तीसरी आंख

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गुरुवार, अगस्त 08, 2019

राष्ट्रवाद की खातिर संविधान को ताक पर रखने में क्या ऐतराज है?

ऐसा लगता है कि भारत के संविधान निर्माताओं से एक गलती हो गई।  उन्हें संविधान में यह भी लिख देना चाहिए था कि अगर देश हित का मुद्दा हो तो संविधान को तोडऩे-मरोडऩे में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। उनकी इसी गलती का परिणाम ये है कि कश्मीर में धारा 370 व 35 ए हटाने के मसले पर आज कुछ बुद्धजीवी यह हिमाकत कर रहे हैं कि वे केन्द्र सरकार के निर्णय को असंवैधानिक बता रहे हैं।
आज जब अधिसंख्यक भारतीय देशभक्ति के नाम पर सरकार के निर्णय को सही ठहरा रहे हैं, ऐसे में चंद बुद्धिजीवी यह कह कर सरकार की आलोचना कर रहे हैं कि सरकार ने पूरे कश्मीर को नजरबंद करने के साथ वहां के नेताओं व अवाम  को विश्वास में लिए बिना अपना निर्णय थोप दिया है। यह अलोकतांत्रिक है। कानूनी लिहाज से भले ही कश्मीर का मुद्दा संविधान की बारिकियों से जुड़ा हुआ हो, मगर सच्चाई ये है कि आज धारा 370 का मुद्दा राष्ट्रवाद से जोड़ा जा चुका है। जो भी इस धारा को हटाने के खिलाफ है, उसे राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है।
तेजवानी गिरधर
उन चंद बुद्धिजीवियों का कहना है कि संविधान में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि राष्ट्रपति धारा 370 को हटा सकते हैं, मगर उससे पहले उन्हें जम्मू कश्मीर विधानसभा से राय मश्विरा करना होगा। चूंकि वर्तमान में जम्मू कश्मीर में विधानसभा अस्तित्व में नहीं है और राज्य पर केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल का नियंत्रण है, इस कारण सरकार का निर्णय असंवैधानिक है। उनका तर्क ये है कि चूंकि राज्यपाल केन्द्र का ही प्रतिनिधि है, इस कारण उसकी राय के कोई मायने ही नहीं रह जाते। एक तरह से यह एकतरफा निर्णय है, जिसमें कश्मीर की जनता या वहां के प्रतिनिधियों को नजरअंदाज किया गया है। उनके मुताबिक चूंकि इस मामले में संविधान की अवहेलना की गई है, इस कारण इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौति दी जा सकती है। एक व्यक्ति ने चुनौति दे भी दी है। संभव है कुछ और लोग या कांग्रेस की ओर से भी चुनौति दी जाए। मगर उससे भी बड़ा सवाल ये है कि जब भाजपा, जिसके चुनावी एजेंडे में शुरू से इस धारा को हटाने पर जोर दिया जाता रहा है, के साथ अन्य विपक्षी दल भी सरकार के निर्णय से सहमत हैं, तो हमारे महान लोकतंत्र में बहुसंख्यक की राय को गलत कैसे कहा जा सकता है? यहां तक कि पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त जम्मू कश्मीर को केन्द्र शासित प्रदेश बनाए जाने पर भी आम आदमी पार्टी के कर्ताधर्ता अरविंद केजरीवाल, जो कि दिल्ली के मुख्यमंत्री भी हैं, ने निर्णय का स्वागत किया है, जबकि वे जब से मुख्यमंत्री बने हैं, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की पैरवी करते रहे हैं। संभवत: यह पहला मौका है, जबकि किसी पूर्ण राज्य, जो कि विशेषाधिकार प्राप्त भी है, को केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया है। कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने भी सरकार के निर्णय का स्वागत किया है। कुछ लोग कांग्रेस के सरकार के इस ऐतिहासिक निर्णय के खिलाफ खड़े होने को आत्मघाती कदम बताया जा रहा है। कांग्रेस देश के मूड को समझने की बजाय उस पाले में खड़ी है, जहां से वह रसातल में चली जाएगी। समझा जा सकता है कि अरविंद केजरीवाल सहित कुछ कांग्रेसी इस कारण सरकार के निर्णय के साथ खड़े होने को मजबूर हैं, क्योंकि विरोध करने पर बहुसंख्यक हिंदूवादी समाज पूरी तरह से उनके खिलाफ जो जाएगा। केजरीवाल को तो जल्द ही चुनाव का सामना भी करना है। ऐसा सिद्धांत जाए भाड़ में, जिसके चक्कर में सत्ता हाथ से निकल जाए।
वैचारिक रूप से भाजपा से भिन्न बसपा भी सरकार के साथ है। बताया जा रहा है कि चूंकि मायावती का मूलाधार दलित वोट हैं, वे समझती हैं कि फैसले से जम्मू-कश्मीर में दलित हिन्दुओं को नागरिकता एवं अच्छी नौकरी मिल सकेगी। कुछ मानते हैं कि मायावती ने स्वयं और अपने भाई को जेल जाने से बचाने के लिए ऐसा किया है। मायावती ने आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में भाई आनन्द सहित जेल जाने से बचने एवं हाल ही में उनके भाई के लगभग 4 सौ करोड़ रूपए के जब्त किए गए बेनामी प्लाट्स को वापस हासिल करने के लिए यह कदम उठाया है।
