तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, मई 31, 2013

भाजपा ने उगला जेठमलानी को, अब वे आग उगलेंगे

भारतीय जनता पार्टी के लिए गले की हड्डी बने राज्यसभा सदस्य व वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी को आखिर उगल दिया, मगर अब खतरा ये है कि वे भाजपा के खिलाफ आग उगलेंगे। इसका इशारा वे कर भी चुके हैं।
असल में भाजपा जेठमलानी को एक लंबे अरसे से झेल रही थी। संभवत: मात्र इसलिए कि उनके पास एक तो पार्टी के बहुतेरे राज हैं और दूसरा ये कि अपनी स्वच्छंद प्रवृति के कारण कभी भी बड़ा संकट पैदा कर सकते थे। संकट पैदा कर ही रहे थे। नितिन गडकरी की अध्यक्ष पद की कुर्सी जाने में उनकी भी अहम भूमिका थी, जो उनके विरुद्ध अभियान सा छेड़े हुए थे। इतना ही वे चोरी और सीनाजोरी की तर्ज पर आए दिन धमकी भी देते रहे कि है दम तो उन्हें पार्टी से निकाल कर तो दिखाओ। आखिरी नौटंकी उन्होंने पिछले दिनों तब की, जब वे निलंबित होने के बावजूद कार्यसमिति की बैठक में पहुंच गए। उन्होंने जम कर हंगामा भी किया, जिससे एकबारगी मारपीट की नौबत आ गई। उन्होंने आरोप लगाया कि पार्टी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को सही तरीके से नहीं उठाया। यहां तक कि पार्टी की कांग्रेस से मिलीभगत का गंभीर आरोप भी जड़ दिया। पार्टी अनुशासन को ताक पर रख कर उन्होंने नेतृत्व को चेतावनी भी दे दी कि उनका निलंबन वापस लिया जाए या उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाए। अपने आप को केडर बेस पार्टी बताने वाले राजनीतिक दल में कोई इस हद तक चला जाए और फिर भी उसके खिलाफ कार्यवाही करने पर विचार करना पड़े या संकोच हो रहा हो तो ये सवाल उठाए जाने लगे कि आखिर जेठमलानी में ऐसी क्या खास बात है कि पार्टी हाईकमान की घिग्घी बंधी हुई है? ऐसे में आखिरकार पार्टी के पास कोई चारा ही नहीं रहा। हालांकि पार्टी जिस कदम से लगातार बचना चाहती थी, वही से उठा कर उन्हें पार्टी से बाहर करना पड़ा। पार्टी अच्छी तरह से समझती है कि बाहर होने के बाद वे काफी दुखदायी होंगे, मगर उससे ज्यादा कष्टप्रद तो वे पार्टी के अंदर रह कर बने हुए थे। अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित पार्टी बताने वाली भाजपा का अनुशासन तार-तार किए दे रहे थे। उन्हीं की आड़ ले कर और नेता भी अनुशासन की सीमा रेखा पार करने लगे थे। ऐसे में पार्टी हाईकमान ने यह सोच कर एक मछली सारे तालाब को गंदा कर रही है, बेहतर यही है कि उसे ही बाहर निकाल दिया जाए।
ज्ञातव्य है कि वे लंबे अरसे से पार्टी नेताओं का मुंह नोंच रहे थे। उन्होंने न केवल पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस्तीफा देने की मांग की, अपितु सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति पर पार्टी के रुख की खुली आलोचना की। तब भी यही धमकी दी थी कि है किसी में हिम्मत कि उनके खिलाफ कार्यवाही कर सके। उनकी इस प्रकार की हिमाकत पर उन्हें निलंबित किया गया। इसके बाद उनका रुख कुछ नरम पडऩे पर निलंबन समाप्त करने का भी विचार बना, मगर जब पानी सिर से ही गुजरने लगा तो पार्टी को उनसे पिंड छुड़वाना ही पड़ा।
आपको याद होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिनको भारी अंतर्विरोध के बावजूद राज्यसभा चुनाव के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे  न केवल पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं, बल्कि विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वे उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं। तभी इस बात की पुष्टि हो गई थी कि जेठमलानी के हाथ में जरूर भाजपा के बड़े नेताओं की कमजोर नस है। भाजपा के कुछ नेता उनके हाथ की कठपुतली हैं। उनके पास पार्टी का कोई ऐसा राज है, जिसे यदि उन्होंने उजागर कर दिया तो भारी उथल-पुथल हो सकती है।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
बहरहाल, अब जब कि पार्टी ने मन कड़ा करते हुए सख्त कदम उठा लिया है, ये खतरा लगातार बना ही हुआ है कि वे कोई न कोई षड्यंत्र रचेंगे, मगर समझा जाता है कि पार्टी उसके लिए तैयार है।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, मई 24, 2013

फैसले के अतिरिक्त टिप्पणियां करना कितना उचित?

