इन दिनों श्रीनगर के लालचौक पर भाजयुमो की ओर से 26 जनवरी को तिरंगा झंडा फहराने के ऐलान को लेकर राजनीति अपने पूरे उबाल पर है। एक ओर जहां भाजयुमो व भाजपा ने इसे राष्ट्रवाद से जोड़ कर प्रतिष्ठा व राष्ट्रीय अस्मिता का सवाल बना रखा है, वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार ने भाजयुमो कार्यकर्ताओं को रोकने के लिए राज्य की सीमाएं सील कर दी हैं। इस बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस बयान से कि गणतंत्र दिवस जैसे मौके पर पार्टियों को विभाजनकारी एजेंडे को बढ़ावा नहीं देना चाहिए और उन्हें राजनीतिक फायदा उठाने से बचना चाहिए, को लेकर भाजपा उबल पड़ी है।
यह सही है कि भारत में कोई भी कहीं पर भी तिरंगा फहराने के लिए स्वतंत्र है और इसके लिए उसे किसी की इजाजत लेने की जरूरत नहीं है। तिरंगा फहराना हमारा हक है और राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक भी। भारतीय जनता पार्टी की यह दलील वाकई पूरी तरह जायज है, लेकिन इसे जिन हालात में ऐसा करने की जिद है, वह समस्या के समाधान की बजाय उसे उलझाने वाली ज्यादा है।
जहां तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की भूमिका का सवाल है, उनका यह कहना कि लालचौक पर तिरंगा फहराने से दंगा हो जाएगा और उसके लिए भाजपा जिम्मेवार होगी, बेशक उग्रवादियों के आगे घुटने टेकने वाला है। यह साफ है कि सरकार का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है। भले ही उन्होंने कानून-व्यवस्था के लिहाज से ऐसा वक्तत्व दिया था, मगर ऐसा कहने से जाहिर तौर पर भाजपाई और उग्र हो गए। वे अगर ये कहते कि तिरंगा फहराना गलत नहीं, वे भी यह चाहते हैं कि कोई भी तिरंगा फहराये, किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, मगर चूंकि अभी हालात ठीक नहीं हैं, इस कारण अभी भाजपाइयों को संयम बरतना चाहिए तो कदाचित भाजपा को अपनी राजनीतिक मुहिम के प्रति जनसमर्थन बनाने का मौका नहीं मिलता। भाजपा को यह मुद्दा बनाने का मौका उमर के बयान से अधिक उस बयान से भी मिला, जो कि आतंकियों ने चुनौती के रूप में दिया था। उस चुनौती को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। ऐसे में राष्ट्रीय एकता व अस्मिता के लिहाज से भाजपा का रुख निस्संदेह पूरी तरह से सही है और उसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं है।
मगर... मगर इन सब के बावजूद यदि हम सिक्के का दूसरा पहलू नजरअंदाज करेंगे तो यह सब कुछ समझने के बावजूद नासमझ बनने का नाटक ही कहलाएगा। असल में जम्मू-कश्मीर की समस्या आज अचानक पैदा नहीं हुई है। यह विभाजन के साथ ही पैदा हुई और जाहिर तौर पर इसके लिए तत्कालीन हालात और जाहिर तौर पर आजादी में अग्रणी भूमिका अदा करने वाली कांग्रेस जिम्मेदार है। वस्तुत: यह केवल राष्ट्रीय समस्या नहीं, बल्कि इसकी गुत्थी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में उलझी हुई है। इसका समाधान स्वयं भाजपानीत सरकार भी नहीं निकाल पाई थी। जब तक भाजपा विपक्ष रही तब तो उसे केवल देश और देश के अंदर के हालात का पता था, मगर जब उसे सत्ता में आने का मौका मिला तो उसे भी पूरी दुनिया नजर आने लगी। उसे भी समझ में आने लगा कि अंतर्राष्ट्रीय कारणों से उलझी राष्ट्रीय समस्याएं सुलझाने में कितने अंतर्राष्ट्रीय दबाव झेलने पड़ते हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण ये है कि भाजपा सरकार को विमान के हाईजैक होने पर भारतीय यात्रियों को बचाने की खातिर आतंकवादियों को छोडऩे के लिए मौके पर जाना पड़ा था। सत्ता में रह चुकी भाजपा को यह भी अहसास होगा कि अरसे तक आग में धधक रहे जम्मू-कश्मीर में अब जा कर स्थिति थोड़ी संभली है। यदि यह सच है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है तो यह भी उतना ही कठोर सच है कि वहां के हालात राष्ट्रवाद के नाम पर भावनाएं भुना कर छेडख़ानी करने के नहीं हैं। अव्वल तो भाजपा को जम्मू कश्मीर में राज करने का मौका मिलना नहीं है, गर मिल भी जाए तो उसे भी पता लग जाएगा कि जितनी आसानी से वे लाल चौक पर तिरंगा फहराने की बात करते हैं, उतना आसान काम है नहीं। और उससे भी बड़ी बात ये कि वे तो राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर एक दिन के लिए वहां झंडा फहरा कर दिल की आग शांत कर आएंगे, बाकी के तीन सौ चौंसठ दिन की आग तो वहां के लोगों को झेलनी होगी।
