तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, अप्रैल 30, 2012

किरण मोहेश्वरी जीतीं, मगर कटारिया भी नहीं हारे

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय महामंत्री व राजसमंद की विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी के आंसुओं के आगे आखिर भाजपा का नेतृत्व पिघल गया। पार्टी वरिष्ठ नेता एवं पूर्व गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया की प्रस्तावित लोक जागरण अभियान यात्रा को स्थगित कर दिया गया है। साफ तौर पर इस मामले में किरण माहेश्वरी की जीत हो गई है, मगर इसे कटारिया की हार भी करार नहीं दिया जा सकता, क्योंकि अब फर्क सिर्फ इतना है कि ऐसी यात्राओं को पार्टी मंच पर तय किया जाएगा। जो कुछ भी हो, मगर इस विवाद के कारण पार्टी में बढ़े मनमुटाव को ठीक से दुरुस्त नहीं किया गया तो यह आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को भारी पड़ सकता है। ज्ञातव्य है कि कुछ इसी प्रकार मनमुटाव पिछली बार भी वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री बनने में बाधक हो गया था।
असल में सारा झगड़ा संघ लोबी और वसुंधरा खेमे का है। हालांकि पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी व पूर्व प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी साफ घोषणा कर चुके हैं कि अगला विधानसभा चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा, मगर संघ लोबी को यह मंजूर नहीं है। यही वजह रही कि पहले संघ लाबी से जुड़े पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया ने यह कह कर कि पार्टी ने अब तक तय नहीं किया है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, विवाद को उजागर किया तो एक और दिग्गज पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी ने भी उस पर मुहर लगाते हुए कह दिया कि आडवाणी ने राजस्थान दौरे के दौरान ऐसा कहा ही नहीं कि अगला चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। उन्होंने भी यही कहा कि चुनाव में विजयी भाजपा विधायक ही तय करेंगे कि मुख्यमंत्री कौन होगा।
पूर्व गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया की ओर से पार्टी से अनुमति लिए बिना ही 2 मई से जन जागरण यात्रा निकालने का ऐलान इसी विवाद की एक कड़ी है। यात्रा की घोषणा के बाद से ही पार्टी में संघनिष्ठ और गैर संघ भाजपा नेताओं के बीच तनाव की स्थिति बन गई। खासकर मेवाड़ में पार्टी दो खेमों में बंटी नजर आई। जाहिर सी बात है कि निजी स्तर पर निर्णय लेकर पार्टी के प्रचार का यह कदम अनुशासन के विपरीत पड़ता है, मगर चूंकि कटारिया को संघ लाबी का समर्थन हासिल है, इस कारण पार्टी हाईकमान के सामने बड़ी दिक्कत हो गई। दिक्कत तब और बढ़ गई जब कटारिया की यात्रा के सिलसिले में राजसंमद जिला भाजपा की बैठक में जम कर हंगामा हुआ। कटारिया की धुर विरोधी राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी और भीम विधायक हरिसिंह ने कड़ा विरोध किया और यात्रा को काले झंडे दिखाने तक की धमकी दी गई। हालात धक्का मुक्की तक आ गए तो किरण फूट-फूट कर रो पड़ी। किसी बात के विरोध तक तो ठीक है, मगर एक राष्ट्रीय महासचिव का इस प्रकार रोना कोई कम बात नहीं है। सीधी सी बात है कि जिस इलाके की वे विधायक हैं, वहीं की स्थानीय इकाई यदि उनके विरोधी कटारिया का साथ देती है, तो इससे शर्मनाक बात कोई हो ही नहीं सकती। मौके पर खींचतान कितनी थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश भाजपा महासचिव सतीश पूनिया तक मूकदर्शक से किंकर्तव्यविमूढ़ बने रहे गए। संघ लाबी के ही प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी का रुख भी कटारिया की ओर झुकाव लिए रहा और उन्होंने कहा कि कुछ अंतर्विरोध हो सकते हैं, लेकिन गुलाब चंद कटारिया संगठन की धुरी हैं। ऐसे में किरण जान गईं कि अब तो दिल्ली दरबार का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा। उन्होंने जा कर पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को शिकायत कर दी। कदाचित वहां भी उन्होंने रो कर अपना पक्ष रखा हो। यहां कहने की जरूरत नहीं है कि मेवाड़ अंचल में भले ही वे कटारिया की चुनौती से परेशान हैं, मगर दिल्ली में तो उनकी खासी चलती है। पार्टी अनुशासन के लिहाज से भी किरण की शिकायत वाजिब थी, इस कारण गडकरी को मजबूरी में कटारिया को दिल्ली तलब करना पड़ा। संघ कटारिया का पूरा साथ दे रहा था। गडकरी तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए। हालांकि उन्होंने अन्य नेताओं की सलाह पर पार्टी हित में कटारिया की यात्रा को स्थगित करने का निर्णय किया, मगर संघ के दबाव की वजह से यात्रा को पूरी तरह से निरस्त करने का निर्णय वे भी नहीं कर पाए। यात्रा की रूपरेखा पार्टी मंच पर तय करने के लिए उसे जयपुर के कोर ग्रुप पर छोडऩा पड़ा।
माना कि किरण माहेश्वरी कटारिया की यात्रा को स्थगित करवाने में कामयाब हो गईं हैं, मगर दूसरी ओर यह बात भी कम नहीं है कि कटारिया भी अपनी यात्रा की चर्चा राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने करवाने में सफल रहे हैं। यात्रा का स्वरूप भले ही अब बदल दिया जाए और उसमें सभी धड़ों को भी साथ लेने पर सहमति बने, मगर इससे यह पूरी तरह से साफ हो गया है आगामी विधानसभा चुनाव में संघ वसुंधरा को फ्री हैंड नहीं लेने देगा और ऐसे में वसुंधरा को संघ को साथ लेकर चलना होगा। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कहां तो वसुंधरा अपने दम पर पूरे प्रदेश की यात्रा की योजना बना रही थीं और खुद को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने वाली थीं और कहां अब पार्टी मंच पर तय हो कर यात्राएं निकाली जाएंगी। ऐसा लगता है कि सब कुछ संघ की सोची समझी रणनीति के तहत हुआ है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, अप्रैल 27, 2012

