कैसी विडंबना है कि देशभक्ति की मौजूदा लहर में एक कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न के साथ अपमानजनक छेड़छाड़ करता है और इस कृत्य की बिना पर महान क्रांतिकारी व देशभक्त भगत सिंह से अपनी तुलना करता है। और उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि टीम अन्ना के प्रमुख सिपहसालारों का सब कुछ समझते हुए भी सारे टीवी चैनलों पर असीम की तरफदारी में बेशर्मी से चिल्लाना। इतना नहीं इन्हीं टीवी चैनलों में बैठे अधकचरे पत्रकारों का मूल विषय को भटका कर यह सवाल खड़ा करना भी अफसोसनाक है कि क्या कार्टून बनाना देशद्रोह है?
सीधी सी बात है कि एक मंद बुद्धि भी इस बात को समझता है कि कार्टून बनाना कदाचित किसी के लिए आपत्तिजनक तो हो सकता है, मगर देशद्रोह नहीं हो सकता। बावजूद इसके टीवी चैनलों ने सनसनी पैदा करने के लिए पूरे दिन यह मुद्दा बनाए रखा कि क्या काटूर्न बनाना देशद्रोह है, क्या यह अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रहार नहीं है? क्या यह आपातकाल का संकेत तो नहीं है? स्पष्ट है कि अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में उन्होंने जानबूझ कर यह विषय उठाया और अन्ना वालों ने जम कर उसका उपयोग किया। रहा सवाल किसी कार्टून विशेष की विषय वस्तु का तो इसे कोई अंध अन्ना भक्त माने या न माने, भारत मां की तस्वीर के साथ राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों व कार्पोरेट्स द्वारा रेप करते हुए दिखाना और अशोक स्तम्भ के शेरों को भेडिय़ों के रूप में प्रदर्शित करना निहायत घटिया सोच का परिचायक है। माना कि हमारे राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और कार्पोरेट्स ने देश को जिस हालात में पहुंचाया है, उसकी वजह से आज पूरे देश में विशेष रूप से राजनेताओं के प्रति नफरत का भाव पैदा हुआ है। व्यवस्था पर सवाल खड़े हुए हैं। उसी प्लेटफार्म पर टीम अन्ना ने आंदोलन को दिशा दी है। बेशक वह देश के हित में ही ही है। लेकिन सवाल ये है कि क्या इन सबसे बड़े देशभक्तों और महान बुद्धिजीवियों को इतना भी शऊर नहीं कि वे राष्ट्रीय प्रतीकों व राजनेताओं के बीच अंतर नहीं कर सकते? उलटे उसे जिद की हदें पार करते हुए सही ठहरा रहे हैं। सरकार पर हमले के जन्मजात अधिकार की दुहाई दे कर, अभिव्यक्ति की आजादी का हवाला दे कर विषयांतर करते हुए राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान को भी सही ठहराना क्या कुटिलता नहीं है? असीम के कृत्य की तुलना राजनेताओं द्वारा अशोक चिन्ह युक्त लेटरहैड का इस्तेमाल करते हुए घोटालों को अंजाम देने से करने का सिर्फ इतना सा ही मतलब है कि वे जानबूझ कर असीम की करतूत को डाइल्यूट करना चाहते हैं। क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि यदि राजनेता अशोक चिह्न युक्त लेटरहैड के जरिए घोटाले करेंगे तो असीम अथवा किसी और भी ये अधिकार दे दिया जाए कि वह राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ सीधे-सीधे भद्दा मजाक करे? जिस विवादित कार्टून के आधार पर असीम के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है, वह कितना आपत्तिजनक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संबंधित समाचार जारी व प्रकाशित करते वक्त इलैक्ट्रॉनिक व पिं्रट मीडिया ने भी उसे जारी नहीं किया है। दैनिक भास्कर ने तो बाकायदा उल्लेख किया है कि वह कार्टून विशेष प्रकाशित नहीं किया जा रहा है।
जहां तक त्रिवेदी का सवाल है, उस पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ है तो वह कोई कार्टून बनाने पर दर्ज नहीं हुआ है, अपितु राष्ट्रीय प्रतीक के साथ छेड़छाड़ करने पर एक व्यक्ति की शिकायत पर दर्ज हुआ है। पुलिस ने भी वर्तमान में मौजूद कानून के मुताबिक उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया और कोर्ट ने भी उसी आधार पर उसे पहले पुलिस रिमांड पर भेजा और बाद में न्यायिक हिरासत में। इसमें यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि देशद्रोह का कानून काफी पुराना और अप्रासंगिक हो गया है तो बेशक उसमें बदलाव किया जाना चाहिए, संशोधन किया जाना चाहिए, मगर जब तक बदलाव नहीं किया जाता, उसका उल्लंघन करने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है? क्या कानून में बदलाव के पक्षधरों को नेताओं को गाली देने के बहाने संविधान की खिल्ली उड़ाने की छूट दे दी जाए, क्योंकि वे देशभक्त हैं? क्योंकि असीम उन्नाव के एक स्वाधीनता सेनानी का पोता है, इस कारण क्या उसे संविधान को छिन्न-भिन्न करने का हक दे दिया जाए?
माना कि ऊर्जा से भरा असीम देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत है, मगर इसी देशभक्ति की आड़ में कार्टून के बहाने उसे राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ छेड़छाड़ कैसे करने दी जा सकती है? उससे भी शर्मनाक बात ये है कि एक निहायत घटिया कार्टून बनाने वाला पुलिस कस्टडी में पलट-पलट कर ऐसे उछल रहा था, मानो उसने बहादुरी का कोई महान काम कर दिया हो। जिस पीढ़ी को स्वाधीनता आंदोलन की पीड़ा का तनिक भी अहसास नहीं, उसका प्रतिनिधि यह कार्टूनिस्ट अपने कृत्य पर गर्व जताते हुए अपने आप की महान स्वाधीनता सेनानी भगत सिंह से तुलना कर रहा है। यानि की फोकट में शहीद व हीरो बनना चाहता है। इसे मानसिक दिवालियापन कहा जाए या अन्नावाद की फूंक में उछल रहा गुब्बारा, समझ में नहीं आता। असल बात तो ये है कि भगत सिंह के रास्ते पर चलने का दम भरना और उन्हीं के अनुरूप वैचारिक संपन्नता, सहनशीलता व गंभीरता रखना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। घोर आपत्तिजनक कार्टून बना कर भगत सिंह के नाम पर नौटंकी करने से भगत सिंह का नाम का नाम ऊंचा नहीं होने वाला है।
समझ में नहीं आता कि देश कैसे दौर से गुजर रहा है कि असीम की घटिया हरकत का हजारों तथाकथित देशभक्त सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की मिली छूट का इस्तेमाल इससे भी ज्यादा घटिया तरीके से कर रहे हैं। और गलती से कोई उनके प्रतिकूल टिप्पणी कर दे तो उसकी अभिव्यक्ति की आजादी छीन कर भद्दी गालियों पर उतर आते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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