लाडपुरा के भाजपा विधायक भवानी सिंह राजावत के वायरल हुए वीडियो, जिसका कि उन्होंने खंडन किया है, से तो यह साफ नजर आ रहा है कि खुद मोदी की पार्टी के लोग ही कसमसा रहे हैं, मगर पार्टी अनुशासन के कारण चुप हैं या फिर मोदी की तारीफ करने को मजबूर हैं। एक बात और ख्याल में आती है, वो यह कि चाहे गोपनीयता के चलते या फिर एकाधिकारवादी वृत्ति के कारण नोटबंदी के निर्णय और उसके बाद दिन प्रति दिन हो रहे सुधारात्मक कदमों के बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली बेहद कमजोर नजर आ रहे हैं।
बेशक, विरोधी दलों का विरोध लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा है, मगर जिस प्रकार नकदी की कमी से त्रस्त लोग गुस्सा रहे हैं, गालियां दे रहे हैं, वह मोदीवादियों के लिए चिंता का विषय है। सोशल मीडिया पर एक ओर जहां मोदी के इस कदम से उत्पन्न समस्याओं से जुड़े संदेश व वीडियो चल रहे हैं, कदाचित वे विरोधी दलों की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा भी हों, ठीक उसी तरह मोदीवादियों ने भी मोर्चा संभाल लिया है। उनकी पोस्टों के जरिए यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि मोदी ने देश हित में एक महान काम किया है। उसकी सराहना की जानी चाहिए। देशवासियों को संयम बरतना चाहिए। यदि थोड़ी तकलीफ हो भी रही है तो देश की खातिर उसे सहन करना चाहिए और मोदी के हाथ मजबूत करने चाहिए। यानि कि मोदी के पक्ष की ओर से डेमेज कंट्रोल की पूरी कोशिश की जा रही है। उसमें भी तुर्रा ये कि इस कदम से को आम आदमी का भरपूर समर्थन मिलने का दावा किया जा रहा है। न केवल खुद मोदी, बल्कि उनका हर समर्थक यही दावा करता दिखाई दे रहा है कि जनता बेहद खुश है।
सवाल उठता है कि यदि यह कदम सराहनीय है, तो फिर क्यों इस कदम की तारीफ पर इतना जोर दिया जा रहा है। हकीकत ये है कि आम आदमी परेशान है। भले ही उस तक यह संदेश देने में मोदी सफल रहे हों कि यह कदम देशहित में है, मगर धरातल पर हो रही परेशानी को वह सहन नहीं कर पा रहा। यह स्वाभाविक भी है। देशहित कब होगा, कब इसके परिणाम आएंगे और कितना लाभ होगा, ये तो भविष्य के गर्त में छिपा है, या फिर अर्थशास्त्री बेहतर समझ सकते हैं, मगर मौजूदा स्थिति ये है कि आम आदमी त्राहि त्राहि कर उठा है।
उसी का परिणाम है कि अब मोदी वादियों की ओर से या तो मरहम लगाने की कोशिश की जा रही है या फिर कई तरीके से इसे उचित बताने  की कोशिश की जा रही है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि बैंकों के घंटों लाइनों में लगने वालों की परेशानी का मोदी और उनके सलाहकारों को तनिक भी भान नहीं था और न ही उन्होंने इसके लिए कोई उपाय किए। सारे उपाय बाद में शनै: शनै: किए जा रहे हैं। सरकार के स्तर पर लापरवाही बरते जाने का ही परिणाम है कि सत्तारूढ़ भाजपा संगठन को बैंकों के बाहर जनसेवा के कैंप लगाने पड़ रहे हैं।
लब्बोलुआब, कैसी विडंबना है कि जो कदम वाकई सही था, अकेले इस वजह से कि ठीक से लागू नहीं किया गया, आलोचना के चरम पर जा कर भद्दी गालियों का शिकार हो गया है। अफसोस कि अब उसी सही कदम को सही ठहराने में पूरी ताकत झोंकनी पड़ रही है।
बतौर बानगी कुछ वीडियोज की लिंक यहां दी जा रही है:-

https://youtu.be/HAM1fBi0PsI

https://youtu.be/zNdr9GedrNE

https://youtu.be/JTQLlrPIs4g

https://youtu.be/nCPcm8Ks5M4

https://youtu.be/uGJO_LK1vNk

https://youtu.be/gw3OWiYC15o

-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

शुक्रवार, नवंबर 18, 2016

क्या मोदी अकेले पड़ रहे हैं?

