हाल ही उत्तरप्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की बसपा सरकार ने राज्य को चार राज्यों में बांटने का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को हिला कर रख दिया है। हालांकि छोटे राज्यों का मुद्दा पहले भी गरमाता रहा है और उसकी वजह से कुछ राज्यों के टुकड़े भी किए गए हैं, मगर मायावती ने एक राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव पारित करवा एक नया संकट पैदा कर दिया है।
सर्वविदित ही है कि देश में पहले से कुछ राज्यों में विभाजन को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। वहा उग्र और भारी उठापटक वाला आंदोलन चल रहा है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। ऐसे में जाहिर है कि मायावती के इस नए पैंतरे से अन्य प्रांतों में भी यह आग भड़क सकती है। हालांकि जैसे ही प्रस्ताव पारित हुआ तो देशभर के बुद्धिजीवी इसी बहस में उलझ गए कि राज्यों के पुनर्गठन व छोटे राज्यों के क्या लाभ-हानि होते हैं, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि मायावती यह प्रस्ताव पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है।
जहां तक इस मुद्दे के सैद्धांतिक पक्ष की बात है, पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, जो अपनी-अपनी जगह सही ही प्रतीत होते हैं। छोटे राज्यों की पैरवी करने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य में कानून-व्यवस्था को संभालना बेहद कठिन होता है और सरकारों का ज्यादा समय कानून-व्यवस्था की समस्याओं से जूझने में ही खर्च होता है। और इसकी वजह से सरकारें विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पातीं। उनका तर्क है कि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है, क्योंकि वहां सामान्य कामकाज की समस्याएं कम होती हैं, सभी जिलों पर पकड़ अच्छी होती है, इस कारण विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जा सकता है। दूसरी ओर छोटे राज्यों के खिलाफ राय रखने वालों की मान्यता है कि छोटे राज्यों के सामने सदैव संसाधनों के अभाव की समस्या रहती है। ऐसे में वे या तो अपने निकटवर्ती राज्य से प्रभावित रहते हैं या केन्द्र सरकार के रहमो-करम पर निर्भर। केन्द्र पर निर्भरता के चलते उसकी अपनी स्वायत्तता प्रभावित होती है। ये तो हुई तर्क-वितर्क की बात, मगर धरातल पर जा कर देखें तो निर्णय करने में भारी असमंजस उत्पन्न होता है। यह सर्वविदित ही है कि छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम राजनीतिक अस्थिरता से गुजरते रहते हैं और वे विकास के मामले में पिछड़ते जा रहे हैं। बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की बात करें तो वहां की हालत काफी खराब है। विकास करना तो दूर हर वक्त राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है। इसके ठीक विपरीत मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्यकुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें। उधर गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के ऐसे आयाम छू रहा है, जिसकी देश ही नहीं बल्कि विश्व में भी तारीफ हो रही है। वह एक आदर्श विकास मॉडल के रूप में उभर आया है।
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर सही क्या है? छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि भौगोलिक स्थिति, संसाधनों और जनभावना को ध्यान में रख कर ही निर्णय किया जाना चाहिए। लेरिक सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। इस मुद्दे को लेकर लगातार राजनीति होती है। राजनीतिक दल अपने-अपने हित के हिसाब से पैंतरे चलते हैं। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने ध्यान तो जनता की मांग का रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनकी पार्टी की सरकार बने। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक है। कांग्रेस व भाजपा सहित अन्य दल जानते हैं कि मायावती के इस पैंतरे से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। वे समझ रहे हैं कि चार राज्य तो होंगे जब होंगे, मगर चंद माह बाद ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में मायावती इसका सीधा-सीधा फायदा उठा सकती हैं। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। हालांकि वे भी छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, मगर मायावती की चाल के आगे निरुतर हो गए हैं। उनके पास ऐतराज करने को सिर्फ ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
