बेंगलुरु व दिल्ली में हुई लम्बी जद्दोजहद के आखिरकार भाजपा एक बार फिर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा से ब्लैकमेल हो गई। येदियुरप्पा की जिद के आगे भाजपा आलाकमान को सदानंद गौड़ा के स्थान पर पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला करना पड़ा। इससे पहले भी पार्टी को ब्लैकेमेल करते हुए उन्होंने सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनवाया था। ज्ञातव्य है कि येदियुरप्पा ने केंद्रीय नेतृत्व को पांच जुलाई तक का समय दिया था। दबाव बढ़ाने के लिए नौ करीबी मंत्रियों ने पिछले दिनों इस्तीफा भी दे दिया था। कर्नाटक में पार्टी के हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चार साल की सरकार में शेट्टार राज्य के तीसरे मुख्यमंत्री होंगे। पिछले 11 महीने में यह दूसरा बदलाव है।
हालांकि सदानंद गौड़ा को भी येदियुरप्पा ने ही मुख्यमंत्री बनवाया था, मगर जब उन्हें लगा कि वे कुर्सी पर जमना चाहते हैं तो उन्होंने उन्हें उखाड़ फैंकने का निर्णय किया और जिद करके उनकी जगह शेट्टार को मुख्यमंत्री बनवाने का फैसल करवा लिया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कर्नाटक भाजपा में वे कितने ताकतवर हैं। इतने कि पार्टी आलाकमान भी उनके आगे नतमस्तक है। जहां तक येदियुरप्पा के ताकतवर होने का सवाल है, असल में उन्हें कर्नाटक के सर्वाधिक प्रभावी लिंगायत समाज और ब्राह्मणों का समर्थन हासिल है। ऐसे में भाजपा की यह मजबूरी है कि वे उनको नाराज न करे। कई सालों की कड़ी मेहनत के बाद दक्षिण में कर्नाटक के बहाने पांव जमाने का मौका मिला है। पार्टी नीतियों की खातिर आखिर कैसे उन्हें उखडऩे दिया जा सकता है।
असल में येदियुरप्पा के समर्थक मंत्रियों की तो इच्छा यही थी कि येदियुरप्पा को ही फिर से मुख्यमंत्री बनाया जाए, मगर उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते पार्टी उन्हें फिर पद सौंप कर परेशानी में नहीं पडऩा चाहती थी। इससे बचने के लिए उन्हें येदियुरप्पा की जिद माननी पड़ी। ऐसा करके भले ही वह भ्रष्टाचारी को सत्ता पर काबिज न करने का श्रेय लेने की कोशिश करे, मगर एक भ्रष्टाचारी से ब्लैकमेल होने के दाग से तो नहीं बच पाएगी। जानकारी के मुताबिक वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी तो सदानंद गौड़ा को हटा कर शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने की बजाय मध्यावधि चुनाव के पक्ष में थे, मगर पार्टी यह रिस्क लेने की स्थिति में नहीं थी, क्योंकि भाजपा को दक्षिण भारत में अपना इकलौता राज्य गंवाने की आशंका सता रही है।
कुल मिला कर सर्वाधिक अनुशासित और पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने वाली भाजपा में येदियुरप्पा ने न केवल बगावत की, अपितु राजनीति में सुचिता की झंडाबरदार पार्टी को ब्लैकमेल भी किया। और सियासत के मौजूदा दौर में वक्त के साथ कदम दर कदम मिला कर चलने की गरज से भाजपा ने भी सिद्धांतों से समझौता कर कड़वा घूंट पी ही लिया। ताजा प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि कीचड़ में कमल की तरह निर्मल रहने का दावा करने वाली भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों में कोई भेद नहीं रह गया है। भाजपा को भी अब समझ में आ गया होगा कि आर्दशपूर्ण बातें करना और उन पर अमल करना वाकई कठिन है।
इससे यह भी साबित हो गया है कि भाजपा हाईकमान अब कमजोर हो चुका है और क्षेत्रीय क्षत्रप उसकी पकड़ से बाहर होने लगे हैं। इसी सिलसिले में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने विधायकों पर पकड़ की आड़ में पार्टी हाईकमान को इस बात के लिए लगभग राजी कर लिया है कि आगामी चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। बस घोषणा की औपचारिकता बाकी है।
असल में पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र के ढांचे पर खड़ी भाजपा में इस किस्म की बगावत की संभावनाएं पहले कम ही हुआ करती थीं। केडर बेस होने के कारण हर नेता का वजूद खुद की लोकप्रियता की बजाय पार्टी कार्यकर्ताओं की ताकत से जुड़ा होता था। केवल अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता ही ऐसी रही कि उन पर पार्टी का शिंकजा कसना कठिन हुआ करता था। वे भी आखिरकार पार्टी की आत्मा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदेश के आगे नतमस्तक हो गए। मगर वक्त बदलने के साथ हालात भी बदले हैं। अब क्षेत्रीय स्तर पर क्षत्रप पनपने लगे हैं। हालांकि वे टिके तो पार्टी की ताकत पर ही हैं, मगर उन्होंने अपनी खुद की ताकत भी पैदा कर ली है।
भाजपा के राजनीतिक इतिहास में जरा पीछे मुड़ कर देखे तो बगावत का सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है। पार्टी में इतिहास का नई इबारत लिखने की शुरुआत करने वाले खुद ताजा अध्यक्ष नितिन गडकरी के सामने ही कई ऐसी समस्याएं आईं, जिनके सामने उन्हें समझौता करना ही पड़ा।
क्या यह सच नहीं है कि खुद को राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा को अपने वजूद की खातिर ही सही, पाक संस्थापक जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को हटाने के कुछ दिन बाद फिर से शामिल करना पड़ा? क्या यह सच नहीं है कि भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को इसी कारण राज्यसभा चुनाव में पार्टी का प्रत्याशी बनाना पड़ा, क्यों उसे एक सीट की दरकार थी?
