तीसरी आंख

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गुरुवार, दिसंबर 05, 2019

महाराष्ट्र ने किया नई राजनीतिक दिशा का आगाज

देवेन्द्र फडनवीस ने कर दी बहुत बड़ी चूक
गेम चेंजर के रूप में उभरे शरद पवार
-तेजवानी गिरधर-
सत्ता की खातिर हालांकि धुर विरोधी पार्टियों के एक मंच पर आने की शुरुआत पहले ही हो चुकी है, मगर महाराष्ट्र में जिस प्रकार शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस व कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए एक हो कर जो सरकार बनाई है, उससे देश में राजनीति की नई दिशा का आगाज हो गया है। भाजपा ने केन्द्र में स्पष्ट व प्रचंड बहुमत पा कर एनडीए की मजबूती पर ध्यान देना बंद किया तो अब उसके घटक दल छिटक रहे हैं, वहीं महाराष्ट्र के प्रयोग ने देश के अन्य राज्यों में भाजपा के खिलाफ विभिन्न दलों को एकजुट होने को हवा दे दी है।
बेशक धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस व हिंदूवादी शिवसेना के साथ होने पर इसे नापाक गठबंधन करार दिया जा रहा है, मगर भाजपा आलोचना का अधिकार इसलिए खो चुकी है, क्योंकि वह खुद भी इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती व बिहार में नीतीश कुमार के साथ मिल कर सरकार बना चुकी है। इस मसले पर टीवी डिबेट में सभी दलों के प्रवक्ताओं की बोलती बंद हो जाती है। ऐसे में वे डिबेट को डीरेल करने की कोशिश करते हैं। जब हमाम में सब नंगे हैं तो आप किस पर हंसियेगा। कांग्रेस चूंकि वर्षों तक सत्ता में रही है, इस कारण साम, दाम, दंड, भेद नीति अपनाने को लेकर वह तथाकथित पार्टी विथ द डिफ्रेंस पर गुरूर करने वाली भाजपा के निशाने पर रहती थी, मगर अब जब कि भाजपा ने भी वे ही सारी नीतियां पूरी तरह से अपना ली है, तो उसके नेताओं को आरोपों पर चुप्पी साधनी पड़ती है। कुल मिला कर देश की राजनीति में अब सिद्धांत व वैचारिक मतभिन्नता गड्ड मड्ड हो चुकी है। यह राजनीति का विद्रूप चेहरा है। अब सिर्फ सत्ता को हासिल करने के लिए मनी व मसल्स का पावर गेम खेला जाने लगा है। उसके लिए संवैधानिक मूल्यों का पूरी तरह से परित्याग कर दिया गया है।
महाराष्ट्र में जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने बिना मंत्रीमंडल की अनुमति के अपने विशेष अधिकारों का उपयोग कर रातों रात राष्ट्रपति शासन हटवा दिया और राज्यपाल ने बिना ठीक से पुष्टि किए नए मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री को झटपट शपथ दिलवाई, उसने यह साबित कर दिया कि संवैधानिक मर्यादाओं को बड़ी आसानी से तिलांजलि दी जाने लगी है। शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस व कांग्रेस ने जब सुप्रीम कोर्ट की शरण ली तो जैसे ही उसने मामला निपटाने में तीन दिन का समय लिया, उससे वह भी निशाने पर आ गया था, मगर जब उसने विधानसभा में फ्लोर टैस्ट चौबीस घंटे में करवाने का आदेश दिया, तब जा कर उसकी साख बच पाई। उसमें एक भी एक पेच फंस गया कि राज्यपाल प्रोटेम स्पीकर बनाने में परंपरा को तोड़ेंगे और अजित पवार को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी विधायक दल का नेता मानेंगे, जो कि भाजपा के पक्ष में व्हिप जारी देंगे व उसका पालन न करने पर पार्टी के विधायकों की सदस्यता पर तलवार लटक जाएगी। हालांकि पार्टी ने पवार को हटा कर नया नेता चुन लिया, मगर उसे मान्यता न दिए जाने का संदेह था। खेल तो यही था, इस कारण आखिर तक भाजपाई किसी चमत्कार का दावा करते रहे। वो तो खुद पवार ने ही उपमुख्मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, तब मजबूरी में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस को भी त्यागपत्र देना पड़ गया।
इस पूरे घटनाक्रम में फडनवीस से बहुत बड़ी चूक हुई। शपथ लेने की इतनी जल्दी थी कि केवल पवार की समर्थन की चि_ी पर ही भरोसा कर लिया और इसको सुनिश्चित नहीं किया कि उनके विधायक हैं कहां पर। हालत ये हो गई कि पवार को छोड़ कर सारे विधायक पार्टी अध्यक्ष शरद पवार की शरण में पहुंच गए। अजित पवार निहत्थे हो गए, साथ ही पूरे परिवार का दबाव भी था, इस कारण बेकफुट पर आ गए और फडनवीस चौखाने चित्त हो गए। सबसे ज्यादा किरकिरी उनकी हुई है। उन्होंने मोदी की लहर पर सवार भाजपा की भी भद पिटवा दी। अब पार्टी में ही उनके लिए विपरीत हालात बन सकते हैं। उन पर ये आरोप भी आ गया कि जिस सिंचााई घोटाले के नाम पर उन्होंने अजित पवार सेे जेल में चक्की पिसवाने का ऐलान कर रखा था, सत्ता की खातिर उन्हीं से हाथ मिला लिया और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी।
राजनीति के इस खेल में पार्टियां ही नहीं, मीडिया भी नंगा हुआ है। पूरे घटनक्रम में वह लगातार भाजपा के प्रवक्ता की सी भूमिका निभाता रहा और जब देखा कि अब तो बाजी पलट गई तो लगा सियापा करने। अब भी उसका सारा ध्यान इस पर है कि यह गठबंधन कब और कैसे टूटेगा?
महाराष्ट्र के इस खेल में जहां राजनीति के चाणक्य कहलाने वाले अमित शाह को झटका लगा है, वहीं शरद पवार गेम चेंजर के रूप में उभर कर आए हैं। जिस किस्म का बेमेल मगर अनोखा गठबंधन उन्होंने बनाया है, उसे राजनीति को नई दिशा मिलने का संकेत माना जा रहा है। रहा सवाल शिवसेना का तो यह देखने वाली बात होगी कि वह अपने आक्रामक हिंदूवाद के कितना दूर रह पाती है। सुखद बात ये है कि उसे भी अब धर्मनिरपेक्षता के साथ समझौता करना पड़ा है। समीक्षक अब मोदी के जादू को कम होता हुआ आंक रहे हैं। हालांकि अभी इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। रहा सवाल मुद्दों का तो माना जा रहा है कि धारा 370 व राम मंदिर का मुद्दा भाजपा को कुछ खास लाभ देने वाले नहीं हैं। ऐसे में अब वह नागरिकता के मुद्दे पर जोर देने वाली है, जिसका असर राज्यों की राजनीति पर क्या पड़ेगा,यह आने वाला वक्त ही बताएगा।