इसमें कोई दोराय नहीं कि नोटबंदी के कदम से आम जनता बेहद, बेहद परेशान है, जिसे कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मानते हैं, तभी तो हालात सुधारने के लिए पचास दिन की मोहलत मांगते हैं, बावजूद इसके विपक्ष सरकार को घेरने में कामयाब नहीं हो पाया। बेशक संसद में विपक्ष ने हंगामा कर कार्यवाही को बाधित किया, मगर धरातल पर सरकार के कदम के खिलाफ वह रोष नजर नहीं आया, जो कि उसकी विकट परेशानी की एवज में नजर आना चाहिए था। इसके कई कारण हो सकते हैं, मगर फिलहाल हालत ये है कि जनता को कोई राहत मिलती नजर नहीं आ रही, सरकार इतनी बेखौफ है कि व्यवस्था सुधारने के नाम पर रोज नए नियम लागू कर रही है और विपक्ष समझ ही नहीं पा रहा कि आखिर माजरा क्या है? इससे कहीं न कहीं यह प्रतीत होता है कि लाख परेशानी के बावजूद मोदी जनता में यह संदेश देने में कामयाब हो गए हैं कि उन्होंने देशहित में एक क्रांतिकारी कदम उठाया है, जिसके लिए थोड़ी बहुत तकलीफ तो उठानी ही होगी।
असल में काले धन के नाम पर जिस प्रकार हल्ला बोलते हुए मोदी ने यह कदम उठाया, वह इस अर्थ में लिया जा रहा है कि वे देश हित में कड़वी दवा पिला रहे हैं। जिस प्रकार हड़बड़ी में ये कदम उठाया गया और उसके बाद अस्त व्यस्त हुए बाजार व जनता में मची अफरा तफरी से यह तो स्थापित हो ही गया है कि सरकार ने पूर्व तैयारी के नाम पर कुछ नहीं किया था। सारे नए नियम बाद में हालात को सुधारने के लिए लागू किए जा रहे हैं, हालांकि उनसे राहत पहुंची हो, ऐसा कहीं नजर नहीं आ रहा। धरातल पर हालात बेहद खराब हैं, फिर भी जनता का आक्रोष फूटा नहीं तो जरूर इसके कुछ कारण हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रयोजित तरीके से जिस प्रकार मोदी एक अवतार के रूप में उभर कर आए और जादूई तरीके से सत्ता पर काबिज हुए, जनता में वह नशा कहीं न कहीं अब भी बरकरार है। बेशक लोग परेशान जरूर हैं, मगर शायद वे यही सोच रहे हैं इस कदम से आगे चल कर हालात बेहतर होंगे। कदाचित काला धन रखने वालों की हालत देख कर जो खुशी मिल रही है, वह कहीं उनकी तकलीफ से ज्यादा भारी है। इसमें स्थाई समाधान की उम्मीद में अस्थाई परेशानी को झेलने का भाव भी नजर आ रहा है।
एक वजह और नजर आती है। वो यह कि जनता प्रतिदिन बैंकों व एटीएम के बाहर लाइन लगा कर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने में इतनी व्यस्त है, जो कि उसकी प्राथमिकता भी है, कि आक्रोष जाहिर करना गैरजरूरी और व्यर्थ हो गया है। स्वाभाविक सी बात है, आम आदमी रोजी रोटी का जुगाड़ करे कि रोष जाहिर करने में अपना वक्त जाया करे। उसके रोष को मुखर करने में विपक्ष भी नाकामयाब रहा। इसमें विपक्ष की एकजुटता का अभाव तो एक बड़ा कारण है ही, पहले से परेशान जनता को बंद अथवा कोई और आंदोलन करके परेशानी में डालने पर दाव उलटा पडऩे का भी अंदेशा रहा।