असल में जम्मू-कश्मीर में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का खैरियत से गुजर जाना पिछले दो दशकों से राष्ट्रीय चिंता का विषय रहता है। अलगाववादियों के जुलूसों पर फायरिंग के चलते पिछले कुछ महीनों के दौरान ठंडे कश्मीर में आग धधक-धधक कर जलती रही है। हिंसा का वह दौर, जिसने करीब-करीब मुख्यमंत्री उमर अब्दु्ल्ला की कुर्सी ले ही ली थी, बड़ी मुश्किल से शांत हुआ है। हाल में उस राज्य में कुछ सकारात्मक संकेत नजर आए हैं। अमन की दिशा में लोगों ने एक बड़ा कदम उठाया है। नेशनल कांफ्रेंस और मुफ्ती सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच लंबे अरसे बाद संवाद फिर शुरू होने जा रहा है। अब्दुल गनी भट और सज्जाद लोन जैसे अलगाववादी नेताओं ने आतंकवादी हिंसा पर कुछ जोखिम भरे वक्तव्य दिए हैं। हिंसा के लंबे दौर के बाद सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल और केंद्र सरकार के वार्ताकारों के प्रयासों से जम्मू कश्मीर के हालात कुछ सामान्य हुए हैं। एक बार बमुश्किल कुर्सी बचाने में सफल रहे उमर अब्दुल्ला भी शायद अब किसी किस्म का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। वस्तुत: तिरंगा झंडा न फहराने देने को जहां भाजपा सहित हर भारतीय देश विरोधी समझता है, वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार की नजर में फिलहाल वह देश हित में है। भाजपा राष्ट्रीय स्वाभिमान और अस्मिता का सवाल बना रही है, मगर उमर की नजर में मौजूदा हालात में कानून-व्यवस्था बनाए रखना ज्यादा प्रासंगिक है। मौजूदा हालात में प्रत्क्षत: भले ही भाजपा इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हो, मगर उसके पीछे छिपा राजनीतिक एजेंडा भी किसी वे छिपा नहीं है। हालांकि मुद्दा आधारित राजनीति में माहिर भाजपाइयों को यह बात गले नहीं उतरेगी और वे अपनी जिद पर अड़े रहेंगे, मगर देशप्रेम के नाम पर यह यात्रा निकालने से कोई बड़ा देश हित सिद्ध होने वाला नहीं है। अव्वल तो उमर भाजपाइयों को घुसने नहीं देंगे। गर घुस भी गए तो तिरंगा भारी भरकम सुरक्षा इंतजामों में ही फहराया जा सकेगा। इससेे तस्वीर चाहे बदले न बदले, हंगामा करने का मकसद तो पूरा हो ही जाएगा। और उस हंगामे को तो वहां की सरकार को ही भुगतना होगा।
यह सही है कि भारत में कोई भी कहीं पर भी तिरंगा फहराने के लिए स्वतंत्र है और इसके लिए उसे किसी की इजाजत लेने की जरूरत नहीं है। तिरंगा फहराना हमारा हक है और राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक भी। भारतीय जनता पार्टी की यह दलील वाकई पूरी तरह जायज है, लेकिन इसे जिन हालात में ऐसा करने की जिद है, वह समस्या के समाधान की बजाय उसे उलझाने वाली ज्यादा है।
जहां तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की भूमिका का सवाल है, उनका यह कहना कि लालचौक पर तिरंगा फहराने से दंगा हो जाएगा और उसके लिए भाजपा जिम्मेवार होगी, बेशक उग्रवादियों के आगे घुटने टेकने वाला है। यह साफ है कि सरकार का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है। भले ही उन्होंने कानून-व्यवस्था के लिहाज से ऐसा वक्तत्व दिया था, मगर ऐसा कहने से जाहिर तौर पर भाजपाई और उग्र हो गए। वे अगर ये कहते कि तिरंगा फहराना गलत नहीं, वे भी यह चाहते हैं कि कोई भी तिरंगा फहराये, किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, मगर चूंकि अभी हालात ठीक नहीं हैं, इस कारण अभी भाजपाइयों को संयम बरतना चाहिए तो कदाचित भाजपा को अपनी राजनीतिक मुहिम के प्रति जनसमर्थन बनाने का मौका नहीं मिलता। भाजपा को यह मुद्दा बनाने का मौका उमर के बयान से अधिक उस बयान से भी मिला, जो कि आतंकियों ने चुनौती के रूप में दिया था। उस चुनौती को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। ऐसे में राष्ट्रीय एकता व अस्मिता के लिहाज से भाजपा का रुख निस्संदेह पूरी तरह से सही है और उसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं है।