वसु मैम, सवाल पत्रकार नहीं, आपके नेता ही उठा रहे हैं

सवाल भी वाजिब, जवाब भी मौजूं। हाल ही पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के अजमेर दौरे के दौरान एक जागरूक पत्रकार ने यह सवाल करने की हिमाकत कर डाली कि भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ेगी? इस पर श्रीमती राजे जवाब देने के बजाय पलट कर तुनकता सवाल दाग दिया कि आप मेरे से पूछ रहे हैं, मैं बताऊंगी कि किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा? न पत्रकार का सवाल गलत था और न ही वसु मैडम का सवालिया जवाब।
दरअसल वसु मैम का जवाब इसलिए सही है कि जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी व पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी घोषणा कर चुके हैं कि अगली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे होंगी तो यह शंका रहनी ही नहीं चाहिए कि चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इसके बाद भी पत्रकार ने सवाल कर दिया तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह बिलकुल मासूम और अबोध हो। मगर ऐसा है नहीं। खुद भाजपा के नेता ही कह चुके हैं कि पार्टी ने तय नहीं किया है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा।
इस सिलसिले में पहले संघ लॉबी से जुड़े पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया ने वसुंधरा के खिलाफ मुंह खोला तो फिर एक और दिग्गज पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी भी खुल कर आगे आए। कटारिया ने तो सिर्फ यही कहा कि पार्टी ने अब तक तय नहीं किया है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, लेकिन चतुर्वेदी तो एक कदम और आगे निकल गए। उन्होंने यहां तक कह दिया कि आडवाणी ने राजस्थान दौरे के दौरान ऐसा कहा ही नहीं कि अगला चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। उन्होंने भी यही कहा कि चुनाव में विजयी भाजपा विधायक ही तय करेंगे कि मुख्यमंत्री कौन होगा। ऐसे में यदि पत्रकार ने सवाल दाग दिया तो गलत क्या किया? यहां उल्लेखनीय है कि पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अजमेर की सभा में बिलकुल खुले शब्दों में कहा था कि आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी। इसके बाद भी अगर चतुर्वेदी विरोधाभासी बयान देते हैं तो जाहिर है कि वे जानबूझ कर विवाद को जिंदा रखना चाहते हैं। इससे यह भी पूरी तरह से साफ है कि गडकरी व आडवाणी तो वसुंधरा के पक्ष में हैं, मगर राज्य स्तर पर अब भी वसुंधरा के प्रति एक राय नहीं है। विशेष रूप से संघ लॉबी के नेता वसुंधरा को नहीं चाहते, हालांकि उनकी संख्या कम ही है।
पार्टी में नेतृत्व को लेकर आम सहमति न होने का एक और प्रमाण ये है कि गुलाब चंद कटारिया पार्टी से अनुमति लिए बिना ही आगामी 2 मई से मेवाड़ अंचल के 28 विधानसभा क्षेत्रों में लोक जागरण यात्रा निकालने की घोषणा कर चुके हैं। जाहिर सी बात है कि वे आगामी चुनाव में अपने आप को नेता के रूप में पेश करना चाहते हैं। या फिर वसुंधरा के प्रति पूर्ण सहमति न होने को साबित करना चाहते हैं। बताया ये जाता है कि कटारिया को पता लग गया है कि वसुंधरा राजे जल्द ही एक रथ यात्रा निकालने की तैयारी कर रही हैं, इसी को देखते हुए उन्होंने उनसे पहले यात्रा निकालने की घोषणा कर दी। इसको लेकर पार्टी में कितना घमासान है, यह राजसमंद में भाजपा जिला कार्यकारिणी की बैठक में खुल कर सामने आ गया। बैठक में इतनी धक्का-मुक्की हुई कि भाजपा की राष्ट्रीय महासचिव व राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी रो पड़ीं और प्रदेश महासचिव सतीश पूनिया बेबस नजर आए। किरण व भीम विधायक हरिसिंह रावत ने राजसमंद जिलाध्यक्ष पर जम कर निशाना साधा और कटारिया की यात्रा का विरोध कर उसमें शामिल न होने और काले झंडे दिखाने की चेतावनी दी। ज्ञातव्य है कि किरण व कटारिया के बीच छत्तीस का आंकड़ा है। मेवाड़ अंचल में उनके बीच वर्चस्व की लड़ाई पहले से चल रही है। किरण के विरोध का मतलब भी साफ है कि वे वसुंधरा खेमे की ओर वहां मौजूद थीं।
लब्बोलुआब, यह साफ हो गया है आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत की आशा में पार्टी में खींचतान शुरू हो गई है। चुनाव नजदीक आते-आते यह और बढ़ जाने वाली है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

मंगलवार, अप्रैल 24, 2012

टीम अन्ना की बैठक में ऐसी क्या साजिश रची जा रही थी?