क्या नोटबंदी के मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अकेले पडऩे वाले हैं? यह सवाल चौंकाने वाला है। निहायत काल्पनिक और हास्यास्पद भी। इसे बेतुका व तुक्का भी कहा जा सकता है। सोशल मीडिया पर गंदी गालियों  और बेशर्म दलीलों के बीच जब मैने भी इससे संबंधित पोस्ट पढ़ी तो चौंक उठा। जहां तक मेरी जानकारी है, इस आशय का विचार पहली बार नजर आया है। मगर विचार तो विचार है। चाहे किसी एक के मन में आया हो। जरूर उसका भी कोई दर्द होगा। उसकी भी कोई सोच होगी। यह विचार शेयर करने वाले शख्स का नाम लेना व्यर्थ है, मगर इतना जरूर तय है कि वे हैं मोदी के परम भक्त। फेसबुक पर उसकी अब तक की सभी पोस्ट नोटबंदी के पक्ष में और सवाल उठाने वालों पर तंज कसने वाली ही नजर आई हैं। कॉपी-पेस्ट के जमाने में हो सकता है कि ये उन्होंने भी कहीं से चुरा कर पोस्ट की हो, मगर है दिलचस्प।
आइये, पहले उनकी पोस्ट पढ़ लें, फिर उस पर थोड़ी चर्चा:-
कोई मुगालते में मत रहिये... मोदी ने संघ और बीजेपी से भी पंगा ले लिया है। शीर्ष पर ये आदमी बहुत अकेला है। कल उनके भाषण में ये बात बहुत उभर कर सामने आई है। ये शख्स बहुत जिद्दी भी है। भले ये बर्बाद हो जायेगा, लेकिन अब यहां से ये लौटेगा नहीं। अब मोदी आर-पार की लड़ाई में है। अब इनको सिर्फ देशवासियों का ही सहारा है। व्यवस्था के खिलाफ एक लड़ाई राजीव गांधी ने भी लड़ी थी, लेकिन वो अभिमन्यु साबित हुये। मारे गये। पहले उनकी ईमानदार छवि को मारा गया, फिर उनके शरीर को।
प्रधानमंत्री तो देश को लगभग सभी अच्छे ही मिले हैं। लेकिन जहां तक विजनरी लीडर का सवाल है, मोदी नेहरू और राजीव गांधी को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। जमीनी नेता होने की वजह से इनमें एक खास किस्म का साहस भी है, जो कभी-कभी दुस्साहस की सीमा को भी छू आता है।
अगर मोदी इन 50 दिनों में फेल होते हैं तो ये खुद तो खत्म हो ही जायेंगे लेकिन देश भी मुसीबत में फंस जायेगा। निजी स्वार्थ में ही सही, लेकिन अगले 50 दिन हमें इस आदमी का साथ देना ही पड़ेगा। अब देश दाव पर है।
आप भी साथ दें, क्योंकि बात अब हमारे वर्तमान की नहीं है, बल्कि हमारे बच्चों के भविष्य की है और हमारे जमीर की है कि क्या हम नये बनते हुये भारत के निर्माण में अपना योगदान देना चाहते हैं या नहीं।
है न बिलकुल अजीब पोस्ट। ऐसा प्रतीत होता है कि लाइनों में खड़े लोगों की गालियों और सोशल मीडिया पर चल रही फोकटी जंग के बीच उन्हें लगा हो कि मामला वाकई गंभीर है। कदाचित भाजपा विधायक भवानी सिंह राजावत के नोटबंदी के प्रतिकूल वायरल हुए वीडियो, जिसका कि राजावत खंडन कर चुके हैं, को सुन कर उन्हें लगा हो कि अब तो भाजपाई भी दबे स्वर में आलोचना करने लगे। संभव है ऐसे और भी हों, जो पार्टी अनुशासन के कारण ही चुप हों। यदि ऐसा है तो फिर धीरे-धीरे मोदी अकेले पड़ते जाएंगे। उनकी सोच कुछ कुछ उचित जान पड़ती है। वो इसलिए कि मुख्य आलोचना नोटबंदी की नहीं है, बल्कि बिना मजबूत योजना के लागू करने से आम जनता को हो रही परेशानी की है। विपक्ष भी मोटे तौर पर निर्णय के खिलाफ नहीं, बल्कि जनता में मची अफरा तफरी को मुद्दा बना कर मोर्चा संभाले हुए है। भाजपाइयों का बैंकों के बाहर जनसेवा करने का भी मतलब ये है कि सरकार की नाकामी की भरपाई उन्हें करनी पड़ रही है। यानि कि वे भी कहीं न कहीं मन ही मन यह तो स्वीकार कर ही रहे होंगे कि मोदी के इस देशहितकारी कड़े कदम के साइड इफैक्ट पार्टी को नुकसान न पहुंचा दें।
खैर, हो सकता है कि लेखक को लग रहा हो कि विपक्ष के हमलों का बरबस मुकाबला कर रही भाजपा कहीं कमजोर न पड़ जाए। उन्हें लग रहा है कि पचास दिन का वादा पूरा नहीं हो पाएगा। ऐसे में मोदी को पुरजोर समर्थन करना जरूरी है।
हो सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में भी कोई अंतर्विरोध चल रहा हो, जिसकी अब तक कोई भनक नहीं पड़ी है, मगर यदि एक सच्चे मोदी भक्त को पूर्वाभास युक्त चिंता सता रही है तो उसे तनिक गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
आगे क्या होगा, अभी से कुछ कहना व्यर्थ है, मगर अपुन को केवल एक बात समझ में आती है कि नोटबंदी का निर्णय भले ही देशहितकारी राजनीतिक कदम हो, मगर मोदी के आर्थिक मामलों के सलाहकारों ने जाने-अनजाने चूक की है। या तो उन्हें खुद ही अंदाजा नहीं था कि हालात इतने खराब हो सकते हैं या फिर अंदाजा होने के बाद भी मोदी के इच्छित फैसले पर चुपचाप सहमति दे दी। और उनकी चूक का खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, नवंबर 01, 2016

... तो फिर खत्म कीजिए अदालतें, पुलिस को ही दे दीजिए सजा ए मौत का अधिकार

भोपाल एनकाउंटर अगर असली है... तो पुलिस वालों को सौ-सौ सलाम...और अगर फर्जी है तब तो उनको ...लाखों सलाम..!! ये एक पोस्ट है, जो फेसबुक और वाट्स ऐप पर धड़ल्ले से चल रही है।
कदाचित तथाकथित देशभक्त ही ऐसी पोस्ट को आगे से आगे बढ़ा रहे हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में हम किस दौर से गुजर रहे हैं। क्या धर्मांध लोग इतने ताकतवर और बेखौफ हो गए हैं कि वे चाहे जो जहर देश में फैलाएं, उन पर कोई कानून लागू नहीं होता और उनका कुछ भी नहीं बिगडऩे वाला।
इस पोस्ट का सीधा सा मतलब है कि एनकाउंटर अगर फर्जी है तो लाखों सलाम इसलिए क्योंकि मरने वाले कथित रूप से सिमी के आतंकी थे। समझा जा सकता है कि किस प्रकार का मन और मानसिकता ऐसा कह रही है? मगर सवाल ये उठता है कि क्या ऐसा कह कर आप कानून को ठेंगा नहीं दिखा रहे? क्या सत्ता पा कर आप इतने निरंकुश हो गए हैं कि कुछ भी मनमानी करेंगे और गुर्राएंगे अलग? क्या धार्मिक तुष्टिकरण के लिए आप पुलिस को ही अधिकार दिए दे रहे हैं कि वो ही तय करे कि कौन आतंकी है और मृत्युदंड भी वही दे दे, तो फिर न्यायपालिका क्यों बना रखी है? काहे को वे जेल में बंद थे और उन पर मुकदमा चल रहा था? क्यों नहीं पकड़े जाते ही पुलिस ले उनको गोली मार दी? बेशक हम लोकतांत्रिक देश हैं और अभिव्यक्ति की हमें पूरी आजादी है, मगर क्या ऐसी विचारधारा को पूरे तंत्र को तहस नहस करने की छूट दे दी जानी चाहिए?
हर बार की तरह यह मुद्दा भी राजनीति की भेंट चढ़ गया है। जिसके मूल में कहीं न कहीं हिंदू-मुस्लिम मौजूद है। अफसोसनाक बात ये है कि जिस पत्रकार जमात से निष्पक्षता की उम्मीद की जानी चाहिए, उसी के कुछ लोग एनकाउंटर को फर्जी मानने के बावजूद ये लिखने-कहने से नहीं चूक रहे कि मारे जाने वाले सिमी के ही तो आतंकी थे। उनको एनकाउंटर में मार डाला तो उनके प्रति सहानुभूति कैसी? यानि कि आप चुप रहिये, सरकार को निरंकुश कर दीजिए और अगर किसी गलत कृत्य पर सवाल खड़ा करेंगे तो आप को भी सिमी के साथ खड़ा  कर दिया जाएगा।
इसी सिलसिले में एक अतिवादी पंक्ति देखिए-आतंक को कुचलने के लिए अब उनकी मौत पर सवाल उठना बंद होने चाहिए। भले ही मौत कैसे भी, कहीं भी, कभी भी हो। भई वाह।
बेशक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की इस बात में कुछ तथ्य जान पड़ता है कि देश की राजनीति इतनी घटिया हो गई है कि देश के लिए जान गंवाने वालों की चिंता नहीं होती, बल्कि देश को नुकसान पहुंचाने वालों की हिमायत की जाती है। बिलकुल सही है कि आज उन कथित आतंकियों के हाथों मारे गए पुलिस कर्मी की चर्चा नहीं हो रही, बल्कि कथित एनकाउंटर में मारे गए कथित आतंकियों पर बहस हो रही है, मगर इसका अर्थ कहीं ये तो नहीं कि ऐसा कहते हुए हम न्यायपालिका को दरकिनार कर खुद ही कथित आतंकियों को मार डालने की पैरवी कर रहे हैं?
किसी ने लिखा है कि दिग्विजय सिंह, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, अरविंद केजरीवाल, वृंदा करात, ममता बनर्जी, असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं को ये समझना चाहिए कि कट्टरवादियों की हिमायत करेंगे तो देश की एकता व अखंडता खतरे में पड़ जाएगी। अब इस देश में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सूफीवाद से ही अमन चैन कायम हो सकता है। कदाचित उन्हें यह ख्याल नहीं कि अतिवादी तो ख्वाजा साहब को भी नफरत की नजर से देखते हैं, क्योंकि आखिरकार सूफीवाद इस्लाम की ही एक शाखा है। बहरहाल, यानि कि ये जनाब भी कथित आतंकियों को मार डालने का अधिकार सीधे पुलिस को देना चाहते हैं। और अगर आप फर्जी एनकाउंटर पर सवाल उठाएंगे तो आपको देशद्रोही ठहरा दिए जाएंगे।

