बेशक डॉ शर्मा के प्रयासों से मेडिसिन के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन किया जा सका है। वे कोटि कोटि साधुवाद के पात्र हैं। लाभान्वितों की संख्या भी निरंतर बढ रही है, मगर आज भी जेनेरिक दवाओं पर पूर्ण विश्वास कायम नहीं किया जा सका है। आज भी यह धारणा समाप्त नहीं की जा सकी है कि जेनेरिक दवाएं गुणवत्ता की दृश्टि से कमतर हैं। अतः इस महत्वाकांक्षी व बहुउपयोगी योजना की पूर्ण सफलता के लिए गुणवत्ता कायम रखने के कडे उपाय किए जाने चाहिए।
तीसरी आंख
गुरुवार, अक्तूबर 03, 2024
जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता पर अब भी संशय क्यों?
जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता पर अब भी संशय क्यों?
बेशक डॉ शर्मा के प्रयासों से मेडिसिन के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन किया जा सका है। वे कोटि कोटि साधुवाद के पात्र हैं। लाभान्वितों की संख्या भी निरंतर बढ रही है, मगर आज भी जेनेरिक दवाओं पर पूर्ण विश्वास कायम नहीं किया जा सका है। आज भी यह धारणा समाप्त नहीं की जा सकी है कि जेनेरिक दवाएं गुणवत्ता की दृश्टि से कमतर हैं। अतः इस महत्वाकांक्षी व बहुउपयोगी योजना की पूर्ण सफलता के लिए गुणवत्ता कायम रखने के कडे उपाय किए जाने चाहिए।
रिटायर्ड कर्मचारी की उम्र कम हो जाती है?
बुधवार, अक्तूबर 02, 2024
आदमी के स्तन क्यों होते हैं?
आदमी को स्तन क्यों होते हैं, इस सवाल का जवाब पाने के लिए बहुत प्रयास किए, मगर फिलवक्त तक सटीक उत्तर नहीं मिल पाया है। हां, इतना जरूर समझ आया है कि यह इस बात का प्रतीक हैं कि आदमी में कुछ मात्रा में स्त्रैण हार्माेन भी होते हैं। होंगे ही, क्योंकि मनुष्य की उत्पत्ति स्त्री व पुरुष के मिलन से होती है और हर एक में दोनों के गुणसूत्र विद्यमान होते हैं। बस प्रतिशत का ही फर्क होता है, जिसकी वजह से कोई मेल तो कोई फीमेल पैदा होता है।
खैर, स्तन भले ही दूध की ग्रंथी है, मगर कहीं न कहीं इसका नस-नाडिय़ों के संतुलन से भी संबंध है। जब धरण टल जाती है तो नाड़ी वैद्य एक डोरी लेकर नाभि से पहले एक स्तन की दूरी नापता है और फिर दूसरे की। यदि दोनों की दूरी समान हो तो वह यही बताता है कि धरण नहीं टली है, पेट में दर्द किसी और वजह से है। यदि दूरी में फर्क आता है तो वह कहता है कि धरण टल गई है और झटके दे कर नाडिय़ों को संतुलित करता है। इसका मतलब ये हुआ कि जैसे नाभि पूरे शरीर की नस-नाडिय़ों का केन्द्र स्थान है, वैसे ही स्तन के बिंदु भी कहीं न कहीं नाडिय़ों के संतुलन का हिस्सा हैं।
दूसरी बात ये कि भले ही आदमी के स्तनों में दूध उत्पन्न नहीं होता, मगर हैं तो वे स्तन ही। भले ही सुप्त अवस्था में हों। यह नजरिया तब बना, जब ओशो के एक प्रवचन में यह सुना कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस काली माता की भक्ति में इतने लीन हो गए कि जीवन के आखिरी दौर में उनका शरीर स्त्रैण हो गया। उनके स्तन अप्रत्याशित रूप से बढ़ गए व उनमें से दूध टपकने लगा। इसके यही मायने हैं कि पुरुष के शरीर में जो स्तन हैं, वे वाकई स्तन ही हैं, तभी तो स्वामी रामकृष्ण के स्तनों में से दूध आने लगा।