मुफ्ती शमून काजमी
अन्ना से उसके कथित फाउंडर मेंबर मुफ्ती शमून काजमी की छुट्टी के साथ एक यक्ष प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि आखिर टीम की बैठक में ऐसा क्या अति गोपनीय हो रहा था, जिसे रिकार्ड करने की वजह से काजमी को बाहर होना पड़ा? मेरे एक सोशल नेटवर्किंग मित्र ऐतेजाद अहमद खान ने यह सवाल हाल ही फेसबुक पर डाला है, हालांकि उसका जवाब किसी ने नहीं दिया है।
हालांकि अभी यह खुलासा नहीं हुआ है कि काजमी ने जो रिकार्डिंग की अथवा गलती से हो गई, उसका मकसद मात्र याददाश्त के लिए रिकार्ड करना था अथवा सोची-समझी साजिश थी। टीम अन्ना बार-बार ये तो कहती रही कि काजमी जासूसी के लिए रिकार्डिंग कर रहे थे, मगर यह स्पष्ट नहीं किया कि पूरा माजरा क्या है? वे यह रिकार्डिंग करने के बाद उसे किसे सौंपने वाले थे? या फिर टीम अन्ना को यह संदेह मात्र था कि उन्होंने जो रिकार्डिंग की, उसका उपयोग वे उसे लीक करने के लिए करेंगे? या फिर टीम अन्ना का यह पक्का नियम है कि उसकी बैठकों की रिकार्डिंग किसी भी सूरत में नहीं होगी? और क्या टीम अन्ना इतनी फासिस्ट है कि छोटी सी गलती की सजा भी तुरंत दी जाती है?
अव्वल तो सूचना के अधिकार की सबसे बड़ी पैरोकार और सरकार को पूरी तरह से पारदर्शी बनाने को आमादा टीम अन्ना उस बैठक में ऐसा क्या कर रही थी, जो कि अति गोपनीय था, कि एक फाउंडर मेंबर की छुट्टी जैसी गंभीर नौबत आ गई। क्या पारदर्शिता का आदर्श उस पर लागू नहीं होता। क्या यह वही टीम नहीं है, जो सरकार से पहले दौर की बातचीत की वीडियो रिकार्डिंग करने के लिए हल्ला मचाए हुई थी और खुद की बैठकों को इतना गोपनीय रखती है? उसकी यह गोपनीयता कितनी गंभीर है कि इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि टीवी चैनल वाले मनीष सिसोदिया और शाजिया इल्मी से रिकार्डिंग दिखाने को कहते रहे, मगर उन्होंने रिकार्डिंग नहीं दिखाई। इसके दो ही मतलब हो सकते हैं। एक तो यह कि रिकार्डिंग में कुछ खास नहीं था, मगर चूंकि काजमी को निकालना था, इस कारण यह बहाना लिया गया। इसकी संभावना अधिक इस कारण हो सकती है क्योंकि इधर रिकार्डिंग की और उधर टीम अन्ना के अन्य सदस्यों ने तुरत-फुरत में उन्हें बाहर निकालने जैसा कड़ा निर्णय भी कर लिया। कहीं ऐसा तो नहीं काजमी की पहले से रेकी की जाती रही या फिर मतभेद पहले से चलते रहे और मौका मिलते ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। काजमी ने बाहर आ कर जिस प्रकार आरोप लगाए हैं, उनसे तो यही लगता है कि विवाद पहले से चल रहा था व रिकार्डिंग वाली तात्कालिक घटना उनको निकाले जाने की बड़ी वजह नहीं। इसी से जुड़ा सवाल ये है कि काजमी ने क्या चंद लम्हों में ही गंभीर आरोप गढ़ लिए? यदि यह मान भी लिया जाए कि उन्होंने सफाई देने के चक्कर में तुरंत आरोप बना लिए, मगर इससे यह तो पुष्ट होता ही है कि उनके आरोपों से मिलता जुलता भीतर कुछ न कुछ होता रहता है। एक सवाल ये भी कि जो भी टीम के खिलाफ बोलता है, वह सबसे ज्यादा हमला अरविंद केजरीवाल पर ही क्यों करता है? क्या वाकई टीम अन्ना की बैठकों में खुद अन्ना तो मूकदर्शक की भांति बैठे रहते हैं और तानाशाही केजरीवाल की चलती है?
जहां तक रिकार्डिंग को जाहिर न करने का सवाल है, दूसरा मतलब ये है कि जरूर अंदर ऐसा कुछ हुआ, जिसे कि सार्वजनिक करना टीम अन्ना के लिए कोई बड़ी मुसीबत पैदा करने वाला था। यदि काजमी सरकार की ओर से जासूसी कर रहे थे तो वे मुख जुबानी भी सूचनाएं लीक कर सकते थे। फाउंडर मेंबर होने के नाते उनके पास कुछ रिकार्ड भी होगा, जिसे कि लीक कर सकते थे। रिकार्डिंग में ऐसा क्या था, जो कि बेहद महत्वपूर्ण था?
इस पूरे प्रकरण में सर्वाधिक रहस्यपूर्ण रही अन्ना की चुप्पी। उन्होंने कुछ भी साफ साफ नहीं कहा। उनके सदस्य ही आगे आ कर बढ़-चढ़ कर बोलते रहे। शाजिया इल्मी तो अपनी फितरत के मुताबिक अपने से वरिष्ठ काजमी से बदतमीजी पर उतारु हो गईं। यदि अन्ना आम तौर पर मौनी बाबा रहते हों तो यह समझ में आता भी, मगर वे तो खुल कर बोलते ही रहते है। कई बार तो क्रीज से बाहर निकल पर चौके-छक्के जड़ देते हैं। कृषि मंत्री शरद पवार को थप्पड़ मारे जाने का ही मामला ले लीजिए। इतना बेहूदा बोले कि गले आ गया। ऊपर से नया गांधीवाद रचते हुए लंबी चौड़ी तकरीर और दे दी। ताजा प्रकरण में उनकी चुप्पी इस बात के भी संकेत देती है कि वे अपनी टीम में चल रही हलचलों से बेहद दुखी हैं। इस कारण काजमी के निकाले जाने पर कुछ बोल नहीं पाए। इस बात की ताकीद काजमी के बयान से भी होती है।
कुल मिला कर टीम अन्ना की जिस बाहरी पाकीजगी के कारण आम जनता ने सिर आंखों पर बैठा लिया, अपनी अंदरुनी नापाक हरकतों की वजह से विवादित होती जा रही है।
आखिर में मेरे मित्र ऐतेजाद का वह शेर, जो उन्होंने अपनी छोटी मगर सारगर्भित टिप्पणी के साथ लिखा है-
जो चुप रहेगी जुबान-ऐ-खंजर
लहू पुकारेगा का आस्तीन का