भारत बंद के आह्वान का ही मसला लीजिए, जिसकी कि कहीं स्पष्ट घोषणा नहीं हुई थी, फिर भी मोदी की आईटी सेना और भाजपा इस रूप में भुना ले गई कि भारत बंद विफल हो गया है। उसने इसे रूप में भुनाया कि जनता मोदी के कदम से खुश है, इस कारण बंद में विपक्ष का साथ नहीं दिया। सोशल मीडिया पर तो हालत ये थी कि कथित से आहूत बंद के पक्ष में एक पोस्ट आती तो उससे दस गुना ज्यादा बंद के खिलाफ अपीलें पसर जातीं। इसे भाजपा की चतुराई ही कहा जाएगा कि जो बंद आहूत ही नहीं किया गया, वह उसके विफल हो जाने को साबित करने में कामयाब हो गई। इस उदाहरण से यह पता चलता है कि देश को किस खतरनाक झूठ का शिकार बनाया गया। भारत बंद का सोशल मीडिया में कुप्रचार एक दिलचस्प शोध का विषय है। एक काल्पनिक दैत्य पैदा करके उससे छद्म युद्ध करना कितना रोमांचक है? वाम दलों ने बिहार, बंगाल और केरल में राज्यस्तरीय बंद बुलाया था, लेकिन उसे भारत बंद की संज्ञा नहीं दी जा सकती। राजस्थान में भी प्रमुख विपक्षी दल ने बंद का आह्वान नहीं किया था, क्योंकि वह पहले ही जिला स्तर पर विरोध प्रदर्शन कर चुकी थी।
हालांकि मीडिया में इस प्रकार की खबरें छायी रहीं कि नोटबंदी की जानकारी भाजपा खेमे को पहले से थी, मगर उस पर यह संदेश ज्यादा प्रभावी हो गया कि विपक्ष इसलिए चिल्ला रहा है कि मोदी ने उनकी कमर तोड़ दी है। यह मोदी की चतुराई ही कही जाएगी कि जब विपक्ष ने कहा कि सरकार ने बिना तैयारी के कदम उठाया, जो कि सही भी है, मगर इसका जवाब विपक्ष का मुंह बंद करने वाला रहा कि हां, उन्हें अपना काला धन ठिकाने लगाने की तैयारी का वक्त नहीं मिला।
नोटबंदी की वजह से जो परेशानी हुई है और हो रही है, वह अपनी जगह है, मगर सोशल मीडिया पर आलम ये है कि तकलीफ से जुड़ी वीडियो क्लिपिंग से कई गुना अधिक मोदी के कदम की तारीफ वाली वीडियो क्लिपिंग रोज जारी हो रही हैं। दिलचस्प बात ये है कि परेशानी वाले संदेश व लंबी लाइनों में हो रही परेशानी के वीडियो जहां वास्तविक हैं, वहीं तारीफ वाले संदेष स्पष्ट रूप से प्रायोजित हैं, फिर भी वे भारी पड़ रहे हैं। यानि कि मोदी का आईटी सेल जबदस्त है। उसकी तुलना में विपक्ष बिखरा बिखरा सा है। हालत ये है कि राजनीतिक पंडित यह दावे के साथ कहने की स्थिति में नहीं हैं कि मोदी के इस कष्टदायक कदम का लाभ आगामी विधानसभा चुनावों में विपक्ष को मिलेगा या नहीं।
तेजवानी गिरधर
असल में काले धन के नाम पर जिस प्रकार हल्ला बोलते हुए मोदी ने यह कदम उठाया, वह इस अर्थ में लिया जा रहा है कि वे देश हित में कड़वी दवा पिला रहे हैं। जिस प्रकार हड़बड़ी में ये कदम उठाया गया और उसके बाद अस्त व्यस्त हुए बाजार व जनता में मची अफरा तफरी से यह तो स्थापित हो ही गया है कि सरकार ने पूर्व तैयारी के नाम पर कुछ नहीं किया था। सारे नए नियम बाद में हालात को सुधारने के लिए लागू किए जा रहे हैं, हालांकि उनसे राहत पहुंची हो, ऐसा कहीं नजर नहीं आ रहा। धरातल पर हालात बेहद खराब हैं, फिर भी जनता का आक्रोष फूटा नहीं तो जरूर इसके कुछ कारण हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रयोजित तरीके से जिस प्रकार मोदी एक अवतार के रूप में उभर कर आए और जादूई तरीके से सत्ता पर काबिज हुए, जनता में वह नशा कहीं न कहीं अब भी बरकरार है। बेशक लोग परेशान जरूर हैं, मगर शायद वे यही सोच रहे हैं इस कदम से आगे चल कर हालात बेहतर होंगे। कदाचित काला धन रखने वालों की हालत देख कर जो खुशी मिल रही है, वह कहीं उनकी तकलीफ से ज्यादा भारी है। इसमें स्थाई समाधान की उम्मीद में अस्थाई परेशानी को झेलने का भाव भी नजर आ रहा है।