चूंकि आदमी के स्तन प्रतीकात्मक हैं, इस कारण यदि किसी के स्तन बढ़ जाते हैं तो उसके लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाते हैं। विज्ञान की भाषा में बात करें तो असल में यह एक बीमारी है, इसको गाइनेकॉमस्टिया कहते हैं। टेस्टोस्टेरोन या एस्ट्रोजन हार्माेन के असंतुलन के कारण पुरुषों के स्तन बढ़ते हैं।। वैज्ञानिक शोध में यह भी सामने आया है कि लैवेंडर और चाय के पौधों के तेल के कारण युवकों के स्तन असामान्य रूप से बढ़ जाते हैं। इन तेलों में आठ ऐसे केमिकल होते हैं, जो हमारे हार्माेन्स पर प्रभाव डालते हैं। ज्ञाातव्य है कि लैवेंडर और टी ट्री पौधों से जुड़े तेल कई उत्पादों में पाए जाते हैं। साबुन, लोशन, शैम्पू और बाल संवारने वाले उत्पादों में इन तेलों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा भी पाया गया है कि जिन लोगों ने इन तेलों का इस्तेमाल बंद किया तो उन्हें बढ़ते स्तन को काबू में करने में मदद मिली है।
जानकारी के अनुसार पुरुषों के स्तन बढऩे के मामले बढऩे लगे हैं। उसकी वजह हार्माेनल चैंजेज के साथ जिम जाने वालों में स्टेरॉयड का प्रयोग करने व लाइफ स्टाइल से जुड़े मामले इसके लिए जिम्मेदार हैं।
आखिर में एक रोचक बात। हालांकि ये अपवाद मात्र है, मगर है दिलचस्प। यह एक सामान्य सी बात है कि जो युवती गर्भ धारण करती है तो उसका जी मिचलाने लगता है। यदि यही समस्या पिता बनने वाले युवक के साथ भी हो तो चौंकना स्वाभाविक है। एक खबर के मुताबिक 29 साल के हैरिस ऐशबे की मंगेतर को उनका पहला बच्चा होने वाला था। हैरिस का भी जी मिचलाने लगा। उसके स्तन बढऩे लगे। डॉक्टरों ने बताया कि वह एक तरह के मेडिकल कंडिशन का शिकार हो गया है, जिसे कौवेड सिंड्रोम कहते हैं।
शनिवार, सितंबर 28, 2024
भगवान आदमी है या औरत?
ईश्वर आदमी है या औरत, इस विषय को लेकर विशेष रूप से ईसाई समुदाय में काफी बहस छिड़ी हुई है। चर्च ऑफ इंग्लैंड का एक समूह दैनिक प्रार्थना के दौरान ईश्वर को पुरुषवाचक के साथ ही स्त्रीवाचक के रूप में भी संबोधित करने की मांग कर रहा है। उसकी मांग में दम भी है। लेकिन दिक्कत ये है कि जब भी हम ईश्वर का जिक्र करते हैं तो स्वाभाविक रूप से बिना सर्वनाम के उसके बारे में चर्चा करना कठिन है। यह भाषा की भी समस्या है। या तो हमें उसे पुरुष या स्त्री वाचक शब्द से पुकारना होगा। पुरुषवादी समाज में उसे स्त्री के रूप में संबोधित करना हमें स्वीकार्य नहीं, इसलिए हम उसे पुरुष मान कर ही संबोधित करते हैं।
वस्तुतरू ईश्वर एक सत्ता है, एक शक्ति केन्द्र है। वह स्वयंभू है। उसी सत्ता के अधीन संपूर्ण चराचर जगत संचालित हो रहा है। वह कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन चूंकि हम स्वयं व्यक्ति हैं, हमारी सीमित शक्ति है, इस कारण सर्वशक्तिमान की परिकल्पना करते समय हम उसे अपार क्षमताओं से युक्त एक महानतम व्यक्ति के रूप में देखते हैं। और चूंकि पूरी प्रकृति व समाज की व्यवस्था पुरुषवादी है, इस कारण उसके प्रति संबोधन में स्वाभाविक रूप से पुरुषवाचक शब्दों का चलन है।
अनादि काल से पुरुष तत्व की प्रधानता रही है। सामाजिक व धार्मिक परंपराओं का ढ़ांचा बनाने वाले पुरुष हैं। यही वजह है कि लिंगातीत, निर्गुण, निराकार ईश्वर का जिक्र पुरुष वाचक शब्दों से करते हैं।
आखिर में एक बात पर गौर कीजिए। ईश्वर के बारे हम चाहे जितनी टीका-टिप्पणियां कर लें, लेकिन वह हमारी कल्पनाओं व अवधारणों से कहीं बहुत आगे है। उसका पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन है। वेद भी व्याख्या करते वक्त आखिर में नेति-नेति कह कर हाथ खड़े कर देते हैं।
शुक्रवार, सितंबर 27, 2024
बहुत रहस्य छुपे हुए हैं हमारी छाया में