मगर... मगर इन सब के बावजूद यदि हम सिक्के का दूसरा पहलू नजरअंदाज करेंगे तो यह सब कुछ समझने के बावजूद नासमझ बनने का नाटक ही कहलाएगा। असल में जम्मू-कश्मीर की समस्या आज अचानक पैदा नहीं हुई है। यह विभाजन के साथ ही पैदा हुई और जाहिर तौर पर इसके लिए तत्कालीन हालात और जाहिर तौर पर आजादी में अग्रणी भूमिका अदा करने वाली कांग्रेस जिम्मेदार है। वस्तुत: यह केवल राष्ट्रीय समस्या नहीं, बल्कि इसकी गुत्थी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में उलझी हुई है। इसका समाधान स्वयं भाजपानीत सरकार भी नहीं निकाल पाई थी। जब तक भाजपा विपक्ष रही तब तो उसे केवल देश और देश के अंदर के हालात का पता था, मगर जब उसे सत्ता में आने का मौका मिला तो उसे भी पूरी दुनिया नजर आने लगी। उसे भी समझ में आने लगा कि अंतर्राष्ट्रीय कारणों से उलझी राष्ट्रीय समस्याएं सुलझाने में कितने अंतर्राष्ट्रीय दबाव झेलने पड़ते हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण ये है कि भाजपा सरकार को विमान के हाईजैक होने पर भारतीय यात्रियों को बचाने की खातिर आतंकवादियों को छोडऩे के लिए मौके पर जाना पड़ा था। सत्ता में रह चुकी भाजपा को यह भी अहसास होगा कि अरसे तक आग में धधक रहे जम्मू-कश्मीर में अब जा कर स्थिति थोड़ी संभली है। यदि यह सच है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है तो यह भी उतना ही कठोर सच है कि वहां के हालात राष्ट्रवाद के नाम पर भावनाएं भुना कर छेडख़ानी करने के नहीं हैं। अव्वल तो भाजपा को जम्मू कश्मीर में राज करने का मौका मिलना नहीं है, गर मिल भी जाए तो उसे भी पता लग जाएगा कि जितनी आसानी से वे लाल चौक पर तिरंगा फहराने की बात करते हैं, उतना आसान काम है नहीं। और उससे भी बड़ी बात ये कि वे तो राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर एक दिन के लिए वहां झंडा फहरा कर दिल की आग शांत कर आएंगे, बाकी के तीन सौ चौंसठ दिन की आग तो वहां के लोगों को झेलनी होगी।
असल में जम्मू-कश्मीर में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का खैरियत से गुजर जाना पिछले दो दशकों से राष्ट्रीय चिंता का विषय रहता है। अलगाववादियों के जुलूसों पर फायरिंग के चलते पिछले कुछ महीनों के दौरान ठंडे कश्मीर में आग धधक-धधक कर जलती रही है। हिंसा का वह दौर, जिसने करीब-करीब मुख्यमंत्री उमर अब्दु्ल्ला की कुर्सी ले ही ली थी, बड़ी मुश्किल से शांत हुआ है। हाल में उस राज्य में कुछ सकारात्मक संकेत नजर आए हैं। अमन की दिशा में लोगों ने एक बड़ा कदम उठाया है। नेशनल कांफ्रेंस और मुफ्ती सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच लंबे अरसे बाद संवाद फिर शुरू होने जा रहा है। अब्दुल गनी भट और सज्जाद लोन जैसे अलगाववादी नेताओं ने आतंकवादी हिंसा पर कुछ जोखिम भरे वक्तव्य दिए हैं। हिंसा के लंबे दौर के बाद सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल और केंद्र सरकार के वार्ताकारों के प्रयासों से जम्मू कश्मीर के हालात कुछ सामान्य हुए हैं। एक बार बमुश्किल कुर्सी बचाने में सफल रहे उमर अब्दुल्ला भी शायद अब किसी किस्म का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। वस्तुत: तिरंगा झंडा न फहराने देने को जहां भाजपा सहित हर भारतीय देश विरोधी समझता है, वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार की नजर में फिलहाल वह देश हित में है। भाजपा राष्ट्रीय स्वाभिमान और अस्मिता का सवाल बना रही है, मगर उमर की नजर में मौजूदा हालात में कानून-व्यवस्था बनाए रखना ज्यादा प्रासंगिक है। मौजूदा हालात में प्रत्क्षत: भले ही भाजपा इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हो, मगर उसके पीछे छिपा राजनीतिक एजेंडा भी किसी वे छिपा नहीं है। हालांकि मुद्दा आधारित राजनीति में माहिर भाजपाइयों को यह बात गले नहीं उतरेगी और वे अपनी जिद पर अड़े रहेंगे, मगर देशप्रेम के नाम पर यह यात्रा निकालने से कोई बड़ा देश हित सिद्ध होने वाला नहीं है। अव्वल तो उमर भाजपाइयों को घुसने नहीं देंगे। गर घुस भी गए तो तिरंगा भारी भरकम सुरक्षा इंतजामों में ही फहराया जा सकेगा। इससेे तस्वीर चाहे बदले न बदले, हंगामा करने का मकसद तो पूरा हो ही जाएगा। और उस हंगामे को तो वहां की सरकार को ही भुगतना होगा।