-तेजवानी गिरधर-
देश के इतिहास में पहली बार जिस प्रकार भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को ब्रांड बना कर सत्ता पर कब्जा किया है, उस सफल प्रयोग ने भाजपा की मानसिकता बना दी है कि भले ही कॉमन सिविल कोड, राम मंदिर, कश्मीर में धारा 370 सहित कट्टर हिंदुत्व के अन्य एजेंडे समानांतर रूप से कायम रखे जाएं, मगर यदि इस देश की जनता व्यक्तिवाद में विश्वास रखती है तो बेहतर ये है कि मोदी ब्रांड को ही आगे रखा जाए। भाजपा को समझ में आ चुका है कि वह जिन मुद्दों को लेकर वर्षों से चल रही है, वे प्रभावी तो हैं, मगर ऐसे वैचारिक आंदोलन सत्ता हासिल करने के लिए नाकाफी हैं। सालों के मंथन व उतार-चढ़ाव देखने के बाद अलादीन के चिराग से निकले मोदी ब्रांड को वह तब तक भुनाना चाहती है, जब तक कि वे मंद पड़ता न दिखाई दे। ऐसे ही इरादों को मन में रख कर भुवनेश्वर में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहा कि अभी पार्टी अपने चरम पर नहीं पहुंची है और स्वर्णिम काल तब आएगा जब पूरे देश में पंचायत से लेकर हर प्रांत एवं संसद तक उसका शासन होगा।
ये इरादे यही इंगित करते हैं कि भाजपा उन राज्यों में भी अपनी दमदार उपस्थिति चाहती है, जहां वह सत्ता से दूर है। ओडिशा में राष्ट्रीय कार्यकारिणी का आयोजन भी इसी बात को रेखांकित करता है।
असल में हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा को जिस फार्मूले से सफलता मिली, उसके बाद उसने तय कर लिया है कि एक तो मोदी ब्रांड को ज्यादा से ज्यादा चमकाया जाए और दूसरा ये कि अगर जीत के लिए घोर विरोधी कांग्रेस के नेता भी पार्टी में शामिल करने पड़ें तो उससे परहेज न किया जाए। लब्बोलुआब, मोदी के अश्वमेघ यज्ञ में उसे कोई बाधा मंजूर नहीं। न पार्टी के भीतर की और न ही बाहर की। यहां तक कि उसे पार्टी के क्षेत्रीय क्षत्रप भी मंजूर नहीं। उन्हें भी ताश के पत्तों की तरह फैंट रही है। गोवा के क्षत्रप मनोहर पर्रिकर को केन्द्र में बुला कर रक्षा मंत्री बनाना और जरूरत पडऩे पर वापस गोवा का मुख्यमंत्री बनाना इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। बात राजस्थान की करें तो श्रीमती वसुंधरा राजे भी तो क्षेत्रीय क्षत्रप हैं। प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता का संचालन करने वाली पार्टी की चमकदार चेहरे वाली वसुंधरा राजे तक को यहां से हटा कर केन्द्र में ले जाने की चर्चाएं सामने आ रही हैं। मोदी के नाम पर जीत की शिद्दत कितनी मजबूत है, उसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि एंटी इंकंबेंसी के चलते जरा सी चूक से कहीं सत्ता हाथ से न निकल जाए, वह राजस्थान में अगला विधानसभा चुनाव मोदी के नाम पर ही लडऩे का मानस बना चुकी है।
इतना ही नहीं, अगर देश की राजधानी से इस प्रकार की खबरें आती हैं कि उसने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट तक को भाजपा में शामिल होने पर केन्द्रीय मंत्री पद ऑफर किया है तो समझा जा सकता है कि सत्ता के लिए उसे घोर विरोधियों को भी अपने भीतर समा लेने से कोई गुरेज नहीं। सत्ता के विस्तार के लिए अश्वमेघ यज्ञ इसी का तो नाम है। ऐसा प्रयोग उसने उत्तर प्रदेश में भी किया था। वहां की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा को उनके कांग्रेस में तनिक असंतुष्ट दिखाई देते ही तुरंत हाथ मारा। कदाचित रीता बहुगुणा को भी हालात के मद्देनजर कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जाना ज्यादा फायदे का सौदा लगा। कुछ इसी प्रकार सचिन को वह यह डर दिखा कर कि कहीं उनकी सारी मेहनत के बाद भी अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, तो क्या करेंगे, बेहतर ये है कि भाजपा में चले आने का निमंत्रण दे रही है। जानकारी के अनुसार इसी कड़ी में महाराष्ट्र में मिलिंद देवड़ा व नारायण राणे पर डोरे डाले जा रहे हैं।
बात अगर विपक्ष की करें तो वह मोदी की बढ़ती लोकप्रियता से चिंतित है। एक के बाद एक प्रमुख विपक्षी नेता भाजपा के खिलाफ एकजुट होने को वक्त की जरूरत बता रहे हैं। स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश में भी बिहार की तरह गठबंधन बनने के आसार बढ़ गए हैं। पहले मायावती ने ऐसे किसी गठबंधन की संभावना को रेखांकित किया और फिर अखिलेश यादव ने भी। वैसे इस प्रकार की एकजुटता देश के लोकतंत्र के लिए बेहतर है। क्षेत्रीय दलों की भीड़ के कारण केन्द्र व राज्यों में ब्लैकमेलिंग के अनेक उदाहरण सामने हैं। हालात अगर देश को द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था की ओर ले जाते हुए दिख रहे हैं, तो यह राजनीति के हित में है। राजनीतिक दलों की भारी भीड़ का कोई औचित्य नहीं। इसमें हर्ज नहीं कि समान विचारधारा वाले दल गोलबंद हो जाएं, लेकिन यह गोलबंदी विचारों के आधार पर होनी चाहिए।