हमारे शरीर की छाया के बारे में बात करने से पहले हम चर्चा कर लेते हैं छाया के कारण से होने वाले सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण की। हम सब जानते हैं कि ये छाया की ही परिणाम स्वरूप घटित होते हैं। इस पर बड़े वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति में बहुत पहले ही खोज हो चुकी है कि इनका मानव सहित चराचर जगत पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि ज्योतिष विज्ञानी बताते हैं कि सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण के दौरान कौन कौन से काम नहीं करने चाहिए।
आपको यह भी जानकारी होगी कि किसी व्यक्ति में असामान्य लक्षण पाए जाने पर कहा जाता है कि उस पर किसी की छाया पड गई है। अमूमन यह बात किसी भूत-प्रेत आदि के संदर्भ में कही जाती है। परियों की छाया पड जाने के बारे में भी आपने सुना होगा। किसी व्यक्ति के विचारों या आचरण पर किसी व्यक्ति का प्रभाव दिखाई देने पर भी कहा जाता है कि उस पर उस अमुक व्यक्ति की छाया पड गई है। जिन लोगों ने तंत्र विद्या के बारे में पढ़ा अथवा सुना है, उनकी जानकारी में होगा कि तांत्रिकों ने भी लक्षित परिणाम पाने के लिए छाया का प्रयोग किया है।
खैर, अब चर्चा करते हैं हमारे शरीर की छाया की। इस बारे में मुझे जो जानकारी मिली है, वह आपसे साझा करना चाहता हूं। छाया के महत्व के बारे में शिव स्वरोदय में विस्तार से चर्चा की गई है। शिव स्वरोदय भारतीय प्राकृतिक विज्ञान है। इसमें भगवान शिव प्रकृति के रहस्यों के बारे में माता पार्वती को जानकारी देते हैं।
शिव स्वरोदय में बताया गया है कि एकान्त निर्जन स्थान में जाकर और सूर्य की ओर पीठ करके खड़ा हो जाएं या बैठ जाएं। फिर अपनी छाया के कंठ भाग को देखे और उस पर मन को थोड़ी देर तक केन्द्रित करें। इसके बाद आकाश की ओर देखते हुए ह्रीं परब्रह्मणे नमः मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए अथवा तब तक जप करना चाहिए, जब तक आकाश में भगवान शिव की आकृति न दिखने लगे। छह मास तक इस प्रकार अपनी छाया की उपासना करने पर साधक को शुद्ध स्फटिक की भांति आलोक युक्त भगवान शिव की आकृति का दर्शन होता है। यदि वह रूप (भगवान शिव की आकृति) कृष्ण वर्ण का दिखाई पड़े, तो साधक को समझना चाहिए कि आने वाले छह माह में उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। यदि वह आकृति पीले रंग की दिखाई पड़े, तो साधक को समझ लेना चाहिए कि वह निकट भविष्य में बीमार होने वाला है। लाल रंग की आकृति दिखने पर भयग्रस्तता, नीले रंग की दिखने पर उसे हानि, दुख तथा अभावग्रस्त होने का सामना करना पड़ता है। यदि आकृति बहुरंगी दिखाई पड़े, तो साधक पूर्णरूपेण सिद्ध हो जाता है।
यदि चरण, टांग, पेट और बाहें न दिखाई दें, तो साधक को समझना चाहिए कि निकट भविष्य में उसकी मृत्यु निश्चित है। यदि छाया में बायीं भुजा न दिखे, तो पत्नी और दाहिनी भुजा न दिखे, तो भाई या किसी घनिष्ट मित्र अथवा समबन्धी एवं स्वयं की मृत्यु निकट भविष्य में निश्चित है। यदि छाया का सिर न दिखाई पड़े, तो एक माह में, जंघा और कंधा न दिखाई पड़ें तो आठ दिन में और छाया न दिखाई पड़े, तो तुरन्त मृत्यु निश्चित है। यदि छाया की उंगलियां न दिखाई पड़ें, तो तुरन्त मृत्यु समझना चाहिए। कान, सिर, चेहरा, हाथ, पीठ या छाती का भाग न दिखाई पड़े, तो भी समझना चाहिए कि मृत्यु एकदम सन्निकट है। लेकिन यदि छाया का सिर न दिखे और दिग्भ्रम हो, तो उस व्यक्ति का जीवन केवल छरू माह समझना चाहिए।
शिव स्वरोदय में जिस प्रकार लिखा गया है, उससे यह तो समझ में आता ही है कि हमारे ऋषियों ने छाया का गहन अध्ययन किया है और उसका अपना विशेष महत्व है।
क्या मृतात्मा तक भोजन पहुंचता है?