supreme courtइन दिनों एक जुमला बड़ा चर्चित है। वो है कि सीबीआई पिंजरे में कैद तोता है, जो केवल सरकार की भाषा बोलता है। असल में यह देश के सर्वोच्च न्यायालय की ओर से की गई टिप्पणी है, जिसका प्रतिपक्षी नेता जम कर इस्तेमाल कर रहे हैं। इस पर सैकड़ों कार्टून बन चुके हैं। हाल ही यूपीए टू सरकार के चार साल पूरे होने पर देश की राजधानी दिल्ली में भारतीय जनता युवा मोर्चा की ओर से जो रैली निकाली गई, उसमें तो बाकायदा तोते के एक पुतले को शामिल किया गया, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में सीबीआई लिखा हुआ था।
बेशक न्यायालय की टिप्पणी विपक्ष को अनुकूल तो सरकार को प्रतिकूल पड़ती है, मगर निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए तो सवाल ये उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के पास कानून के तहत फैसले सुनाने के अधिकार के साथ इस प्रकार की तीखी टिप्पणी करने का भी अधिकार है, जिसने एक संवैधानिक संस्था को इतना बदनाम कर दिया है, जिससे उसे कभी छुटकारा नहीं मिल पाएगा। यह एक नजीर जैसी हो गई है।
हालांकि यह सही है कि जिस मामले में यह टिप्पणी की गई है, उसमें सीबीआई ने सरकार के इशारे पर काम किया, इस कारण टिप्पणी ठीक ही प्रतीत होती है, मगर वह वाकई सरकार का गुलाम तोता ही होती तो सच-सच क्यों बोलती। उसने जो हल्फनामा पेश किया, उसमें भी सरकार की ओर से कही गई भाषा ही बोलती।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सीबीआई का कई बार दुरुपयोग होता है, या उसको पूरी तरह से स्वतंत्र होना ही चाहिए, उसके कामकाज में सरकारी दखल नहीं होना चाहिए, मगर टिप्पणी से निकल रहे अर्थ की तरह उसका दुरुपयोग ही होता है या दुरुपयोग के लिए ही उसका वजूद है अथवा वह पूरी तरह से सरकार के कहने पर ही चल रही है, यह कहना उचित नहीं होगा। अगर ऐसा ही होता तो वह केवल प्रतिपक्ष के नेताओं पर ही कार्यवाही करती, सरकारी मंत्रियों को शिकंजे में कैसे लेती? इसे यह तर्क दे कर काटा जा सकता है कि सरकार अपनी सुविधा के अनुसार उसका उपयोग करती है और बहुत राजनीतिक जरूरत होने पर अपने मंत्रियों को भी लपेट देती है, मगर यह बात आसानी से गले नहीं उतरती कि मात्र कोर्ट की टिप्पणी की वजह से ही सरकार ने अपने मंत्री शहीद कर दिए।
वस्तुत: न्यायालय ने यह टिप्पणी करके सीबीआई के अस्तित्व पर ही एक प्रश्रचिन्ह खड़ा कर दिया है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय सबसे बड़ी कानूनी संवैधानिक संस्था है, इस कारण वह किसी के भी बारे में कुछ भी टिप्पणी कर सकती है, इसको लेकर बहस छिड़ी हुई है। इसकी पहल की कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह ने। हालांकि न्यायालय की अवमानना के डर से वे कुछ संभल कर बोले, मगर जन चर्चा में इस प्रकार की टिप्पणी को उचित नहीं माना जा रहा।
वैसे यह पहला मौका नहीं है कि न्यायपालिका की ओर से इस प्रकार की टिप्पणी आई है। इससे पूर्व भी वह ऐसी व्याख्या कर देती है, जिसमें शब्दों को उचित चयन न होने का आभास होता रहा है। विशेष रूप से पुलिस तो सदैव नीचे से लेकर ऊपर तक जलील की जाती रही है। माना कि पुलिस अधिकारी विशेष अगर गलत करता है तो उस पर टिप्पणी की जा सकती है, मगर वही टिप्पणी अगर पूरे पुलिस तंत्र पर चस्पा हो जाती है तो कहीं न कहीं अन्याय होता प्रतीत होता है।
आम धारणा है कि लोकतंत्र में न्यायपालिका सर्वोच्च है, मगर सच ये है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों एक दूसरे के पूरक तो होते ही हैं, नियंत्रक भी होते हैं। तीनों के पास अपने-अपने अधिकार हैं तो अपनी-अपनी सीमाएं भी। ऐसे ये कहना कि इन तीनों में न्यायपालिका सर्वोच्च है, गलत होगा। जहां विधायिका कानून बनाती है तो न्यायपालिका उसी कानून के तहत न्याय करती है। स्पष्ट सीमा रेखाओं के बाद भी दोनों के बीच कई बार टकराव होते देखा गया है। प्रधानमंत्रियों तक को न्यायपालिका को अपनी सीमा में रहने का आग्रह करना पड़ा है। इसकी वजह ये है कि न्यायपालिका की टिप्पणियों की वजह से कई बार विधायिका को बड़ी बदनामी झेलनी पड़ती है। कई बार तो ऐसा आभास होता है कि न्यायपालिका इस प्रकार की टिप्पणियां करके अपने आपको सर्वोच्च जताना चाहती है। वह यह भी प्रदर्शित करती प्रतीत होती है कि चूंकि विधायिका ठीक से काम नहीं कर रही इस कारण उसे कठोर होना पड़ रहा है। मगर सवाल ये है कि अगर न्यायपालिका के उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति विशेष अगर अतिक्रमण करें और एक आदत की तरह फैसले के अतिरिक्त टिप्पणियां भी करे तो उसकी देखरेख कौन करेगा? अर्थात अगर कोई न्यायाधीश अलिखित रूप से कोई अवांछित टिप्पणी कर दे तो प्रभावित किस के पास अपील करे? कदाचित पूर्व में न्यायाधीश इस प्रकार की टिप्पणियां करते रहे होंगे, मगर आज जब कि मीडिया अत्यधिक गतिमान हो गया है तो फैसले की बजाय इस प्रकार की टिप्पणयां प्रमुखता से उभर कर आती हैं। और नतीजा ये होता है कि जिन न्यायाधीशों का उल्लेख करते हुए सम्मानीय शब्द का संबोधन करना होता है, उनके बड़बोले होने का आभास होता है।
आखिर में एक महत्वपूर्ण बात। अगर उच्चतम न्यायालय की ताजा टिप्पणी पर चर्चा करना अथवा उसके प्रतिकूल राय जाहिर करना उसकी अवमानना है तो उस टिप्पणी का विपक्षी दलों का अपने पक्ष में राजनीतिक इस्तेमाल या इंटरपिटेशन करना क्या है? क्या संदर्भ विशेष में न्यायालय की टिप्पणी करने के अधिकार की तरह अन्य किसी को भी उस टिप्पणी का हवाला देकर हमले करने का अधिकार है?
इस सिलसिले में हाल ही हुआ एक प्रकरण आपकी नजर है। बीते दिनों जब राजस्थान की राज्यपाल मारग्रेट अल्वा ने एक समारोह में कहा कि अधिकारी योजनाएं तो खूब बनाते हैं, मगर उनका क्रियान्वयन ठीक से नहीं होता, तो उनके बयान का प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने इस्तेमाल करते हुए सरकार पर हमला करना शुरू कर दिया। इस पर अल्वा को आखिर कहना पड़ा कि उनके बयान का राजनीतिक इस्तेमाल करना ठीक नहीं है और कम से कम राजनीतिक छींटाकशी में उन्हें तो मुक्त ही रखें।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 20, 2013

