तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, दिसंबर 06, 2024

भगवान आदमी है या औरत?

हालांकि ईश्वर को त्रिगुणातीत और निराकार माना जाता है। उसका कोई लिंग नहीं, अर्थात न तो वह पुरुष है और न ही स्त्री। बावजूद इसके प्रचलन में यही है कि जब भी हम उसके बारे चर्चा करते हैं, जिक्र करते हैं तो उसे पुरुषवाचक के रूप में ही संबोधित करते हैं। कहते हैं न कि ईश्वर भला करेगा, वह सब पर कृपा करता है? जिससे प्रतीत होता है कि वह पुरुष है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वास्तविकता क्या है? सवाल इसलिए भी स्वाभाविक है क्यों कि हमारी सोच के अनुसार वह पुरुष या स्त्री, कोई एक तो होगा। इन दोनों से इतर जो भी तत्त्व है, उससे हम अनभिज्ञ हैं। सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं।

इस विषय को लेकर विशेष रूप से ईसाई समुदाय में काफी बहस छिड़ी हुई है। चर्च ऑफ इंग्लैंड का एक समूह दैनिक प्रार्थना के दौरान ईश्वर को पुरुषवाचक के साथ ही स्त्रीवाचक के रूप में भी संबोधित करने की मांग कर रहा है। उसकी मांग में दम भी है। लेकिन दिक्कत ये है कि जब भी हम ईश्वर का जिक्र करते हैं तो स्वाभाविक रूप से बिना सर्वनाम के उसके बारे में चर्चा करना कठिन है। यह भाषा की भी समस्या है। या तो हमें उसे पुरुष या स्त्री वाचक शब्द से पुकारना होगा। पुरुषवादी समाज में उसे स्त्री के रूप में संबोधित करना हमें स्वीकार्य नहीं, इसलिए हम उसे पुरुष मान कर ही संबोधित करते हैं।

वस्तुतरू ईश्वर एक सत्ता है, एक शक्ति केन्द्र है। वह स्वयंभू है। उसी सत्ता के अधीन संपूर्ण चराचर जगत संचालित हो रहा है। वह कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन चूंकि हम स्वयं व्यक्ति हैं, हमारी सीमित शक्ति है, इस कारण सर्वशक्तिमान की परिकल्पना करते समय हम उसे अपार क्षमताओं से युक्त एक महानतम व्यक्ति के रूप में देखते हैं। और चूंकि पूरी प्रकृति व समाज की व्यवस्था पुरुषवादी है, इस कारण उसके प्रति संबोधन में स्वाभाविक रूप से पुरुषवाचक शब्दों का चलन है। 

आइये, जरा हमारी पुरुष प्रधान व्यवस्था पर जरा चर्चा कर लें। असल में प्रकृति की गति नर व नारी की संयुक्त भूमिका से है। न तो आदमी अपेक्षाकृत बेहतर है और न ही औरत तुलनात्मक रूप से कमतर। बावजूद इसके समाज की संरचना में आरंभ से पुरुष की प्रधानता रही। यही वजह है कि धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक रूप से पुरुष अग्रणी रहा। आप देखिए, बेशक, नाम स्मरण करते हुए राधे-श्याम, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण कहा जाता है, अर्थात पहले स्त्री का नाम लिया जाता है, स्त्री तत्त्व को विशेष सम्मान दर्शाया जाता है, मगर सच्चाई ये है कि प्रधानता पुरुष की ही रही है। सारे भगवान पुरुष हैं। चित्रों में भगवान विष्णु शेष नाग पर लेटे होते हैं और माता लक्ष्मी उनके चरणों में बैठी दिखाई जाती है। अन्य भगवानों व देवी-देवताओं में भी पुरुष की ही प्रधानता है। धर्म की पुरर्स्थापना के लिए अवतार लेने वाले सभी भगवान पुरुष हैं। सारे आश्रमों के प्रमुख ऋषि रहे हैं। लगभग सारे मठाधीश पुरुष ही रहे हैं। सभी शंकराचार्य पुरुष हैं। अधिसंख्य मंदिरों में पुजारी पुरुष हैं। तीर्थराज पुष्कर में पवित्र सरोवर की पूजा-अर्चना पुरुष पुरोहित ही करवाते हैं। 

जैन धर्म की बात करें। जैन समाज के सभी तीर्थंकर पुरुष हैं। जैन मुनियों के नाम के आगे 108 व जैन साध्वियों के नाम के आगे 105 लिखा जाता है। बाकायदा तर्क दिया जाता है जैन साध्वियों में जैन मुनियों की तुलना में तीन गुण कम हैं।

इस्लाम की बात करें तो पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब पुरुष है। सारे मौलवी पुरुष हैं। मस्जिदों में नमाज की इमामत पुरुष करते हैं। यहां तक कि सार्वजिनक नमाज के दौरान महिलाओं की सफें पुरुषों से अलग लगती हैं। अजमेर की विश्व प्रसिद्ध दरगाह ख्वाजा साहब की दरगाह में खिदमत का काम पुरुष खादिम करते हैं। दरगाह स्थित महफिलखाने में महिलाएं पुरुषों के साथ नहीं बैठ सकतीं। उनके लिए अलग से व्यवस्था है। जानकारी तो ये भी है कि दरगाह परिसर में महिला कव्वालों को कव्वाली करने की इजाजत नहीं है। इसी प्रकार इसाई धर्म में भी ईश्वर के दूत ईसा मसीह पुरुष हैं। गिरिजाघरों में प्रार्थना फादर करवाते हैं।

सामाजिक व्यवस्था में भी पुरुषों की प्रधानता है। अधिसंख्य समाज प्रमुख पुरुष ही होते हैं। पारिवारिक इकाई का प्रमुख पुरुष है। वंश परंपरा पुरुष से ही रेखांकित होती है। स्त्रियां ब्याह कर पुरुष के घर जाती हैं, न कि पुरुष स्त्री के घर। हमारे यहां तो पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह पति को भगवान माने। पति की लंबी आयु के लिए पत्नियां करवा चौथ का व्रत करती हैं। इस तरह की धारणा चलन में हैं कि महिला यदि कोई पुण्य करे तो उसका आधा फल पुरुष को मिलता है, जबकि पुरुष को उसके पुण्य का पूरा फल मिलता है।

कुल मिला कर अनादि काल से पुरुष तत्व की प्रधानता रही है। सामाजिक व धार्मिक परंपराओं का ढ़ांचा बनाने वाले पुरुष हैं। यही वजह है कि लिंगातीत, निर्गुण, निराकार ईश्वर का जिक्र पुरुष वाचक शब्दों से करते हैं।

आखिर में एक बात पर गौर कीजिए। ईश्वर के बारे हम चाहे जितनी टीका-टिप्पणियां कर लें, लेकिन वह हमारी कल्पनाओं व अवधारणों से कहीं बहुत आगे है। उसका पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन है। वेद भी व्याख्या करते वक्त आखिर में नेति-नेति कह कर हाथ खड़े कर देते हैं।

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