एक पोस्ट और देखिए:-
गब्बर - कितने आदमी थे?
सांभा - सरदार पूरे 8 थे और सभी अल्लाह को प्यारे हो गये।
गब्बर - हा हा हा, बहुत नाइंसाफी है, एक भी जिन्दा नहीं छोड़ा रोने के लिये।
सांभा - नहीं सरदार...रोने के लिये तो आम आदमी पार्टी...कांग्रेस का पूरा झुंड है..।
क्या इस पोस्ट में विशुद्ध राजनीति की बू नहीं आ रही? क्या यह एक मानसिकता विशेष वाली पार्टी की भावना को उजागर नहीं कर रही? यानि कि फर्जी एनकाउंटर पर सवाल मत उठाओ, उठाओगे तो इसी प्रकार के तंज कसे जाएंगे।

एक और बानगी लीजिए:-
मध्य प्रदेश एटीएस ने सिर्फ 8 घंटे के अंदर आठों को मार गिराया गया।
एटीएस को दस में से दस नंबर।
आरोप है कि फरारी और एनकाउंटर की पूरी कहानी ही फर्जी है। अगर सचमुच ऐसा हुआ है और इस तरह टपकाया है तो शिवराज सरकार, एपी पुलिस और एमपी की एटीएस को 100 में से 200 नंबर।
देश की जेलों में बंद सभी आतंकियों को ऐसा ईच टपकाना मांगता।

जिस तरह के लोग ये पोस्ट कर रहे हैं, क्या वे देश की न्यायपालिका के वजूद को ही समाप्त कर सारे अधिकार सरकार और पुलिस को देने को नहीं उकसा रहे? अगर ऐसी ही सोच है तो कानून और संविधान को ताक पर रख दीजिए और पुलिस को कथित आतंकियों को सीधे मृत्युदंड देने का कानूनन अधिकार दे दीजिए। कम से कम तब फिर इस प्रकार के फर्जी एनकाउंटर पर कोई सवाल तो नहीं उठाएगा।

इस पोस्ट का आखिरी हिस्सा देखिए:-
कांग्रेस देश की नब्ज पकडऩे में चूक रही है। उसे समझना चाहिए कि आज देश में जो माहौल है, उसमें यदि यह एक असली एनकाउंटर था तो बीजेपी को 100 पैसा फायदा होगा, पर अगर वाकई ये फर्जी था और आतंकियों को जान बूझ के मार दिया गया तो ये मान लीजिए की भाजपा को 200 पैसे फायदा होगा।
यानि कि जो कुछ हो रहा है, वो केवल और केवल वोट की खातिर हो रहा है। अगर आरोप ये है कि कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण कर रही है तो आरोप लगाने वाले को भी यह सोच लेना चाहिए कि वे भी इस आरोप नहीं बच पाएंगे कि चूंकि हिंदू बहुसंख्यक है, इस कारण आप भी तो वोट की खातिर हिंदू तुष्टिकरण के लिए ऐसा कर रहे हैं।
खैर, इस मुहिम से किसको कितना फायदा होगा, ये तो पता नहीं, मगर इतना तय है कि इन दिनों जो कुछ हो रहा है, वह मात्र और मात्र हिंदू और मुसलमान के बीच नफरत की खाई को और चौड़ा कर देने वाला है। उसका अंजाम खुदा जाने।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, अक्तूबर 27, 2016