कटारिया के फंसने से भाजपा की जान सांसत में


सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में सीबीआई ने भले ही राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया को आरोपी बना कर अपनी अब तक की कार्यवाही को आगे बढ़ाया हो, मगर इसके राजनीतिक निहितार्थ ये ही हैं कि इससे मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहीं प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे को बड़ा झटका लगा है। भले ही भाजपा कटारिया के फंसने को राजनीतिक दुश्मनी करार दे, मगर सच वह भी जानती है कि ऐन चुनाव से पहले उनका एक महत्वपूर्ण विकिट गिर गया है। वसुंधरा के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रहे कटारिया के उलझने की वजह से उनकी कथित रूप से बड़ी तेजी व उत्साह के साल चल रही सुराज संकल्प यात्रा में भी विघ्न आएगा ही। संभव है कटारिया की गिरफ्तारी होने पर उन्हें नया नेता प्रतिपक्ष चुनना पड़े और उसके साथ वसुंधरा की कैसी पटेगी कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे वसुंधरा मन ही मन इस बात से खुश जरूर हो रही होंगी कि उनको सबसे ज्यादा परेशान करने वाले कटारिया मुसीबत में हैं, मगर पार्टी के नाते उनके लिए एक बड़ा सकंट हो गया है। वसुंधरा के लिए अभी इसका मतलब उतना नहीं है कि उनका कोई प्रतिद्वंद्वी कमजोर हो, बल्कि इसका है कि वे किसी भी प्रकार सत्ता में आ जाएं, प्रतिद्वंद्वियों से तो तालमेल बैठा ही लेंगे।
ज्ञातव्य है कि वर्ष 2005 में गुजरात पुलिस ने मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन को मार गिराने का दावा किया था। इस मुठभेड़ को सोहराबुद्दीन के परिवार जनों ने फर्जी मुठभेड़ बताया। इसके बाद सोहराबुद्दीन का साथी तुलसी प्रजापति भी पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। इस मामले में उदयपुर के पूर्व एसपी दिनेश एमएन सहित चार पुलिस अफसर जेल में हैं। कुछ समय पहले ही सीबीआई ने गुलाबचंद कटारिया को गांधी नगर बुला कर उनसे लंबी पूछताछ की थी। बाद में चूंकि इस मामले की कार्यवाही धीरे चल रही थी, इस कारण लोग इसे लगभग भूल चुके थे, मगर राजनीति के जानकार समझ रहे थे कि कटारिया की मामले में संलिप्तता के कुछ सूत्र पकड़ में आते ही उन्हें लपेट दिया जाएगा। आखिर वही हुआ।
मसले का एक पहुल ये भी है कि हालांकि कटारिया वसुंधरा से समझौता करके उनके साथ सुराज संकल्प यात्रा में सहयोग कर रहे हैं, मगर जितनी जद्दोजहद के बाद कटारिया व संघ लॉबी समझौते के राजी हुई है, उसकी वजह से पड़ी खटास कम से कम कार्यकर्ताओं में देखी ही जाती है। उदयपुर संभाग में अब भी कार्यकर्ता कटारिया व विधायक किरण माहेश्वरी खेमे में बंटे हुए हैं। स्वाभाविक है ताजा घटनाक्रम से किरण माहेश्वरी लॉबी भी उत्साहित हो कर हावी होने की कोशिश करेगी।
हां, एक बात जरूर है कि ताजा चुनावी माहौल में आरोप-प्रत्यारोप के दौर में कटारिया प्रकरण से गरमी और बढ़ेगी और भाजपा को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि कांग्रेस हार की आशंका से बौखलाहट के चलते बदले की भावना से सीबीआई का दुरुपयोग करवा रही है। भले ही सीबीआई स्वतंत्र रूप से काम कर रही हो, मगर संभव है चुनावी माहौल में इस नए मोड़ पर भाजपा को जनता की संदेवना का लाभ मिल जाए।
-तेजवानी गिरधर