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, अप्रैल 22, 2012

अन्ना और बाबा की मजबूर एकजुटता कब तक कायम रहेगी?

कैसा अजब संयोग है कि आज जब कि देश में गठबंधन सरकारों का दौर चल रहा है, आंदोलन भी गठबंधन से चलाने की नौबत आ गई है। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे और बाबा रामदेव सरकार से अलग-अलग लड़ कर देख चुके, मगर जब कामयाबी हाथ लगती नजर आई तो दोनों ने गठबंधन कर लिया है। जाहिर तौर पर यह गठबंधन वैसा ही है, जैसा कि सरकार चलाने के लिए कभी एनडीए को तो कभी यूपीए का काम करता है। मजबूरी का गठबंधन। गठबंधन की मजबूरी पूरा देश देख चुका है, जिसके चलते मनमोहन सिंह पर मजबूरतम प्रधानमंत्री होने का ठप्पा लग चुका है। अब दो अलग-अलग आंदोलनों के प्रणेता एक-दूसरे के पूरक बन कर लडऩे को तैयार हुए हैं तो यह स्वाभाविक है कि दोनों को संयुक्त एजेंडे के खातिर अपने-अपने एजेंडे के साथ-साथ कुछ मौलिक बातों के साथ समझौते करने होंगे। यह गठबंधन कितनी दूर चलेगा, पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगे हैं। टीम अन्ना के कुछ सदस्यों को बाबा रामदेव के तौर-तरीके पर ऐतराज है, जो कि उन्होंने जाहिर भी कर दिए हैं।
ऐसा नहीं है कि अन्ना और बाबा के एकजुट होने की बातें पहले नहीं हुई हों, मगर तब पूरी तरह से गैर राजनीतिक कहाने वाली टीम अन्ना को संघ व भाजपा की छाप लगे बाबा रामदेव के आंदोलन से परहेज करना पड़ रहा था। सच तो ये है कि दोनों ही भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किए गए आंदोलन में नंबर वन रहने की होड़ में लगे हुए थे। बाबा को योग बेच कर कमाए हुए धन और अपने भक्तों व राष्ट्रव्यापी संगठन का गुमान था तो अन्ना को महात्मा गांधी के समकक्ष प्रोजेक्ट कर दिए जाने व कुछ प्रखर बुद्धिजीवियों के साथ होने का दंभ था। राष्ट्रीय क्षितिज पर यकायक उभरे दोनों ही दिग्गजों को दुर्भाग्य से राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन करने का कोई पूर्व अनुभव नहीं था। बावजूद इसके वे अकेले दम पर ही जीत हासिल करने के दंभ से भरे हुए थे। जहां तक बाबा का सवाल है, उन्हें लगता था कि उनके शिविरों में आने वाले उनके लाखों भक्त सरकार का तख्ता पलटने की ताकत रखते हैं, जबकि सच्चाई ये थी कि भीतर ही भीतर हिंदूवादी ताकतें अपने मकसद से उनका साथ दे रही थीं। खुद बाबा राजनीतिक आंदोलन के मामले में कोरे थे। यही वजह रही कि सरकार की चालों के आगे टिक नहीं पाए और स्त्री वेष में भागने की नौबत आ गई। उधर अन्ना को हालांकि महाराष्ट्र में कई दिग्गज मंत्रियों को घर बैठाने का अनुभव तो था, मगर राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार हाथ आजमाया। यह अन्ना का सौभाग्य ही रहा कि भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता ने उनको सिर माथे पर बैठाया। एक बारगी तो ऐसा लगा कि इस दूसरे गांधी की आंधी से वाकई दूसरी आजादी के दर्शन होंगे। मीडिया ने भी इतना चढ़ाया कि टीम अन्ना बौराने लगी। जहां तक कांग्रेसनीत सरकार का सवाल है तो, कोई भी सरकार हो, आंदोलन से निपटने में साम, दाम, दंड, भेद अपनाती है, उसने वही किया। सरकार ने अपना लोकपाल लोकसभा में पास करवा कर उसे राज्यसभा में फंसा दिया, उससे अन्ना आंदोलन की गाडी भी गेर में आ गई। इसे भले ही अन्ना को धोखा देना करार दिया जाए, मगर यह तो तय हो गया न कि अन्ना धोखा खा गए। मुंबई में फ्लाप शो के बाद तो टीम अन्ना को समझ में नहीं आ रहा था कि अब किया क्या जाए। हालांकि उसके लिए कुछ हद तक टीम अन्ना का बड़बोलापन भी जिम्मेदार है।