मोदी के गले की हड्डी हैं वसुंधरा

राजनीति के जानकार मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाजपा में एक तानाशाह के रूप में स्थापित हैं। वजह साफ है कि अकेले उनके नाम पर ही भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुई है। उन्हें राज्य स्तर पर क्षत्रपों की मौजूदगी कत्तई पसंद नहीं। विशेष रूप से राजस्थान की बात करें तो यह सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री वसुंधरा कत्तई पसंद नहीं हैं, उनका बस चले तो वे उन्हें एक झटके में हटा दें, मगर उनकी सबसे बड़ी परेशानी ये है कि उनके पास उनका विकल्प भी नहीं है। उनकी इसी उधेड़बुन के चलते राजस्थान में उहापोह के हालात हैं। वसुंधरा राजे का दूसरा कार्यकाल निस्तेज सा बीता जा रहा है। उपलब्धि शून्य। महारानी में पहले जैसी चमक भी नजर नहीं आ रही। और इसी वजह से कांग्रेस में ऊर्जा का संचार हो रहा है। हालांकि चुनाव अभी दूर हैं, मगर मौजूदा हालात को देखते हुए भाजपाइयों को भी यही लगता है कि शायद इस बार जीत के दीदार नहीं हो पाएंगे। आखिरी वक्त मोदी कोई बड़ा दाव खेल जाएं तो कुछ कह नहीं सकते।
अत्यंत विश्वसनीय सूत्रों से जानकारी मिल रही है कि वसुंधरा राजे को अपदस्त करने का ताना-बाना बुना जा रहा है, मगर ऐसा कदम उठाने का साहस भी नहीं हो रहा, क्योंकि वह आत्मघाती भी हो सकता है। यूं वसुंधरा राजे इतनी कमजोर भी नहीं कि उन्हें आसानी से हटाया जा सके। वे व्यक्ति नहीं, एक पार्टी हैं। पार्टी में ही विधायकों का एक बड़ा समूह उनका दीवाना है। वे विधायक वसुंधरा के कहने पर कुछ भी करने को तैयार हैं। कई बार ये अफवाह उठी है कि अगर उनके साथ छेडख़ानी की गई तो वे अलग पार्टी भी बना सकती हैं। अपनी ताकत का अहसास वे पहले भी भाजपा आलाकमान को करवा चुकी हैं। भारी दबाव बना कर उन्हें नेता प्रतिपक्ष पद से हटा तो दिया गया, मगर किसी और को यह पद नहीं दिया जा सका। आखिरकार न केवल उन्हें मान मनुहार कर नेता प्रतिपक्ष बनने को राजी किया गया, अपितु उनके नेतृत्व में ही चुनाव लडऩे का भी ऐलान किया गया। तब और अब में फर्क सिर्फ ये है कि तब भाजपा केन्द्र में सत्ता में नहीं थी और अभी पूरी मजबूती के साथ सत्ता पर काबिज है। तब राजनाथ सिंह जैसे संजीदा नेता के हाथ में भाजपा की कमान थी, अब तेजतर्रार नरेन्द्र मोदी के खास सिपहसालार चतुर-चालाक अमित शाह बागडोर संभाले हुए हैं। फिर भी साहस नहीं जुटा पा रहे। बीच बीच में खबरें आती हैं कि उन्हें हटा कर ओम प्रकाश माथुर या भूपेन्द्र यादव को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है, मगर हर बार खबर अफवाह ही साबित होती है। यानि कि किसी न किसी वजह से मामला टल जाता है।
असल में मोदी की वजह से ही इस बार वसुंधरा वैसा नहीं कर पा रहीं, जैसा वे करने का मानस रखती हैं, या जो वादे करके उन्होंने बहुमत हासिल किया था। कार्यकर्ता निराश हैं। सरकार के कामकाज में कहीं भी सुराज संकल्प नजर नहीं आता। शासन-प्रशासन एक ढर्रे पर चल रहा है। कहीं से लगता ही नहीं कि सरकार जनता के लिए कुछ अतिरिक्त भी करना चाहती है। खासकर तब जब कि प्रदेश में भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर सवार है। जनता में भी यह संदेश साफ जा चुका है कि इस बार के कार्यकाल में गिनाने लायक कुछ नहीं। यानि कि इस बार वसुंधरा के चेहरे पर चुनाव जीतना कठिन होगा। मगर दिक्कत ये है कि उनसे बेहतर, बेहतर क्या उनके समकक्ष भी कोई चेहरा भाजपा के पास नहीं, जिसको आगे रख कर चुनाव जीता जा सके। अजीब गुत्थी है। पहले जैसी लहर भी नहीं चलने वाली नहीं है, क्योंकि मोदी का जादू शनै: शनै: ढ़लता जा रहा है। हां, इतना जरूर सही है कि भाजपा-भाजपा-भाजपा की जगह मोदी-मोदी-मोदी करने की वजह से पार्टी पूरी तरह से मोदी के नाम पर ही टिकी हुई है। उनकी चमक के आवरण में राज्य सरकार की उपलब्धि शून्यता को ढंका जा रहा है। मगर एक सच ये भी है कि जिस तरह से पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत का श्रेय मोदी को दिया गया, ठीक उसी तरह यदि इस बार भाजपा हारती है तो उसकी एक मात्र वजह मोदी ही होंगे, क्योंकि उन्होंने वसुंधरा राजे को इस लायक ही नहीं छोड़ा कि वे स्वछंद रूप से काम कर सकें।
ऐसे में कांग्रेस यदि अगली बार सत्ता पर काबिज होने की सपना देख रही है तो वह जायज ही लगता है। इस वजह से भी कि जब से सचिन पायलट को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी गई है, वे लगातार सक्रिय रह कर कांग्रेस में जान फूंक रहे हैं। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जिस तरह से चौखाने चित हुई थी, उससे काफी उबर कर आ चुकी है। हां, ये जरूर है कि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के व्यक्तिगत समर्थक उन्हें जिंदा रखे हुए हैं, जो फूट का संकेत है। चुनाव में बुरी तरह से हार का ठीकरा उन पर ही फूटा है, मगर आज भी उनकी छवि कमजोर नहीं हुई है। स्वाभाविक रूप से लंबे समय तक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और दो बार मुख्यमंत्री रहने के दौरान उनसे निजी रूप से उपकृत हुए नेता उनके मुरीद है। मगर लगता यही है कि कांग्रेस आलाकमान नए जोश के प्रतीक सचिन को ही आगे लाना चाहता है। हां, गहलोत के सम्मान का भी ध्यान रखा जा रहा है। संभव है उन्हें उनके हिसाब की सीटें दे कर राजी कर लिया जाए। मुख्यमंत्री के रूप में सचिन को ही प्रोजेक्ट किया जाएगा। नहीं भी किया जाएगा तो बहुमत मिलने पर उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाया जाएगा और गहलोत को अंतत: केन्द्र में शिफ्ट किया जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, सितंबर 18, 2016

भक्त होना बुरा नहीं, मगर अंधभक्ति, लानत है

कोई किसी का भक्त हो, तो इसमें कोई बुराई नहीं। भक्ति निजी आस्था का मामला है, उस पर सवाल खड़ा करना ही गलत है, मगर अफसोस तब होता है कि जब कुछ अंध भक्त अपने भगवान के तनिक विपरीत मगर सच्ची टिप्पणी को भी बर्दाश्त नहीं कर पाते और लगते हैं अनर्गल प्रलाप करने। घटिया टिप्पणियां करते हैं। लानत है ऐसे लोगों पर।
दरअसल प्रकरण ये है कि मैने अपने फेसबुक अकाउंट पर एक विडियो शेयर किया, जिसमें इंडिया टीवी के आप की अदालत शो में तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात और पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कह रहे हैं कि पाक को पाक की भाषा में जवाब देना चाहिए। मैने इस वीडियो के साथ सिर्फ एक पंक्ति लिखी कि ये वे ही मोदी जी हैं, जो पाक को पाक की भाषा में जवाब देने का उपदेश दे रहे हैं, मगर तब वे विपक्ष में थे। इस पर कुछ मोदी भक्त उबल पड़े। लगे मोदी जी के पक्ष में दलील देने। यहां तक कि मेरी अब तक बेदाग रही पत्रकारिता पर सवाल उठाने लगे। मुझे अफसोस हुआ कि मैं कैसे दोस्तों के साथ घिरा हुआ हूं कि उन्हें मोदी जी की अंधभक्ति में सच नजर ही नहीं आता। भला मेरी पत्रकारिता का मोदी जी के दोहरेपन का क्या संबंध?
असल में उरी में हुई आतंकी वारदात की जब पूरा देश निंदा व आलोचना कर रहा है, गुस्से से भरा है और जवाबी कार्यवाही की अपेक्षा में है, तब मोदी जी के चंद अंधभक्त सच्चाई से आंख फेर कर लगे हैं मोदी जी के गुणगान करने में। वस्तुत: ये मुद्दा बहस का है ही नहीं। यदि मोदी जी ने कांग्रेस की कायरतापूर्ण नीति पर हमला करते हुए ये दंभ भरा उपदेश दिया है कि पाक को पाक की भाषा में जवाब देना चाहिए, और ऐसे ही बयानों के दम पर सत्ता हासिल की है तो आज के हालात में उनके इस बयान को याद किया ही जाएगा। उसे स्वीकार करना ही चाहिए। कुछ मोदी भक्त स्वीकार भी कर रहे हैं, मगर कुछ मोदी जी के खिलाफ एक भी शब्द सुनना नहीं चाहते। उलटा, बेसिरपैर की टिप्पणियां कर रहे हैं। मेरी पोस्ट को छोड भी दीजिए, मगर आप सोशल मीडिया पर ऐसी सैकडों पोस्ट देख सकते हैं, जिसमें मोदी जी के भक्त किस प्रकार बकवास कर रहे हैं।
अरे भाई, अगर आपने विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस को कोई उपदेश दिया है और उसी देशभक्ति के नाम पर वोट बटोरे हैं तो आज सत्ता में रहते आपको स्वयं भी उस उपदेश पर चल कर दिखाना ही होगा। पाक को करारा जवाब देना ही होगा। वरना आपको लोग लफ्फाज कहेंगे।
सच तो ये है कि यह विषय भाजपा, कांग्रेस का है ही नहीं। पाकिस्तान यदि बदमाशी कर रहा है तो उसे सबक सिखाया ही जाना चाहिए। इस मुद्दे पर पूरा देश प्रधानमंत्री के साथ खड़ा है। निजी तौर पर किसी को मोदी जी नापसंद भी हो सकते हैं, मगर वे देश के प्रधानमंत्री हैं और बहादुरी का दावा करके बने हैं तो उसी बहादुरी का परिचय देने का यह उचित वक्त है। वैचारिक भिन्नता अलग बात है, मगर देश की खातिर तो सब एक ही हैं।
लीजिए, वह वीडियो भी देख लीजिए, इस लिंक पर:-
https://youtu.be/pxTzEu7Y9ME

-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, अगस्त 24, 2016

राम्या देशद्रोही कैसे हो गई?