भाजपा अमित शाह के जरिए यूपी में खेलेगी हिंदू कार्ड


गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खासमखास और प्रखर हिंदूवादी चेहरे गुजरात के पूर्व गृह मंत्री अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने के साथ यह स्पष्ट हो गया है कि इस बार भाजपा वहां हिंदूवादी कार्ड खेलेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि शाह वहां मोदी के ही दूत बन कर काम करेंगे, जिसका सीधा-सीधा मतलब ये है कि इस बार वहां हिंदू वोटों को लामबंद करने की कोशिश की जाएगी। भाजपा के लिए इससे बड़ा आखिरी विकल्प हो भी नहीं सकता था।
यूं उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने वहां फायर ब्रांड हिंदूवादी नेता व मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को तैनात किया था, मगर तब उसका उसका मूल मकसद जातिवाद में बुरी तरह से जकड़े उत्तरप्रदेश में लोधी वोटों में सेंध मारी जाए, मगर वे कामयाब नहीं हो पाईं। पूर्व भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के इस फैसले की पार्टी में आलोचना भी हुई, मगर संघ के दबाव  में मामला दफन कर दिया गया।
समझा जाता है कि इस बारे में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ की सोच है कि जिस तरह मोदी एक बड़े नेता के रूप में उभरे हैं और हिंदुओं के अतिरिक्त मुस्लिमों पर भी उन्होंने अपनी पकड़ साबित की है, उनकी छत्रछाया में काम करने वाले अमित शाह वहां के समीकरणों को भाजपा के पक्ष में ला सकते हैं। वे मोदी फैक्टर को आजमाने की पृष्ठभूमि भी तैयार करेंगे। उल्लेखनीय है कि उत्तरप्रदेश में भाजपा की जाजम बिछाने के लिए मोदी को वहां से चुनाव लड़ाने के कयास लगाए जाते रहे हैं। हालांकि यह भी एक प्रयोग मात्र है, मगर इसके कामयाब होने की संभावना काफी नजर आती है। वैसे भी भाजपा में उत्तरप्रदेश पृष्ठभूमि के दमदार नेता वहां खारिज हो चुके हैं, ऐसे में अमित शाह वाला प्रयोग कदाचित कामयाब हो सकता है। ज्ञातव्य है कि  भाजपा आलाकमान से नाराजगी के चलते पिछले विधानसभा चुनाव में मोदी प्रचार के लिए भी यूपी नहीं गए थे। इसके पक्ष में एक तर्क ये भी दिया जाता था कि मोदी के वहां जाने से मुस्लिम वोटों का धु्रवीकरण हो सकता है, जो भाजपा के लिए नुकसानदेह होता। लेकिन अब स्थितियां बदली हैं और मोदी का जादू वहां चल सकता है। और इसका फायदा भाजपा को लोकसभा चुनाव में हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, मई 16, 2013

वसुंधरा ने कहां किया राज्यपाल की मर्यादा का हनन?


प्रदेश की कांग्रेस सरकार पर एक प्रतिकूल टिप्पणी करने को जैसे ही पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने लपका, राज्यपाल मारग्रेट अल्वा को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मौजूदगी में कहना पड़ गया कि राजस्थान में इस समय राजनीतिक यात्राएं निकल रही हैं, इनमें भाजपा और कांग्रेस दोनों ओर से क्रॉस फायर हो रहे हैं, लेकिन इसमें मुझे नहीं घसीटा जाए। मुझे लेकर किसी तरह की टिप्पणियां नहीं होनी चाहिए।
बेशक राज्यपाल का पद गरिमामय होता है और उन पर टिप्पणी करना राजनीतिक मर्यादा के विपरीत है, मगर वसुंधरा ने तो मात्र उनकी टिप्पणी का ही उल्लेख किया था, जो कि सरकार के खिलाफ पड़ती थी। ज्ञातव्य है कि राज्यपाल ने गत दिवस सीआईआई और इंडियन ग्रीन बिल्डिंग कौंसिल के ग्रीन बिल्डिंग एंड रिन्युएबल एनर्जी सेमिनार में कहा कि अधिकारी योजनाएं तो खूब बनाते हैं, घोषणाएं भी बहुत होती हैं, लेकिन क्रियान्विति नहीं होती। यही आरोप तो वसुंधरा पिछले एक माह से अपनी सुराज संकल्प यात्रा के दौरान लगा रही हैं। मीडिया भी यही कहता रहा है कि गहलोत सरकार के पास गिनाने को तो बहुत जनोपयोगी व लोककल्याणकारी योजनाएं हैं, मगर न तो ठीक से उनकी क्रियान्विति हो पा रही हैं और न ही उनकी उचित मॉनीटरिंग होती है। इस सिलसिले में नि:शुल्क दवा योजना को प्रमुख रूप से गिनाया जाता है, जिस पर न तो प्रशासनिक तंत्र ने ठीक से अमल किया है और न ही आम आदमी को पूरा लाभ मिल पा रहा है। चिकित्सकीय स्टाफ द्वारा मुफ्त दवाई घर ले जाने अथवा बाजार में बिकने के अनेक मामले सामने आ चुके हैं। जैसे ही योजनाओं के क्रियान्वयन की खामी को लेकर राज्यपाल ने भी बयान दिया तो वसुंधरा ने उसे तुरंत लपक कर कह दिया कि अब तो राज्यपाल भी वही कह रही हैं, जो कि हम कह रहे थे। इसमें मर्यादा के हनन जैसा तो कुछ है नहीं। मगर चूंकि राज्यपाल के बयान से भाजपा के आरोप की पुष्टि हो रही थी, इस कारण मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से जवाब देते नहीं बन रहा। सो अब कह रहे हैं कि राज्यपाल को मुद्दा बनाना दुर्भाग्यपूर्ण है। गहलोत का कहना है कि राज्यपाल ने पहले भी सरकारों के प्रति नाराजगी जाहिर की। पूर्व राज्यपाल मदनलाल खुराना ने तो भूख से मौतों को लेकर क्या कुछ नहीं कहा। वे खुद दौरा करने गए थे। तब तो प्रदेश में हमारी सरकार नहीं थी। हम राज्यपाल को राजनीतिक मुद्दा बनाएं, उन्हें लेकर टिप्पणियां करें, यह उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं है। माना कि गहलोत ठीक कह रहे हैं, मगर इससे योजनाओं की क्रियान्विति ठीक से नहीं होने के आरोप से तो कत्तई मुक्त नहीं हो पाएंगे।
बहरहाल, गहलोत को घिरा देख कर राज्यपाल को भी लगा कि उनका सामान्य तौर पर दिए गए बयान ने राजनीतिक रंग ले लिया है तो उन्हें यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि वर्तमान सरकार से मेरी कोई नाराजगी नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि वे सरकार के कामकाज से नाखुश हैं। जो भी मुद्दे अथवा समस्याएं उनके सामने आती हैं, उनके बारे में वे अपने सुझाव सरकार को समय-समय पर भेजती रहती हैं। सरकार उन पर अमल भी करती है।
अपुन ने पहले ही लिख दिया था कि संभव है वसुंधरा के हमले के बाद मारेग्रेट अल्वा को ख्याल आया हो कि चुनावी साल में उन्होंने क्या कह दिया और वह सच निकल गया। राज्यपाल व मुख्यमंत्री, दोनों को सफाई देनी पड़ गई। अपना तो अब भी मानना है कि इन सफाइयों व मर्यादाओं के पाठ से गहलोत इस आरोप से तो मुक्ति नहीं पा सकेंगे कि अफसरशाही हावी है और वे अपने मन के मुताबिक अच्छी योजनाओं को ठीक से अमल करवा पाने में नाकामयाब रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 13, 2013

भाजपा के गले की हड्डी हैं राम जेठमलानी?