इससे भी अहम पहलु ये है कि भले ही राज्यों का पुनर्गठन करना केन्द्र सरकार के हाथ में है, मगर देश की एकता व अखंडता की जिम्मेदारी के नाते मायावती ने उसके सामने एक संकट तो खड़ा कर ही दिया है। पहले से ही अनेक भागों में पनप रहे अलगाववाद को इससे बल मिलने की आशंका है। देखते हैं कि अब केन्द्र इस मामले में क्या रुख अख्तियार करता है।
tejwanig@gmail.com
सर्वविदित ही है कि देश में पहले से कुछ राज्यों में विभाजन को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। वहा उग्र और भारी उठापटक वाला आंदोलन चल रहा है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। ऐसे में जाहिर है कि मायावती के इस नए पैंतरे से अन्य प्रांतों में भी यह आग भड़क सकती है। हालांकि जैसे ही प्रस्ताव पारित हुआ तो देशभर के बुद्धिजीवी इसी बहस में उलझ गए कि राज्यों के पुनर्गठन व छोटे राज्यों के क्या लाभ-हानि होते हैं, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि मायावती यह प्रस्ताव पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है।
जहां तक इस मुद्दे के सैद्धांतिक पक्ष की बात है, पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, जो अपनी-अपनी जगह सही ही प्रतीत होते हैं। छोटे राज्यों की पैरवी करने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य में कानून-व्यवस्था को संभालना बेहद कठिन होता है और सरकारों का ज्यादा समय कानून-व्यवस्था की समस्याओं से जूझने में ही खर्च होता है। और इसकी वजह से सरकारें विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पातीं। उनका तर्क है कि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है, क्योंकि वहां सामान्य कामकाज की समस्याएं कम होती हैं, सभी जिलों पर पकड़ अच्छी होती है, इस कारण विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जा सकता है। दूसरी ओर छोटे राज्यों के खिलाफ राय रखने वालों की मान्यता है कि छोटे राज्यों के सामने सदैव संसाधनों के अभाव की समस्या रहती है। ऐसे में वे या तो अपने निकटवर्ती राज्य से प्रभावित रहते हैं या केन्द्र सरकार के रहमो-करम पर निर्भर। केन्द्र पर निर्भरता के चलते उसकी अपनी स्वायत्तता प्रभावित होती है। ये तो हुई तर्क-वितर्क की बात, मगर धरातल पर जा कर देखें तो निर्णय करने में भारी असमंजस उत्पन्न होता है। यह सर्वविदित ही है कि छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम राजनीतिक अस्थिरता से गुजरते रहते हैं और वे विकास के मामले में पिछड़ते जा रहे हैं। बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की बात करें तो वहां की हालत काफी खराब है। विकास करना तो दूर हर वक्त राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है। इसके ठीक विपरीत मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्यकुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें। उधर गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के ऐसे आयाम छू रहा है, जिसकी देश ही नहीं बल्कि विश्व में भी तारीफ हो रही है। वह एक आदर्श विकास मॉडल के रूप में उभर आया है।
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर सही क्या है? छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि भौगोलिक स्थिति, संसाधनों और जनभावना को ध्यान में रख कर ही निर्णय किया जाना चाहिए। लेरिक सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। इस मुद्दे को लेकर लगातार राजनीति होती है। राजनीतिक दल अपने-अपने हित के हिसाब से पैंतरे चलते हैं। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने ध्यान तो जनता की मांग का रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनकी पार्टी की सरकार बने। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक है। कांग्रेस व भाजपा सहित अन्य दल जानते हैं कि मायावती के इस पैंतरे से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। वे समझ रहे हैं कि चार राज्य तो होंगे जब होंगे, मगर चंद माह बाद ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में मायावती इसका सीधा-सीधा फायदा उठा सकती हैं। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। हालांकि वे भी छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, मगर मायावती की चाल के आगे निरुतर हो गए हैं। उनके पास ऐतराज करने को सिर्फ ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
इससे भी अहम पहलु ये है कि भले ही राज्यों का पुनर्गठन करना केन्द्र सरकार के हाथ में है, मगर देश की एकता व अखंडता की जिम्मेदारी के नाते मायावती ने उसके सामने एक संकट तो खड़ा कर ही दिया है। पहले से ही अनेक भागों में पनप रहे अलगाववाद को इससे बल मिलने की आशंका है। देखते हैं कि अब केन्द्र इस मामले में क्या रुख अख्तियार करता है।
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