कन्नड़ अभिनेत्री और कांग्रेस की पूर्व विधायक राम्या के मात्र इतना कहने पर कि पाकिस्तान जहन्नुम नहीं है, उसे देशद्रोही करार देना हद्द दर्जे की गंदी राजनीति व असहिष्णुता की इंतहा है। इस मामले में होना जाना कुछ नहीं है, ये महज शब्द जुगाली है। कुछ लोगों को अपनी देश भक्ति स्थापित करने का मौका मिल जाएगा तो किसी को देशद्रोही करार दिया जाएगा, मगर हम राजनीति की कैसी नौटंकी के दौर में जी रहे हैं, उसे देख-सुन कर आत्म ग्लानि होती है। राजनीति तो राजनीति, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया व सोशल मीडिया पर भी सोम्या के बयान को पाकिस्तान प्रेम की संज्ञा दी जाती है तो साफ नजर आता है कि वह भी प्रयोजन विशेष के लिए काम कर रहे हैं। एक जगह तो यह तक लिखा गया कि राम्या ने कन्नड़ फिल्मों में जिस तरह से अपने शरीर का प्रदर्शन किया है, क्या वैसा प्रदर्शन पाकिस्तान की फिल्मों में कर सकती हैं? अफसोस, अगर किसी की आप से मतभिन्नता है तो आप उसके कपड़े तक उतारने को उतारू हो जाएंगे। लानत है ऐसी सोच पर।
इस मसले की बारीक बात ये है कि राम्या ने ऐसे वक्त में यह बयान दिया, जबकि देश के रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर कह चुके थे कि पाकिस्तान तो नरक है। बस यहीं से विवाद शुरू होता है। बेशक पाकिस्तान हमारा दुश्मन पड़ौसी है, इस कारण उसे गाली देना सुखद लगता है, देशप्रेम नजर आता है, ऐसे में अगर आप ये कहेंगे कि वह जहन्नुम नहीं तो वह देशद्रोहिता की श्रेणी में गिना जाता है। मगर इस किस्म की देशद्रोहिता तब कहां चली जाती है, जबकि हमारे ही प्रधानमंत्री व पर्रिकर की पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी अफगानिस्तान से लौटते समय बिना निर्धारित कार्यक्रम के लाहौर जाकर वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की माता के पैर छू आते हैं। अगर पाकिस्तान नरक है तो मोदी को वहां नहीं जाना चाहिए था। साम्या ने तो केवल इतना भर कहा है कि पाकिस्तान नरक नहीं है, उसमें वह देशद्रोही कैसे हो गईï? अगर आप पाकिस्तान से संबंध सुधारने की खातिर बिना किसी सरकारी कार्यक्रम के शिष्टाचार के नाते नवाज शरीफ से प्यार की पीगें बढ़ाते हैं तो वह स्वीकार्य ही नहीं स्वागत योग्य है, क्योंकि वे आपकी पार्टी के नेता हैं और अगर आपकी विरोधी पार्टी की नेता ये कहे कि पाकिस्तान नरक नहीं है तो वह देशद्रोही हो गई?
मुद्दा ये है कि अगर आप वाकई अपने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हुए पाकिस्तान को नरक बता रहे हैं तो उससे सारे संबंध विच्छेद क्यों नहीं कर लेते? क्यों द्विपक्षीय वार्ताओं के दौर चलाते हैं? और अगर आपका बयान एक निजी राय है तथा कोई अगर उससे अपनी असहमति जताता है तो वह उसका अभिव्यक्ति का वैयक्तिक अधिकार है। आप उसे छीन नहीं सकते हैं, बेशक चूंकि आप सत्ता में हैं तो उसे दंडित करवा सकते हैं, जलील कर सकते हैं।
वस्तुत: यह वक्त वक्त का फेर है। पाकिस्तान से हमारे रिश्ते बदलते रहे हैं। कभी बनते दिखाई देते हैं तो कभी पटरी से पूरी तरह से उतरते नजर आते हैं। कभी दोस्ती की प्रक्रिया शुरू होती है तो कभी एक दूसरे के देश को गाली देकर दोनों देशों के नेता अपनी अपनी जनता के सामने अपनी देशभक्ति स्थापित करना चाहते हैं। इसमें स्थायी कुछ भी नहीं है। इसका ज्वलंत उदाहरण ये है कि दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान के करार के तहत कभी पाकिस्तान के जायरीन अजमेर दरगाह शरीफ की जियारत करने आते हैं तो आपकी विचारधारा के नेता सरकारी जलसा करके उनका इस्तकबाल करते हैं और कभी घटना विशेष के कारण संबंधों में तनिक खटास होती है तो आप उनके अजमेर आने का विरोध करने लगते हैं।
कुल जमा बात ये है कि ताजा मसला न तो देश प्रेम का है और न ही देशद्रोह का, यह केवल और केवल राजनीतिक स्टंट है।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, अगस्त 23, 2016