भाजपा के निलंबित सांसद वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी पार्टी के लिए गले ही हड्डी बन गए प्रतीत होते हैं, जो न उगलते बनती है, न निगलते बनती है। हाल ही वे न केवल बिना बुलाए ही पार्टी संसदीय दल की बैठक में पहुंच गए, अपितु उन्होंने हंगामा भी किया, जिससे एकबारगी मारपीट की नौबत आ गई। उन्होंने आरोप लगाया कि पार्टी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को सही तरीके से नहीं उठाया। यहां तक कि पार्टी की कांग्रेस से मिलीभगत का गंभीर आरोप भी जड़ दिया। पार्टी अनुशासन को ताक पर रख कर उन्होंने नेतृत्व को चेतावनी भी दे दी कि उनका निलंबन वापस लिया जाए या उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाए। अपने आप को केडर बेस पार्टी बताने वाले राजनीतिक दल में कोई इस हद तक चला जाए और फिर भी उसके खिलाफ कार्यवाही करने पर विचार करना पड़े या संकोच हो रहा हो तो यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि आखिर जेठमलानी में ऐसी क्या खास बात है कि पार्टी हाईकमान की घिग्घी बंधी हुई है?
पार्टी के नेता उनसे कितने घबराए हुए हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि एक तो निलंबन के बाद भी उन्हें बैठक में आने से नहीं रोका गया? इतना ही नहीं उन्हें बोलने का मौका भी दिया गया। यदि इसके लिए पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है और यह कह कर आंखें मूंदी जाती हैं कि उन्हें भी अपना पक्ष रखने का अवसर दिया गया, तो इस सवाल का जवाब क्या है कि पार्टी के वजूद को ही चुनौती देने के बाद भी उनके खिलाफ कार्यवाही करने में संकोच क्यों हो रहा है?
ज्ञातव्य है कि जनवरी में पार्टी के खिलाफ बयानबाजी करने पर उन्हें निलंबित कर दिया था, इस कारण उन्हें संसदीय दल की बैठक में नहीं बुलाया गया था। बावजूद इसके बाद भी वे बैठक में शामिल हो गए।
यह पहला मौका नहीं है कि वे पार्टी नेताओं का मुंह नोंच रहे हैं, इससे पहले भी जब उन्होंने पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस्तीफा देने को कहा और सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति पर पार्टी के रुख की खुली आलोचना की थी, तब भी यही धमकी दी थी कि है किसी में हिम्मत कि उनके खिलाफ कार्यवाही कर सके। गडकरी के पूर्ती उद्योग समूह में निवेश की अनियमितताओं के आरोपों पर जेठमलानी ने सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि पाक साफ साबित होने तक उन्हें अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना चाहिए। वह पार्टी के लिए बड़ा कठिन समय था, जब अरविंद केजरीवाल की ओर से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर सीधे हमले किए जा रहे थे और पूरी भाजपा उनके बचाव में आ खड़ी हुई थी। ऐसे बुरे वक्त में उनका यह कहना कि वे भाजपा अध्यक्ष रहते हुए गडकरी द्वारा लिए गए गलत फैसलों के सबूत पेश करेंगे, तो यह पूरी पार्टी को कितना नागवार गुजरा होगा।
उनकी इस प्रकार की हिमाकत पर उन्हें निलंबित किया गया, मगर बाद में जानकारी मिली कि वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और गडकरी से मुलाकात में उन्होंने भाजपा की विचारधारा में अपनी पक्की आस्था होने की बात कही तो यह संकेत मिले कि उनका निलंबन समाप्त कर दिया जाएगा। भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने भी निलंबन समाप्त करने की उम्मीद जताई थी, मगर मामला लटका रहा। जब पार्टी ने इसे लंबा खींचने की कोशिश की तो उन्होंने एक बार फिर पार्टी को चुनौती दे दी है।
आपको याद होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिनको भारी अंतर्विरोध के बावजूद राज्यसभा चुनाव के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे  न केवल पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं, बल्कि विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वे उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं। तभी इस बात की पुष्टि हो गई थी कि जेठमलानी के हाथ में जरूर भाजपा के बड़े नेताओं की कमजोर नस है। भाजपा के कुछ नेता उनके हाथ की कठपुतली हैं। उनके पास पार्टी का कोई ऐसा राज है, जिसे यदि उन्होंने उजागर कर दिया तो भारी उथल-पुथल हो सकती है। स्पष्ट है कि वे भाजपा नेताओं को ब्लैकमेल कर पार्टी में बने हुए हैं।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
कुल मिला का यह स्पष्ट है कि अपने आप को बड़ी आदर्शवादी, साफ-सुथरी और अनुशासन में सिरमौर मानने वाली भाजपा को जेठमलानी ब्लैकमेल कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 06, 2013

सरबजीत को शहीद का दर्जा देने पर उठ रहे सवाल?


पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में अन्य कैदियों के हमले में मारे गए भारतीय कैदी सरबजीत, जो कि आज पूरे भारत की संवेदना के केन्द्र हो गए हैं, को पंजाब की सरकार की ओर से शहीद दर्जा दे कर पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किए जाने पर सवाल उठ रहे हैं। उन्हें जिस तरह से निर्ममता पूर्वक मारा गया, उससे हर भारतीय में मन में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा उफन रहा है, मगर सरबजीत की बहन दरबीर कौर की मांग तो तुरंत स्वीकार कर जिस प्रकार पंजाब की विधानसभा ने शहीद का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित किया, उसमें कई लोगों को राजनीति की बू आती है।
हालांकि इस वक्त पूरे देश में जिस तरह का माहौल है, उसमें किसी भी राजनीतिक दल में इस बात का साहस नहीं कि वह इस मुद्दे की बारिकी में जा कर सवाल खड़े करे, न ही प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की हिम्मत है कि वह इस पर चूं भी बोल जाए, मगर सोशल मीडिया में कहीं-कहीं से ये आवाज आने लगी है कि सरबजीत को शहीद का दर्जा किस आधार पर दिया गया? क्या इसे सरबजीत के परिवार के प्रति उपजी संवेदना को तुष्ट मात्र करने और इसके जरिए वोट पक्के करने के लिए की राजनीतिक कवायद करार नहीं दिया जाना चाहिए?
मौजूदा माहौल में, जबकि पूरे देश में सरबजीत के प्रति अपार श्रद्धा उमड़ रही है, ऐसा सवाल करना अनुचित प्रतीत होता है और कदाचित कुछ लोगों की भावनाओं को आहत भी कर सकता है, मगर उनकी इस बात में दम तो है। सवाल उठता है कि आखिर किसी को शहीद का दर्जा दिए जाने के कोई मापदंड नहीं हैं? क्या गलती से पाकिस्तान चले जाने पर जासूसी करने के आरोप पकड़े गए व्यक्ति की हत्या और सीमा पर दुश्मन से लड़ते हुए अथवा देश में आतंकियों से जूझते हुए मरे सैनिक या सिपाही की मौत में कोई फर्क नहीं है? बेशक उसे एक हिंदुस्तानी होने की वजह से ही पाकिस्तान की कुत्सित हरकत का शिकार होना पड़ा,  जिसकी ओर सरबजीत की बहन ने भी इशारा किया है, और इसी आधार पर उसे शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग कर डाली, मगर सवाल ये है कि क्या वह देश के लिए मारा गया? भारत देश का होने की वजह से मारे जाने और भारत की अस्मिता के लिए प्राण उत्सर्ग करने वाले में क्या कोई फर्क नहीं होना चाहिए? यदि इस प्रकार हम पाकिस्तान में मारे जाने वाले भारतीयों को शहीद का दर्जा देने लगे तो क्या हम उन सभी भारतीयों को भी शहीद का दर्जा देंगे, जो पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं और उनकी निर्मम हरकतों से मौत का शिकार होंगे? क्या उन्हें भी हम इसी प्रकार विशेष आर्थिक पैकेज देने को तैयार हैं?
मामला कुल जमा ये लगता है कि चूंकि सरबजीत की बहन दलबीर कौर अपने भाई की रिहाई को मुद्दा बनाने में कामयाब हो गई, इस कारण सरबजती की हत्या की गई तो सरबजीत हीरो बन गए। करोड़ों लोगों की भावनाएं उनसे जुड़ गईं। सरकार की नाकामी स्थापित हो गई, कारण वह विपक्ष के निशाने पर आ गई। वरना अन्य सैकड़ों निर्दोष भारतीय भी पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं, मगर चूंकि उनके परिवार में दलबीर कौर जैसी तेज-तर्रार महिला नहीं है, उनके पास मुद्दा बनाने को पैसा नहीं है या मुद्दा बना कर समाज से चंदा लेने की चतुराई नहीं है, इस कारण वे गुमनामी की जिंदगी जीते हुए रिहाई या मौत का इंतजार कर रहे हैं। यानि को ऐसे मसले को मुद्दा बनाने में कामयाब हो जाए, उसके आगे राजनीतिज्ञ स्वार्थ की खातिर नतमस्तक हो जाएंगे, बाकी के परिवार वालों के आंसू पौंछने वाला कोई पैदा नहीं होगा। दलबीर कौर मुद्दा बनाने में कितनी माहिर निकलीं, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि सरबजीत के गांव भिक्खीविंड में हिंदी बोलने व समझने वाले लोग इतने ही होंगे कि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, फिर भी यहां के बच्चों के हाथों में हिंदी में लिखे बैनर थमा कर हिंदी में नारे लगवाते कई चैनलों पर दिखाए गए।
इस मुद्दे का एक पहलु ये भी है कि कदाचित सरबजीत वाकई भारत के लिए जासूसी करने को पाकिस्तान गए थे, तो फिर इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। यदि ऐसा स्पष्ट रूप से न कह पाना सरकार की अंतरराष्ट्रीय मजबूरी है तो भी क्या सरबजीत की रिहाई के लिए वैसे ही प्रयास नहीं किए जाने चाहिए थे, जैसे कि मुफ्ती मोहम्मद सईद की साहिबजादी की रिहाई के लिए किए गए थे?
इस सिलसिले में नवभारत टाइम्स के ब्लॉगर सैक्शन में रजनीश कुमार ने लिखा है कि सरबजीत के परिवार वालों के अनुसार सरबजीत शराब के नशे में सरहद पार हो गया था, तो पाकिस्तान का कहना है कि उसका कराची विस्फोट में हाथ है और इसमें वहां की अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी। परिवार की बात भी हम मानकर चलें तो शराब पीकर सरहद पार करने वाला शहीद कैसे हो सकता है? क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिन सबूतों के आधार पर पाकिस्तान सरबजीत को आतंकवादी कह रहा था उसकी छानबीन भारत सरकार को करनी चाहिए थी? चुनावी राजनीति में सत्ता पाने के लिए शहीद का तमगा ऐसे बांटना उन शहीदों का अपमान है, जो सच में देश के लिए मर मिटे।
उन्होंने पंजाब सरकार की नजर में शहीद की परिभाषा पर सवाल उठाते हुए कहा है कि पंजाब की अकाली सरकार के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे भी शहीद हैं। अकाली का समर्थन हासिल गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के कैलेंडर में ऐसे कई लोग शामिल हैं जिन्हें शहीद का दर्जा दिया गया है। सिखों की सबसे बड़ी रिप्रेजेंटेटिव बॉडी शिरोमणि गरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के नानकशाही कैलेंडर में कुछ तारीखों को ऐतिहासिक दर्जा दिया गया है। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारे सतवंत सिंह और बेअंत सिंह की डेथ ऐनिवर्सरी भी शामिल है। यकीन मानिए आज के वक्त में वे सारे मरने वाले शहीद हैं, जिनसे यहां की सियासी पार्टियों को सत्ता पाने में मदद मिलती है, जैसे तमिलनाडु की सियासी पार्टियों के लिए प्रभाकरण कभी आंतकी नहीं रहा।
इस बारे में फेसबुक पर एक सज्जन विनय शर्मा ने लिखा है कि इसमें कोई शक नहीं कि सरबजीत भारतीय नागरिक था और वह पाकिस्तान में साजिशन मारा गया, मगर क्या यह जानना हमारा हक नहीं कि ऐसा उसने क्या किया था कि उसे शहीद का दर्जा दिया गया?
हालांकि इस सवाल का जवाब कोई नहीं देगा, मगर इस वजह से यह सवाल सदैव कायम रहेगा, चुप्पी से सवाल समाप्त नहीं जाएगा।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, मई 04, 2013

सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गई?


देश के रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के भानजे विजय सिंगला को सीबीआई द्वारा रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किए जाने के साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गई? जिस सीबीआई को विपक्ष कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन की उपमा देती रही है, उसने रेल मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे के मंत्री के भानजे कैसे हाथ डाल दिया, जबकि इससे पहले से आरोपों से घिरी सरकार पर और दबाव बनता? हालांकि भाजपा ने परंपरा का निर्वाह करते हुए बंसल के इस्तीफे की मांग की है और कांग्रेस ने भी पुराने रवैये को ही दोहराते हुए इस्तीफा लेने से इंकार कर दिया, मगर इससे अनेक सवाल मुंह बाये खड़े हो गए हैं।
इस वाकये एक पक्ष तो ये है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से चारों ओर से घिरी कांग्रेसी नीत सरकार ने संभव है यह जताने की कोशिश की हो कि विपक्ष का यह आरोप पूरी तरह से निराधार है कि सीबीआई उसके इशारे पर काम करती है। वह स्वतंत्र और निष्पक्ष है। कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने तो बाकायदा यही कहा कि देखिए सीबीआई कितनी स्वतंत्र है कि उसने मंत्री के रिश्तेदार को भी दोषी मान कर गिरफ्तार कर लिया। गिनाने को उनका तर्क जरूर दमदार है, लेकिन इस पर यकायक यकीन होता नहीं है। कांग्रेस की ओर से रेलमंत्री का यह कह कर बचाव करने से सवालिया उठता है कि सीबीआई की जांच में अभी तक रेलमंत्री की संलिप्तता पुष्टि नहीं हुई है। खुद रेल मंत्री भी मामले की जांच करने को कह रहे हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी। अपने भानजे की गिरफ्तारी के बाद रेलमंत्री पवन बंसल ने भी कहा कि उनका उनके भानजे के साथ कोई कारोबारी रिश्ता नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि चंडीगढ़ में उनकी बहन के फर्म में छापा मारा गया है, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। कुछ सूत्र ये भी कहते हैं कि बंसल पर आज तक कोई दाग नहीं है। उनकी छवि साफ-सुथरी है। यही इसे सही मानें और यदि बंसल की बात को भी ठीक मानें तो सवाल ये उठता है कि आखिर रेलवे बोर्ड के सदस्य (स्टाफ) नियुक्त हुए महेश कुमार ने किस बिना पर रिश्वत दी? क्या रिश्वत के पेटे उनकी नए पद नियुक्ति में बंसल कोई हाथ नहीं है? जब रिश्वत ले कर ही नियुक्ति हुई तो आखिर नियुक्ति किस प्रकार हुई? रिश्वत की राशि का हिस्सा किसके पास पहुंचा? भले ही बंसल ये कहें कि उनका भानजे से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उसने उन्हीं के नाम पर तो यह गोरखधंधा अंजाम दिया। ऐसे में क्या बंसल की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वे भूतपूर्व रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की तरह ईमानदारी का परिचय नहीं दे सकते थे, जिन्होंने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए पद छोड़ दिया था? बताया जाता है कि कांग्रेस के मैनेजरों की राय यह रही कि इस प्रकार इस्तीफा देने यह संदेश जाता है कि वाकई मंत्री दोषी थे, इस कारण इस्तीफा न दिलवाने का विचार बनाया गया।
इस वाकये का दूसरा पक्ष ये भी है कि क्या कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद सीबीआई चीफ वाकई में निडर हो गए हैं और राजनीतिक आकाओं से आदेश नहीं ले रहे? या फिर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिखाने के लिए ऐसा करवाया ताकि वह उसके इस दबाव से मुक्त हो सके कि वे सीबीआई का दुरुपयोग करती है?
कुछ सूत्र बताते हैं कि अंदर की कहानी कुछ और है। इस वाकये से ये जताने की कोशिश की जा रही है कि सीबाईआई निष्पक्ष है, मगर यह कांगे्रस के आंतरिक झगड़े का परिणाम है। बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के विश्वसनीय कानून मंत्री अश्वनी कुमार के साथ बंसल की नाइत्तफाकी का ही नतीजा है कि उन्हें हल्का सा झटका दिया गया है। बताते हैं कि कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद जब भाजपा ने अश्वनी कुमार पर इस्तीफे का दबाव बनाया तो कांग्रेस का एक गुट भी हमलावर हो गया और उसमें बंसल अग्रणी थे। इसी कारण बंसल को सीमा में रहने का इशारा देने के लिए इस प्रकार की कार्यवाही की गई। यदि यह सच है तो इसका मतलब भी यही है कि सीबीआई सरकार के इशारे पर ही काम करती है। सहयोगी दलों बसपा व सपा पर शिकंजा कसने के लिए, चाहे अपने मंत्रियों को हद में रखने के लिए, उसका उपयोग किया ही जाता है।
इस प्रकरण का एक दिलचस्प पहलु ये भी है कि बंसल के इस्तीफे पर एनडीए के दो प्रमुख घटक दल भाजपा और जनता दल यूनाइटेड में ही मतभेद हो गया है। भाजपा जहां बंसल का इस्तीफा मांग रही है तो जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि रेलमंत्री के इस्तीफे की कोई आवश्यकता नहीं है। भांजे ने रिश्वत ली तो बंसल की क्या गलती है? है न चौंकाने वाला बयान? खैर, राजनीति में न जाने क्या-क्या होता है, क्यों-क्यों होता है, पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, मई 02, 2013