कुल मिला कर बाबा व अन्ना, दोनों को समझ में आ गया कि सरकार बहुत बड़ी चीज होती है और उसे परास्त करना इतना भी आसान नहीं है, जितना कि वे समझ रहे थे। चंद दिन के जन उभार के कारण दोनों भले ही दावा ये कर रहे थे कि वे देश की एक सौ बीस करोड़ जनता के प्रतिनिधि हैं, मगर उन्हें यह भी समझ में आ गया कि धरातल का सच कुछ और है। लब्बोलुआब दोनों यह साफ समझ में आ गया कि कुटिल बुद्धि से सरकार चलाने वालों से मुकाबला करना है तो एक मंच पर आना होगा। एक मंच पर आने की मजबूरी की और वजहें भी हैं। बाबा के पास भक्तों की ताकत व संगठनात्मक ढांचा तो है, मगर अब उनका चेहरा उतना पाक-साफ नहीं रहा, जिसके अकेले बूते पर जंग जीती जाए। उधर टीम अन्ना के पास अन्ना जैसा ब्रह्मास्त्र तो है, मगर संगठन नाम की कोई चीज नहीं। आपने बचपन में एक कहानी सुनी होगी, एक नेत्रहीन व एक विकलांग की। एक देख नहीं सकता था, दूसरा चल नहीं सकता था। दोनों ही अपने-अपने बूते गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुुंच सकते थे, सो दोनों ने दोस्ती कर ली। विकलांग नेत्रहीन के कंधों पर सवार हो गया। फिर जैसा-जैसा विकलांग बताता गया, अंधा चलता गया। वे गन्तव्य तक पहुंच गए। लगभग वैसी ही दोस्ती है अन्ना व बाबा की, मगर वे पहुंचेंगे या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। वजह ये है कि दोनों का मिजाज अलग-अलग है। अन्ना ठहरे भोले-भाले और बाबा चतुर-चालाक। आज भले ही वे साथ-साथ चलने का दावा कर रहे हैं, मगर उनके साथ जो लोग हैं, उनमें भी तालमेल होगा, यह कहना कठिन है। दरअसल पूत के पग पालने में ही दिखाई दे रहे हैं। शुरुआत ही विवाद के साथ हो रही है। टीम अन्ना बाबा के रुख से इस कारण नाराज है क्योंकि वह मानती है कि अन्ना को भरोसे में लिए बिना रामदेव आगे बढ़ रहे हैं। असल में रामदेव और अन्ना हजारे की गुडगांव में हुई मुलाकात के बाद प्रेस कान्फ्रेंस हुई। टीम अन्ना का ऐतराज है कि उसे इसके बारे में पहले से नहीं बताया गया था। अन्ना ने मुद्दों पर बात करने के लिए मुलाकात की, लेकिन बैठक के बाद उन्हें जबरदस्ती मीडिया के सामने लाया गया। हमें इस पर गहरी आपत्ति है। टीम अन्ना के एक सदस्य ने कहा कि रामदेव खुद को ही सबसे महत्वपूर्ण दिखाना चाहते हैं। टीम अन्ना में कुछ लोगों को रामदेव को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में शामिल करने पर भी आपत्ति है। इनका कहना है कि रामदेव पर पतंजलि योग पीठ समेत कई संस्थानों को लेकर कई आरोप लगे हैं। इसलिए ऐसा करना सही नहीं होगा।
केवल बाबा को लेकर ही नहीं, टीम में अन्य कई कारणों से अंदर भी अंतर्विरोध है। इसी के चलते ताजा घटनाक्रम में मुफ्ती शमीम काजमी को जासूसी करने के आरोप में टीम से निकाल दिया गया। काजमी ने टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल पर मुंबई का अनशन नाकाम करने सहित मनमानी करने के आरोप लगाए। बकौल काजमी टीम अन्ना के कुछ सदस्य हिमाचल प्रदेश से चुनाव लडऩा चाहते हैं, जिस कारण टीम में मतभेद है। काजमी ने यह भी कहा कि टीम अन्ना मुसलमानों के साथ भेदभाव करती है। शमीम काजमी ने कहा कि अन्ना हजारे का भी इस टीम के साथ अब दम घुट रहा है और वो भी बहुत जल्द ही इससे अलग हो जाएंगे।
कुल मिला कर एक ओर टीम अन्ना को घाट-घाट के पानी पिये हुओं में तालमेल बैठाना है तो दूसरी ओर बाबा रामदेव के साथ तालमेल बनाए रखना है, जो कि आसान काम नहीं है। एक बड़ी कठिनाई ये है कि बाबा के साथ हिंदूवादी ताकतें हैं, जब कि अन्ना के साथ वामपंथी विचारधारा के लोग ज्यादा हैं। इनके बीच का गठजोड़ कितना चलेगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