भगवान श्रीकृष्ण पर अभद्र टिप्पणियों से आहत व आक्रोषित हैं धर्म प्रेमी

यह एक विंडबना ही कही जाएगी कि जहां एक ओर हिंदू समाज में भगवान श्रीकृष्ण को सर्वगुण संपन्न, चौसठ कला प्रवीण और योगीराज माना जाता है, वहीं दूसरी ओर उनकी जन्माष्ठमी के मौके पर कई छिछोरे उनके बारे में अनर्गल टिप्पणियां और चुटकलेबाजी करते हैं। इसको लेकर धर्मप्रमियों कड़ा को ऐतराज है। एक तरफ मनचले सोशल मीडिया पर उनको लेकर चुटकले शाया कर रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ लोग प्रतिकार में चेतावनी और सुझाव दे रहे हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के बारे में अनर्गल टिप्पणियां न करें।
ये बात समझ से बाहर है कि हिंदू समाज में अपने ही आदर्शों व देवी-देवताओं की खिल्ली कैसे उड़ाई जाती है? एक ओर अपने आपको महान सनातन संस्कृति के वाहक मानते हैं तो दूसरी और संस्कारविहीन होते जा रहे हैं। एक ओर देवी-देवताओं के विशेष दिनों, यथा गणेश चतुर्थी, नवरात्री, महाशिवरात्री, श्रीकृष्ण जन्माष्ठमी इत्यादि पर आयोजनों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों में धार्मिक भावना बढ़ती जा रही है। हर साल गरबों की संख्या बढ़ती जा रही है, नवरात्री पर मूर्ति विसर्जन के आयोजन दिन प्रति दिन बढ़ते जा रहे हैं, गणपति उत्सव के समापन पर गली गली से गणपति विसर्जन की यात्राएं निकलती हैं, शिव रात्री पर शिव मंदिरों पर भीड़ बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर धर्म व नैतिकता का निरंतर हृास होता जा रहा है। साथ ही धार्मिक आयोजनों के नाम पर उद्दंडता का तांडव भी देखा जा सकता है। कानफोड़ डीजे की धुन पर नशे में मचलते युवकों को गुलाल में भूत बना देख कर अफसोस होता है। ये कैसा विरोधाभास है? ये कैसी धार्मिकता है? ये कैसी आस्था है? आखिर ऐसा हो क्यों रहा है? समझ से परे है। स्वाभाविक रूप से इसकी पीड़ा हर धार्मिक व्यक्ति को है, जिसका इजहार दिन दिनों सोशल मीडिया में खूब हो रहा है।
एक बानगी देखिए:-
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आने वाली है...
एक मैसेज अभी सोशल मीडिया में चल रहा है, जिसमें प्रभु श्रीकृष्ण को टपोरी, लफड़ेबाज, मर्डरर, तड़ीपार इत्यादि कहा गया है।
अपने देवताओं को टपोरी बिलकुल भी ना कहें।
कृष्ण जी ने नाग देवता को नहीं बल्कि लोगों के प्राण लेने वाले उस दुष्ट हत्यारे कालिया नाग का मर्दन किया था, जिसके भय से लोगों ने यमुना नदी में जाना बन्द कर दिया था।
कंकड़ मार कर लड़कियां नहीं छेड़ते थे, अपितु दुष्ट कंस के यहां होने वाली मक्खन की जबरन वसूली को अपने तरीके से रोकते थे और स्थानीय निवासियों का पोषण करते थे। और दुष्ट चाहे अपना सगा ही क्यों न हो, पर यदि वो समाज को कष्ट पहुंचाने वाला हो तो उसको भी समाप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए, यह भगवान कृष्ण से सीखा है।
उनके 16000 लफड़े नहीं थे, नरकासुर की कैद से छुड़ाई गई स्त्रियां थीं, जिन्हें सम्भवत: समाज स्वीकार नहीं कर रहा था, उन्हें पत्नी का सम्मानजनक दर्जा दिया। वो भोगी नहीं योगी थे।
इसलिए उन्हें भगवान मानते हैं।
कृपया भविष्य में कभी भी किसी हिन्दू देवी देवता के लिये कोई अपमानजनक बात न तो प्रसारित करें और न ही करने दें। यदि यह संदेश किसी और ने आपको भेजा है तो उसे भी रोकें।
एक और बानगी देखिए, जिसमें एक कविता के माध्यम से श्रीकृष्ण के बारे में भद्दे संदेशों पर अफसोस जताया गया है:-
योगेश्वर श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर कुछ बेहद भद्दे सन्देश प्राप्त हुए, कृष्ण भगवान को लेकर, उन संदेशों को जवाब देती ये कविता

द्वारका के राजा सुनो , हम आज बड़े शर्मिंदा हैं,
भेड़चाल की रीत देखो आज तलक भी जिन्दा हैं

व्हाट्स एप के नाम पे देखो मची कैसी नौटंकी है,
मजाक आपका बनता है, ये बात बड़ी कलंकी है

दो कोड़ी के लोग यहां तुम्हें तड़ीपार बतलाते हैं,
अनजाने में ही सही, पर कितना पाप कर जाते हैं

जिनके मन में भरी हवस हो, महारास क्या जानेंगे,
कांटें भरे हो जिनके दिल, नरम घास क्या जानेंगे

जिनको खुद का पता नहीं, वो तेरा कैरेक्टर ढीला बोलेंगे,
जो खुद मन के काले हैं, वो तुझे रंगीला बोलेंगे

कालिया नाग भी ले अवतार तुझसे तरने आते थे,
तेरे जन्म पे स्वत: ही जेल के ताले खुल जाते थे

तूने प्रेम का बीज बोया गोकुल की हर गलियों में,
मुस्कान बिखेरी तूने कान्हा, सृष्टि की हर कलियों में

दुनिया का मालिक है तू, तुझे डॉन ये कहते हैं,
जाने क्यों तेरे भक्त सब सुन कर भी चुप रहते हैं

गोकुल की मुरली को छोड़, द्वारकाधीश का रूप धरो,
हुई शिशुपाल की सौ गाली पूरी, अब उसका संहार करो

रविवार, जुलाई 24, 2016

क्या अर्जुनराम मेघवाल आगे चल कर वसुंधरा के लिए परेशानी बनेंगे?

राज्य विधानसभा में तगड़े बहुमत और विपक्षी कांग्रेस के पस्त होने के नाते बहुत मजबूत मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे यूं तो बहुत मजबूत मुख्यमंत्री हैं, मगर हाल ही जिस प्रकार केन्द्र में मंत्रीमंडल विस्तार में राजस्थान के चार सांसदों को मंत्री बनाया गया है, उससे यह संकेत मिलते हैं कि उनके और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच ट्यूनिंग और बिगड़ गई है। ज्ञातव्य है कि मोदी ने वसुंधरा राजे की पसंद के अब तक मंत्री रहे निहाल चंद मेघवाल और प्रो. सांवर लाल जाट को हटा कर उनके विरोधी माने जाने वाले अर्जुन राम मेघवाल, पी पी चौधरी, सी आर चौधरी और विजय गोयल को मंत्री बना दिया है। इस बड़े परिवर्तन की सियासी गलियारे में बहुत अधिक चर्चा है। चर्चा इस वजह से भी वसुंधरा की सिफारिश के बाद भी उनके पुत्र दुष्यंत को मंत्रीमंडल में स्थान नहीं दिया गया है।
हालांकि अर्जुन राम मेघवाल को सियासी मैदान में लाने वाली वसुंधरा राजे ही हैं, मगर अब उनको विरोधी लॉबी में गिना जाने लगा है। कुछ लोगों का मानना है कि वसुंधरा राजे को घेरने के लिए मेघवाल को आगे चल कर और मजबूत किया जाएगा। मेघवाल के जातीय समर्थक तो उन्हें अभी से आगामी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने में लग गए हैं।
राजनीति जानकारों का मानना है कि इस बार बहुत अधिक विधायकों के साथ सत्ता पर काबिज होने के बाद भी वे उतनी मजबूत नहीं हैं, जितनी कि पिछली बार कम विधायकों के बाद भी रहीं। पिछले कार्यकाल में उन्होंने जिस प्रकार एक दमदार मुख्यमंत्री के रूप में काम किया, वैसा इस बार नजर नहीं आ रहा। उनकी हालत ये है कि जिन कैलाश मेघवाल ने उन पर आरोप लगाए, उन्हीं को राजी करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष बनाना पड़ा। इसी प्रकार घनश्याम तिवाड़ी खुल कर विरोध में खड़े हैं और उन्होंने कथित रूप गैर राजनीतिक संगठन खड़ा कर दिया है, फिर भी उनके खिलाफ कार्यवाही नहीं हो पा रही। केन्द्रीय संगठन में लिए ओम माथुर का भी उनसे कितना छत्तीस का आंकड़ा है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही जब वे अजमेर आए तो वसुंधरा के डर से केवल उनकी ही लॉबी के नेताओं ने उनकी आवभगत की। कुल मिला कर राज्य में विरोधी लॉबी के सक्रिय रहते और मोदी की तनिक टेढ़ी नजर के कारण वसुंधरा पहले जैसी सहज नहीं हैं।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, जुलाई 23, 2016