सरबजीत की बहन एक ही रात में कैसे बदल गई?


पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में साथी कैदियों के हमले के बाद अस्पताल में दम तोड़ चुके भारतीय नागरिक सरबजीत के लिए एक ओर जहां पूरा देश संवेदना से भर गया है, लोगों में पाकिस्तान की घिनौनी हरकत व भारत सरकार की नाकामी पर गुस्सा है और कहीं न कहीं इसे भारत सरकार की लापरवाही अथवा कूटनीतिक पराजय मान रहा है, वहीं सरबजीत की बहन दलबीर कौर के एक ही रात में बदले सुर से सब भौंचक्क हैं।
पाकिस्तान से लौटने पर वाघा बॉर्डर पर शेरनी की तरह दहाड़ते हुए दलबीर कौर ने कहा था कि भारत सरकार के लिए शर्म की बात है कि वह अपने एक नागरिक को नहीं बचा सकी। भारत ने पाकिस्तान के कई कैदी छोड़े लेकिन अपने सरबजीत को नहीं बचा सके। उन्होंने आरोप लगाया था कि भारत सरकार ने उनके परिवार को धोखा दिया है। उन्होंने यह धमकी भी दी थी कि अगर सरबजीत को कुछ हुआ तो वह देश में ऐसे हालात पैदा कर देंगी कि मनमोहन सिंह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। एक ओर जहां उनके इस बयान को उनके अपने भाई के प्रति अगाघ प्रेम की वजह से भावावेश में आ जाना माना जा रहा था, वहीं कुछ को लग रहा था कि वे किसी के इशारे पर मनमोहन सिंह को सीधी चुनौती दे रही हैं। कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जिनको उम्मीद रही हो कि दलबीर कौर को सरकार के खिलाफ काम में लिया जाएगा। जो कुछ भी हो, लेकिन उनका गुस्सा जायज था। मगर जैसे ही सरबजीत की मौत की खबर आई, राहुल गांधी ने सरबजीत के परिवार से मुलाकाम की, दलजीत कौर का सुर बदल गया है।
उन्होंने कहा कि उनका भाई देश के लिए शहीद हुआ है। देश के सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और सभी राजनीतिक दलों को एक हो जाना चाहिए। उन्होंने सब से मिलकर पाकिस्तान पर हमला करने की जरूरत बताई। दलबीर ने कहा कि पहले मुशर्रफ ने वाजपेयी की पीठ पर छुरा मारा, अब जरदारी ने मनमोहन की पीठ पर छुरा मारा है। यह मौका है जब देशवासियों को सब कुछ भूल कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथ मजबूत करने चाहिए और गृह मंत्री शिंदे का साथ देना चाहिए।
स्वाभाविक सी बात है कि उनके इस बदले हुए रवैये पर आश्चर्य होता है। आखिर ऐसी क्या वजह रही कि एक दिन पहले सरकार से सीधी टक्कर लेने की चेतावनी देने वाली सरबजीत की बहन पलट गई। संदेह होता है कि वे अब किसी दबाव में बोल रही हैं। जाहिर तौर पर यह सरकार का ही दबाव होगा, जिसके तहत सरबजीत के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी और कुछ आर्थिक मदद करने की पेशकश की गई होगी। दलबीर कौर के इस रवैये की सोशल मीडिया पर आलोचना हो रही है। बानगी के बतौर कोलाकाता के एक व्यक्ति किरण प्रांतिक की ट्वीट देखिए:-
सरबजीत की बहन दलबीर को मनमोहन-शिंदे सरकार ने खरीद लिया. अब वे इस नपुंसक सरकार के हाथ मजबूत करने के लिए भाषण दे रहीं!! सरबजीत की हत्या पे आज पूरा देश दुखी और क्रोधित है. गुस्सा फूटा पड़ रहा...बेहद अफसोस कि उनका परिवार ही आज इस नपुंसक सरकार से घूस खा गया!! ऐसे घूसखोर परिवार में सरबजीत का जन्म! जो घूस खाकर उस नपुंसक सरकार को बचाने लग गया, जिसने सरबजीत को बचाने के लिए कभी कड़े कदम उठाये ही नहीं!
बहरहाल, इन महाशय की प्रतिक्रिया चुभने वाली जरूर है, मगर यह भी सच है कि सरकारें इसी प्रकार लालच दे कर गुस्साए लोगों के मुंह बंद करती हैं और सरबजीत की बहन भी उसके परिवार के भविष्य के लिए झुक गई, क्योंकि अब सरबजीत तो कभी लौट कर नहीं आने वाला।
-तेजवानी गिरधर