मंगलवार, अप्रैल 17, 2012

संघ के मोदी पर हाथ रखने से मचेगा भाजपा में घमासान

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को दिल्ली की ओर कूच करने का इशारा करने से भाजपा में पहले से चल रहे घमासान के बढऩे की आशंका तेज हो गई है। हालांकि प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदारों ने फिलवक्त चुप्पी साध रखी है, मगर समझा जाता है कि वे भी नया गणित बैठाने की जुगत करेंगे। पूर्व में पीएम इन वेटिंग रह चुके लाल कृष्ण आडवाणी के खासमखास पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने तो आडवाणी की खुल कर पैरवी कर दी है। उनका यह कहना कि वरिष्ठतम आडवाणी जी के रहते किसी और की दावेदारी का तो कोई मतलब ही नहीं है, यूं ही उड़ाने लायक नहीं है। जिन्ना के बारे में विवादित पुस्तक लिखने के कारण पूर्व में पार्टी से बाहर किए जा चुके जसवंत की हैसियत भले ही संघ के सामने कुछ नहीं हो, मगर उनका ठीक इसी मौके पर बोलना यह साबित करता है कि पार्टी का एक धड़ा अब भी निपटाए जा चुके आडवाणी में फिर जान फूंकने की कोशिश कर रहा है। समझा जाता है कि संघ की ओर से मोदी को प्रोजेक्ट करने को अन्य दावेदार भी आसानी से पचाने वाले नहीं हैं।
असल में कांग्रेस सरकार की लगभग तय सी विदाई से उत्साहित भाजपा में पहले से ही पीएम वेटिंग को लेकर खींचतान चल रही थी। लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली तो अपनी मौजूदा भूमिका के कारण प्रबल दावेदार माने ही जा रहे थे। उधर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर तीन दिवसीय उपवास किया, जिसे इस रूप में लिया गया कि वे भी दावेदारी कर रहे हैं। रहा सवाल पूर्व में पीएम इन वेटिंग रह चुके आडवाणी का तो उन्होंने भी रथयात्रा के जरिए जता दिया था कि उन्हें खारिज बम न माने जाए। उनके दावे को बल इस कारण भी मिला कि रथ यात्रा के पूरी तरह से निजी फैसले पर भी पार्टी ने मोहर लगा दी थी। हालांकि औपचारिक बयान देते हुए पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि इसका मकसद उन्हें दावेदार के रूप में स्थापित करना नहीं है। गाहे बगाहे पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह का नाम भी उछलता रहता है। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुल कर दावा पेश कर देंगे। कुल मिला कर यह स्पष्ट है कि भाजपा में एकाधिक दावेदार हैं। इस स्थिति को भले ही पार्टी अपनी संपन्नता करार दे कर विवाद को ढंकने का प्रयास करे, लेकिन यही उसके लिए सबसे बड़ी समस्या बना हुआ है
ताजा प्रकरण की विवेचना करें तो मोदी को दावेदार बताने की पहल खुद पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने ही की। हालांकि साथ ही वे यह भी कहते रहे कि सुषमा व जेतली भी प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं। उनकी इस प्रकार की बयानबाजी से पार्टी में भारी असमंजस पैदा हो रहा था। मगर अब जब कि पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्य ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम साफ तौर पर उछाल दिया है। दरअसल पहले टाइम पत्रिका में नरेन्द्र मोदी को विकास पुरुष बताने और अब गुलबर्गा सोसायटी में एसआईटी द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के बाद संघ कुछ ज्यादा ही उत्साहित है। पांचजन्य ने तो साफ तौर पर कहा है कि नरेन्द्र मोदी को प्रदेश के नहीं बल्कि देश के नेतृत्व पर सोचना चाहिए। यूं पिछले दिनों नागपुर में हुई संघ की महाबैठक में भी मोदी का नाम आया था, मगर बात सिरे तक नहीं पहुंची। मगर जैसे ही एसआईटी ने मोदी को बेदाग घोषित कर दिया, संघ के मुखपत्र ने तुरंत मौका लपक लिया। यानि कि संघ पार्टी को कठपुतली की तरह इस्तेमाल करना चाहती है। मगर धरातल के राजनीतिक समीकरणों व मजबूरियों को समझने वाली पार्टी इससे बड़े भारी पशोपेश में पड़ जाएगी कि वह अपना चेहरा पूरी तरह से हिंदूवादी कैसे कर दे? विशेष रूप से प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदार, जो कि यही चाहते रहे कि मोदी पर कट्टर हिंदूवादी लेबल लगा रहे, मगर एसआईटी की ओर से मोदी को क्लीन चिट दिए जाने पर संघ के नए दाव के बाद उनको सांप सूंघ गया है।
पार्टी से अलग हट कर विचार करें तो भी यह लगता है कि मोदी दिल्ली के कुछ और नजदीक पहुंच गए हैं। वजह ये है कि पहले जहां कांग्रेस मोदी को कसाई बता कर उनके खिलाफ अभियान छेड़े हुई थी, अब उसकी बोलती बंद हो गई है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अब मोदी को मौत का सौदागर कहने से पहले दस बार सोचना पड़ेगा।
जहां तक मीडिया का सवाल है, वह भी भाजपा की ओर से मोदी को दावेदार मानने लगा है। टाइम पत्रिका की ओर से आगामी भिडंत राहुल व मोदी के बीच होने की संभावना जताए जाने के बाद हुए एक सर्वे में यह रुझान आया कि प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी को 24 प्रतिशत लोगों ने पसंद किया है और कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को केवल 17 प्रतिशत लोग ही चाहते हैं। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद तो राहुल का ग्राफ और भी गिरा है। ऐसे में मोदी को क्लीन चिट मिलने पर संघ ने तुरंत उनको दौड़ में सबसे आगे ला खड़ा करने की कोशिश की है। उनको राष्ट्रीय स्तर पर मान्य बनाने के लिए गुजरात में हुए विकास को गिना कर उन्हें विकास पुरुष स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। हालांकि धरातल का एक सच ये भी है कि भले ही टाइम पत्रिका उनको अपने मुख पत्र पर छापे और एसआईटी उन्हें क्लीन चिट दे दे, पार्टी का एक धड़ा यह जानता है कि आम जनता में उनकी छवि इतनी सुधर नहीं पाई है, जितनी कि जताई जा रही है। आज भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उस कथन को गिनाया जाता है, जिसमें मोदी के राजधर्म पर चलने को कहा गया था। बहरहाल देखते हैं कि संघ के इस नए पैंतरे के क्या परिणाम निकलते हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012