खुद भाजपाई ही खुश नहीं अपनी सरकार के कामकाज से

केन्द्रीय जलदाय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को मंत्रीमंडल से हटाने का गुस्सा तो अपनी जगह है ही, मगर जन समस्याओं को लेकर जिस प्रकार भाजपा कार्यकर्ताओं ने असंतोष जाहिर किया है, वह साफ इंगित करता है कि खुद भाजपाई ही अपनी सरकार के कामकाज से खुश नहीं हैं। सच तो ये है कि वे मन ही मन जान रहे हैं कि यदि यही हालात रहे तो आगामी विधानसभा चुनाव में सत्ता पर कब्जा बरकरार रखना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
भले ही पार्टी की अधिकृत विज्ञप्ति में यह कहा गया है कि संगठन व सरकार के कार्यों की समीक्षा सहित जिलों की बूथ समितियों के सम्मेलन सम्पन्न कराकर बूथ इकाइयों के सुदृढ़ीकरण के लिए अजमेर आये मंत्रियों व प्रदेष पदाधिकारियों के समूह के निर्धारित सभी कार्यक्रम सफल व उद्देश्यपूर्ण रहे, मगर सच्चाई ये है कि इस दौरान कार्यकर्ताओं का गुस्सा जिस तरह फूटा, वह स्वत: साबित करता है कि वे पूरी तरह से असंतुष्ट हैं। भले ही चिकित्सा मंत्री राजेंद्र सिंह राठौड़ कहें कि कार्यकर्ता सरकार से नाराज नहीं हैं, वे तो सहज भाव से अपनी बात रख रहे हैं, मगर भाजपा जैसी अनुशासित पार्टी में जिस तरीके से कार्यकर्ताओं ने अपनी बात रखी है, वह पार्टी हाईकमान के लिए चिंता का विषय है।
उन्होंने कहा कि अजमेर में कार्यकर्ताओं में भारी उत्साह देखा गया। दो दिन में दस हजार से अधिक कार्यकर्ता सम्मेलन में शामिल हुए। उन्हें सरकार की योजनाओं की जानकारी के बारे में बताया गया। साथ ही इन से संबंधित कमियों अन्य समस्याओं के बारे में सुना गया। बैठक के दौरान जो भी सुझाव आए हैं, उनसे मुख्यमंत्री राजे को अवगत कराएंगे। दो दिन के भीतर उन्हें स्थानीय स्तर पर व्यावहारिक कठिनाइयों की जानकारी मिली है, जिन्हें दूर किया जाएगा। सरकार का यह अभियान 13 अगस्त को समाप्त हो जाएगा।
कार्यकर्ताओं के गिले-शिकवे, समस्याओं और उनके मन की बात जानने के साथ भाजपा का दो दिवसीय बूथ स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन शुक्रवार को संपन्न हुआ। इसमें संदेश दिया गया कि कार्यकर्ता और पदाधिकारियों से हुए सीधे संवाद में समस्या और सुझाव समझ लिए गए हैं, अब यह सब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को बताएंगे। मंत्रियों ने वैशाली नगर स्थित होटल में जनसंघ के पूर्व कार्यकर्ता, पूर्व विधायक, सांसद, पूर्व वर्तमान पदाधिकारियों की बैठक ली। जनसंघ के पूर्व पदाधिकारियों का सम्मान किया गया। संगठन पदाधिकारियों से फीडबैक लिया। बैठक में प्रदेश मंत्री अशोक लोहाटी, शहर जिलाध्यक्ष अरविंद यादव, देहात जिलाध्यक्ष बीपी सारस्वत, महामंत्री जयकिशन पारवानी, महामंत्री रमेश सोनी, उपाध्यक्ष सोमरत्न आर्य सतीश बंसल, रविंद्र जसोरिया, संजय खंडेलवाल सहित वरिष्ठ कार्यकर्ता उपस्थित थे।
लब्बोलुआब पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं का एक कविता के माध्यम से ये कहना कि सरकार की अधिकारियों को परवाह नहीं, क्योंकि कार्यकर्ता की हिम्मत नहीं.., संगठन को फुर्सत नहीं, जनप्रतिनिधियों को जरूरत नहीं.., इसलिए अधिकारियों को सरकार की परवाह नहीं..., इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि सत्ता और संगठन में तालमेल का पूरी तरह से अभाव है। किसी सत्तारूढ़ पार्टी का कार्यकर्ता ही ये कहने लगे कि मंत्रियों और विधायकों के पास समय नहीं है, जनता को सरकार की योजनाओं का फायदा नहीं मिल पा रहा है और अधिकारी ही सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं को विफल करने में लगे हैं, तो समझा जा सकता है कि वे अंदर से कितने दुखी हैं। जाहिर सी बात है कि आम जनता के बीच तो इन्हीं कार्यकर्ताओं को वोट मांगने जाना होता है। भला वे जनता को क्या जवाब दें।
यह कम अफसोसनाक नहीं भाजपा नेता कार्यकर्ताओं से यह कह कर पल्लू झाड़ रहे हैं कि राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए, पहले राष्ट्र के बारे में, फिर संगठन और उसके बाद स्वयं के बारे में सोचना चाहिए। कार्यकर्ताओं ने तो अपना सिर ही धुन लिया होगा कि क्या हमने पार्टी के लिए इसलिए खून पसीना बहाया कि हमें खुद को भूल कर राष्ट्रहित की चिंता की सीख दी जाएगी।
बहरहाल, पार्टी की इस कवायद का क्या लाभ होगा, क्या कदम उठाए जाएंगे, मगर इतना तय है कि पार्टी के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, जुलाई 14, 2016

कामयाबी मिलेगी या नहीं, मगर शीला का पत्ता चल कर कांग्रेस ने बाजी मारी

कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले पहल करते हुए जिस प्रकार अपने मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को घोषित किया है और प्रदेश अध्यक्ष पद राज बब्बर को सौंपा है, वह दाव कामयाब होगा या नहीं, ये तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे, मगर इतना जरूर तय है कि ये कदम उठा कर उसने राजनीतिक चाल चलने में बाजी जरूर मार ली है। हालांकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार कितना रह गया है, वह सबको पता है, मगर ताजा कदम उठा कर उसने हार नहीं मानने व अपने आत्मविश्वास का इजहार कर दिया है। सत्ता से बाहर हो चुकी एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए यह आत्मविश्वास रखना व जताना जरूरी भी है। इसके अतिरिक्त चुनाव के काफी पहले अपना नेता घोषित करने का भी लाभ मिलेगा। स्वाभाविक रूप से उसी के अनुरूप चुनाव की चौसर बिछाई जाएगी। शीला के दिल्ली के विकास में अहम भूमिका निभा चुकने का भी कांग्रेस को फायदा मिल सकता है।
हालांकि दिल्ली में लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकी वयोवृद्ध शीला को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताना चौंकाने वाला जरूर है, मगर समझा जाता है कि कांग्रेस के पास मौजूदा हालात में इससे बेहतर विकल्प था भी नहीं। ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की आबादी  करीब दस प्रतिशत है, जो कि परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ ही रही है। हालांकि बाद में अन्य दलों ने भी उसमें सेंध मारी। विशेष रूप से बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद यह वर्ग कांग्रेस से दूर हो गया। ऐसे में कांग्रेस की ओर से ब्राह्मण चेहरे के रूप में एक स्थापित शख्सियत को मैदान में उतार कर फिर से ब्राह्मणों को जोडऩे की कोशिश की गई है।
जहां तक शीला की शख्सियत का सवाल है, बेशक वे एक अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। देश की राजधानी जैसे राज्य में लगातार पंद्रह साल तक मुख्यमंत्री रहना अपने आप में एक उपलब्धि है। स्पष्ट है कि उन्हें राजनीति के सब दावपेच आते हैं। कांग्रेस हाईकमान से पारीवारिक नजदीकी भी किसी से छिपी हुई नहीं है। इसी वजह से वे कांग्रेस में एक प्रभावशाली नेता के रूप में स्थापित हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में जबरदस्त गुटबाजी है, मगर शीला दीक्षित इतना बड़ा नाम है कि किसी को उन पर ऐतराज करना उतना आसान नहीं रहेगा। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उनके नाम पर सर्वसम्मति बनाना बहुत कठिन नहीं होगा।
शीला दीक्षित का उत्तर प्रदेश से पूर्व का कनैक्शन होना भी उन्हें दावेदार बनाने का एक कारण है। शीला का जन्म पंजाब के कपूरथला  में हुआ है, मगर उनकी शादी उत्तर प्रदेश में हुई। उन्होंने बंगाल के राज्यपाल रहे उमा शंकर दीक्षित के पुत्र आईएएस विनोद दीक्षित से शादी की। विनोद जब वे आगरा के कलेक्टर थे, तब शीला समाजसेवा में जुट गईं और बाद में  राजनीति में आ गईं। 1984-89 के दरम्यान कन्नौज से सांसद भी रही।
जहां तक राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का सवाल है, वह भी एक नया प्रयोग है। कांग्रेस उनके ग्लैमर का लाभ उठाना चाहती है। लाभ मिलेगा या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अन्य दलों में बंटे जातीय समूहों के कारण उत्तर प्रदेश का जातीय समीकरण ऐसा है कि किसी चमत्कार की उम्मीद करना  ठीक नहीं होगा, मगर परफोरमेंस जरूर बेहतर हो सकती है।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, जून 26, 2016