देश के इतिहास में पहली बार जिस प्रकार भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को ब्रांड बना कर सत्ता पर कब्जा किया है, उस सफल प्रयोग ने भाजपा की मानसिकता बना दी है कि भले ही कॉमन सिविल कोड, राम मंदिर, कश्मीर में धारा 370 सहित कट्टर हिंदुत्व के अन्य एजेंडे समानांतर रूप से कायम रखे जाएं, मगर यदि इस देश की जनता व्यक्तिवाद में विश्वास रखती है तो बेहतर ये है कि मोदी ब्रांड को ही आगे रखा जाए। भाजपा को समझ में आ चुका है कि वह जिन मुद्दों को लेकर वर्षों से चल रही है, वे प्रभावी तो हैं, मगर ऐसे वैचारिक आंदोलन सत्ता हासिल करने के लिए नाकाफी हैं। सालों के मंथन व उतार-चढ़ाव देखने के बाद अलादीन के चिराग से निकले मोदी ब्रांड को वह तब तक भुनाना चाहती है, जब तक कि वे मंद पड़ता न दिखाई दे। ऐसे ही इरादों को मन में रख कर भुवनेश्वर में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहा कि अभी पार्टी अपने चरम पर नहीं पहुंची है और स्वर्णिम काल तब आएगा जब पूरे देश में पंचायत से लेकर हर प्रांत एवं संसद तक उसका शासन होगा।
तेजवानी गिरधर |
असल में हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा को जिस फार्मूले से सफलता मिली, उसके बाद उसने तय कर लिया है कि एक तो मोदी ब्रांड को ज्यादा से ज्यादा चमकाया जाए और दूसरा ये कि अगर जीत के लिए घोर विरोधी कांग्रेस के नेता भी पार्टी में शामिल करने पड़ें तो उससे परहेज न किया जाए। लब्बोलुआब, मोदी के अश्वमेघ यज्ञ में उसे कोई बाधा मंजूर नहीं। न पार्टी के भीतर की और न ही बाहर की। यहां तक कि उसे पार्टी के क्षेत्रीय क्षत्रप भी मंजूर नहीं। उन्हें भी ताश के पत्तों की तरह फैंट रही है। गोवा के क्षत्रप मनोहर पर्रिकर को केन्द्र में बुला कर रक्षा मंत्री बनाना और जरूरत पडऩे पर वापस गोवा का मुख्यमंत्री बनाना इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। बात राजस्थान की करें तो श्रीमती वसुंधरा राजे भी तो क्षेत्रीय क्षत्रप हैं। प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता का संचालन करने वाली पार्टी की चमकदार चेहरे वाली वसुंधरा राजे तक को यहां से हटा कर केन्द्र में ले जाने की चर्चाएं सामने आ रही हैं। मोदी के नाम पर जीत की शिद्दत कितनी मजबूत है, उसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि एंटी इंकंबेंसी के चलते जरा सी चूक से कहीं सत्ता हाथ से न निकल जाए, वह राजस्थान में अगला विधानसभा चुनाव मोदी के नाम पर ही लडऩे का मानस बना चुकी है।
इतना ही नहीं, अगर देश की राजधानी से इस प्रकार की खबरें आती हैं कि उसने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट तक को भाजपा में शामिल होने पर केन्द्रीय मंत्री पद ऑफर किया है तो समझा जा सकता है कि सत्ता के लिए उसे घोर विरोधियों को भी अपने भीतर समा लेने से कोई गुरेज नहीं। सत्ता के विस्तार के लिए अश्वमेघ यज्ञ इसी का तो नाम है। ऐसा प्रयोग उसने उत्तर प्रदेश में भी किया था। वहां की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा को उनके कांग्रेस में तनिक असंतुष्ट दिखाई देते ही तुरंत हाथ मारा। कदाचित रीता बहुगुणा को भी हालात के मद्देनजर कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जाना ज्यादा फायदे का सौदा लगा। कुछ इसी प्रकार सचिन को वह यह डर दिखा कर कि कहीं उनकी सारी मेहनत के बाद भी अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, तो क्या करेंगे, बेहतर ये है कि भाजपा में चले आने का निमंत्रण दे रही है। जानकारी के अनुसार इसी कड़ी में महाराष्ट्र में मिलिंद देवड़ा व नारायण राणे पर डोरे डाले जा रहे हैं।
बात अगर विपक्ष की करें तो वह मोदी की बढ़ती लोकप्रियता से चिंतित है। एक के बाद एक प्रमुख विपक्षी नेता भाजपा के खिलाफ एकजुट होने को वक्त की जरूरत बता रहे हैं। स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश में भी बिहार की तरह गठबंधन बनने के आसार बढ़ गए हैं। पहले मायावती ने ऐसे किसी गठबंधन की संभावना को रेखांकित किया और फिर अखिलेश यादव ने भी। वैसे इस प्रकार की एकजुटता देश के लोकतंत्र के लिए बेहतर है। क्षेत्रीय दलों की भीड़ के कारण केन्द्र व राज्यों में ब्लैकमेलिंग के अनेक उदाहरण सामने हैं। हालात अगर देश को द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था की ओर ले जाते हुए दिख रहे हैं, तो यह राजनीति के हित में है। राजनीतिक दलों की भारी भीड़ का कोई औचित्य नहीं। इसमें हर्ज नहीं कि समान विचारधारा वाले दल गोलबंद हो जाएं, लेकिन यह गोलबंदी विचारों के आधार पर होनी चाहिए।