असल में धारा 370 का मसला पाकिस्तान से चिर दुश्मनी, देश भक्ति, राष्ट्रवाद और हिंदू-मुस्लिम से जुड़ गया है। उसके अपने अनेक कारण हैं। पाकिस्तान आए दिन सीमा पर गड़बड़ी करता है। अशांति फैलाने के लिए अपने आतंकवादियों को लगातार वहां भेज रहा है। कश्मीर के अनेक अलगाववादी अपने आप को भारतीय ही नहीं मानते। विशेष रूप से घाटी तो कश्मीरी पंडितों से विहीन हो गई है। अलगाववादियों के बहकावे में कश्मीर के युवक सरकारी सैनिकों पर पत्थरबाजी करते हैं। नतीजा ये हुआ है कि आम भारतीयों, विशेष रूप से हिंदूवादियों को मुस्लिम कश्मीरियों से नफरत सी हो गई है। अब तकलीफ इस बात से नहीं कि भारी तादाद में सेना व पैरामिलिट्री फोर्सेस की तैनाती से कश्मीरी कितनी यंत्रणा भुगत रहा है। मतलब इस बात से है कि कश्मीर की जमीन पर हमारा नियंत्रण है। ऐसे माहौल में जो भी कश्मीरियों के नागरिक अधिकारों या संविधान की बात करेगा, वह देशद्रोही व पाकिस्तान परस्त माना जाएगा।
बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी है, जो सरकार के निर्णय के बाद देशभर के सोशल मीडिया पर हो रही छींटाकशी से आशंकित है कि कहीं इससे हालात और न बिगड़ जाएं। एक पोस्ट में लिखा है कि इस ऐतिहासिक फैसले को सही साबित करना भी हमारी जिम्मेदारी है, क्योंकि नोटबंदी भी एक ऐतिहासिक फैसला था, जिसे अपने ही भ्रष्ट तंत्र ने विफल कर दिया था। भाषायी संयम बनाए रखें।  कश्मीरवासियों को भी यह अहसास करवाएं कि हम आपके साथ हैं। प्लॉट खरीदने जैसे लालची उपहास बना कर घृणा मत बोइये। यह कोई कबड्डी का मैच नहीं था, जो कोई हार गया है और उसे हारग्या जी हार ग्या कह कर चिढ़ाओ। फब्तियां कभी भी मोहब्बत के बीज नहीं बो सकती, नफरत ही पैदा करेगी।
एक और बानगी देखिए:-
न कश्मीर की कली चाहिए
न हमें प्लॉट चाहिए
मेरे किसी फौजी भाई का
शरीर तिरंगे में लिपट कर न आये
बस यही हिंदुस्तान चाहिए
इस पोस्ट से समझा जा सकता है कि ये उन लोगों को नसीहत है, जो कश्मीर की लड़की से शादी करने व वहां प्लॉट खरीदने वाली पोस्टें डाल रहे हैं।
मोदी के भक्तों के फैसले के समर्थन तक तो ठीक है, मगर बाकायदा मोदी का महिमामंडन और फारुख अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती पर तंज कसती अपमानजनक टिप्पणियां करने से माहौल के सुधरने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। कश्मीरी युवतियों के बारे में बेहद अश्लील पोस्टें डाली जा रही हैं, मानों वे इसी दिन का इंतजार कर रहे थे। मोदी भक्त उन बुद्धिजीवियों व कानून विशेषज्ञों को भी ट्रोल कर रहे हैं, जो फैसले की कानूनी व संवैधानिक समीक्षा कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि कोई भी किसी भी प्रकार का विरोध न करे। बस मोदी-शाह ने जो कर दिया, उसे चुपचाप मान जाओ।
फैसले की खिलाफत करने वालों के अपने तर्क हैं, जिनमें दम भी है। वो है:-
आर्टिकल 371 ए नागालैंड, आर्टिकल 371 बी असम, आर्टिकल 371 सी मणिपुर, आर्टिकल 371 एफ सिक्किम और आर्टिकल 371जी मिज़ोरम, इतने स्टेट हैं, वर्तमान गृहमंत्री को केवल जम्मू-कश्मीर का ही आर्टिकल 370 और आर्टिकल 35 ए ही नजऱ आ रहा है। बदलाव करना है, तो सब में करो, दिक्कत क्या है। एक और तर्क ये कि नागालैंड को अलग संविधान, अलग झंडा और विशेष अधिकार आपकी सरकार ने ही दिया है न, तो फिर ये तो दोगलापन ही हुआ न। बदलाव हो रहा है, तो सब में करो।
बहरहाल, अब जब कि सरकार फैसला कर ही चुकी है, तो अब चिंता इस बात की है कि कहीं फोर्स हटाने पर बवाल न हो जाए। फैसले से पहले पूरे कश्मीर को कैद में करने से ही ये जाहिर है कि सरकार को भी उत्पात होने की आशंका है।
रहा सवाल पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती के वजूद का तो वह भी अधर में है। आजाद होने पर उनका रुख क्या होगा, कुछ पता नहीं।
कुल जमा बात ये है कि भले ही ताजा फैसले से भाजपा के एजेंडे का एक वादा पूरा हो गया हो, मगर जिस प्रकार मोदी वादी इस मामले में बढ़-चढ़ कर अंटशंट टिप्पणियां कर रहे हैं, उससे माहौल बिगड़ेगा ही।
-तेजवानी गिरधर
7742067000