क्या ये मोदी भक्तों की खिसियाहट है?

चीन के अड़ंगे की वजह से एनएसजी के मामले में भारत को मिली असफलता का मुद्दा इन दिनों गरमाया हुआ है। जाहिर तौर पर हर देशवासी को इसका मलाल है। मलाल क्या गुस्सा कहिये कि चीन की इस हरकत के विरोध में उसे सबक सिखाने के लिए चीन से आयातित सामान न खरीदने की अपीलें की जा रही हैं। इन सब के बीच कुछ भाजपा मानसिकता के लोग व्यर्थ ही खिसिया कर उन अज्ञात लोगों को लानत मलामत भेज रहे हैं, जो कि इस असफलता को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जोड़ कर कथित रूप से जश्न मना रहे हैं।
सवाल ये उठता है कि आखिर भारत की इस असफलता पर कौन जश्न मना रहा है। ऐसा तो अब तक एक भी समाचार नहीं आया। हां, इस असफलता को मोदी की कूटनीतिक कमजोरी के रूप में जरूर गिनाया जा रहा है, वो भी इक्का-दुक्का नेताओं द्वारा, जो कि सामान्यत: हर विरोधी दल सत्तारूढ़ दल पर हमला करते हुए किया ही करता है। इसमें जश्न जैसा कुछ भी नहीं। फिर भी सोशल मीडिया पर मोदी के अनुयायी बड़ा बवाल मचाए हुए हैं। स्वाभाविक रूप से भारत की असफलता का दु:ख सभी को है। होना भी चाहिए। जब हम अदद क्रिकेट मैच में हार पर दुखी होते हैं, तो इस अहम मसले पर दुख होना लाजिमी है। मोदी भक्तों को कदाचित अधिक हो सकता है, क्योंकि वे ही इसे मोदी के चमत्कारिक व्यक्तित्व से जोड़ कर सफलता की पक्की संभावना जाहिर कर रहे थे। कदाचित उनका अनुमान था कि भारत को कामयाबी मिल जाएगी, जिसकी कि थोड़ी संभावना थी भी, तो वे सफलता मिल जाने पर मोदी का गुणगान करते हुए बड़ा जश्न मनाते। अब जब कि अपेक्षा के अनुरूप नहीं हो पाया तो वे खिसिया कर गैर भाजपाइयों पर हमला बोल रहे हैं। उनका आरोप है कि गैर भाजपाइयों को देश की तो पड़ी नहीं है, केवल मोदी की असफलता से खुश हैं। साथ ही वे ये भी जताने की कोशिश कर रहे हैं कि गैर भाजपाई देशभक्त नहीं है। देशभक्ति तो केवल भाजपाइयों का ही जन्मसिद्ध अधिकार है।
समझा जा सकता है कि यह स्थिति क्यों आई। न मोदी भक्त और कुछ मीडिया समूह फैसला होने से पहले ज्यादा उछलते और न ही असफल होने पर इतना मलाल होता। राजनीतिक अर्थों में इसे मोदी की कूटनीतिक असफलता ही माना जाएगा, हालांकि अंतरराष्ट्रीय मसलों में कई बार हमारे हाथ में कुछ नहीं होता। सफलता असलफलता चलती रहती है, उसको लेकर इतनी हायतौबा क्यों। अव्वल तो इसे किसी एक व्यक्ति अथवा सरकार की असफलता मात्र से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। हां, इतना जरूर है कि अगर हमें सफलता हाथ लगती तो सोशल मीडिया पर मोदी को एक बार फिर भगवान बनाने की कोशिश की जाती।
बहरहाल, असफल होने पर पलट कर विरोधियों पर तंज कसना अतिप्रतिक्रियावादिता की निशानी है। मानो उन्होंने ही चीन को भडकाया हो। अब तक तो ये माना जाता रहा है कि भाजपा मानसिकता के लोग अन्य दलों के कार्यकर्ताओं की तुलना में अधिक प्रतिक्रियावादी होते हैं और उन्हें आलोचना कत्तई बर्दाश्त नहीं होती, अर्थात क्रिया होते ही तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं, मगर ताजा मामले में तो क्रिया हुई ही नहीं थी, किसी ने जश्न नहीं मनाया, फिर भी वे कड़ी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इसे क्या कहा जाए? इसके लिए क्या शब्द हो सकता है? पता नहीं। मगर इतना तय है कि ताजा मामले को केवल और केवल मोदी की प्रतिष्ठा से जोड़े जाने, जिसको कि बाद में भुनाया जाना था, असफल होने पर मोदी भक्तों को, सारे भाजपाइयों को शुमार करना गलत होगा, चुप बैठे गैर भाजपाइयों का मन ही मन जश्न मनाया जाना दिखाई दे रहा है।
रहा सवाल चीन की हरकत के विरोध में चीनी वस्तुओं को न खरीदने का तो यह विरोध का एक कारगर तरीका हो सकता है। बेशक अगर ऐसा किया जा सके तो वाकई चीन को सबक मिल सकता है, मगर ऐसा हो पाएगा, इसमें संदेह है। सच तो ये है कि हम भारतीयों के पास शाब्दिक देशभक्ति तो बहुत है, मगर धरातल पर वैसा जज्बा दिखाई नहीं देता। अगर यकीन न हो तो सोशल मीडिया पर चीनी सामान का विरोध करने वालों की निजी जिंदगी में तनिक झांक कर देख लेना, सच्चाई पता लग जाएगी कि क्या स्वयं उन्होंने चीनी सामान खरीदना बंद कर दिया है या फिर वे सोशल मीडिया पर केवल कॉपी पेस्ट का मजा लेते हुए देशभक्ति का इजहार कर रहे थे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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