आइये, इस विशय पर विस्तार से चर्चा करेंः-
यह सुस्पश्ट है कि मृतात्मा के स्वयं आ कर भोजन ग्रहण करने का तो सवाल ही नहीं उठता। बावजूद इसके हम जब श्राद्ध करते हैं तो पंडित को उतना ही सम्मान देते हैं, जितना पूर्वज को। वस्तुतः हम पंडित में हमारे पूर्वज की उपस्थिति मान कर ही व्यवहार करते हैं। भोजन अर्पित करने के विषय से हट कर बात करें तो भी इस सवाल का क्या उत्तर है कि उन्हें हम जो याद करते हैं अथवा श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंचती होगी?
इससे जुड़ी एक बात और। क्या किसी ने अनुभव किया है कि पूर्व जन्म में वह क्या था, कहां था? वस्तुतरू प्रकृति की व्यवस्था ही ऐसी है कि वह पूर्व जन्म की सारी स्मृतियों को लॉक कर देती है। वह उचित भी है। अन्यथा सारा गड़बड़ हो जाएगा। स्मृति समाप्त हो जाने का स्पष्ट मतलब है कि हमारा पूर्व जन्म से कोई नाता नहीं रहता। तब सवाल ये उठता है कि क्या हमें भी हमारे पूर्वजन्म के परिजन की ओर से किए जा रहे श्राद्ध कर्म का अनुभव होता है? क्या किसी ने अनुभव किया है कि श्राद्ध पक्ष के दौरान किसी तिथी पर पूर्व जन्म के परिजन हमें भोजन करवा रहे हैं? क्या कभी हमने अनुभव किया है कि बिन भोजन किए ही हमारा पेट भर गया हो? यदि हमारा कोई श्राद्ध रहा है तो ऐसा होना चाहिए, मगर होता नहीं है।
वाकई गुत्थी बहुत उलझी हुई है। अब चूंकि शास्त्र के अनुसार श्राद्ध पक्ष माना जाता है, श्राद्ध कर्म किया जाता है, तो जरूर इस व्यवस्था के पीछे कोई तो विज्ञान होगा ही। हजारों से साल ये यह परंपरा यूं ही तो नहीं चली आ रही। इस बारे में अनेक पंडितों व विद्वानों से चर्चा की, मगर आज तक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया है। हद से हद ये उत्तर आया कि भोजन पूर्वज तक पहुंचता हो या नहीं, मगर श्राद्ध के बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करने, उनके प्रति सम्मान प्रकट करने
और उनकी बताई गई अच्छी बातों का अनुसरण करने के लिए पखवाड़ा मनाते हैं।
इस बारे प्रसिद्ध मायथोलॉजिस्ट श्री देवदत्त पटनायक का अध्ययन बताता है कि मृत्यु के बाद शरीर का एक हिस्सा, जो उसके ऋणों की याद है, जीवित रहता है। वह हिस्सा वैतरणी पार कर यमलोक में प्रवेश करता है। वहां पितर के रूप में रहता है। यदि वह वैतरणी पार नहीं कर पाता तो प्रेत बन कर धरती लोक पर रहता है और तब तक परेशान करता है, जब तक कि उसका वैतरणी पार करने का अनुष्ठान पूरा नहीं किया जाता। वे बताते हैं कि हर पूर्वज के लिए हर साल उसकी पुण्यतिथि पर अनुष्ठान करना संभव नहीं है, इसलिए श्राद्ध पक्ष का निर्धारण किया गया। इस काल में मृतक जीवित लोगों के सबसे करीब होता है। उन्होंने एक बहुत दिलचस्प बात भी कही है। वह ये कि हम पूर्वजों को याद तो करते है, सम्मान भी देते हैं, मगर साथ ही डरते भी हैं, उन्हें बहुत सुखद भी अनुभव नहीं करने देते, अन्यथा वे फिर प्रेत बन कर धरती लोग पर आ सकते हैं। हालांकि उन्होंने इसका खुलासा नहीं किया है कि उन्हें कैसे सुखद अनुभव नहीं होने देते, मगर लगता ऐसा है कि श्राद्ध के दौरान सामान्य दाल-चावल का भोजन इसीलिए दिया जाता है। विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजन नहीं खिलाते कि कहीं वह फिर आकर्षित हो कर पितर लोक छोड़ कर न आ जाएं।
कई बार मुझे ख्याल आया है कि अगर हम अपने पूर्वजों का बहुत सम्मान करते हैं, उन्हें सुख पहुंचाना चाहते हैं तो पंडित को वह भोजन करवाना चाहिए, जो कि हमारे पूर्वज को अपने जीवन काल में प्रिय रहा हो। यथा हमारे किसी पूर्वज को शराब, बीड़ी, मांसाहार आदि पसंद रहा हो तो, हमें वहीं अर्पित करना चाहिए। मगर ऐसा नहीं करके सादा भोजन परोसते हैं। मेरी इस शंका का समाधान श्री पटनायक की जानकारी से होता है, अगर उनका अध्ययन सही है तो।