निर्मल बाबा को मीडिया ने ही चढ़ाया, वही उतार रहा है

समागम के नाम पर दरबार लगा कर अपने भक्तों की समस्याओं का चुटकी में कथित समाधान करने की वजह से लोकप्रिय हो रहे निर्मल बाबा स्वाभाविक रूप से संस्पैंस बढऩे के कारण यकायक इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के निशाने पर आ गए हैं। स्टार न्यूज ने अपने क्राइम के सीरियल सनसनी पर एक विशेष रिपोर्ट प्रसारित कर उनका पूरा पोस्टमार्टम ही कर दिया है। अब तक उनके बारे में कोई विशेष जानकारी किसी समाचार माध्यम पर उपलब्ध नहीं थी, उसे भी कोई एक माह की मशक्कत के बाद उजागर किया है कि आखिर उनकी विकास यात्रा की दास्तान क्या है। इतना ही नहीं उन पर एक साथ दस सवाल दाग दिए हैं। दिलचस्प मगर अफसोसनाक बात ये है कि ये वही स्टार न्यूज चैनल है, जो प्रतिदिन उनका विज्ञापन भी जारी करता रहा है और अब न्यूज चैनलों पर विज्ञापनों के जरिए चमत्कारों को बढ़ावा देने से की प्रवृत्ति से बचने की दुहाई देते हुए बड़ी चतुराई से बाबा के करोड़ों रुपए कमाने पर सवाल खड़े कर रहा है। इतना ही नहीं अपने आप को ईमानदार जताने के लिए विज्ञापन अनुबंध की तय समय सीमा समाप्त होने के बाद वह इसका प्रसारण बंद करने की भी घोषणा कर रहा है।
सवाल उठता है कि यदि वाकई स्टार न्यूज को चमत्कारी बाबाओं का महिमा मंडन किए जाने पर ऐतराज रहा है, तो यह उसे अब कैसे सूझा कि ऐसे विज्ञापन नहीं दिखाए जाने चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो विज्ञापन की रेट को लेकर विवाद हुआ होगा या फिर ये लगा होगा कि जितनी कमाई बाबा के विज्ञापन से हो रही है, उससे कहीं अधिक का फायदा तो टीआरपी बढऩे से ही हो जाएगा। वजह स्पष्ट है कि जब सारे चैनल किसी के गुणगान में जुटे हों तो जो भी चैनल उसका नकारात्मक पहलु दिखाएगा, दुनिया उसी की ओर आकर्षित होगी। इसी मसले से जुड़ी एक तथ्यात्मक बात ये भी है कि स्टार न्यूज ने बाबा के बारे में जो जानकारी बटोरने का दावा किया है, वह सब कुछ तो सोशल मीडिया पर पहले से ही आने लग गई थी। उसे लगा होगा कि जब बाबा की खिलाफत शुरू हुई है तो कोई और चैनल भी दिखा सकता है, सो मुद्दे को तुरंत लपक लिया। मुद्दा उठाने को तर्कसंगत बनाने के लिए प्रस्तावना तक दी, जिसकी भाषा यह साबित करती प्रतीत होती है, मानो चैनलों की भीड़ में अकेला वही ईमानदार है।
असल में निर्मल बाबा चमत्कारी पुरुष हैं या नहीं या उनका इस प्रकार धन बटोरना जायज है या नाजायज, इस विवाद को एक तरफ भी रख दिया जाए, तो सच ये है कि उन्हें चमत्कारी पुरुष के रूप में स्थापित करने और नोट छापने योग्य बनाने का श्रेय इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को जाता है। बताते हैं कि इस वक्त कोई चालीस चैनलों पर निर्मल बाबा के दरबार का विज्ञापन निरंतर आ रहा है। जब बाबा भक्तों से