कुल मिला कर अब भाजपा को पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा लगा कर घूमने से पहले दस बार सोचना होगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
हालांकि सदानंद गौड़ा को भी येदियुरप्पा ने ही मुख्यमंत्री बनवाया था, मगर जब उन्हें लगा कि वे कुर्सी पर जमना चाहते हैं तो उन्होंने उन्हें उखाड़ फैंकने का निर्णय किया और जिद करके उनकी जगह शेट्टार को मुख्यमंत्री बनवाने का फैसल करवा लिया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कर्नाटक भाजपा में वे कितने ताकतवर हैं। इतने कि पार्टी आलाकमान भी उनके आगे नतमस्तक है। जहां तक येदियुरप्पा के ताकतवर होने का सवाल है, असल में उन्हें कर्नाटक के सर्वाधिक प्रभावी लिंगायत समाज और ब्राह्मणों का समर्थन हासिल है। ऐसे में भाजपा की यह मजबूरी है कि वे उनको नाराज न करे। कई सालों की कड़ी मेहनत के बाद दक्षिण में कर्नाटक के बहाने पांव जमाने का मौका मिला है। पार्टी नीतियों की खातिर आखिर कैसे उन्हें उखडऩे दिया जा सकता है।
असल में येदियुरप्पा के समर्थक मंत्रियों की तो इच्छा यही थी कि येदियुरप्पा को ही फिर से मुख्यमंत्री बनाया जाए, मगर उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते पार्टी उन्हें फिर पद सौंप कर परेशानी में नहीं पडऩा चाहती थी। इससे बचने के लिए उन्हें येदियुरप्पा की जिद माननी पड़ी। ऐसा करके भले ही वह भ्रष्टाचारी को सत्ता पर काबिज न करने का श्रेय लेने की कोशिश करे, मगर एक भ्रष्टाचारी से ब्लैकमेल होने के दाग से तो नहीं बच पाएगी। जानकारी के मुताबिक वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी तो सदानंद गौड़ा को हटा कर शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने की बजाय मध्यावधि चुनाव के पक्ष में थे, मगर पार्टी यह रिस्क लेने की स्थिति में नहीं थी, क्योंकि भाजपा को दक्षिण भारत में अपना इकलौता राज्य गंवाने की आशंका सता रही है।
कुल मिला कर सर्वाधिक अनुशासित और पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने वाली भाजपा में येदियुरप्पा ने न केवल बगावत की, अपितु राजनीति में सुचिता की झंडाबरदार पार्टी को ब्लैकमेल भी किया। और सियासत के मौजूदा दौर में वक्त के साथ कदम दर कदम मिला कर चलने की गरज से भाजपा ने भी सिद्धांतों से समझौता कर कड़वा घूंट पी ही लिया। ताजा प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि कीचड़ में कमल की तरह निर्मल रहने का दावा करने वाली भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों में कोई भेद नहीं रह गया है। भाजपा को भी अब समझ में आ गया होगा कि आर्दशपूर्ण बातें करना और उन पर अमल करना वाकई कठिन है।
इससे यह भी साबित हो गया है कि भाजपा हाईकमान अब कमजोर हो चुका है और क्षेत्रीय क्षत्रप उसकी पकड़ से बाहर होने लगे हैं। इसी सिलसिले में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने विधायकों पर पकड़ की आड़ में पार्टी हाईकमान को इस बात के लिए लगभग राजी कर लिया है कि आगामी चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। बस घोषणा की औपचारिकता बाकी है।
असल में पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र के ढांचे पर खड़ी भाजपा में इस किस्म की बगावत की संभावनाएं पहले कम ही हुआ करती थीं। केडर बेस होने के कारण हर नेता का वजूद खुद की लोकप्रियता की बजाय पार्टी कार्यकर्ताओं की ताकत से जुड़ा होता था। केवल अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता ही ऐसी रही कि उन पर पार्टी का शिंकजा कसना कठिन हुआ करता था। वे भी आखिरकार पार्टी की आत्मा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदेश के आगे नतमस्तक हो गए। मगर वक्त बदलने के साथ हालात भी बदले हैं। अब क्षेत्रीय स्तर पर क्षत्रप पनपने लगे हैं। हालांकि वे टिके तो पार्टी की ताकत पर ही हैं, मगर उन्होंने अपनी खुद की ताकत भी पैदा कर ली है।
भाजपा के राजनीतिक इतिहास में जरा पीछे मुड़ कर देखे तो बगावत का सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है। पार्टी में इतिहास का नई इबारत लिखने की शुरुआत करने वाले खुद ताजा अध्यक्ष नितिन गडकरी के सामने ही कई ऐसी समस्याएं आईं, जिनके सामने उन्हें समझौता करना ही पड़ा।
क्या यह सच नहीं है कि खुद को राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा को अपने वजूद की खातिर ही सही, पाक संस्थापक जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को हटाने के कुछ दिन बाद फिर से शामिल करना पड़ा? क्या यह सच नहीं है कि भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को इसी कारण राज्यसभा चुनाव में पार्टी का प्रत्याशी बनाना पड़ा, क्यों उसे एक सीट की दरकार थी?
कुल मिला कर अब भाजपा को पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा लगा कर घूमने से पहले दस बार सोचना होगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com