एक वजह और नजर आती है। वो यह कि जनता प्रतिदिन बैंकों व एटीएम के बाहर लाइन लगा कर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने में इतनी व्यस्त है, जो कि उसकी प्राथमिकता भी है, कि आक्रोष जाहिर करना गैरजरूरी और व्यर्थ हो गया है। स्वाभाविक सी बात है, आम आदमी रोजी रोटी का जुगाड़ करे कि रोष जाहिर करने में अपना वक्त जाया करे। उसके रोष को मुखर करने में विपक्ष भी नाकामयाब रहा। इसमें विपक्ष की एकजुटता का अभाव तो एक बड़ा कारण है ही, पहले से परेशान जनता को बंद अथवा कोई और आंदोलन करके परेशानी में डालने पर दाव उलटा पडऩे का भी अंदेशा रहा।
भारत बंद के आह्वान का ही मसला लीजिए, जिसकी कि कहीं स्पष्ट घोषणा नहीं हुई थी, फिर भी मोदी की आईटी सेना और भाजपा इस रूप में भुना ले गई कि भारत बंद विफल हो गया है। उसने इसे रूप में भुनाया कि जनता मोदी के कदम से खुश है, इस कारण बंद में विपक्ष का साथ नहीं दिया। सोशल मीडिया पर तो हालत ये थी कि कथित से आहूत बंद के पक्ष में एक पोस्ट आती तो उससे दस गुना ज्यादा बंद के खिलाफ अपीलें पसर जातीं। इसे भाजपा की चतुराई ही कहा जाएगा कि जो बंद आहूत ही नहीं किया गया, वह उसके विफल हो जाने को साबित करने में कामयाब हो गई। इस उदाहरण से यह पता चलता है कि देश को किस खतरनाक झूठ का शिकार बनाया गया। भारत बंद का सोशल मीडिया में कुप्रचार एक दिलचस्प शोध का विषय है। एक काल्पनिक दैत्य पैदा करके उससे छद्म युद्ध करना कितना रोमांचक है? वाम दलों ने बिहार, बंगाल और केरल में राज्यस्तरीय बंद बुलाया था, लेकिन उसे भारत बंद की संज्ञा नहीं दी जा सकती। राजस्थान में भी प्रमुख विपक्षी दल ने बंद का आह्वान नहीं किया था, क्योंकि वह पहले ही जिला स्तर पर विरोध प्रदर्शन कर चुकी थी।
हालांकि मीडिया में इस प्रकार की खबरें छायी रहीं कि नोटबंदी की जानकारी भाजपा खेमे को पहले से थी, मगर उस पर यह संदेश ज्यादा प्रभावी हो गया कि विपक्ष इसलिए चिल्ला रहा है कि मोदी ने उनकी कमर तोड़ दी है। यह मोदी की चतुराई ही कही जाएगी कि जब विपक्ष ने कहा कि सरकार ने बिना तैयारी के कदम उठाया, जो कि सही भी है, मगर इसका जवाब विपक्ष का मुंह बंद करने वाला रहा कि हां, उन्हें अपना काला धन ठिकाने लगाने की तैयारी का वक्त नहीं मिला।
नोटबंदी की वजह से जो परेशानी हुई है और हो रही है, वह अपनी जगह है, मगर सोशल मीडिया पर आलम ये है कि तकलीफ से जुड़ी वीडियो क्लिपिंग से कई गुना अधिक मोदी के कदम की तारीफ वाली वीडियो क्लिपिंग रोज जारी हो रही हैं। दिलचस्प बात ये है कि परेशानी वाले संदेश व लंबी लाइनों में हो रही परेशानी के वीडियो जहां वास्तविक हैं, वहीं तारीफ वाले संदेष स्पष्ट रूप से प्रायोजित हैं, फिर भी वे भारी पड़ रहे हैं। यानि कि मोदी का आईटी सेल जबदस्त है। उसकी तुलना में विपक्ष बिखरा बिखरा सा है। हालत ये है कि राजनीतिक पंडित यह दावे के साथ कहने की स्थिति में नहीं हैं कि मोदी के इस कष्टदायक कदम का लाभ आगामी विधानसभा चुनावों में विपक्ष को मिलेगा या नहीं।
तेजवानी गिरधर