कमा रहे हैं तो भला इलैक्ट्रॉनिक मीडिया उनसे क्यों न कमाए? माना कि चैनल चलाने के लिए धन की जरूरत होती है, मगर इसके लिए आचार संहिता, सामाजिक सरोकार, नैतिकता व दायित्वों को तिलांजलि देना बेहद अफसोसनाक है। ऐसे में क्या यह सवाल सहज ही नहीं उठता कि निर्मल बाबा के विज्ञापन देने वाले चैनल थोड़ा सा तो ख्याल करते कि आखिर वे समाज को किस ओर ले जा रहे हैं? क्या जनता की पसंद, जनभावना और आस्था के नाम पर अंधविश्वास को स्थापित कर के वे अपने दायित्व से च्युत तो नहीं हो रहे? कैसी विडंबना है कि एक ओर जहां इस बात पर जोर दिया जाता है कि समाचार माध्यमों को कैसे अधिक तथ्यपरक व विश्वनीय बनाया जाए और उसी के चलते चमत्कार से जुड़े प्रसंगों पर हमले किए जाते हैं, वहीं हमारे मीडिया ने कमाने के लिए चमत्कारिक व्यक्तित्व निर्मल बाबा की कमाई से कुछ हिस्सा बांटना शुरू कर दिया। सच तो ये है कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की ही बदौलत पिछले कुछ वर्षों में एकाधिक बाबा अवतरित हुए हैं। वे इसके जरिए लोकप्रियता हासिल करते हैं और धन बटोरने लग जाते हैं। दोनों का मकसद पूरा हो रहा है। सामाजिक सरोकार जाए भाड़ में। बाबा लोग पैसा खर्च करके लोकप्रियता और पैसा बटोर रहे हैं और चैनल पैसे की खातिर बिकने को तैयार बैठे हैं।
थोड़ा सा विषयांतर करके देखें तो बाबा रामदेव की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उनसे भी बेहतर योगी हमारे देश में मौजूद हैं और अपने छोटे आश्रमों में गुमनामी के अंधेरे में काम कर रहे हैं, मगर बाबा रामदेव ने योग सिखाने के नाम पर पैसा लेना शुरू किया और उस संचित धन को मीडिया प्रबंधन पर खर्च किया तो उन्हें भी इसी मीडिया ने रातों रात चमका दिया। यद्यपि उनके दावों पर भी वैज्ञानिक दृष्टि से सवाल उठाए जाते हैं, मगर यदि ये मान लिया जाए कि कम से कम चमत्कार के नाम तो नहीं कमा रहे, मीडिया की बदौलत ऐसे चमके हैं कि उसी लोकप्रियता को हथियार बना कर सीधे राजनीति में ही दखल देने लग गए हैं।
अन्ना हजारे का मामला कुछ अलग है, मगर यह सौ फीसदी सच है कि वे भी केवल और केवल मीडिया की ही पैदाइश हैं। उसी ने उन्हें मसीहा बनाया है। माना कि वे एक अच्छे मकसद से काम कर रहे हैं, इस कारण मीडिया का उनको चढ़ाना जायज है, मगर चमकने के बाद उनकी भी हालत ये है कि वे सीधे पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही चुनौती दे रहे हैं। आज अगर उनकी टीम अनियंत्रित हो कर दंभ से भर कर बोल रही है तो उसके लिए सीधे तौर यही मीडिया जिम्मेदार है। अन्ना और मीडिया के गठजोड़ का ही परिणाम था कि अन्ना के आंदोलन के दौरान एकबारगी मिश्र जैसी क्रांति की आशंका उत्पन्न हो गई थी।
लब्बोलुआब इलैक्ट्रॉनिक मीडिया जितना धारदार, व्यापक व प्रभावशाली है, उतना ही गैर जिम्मेदाराना व्यवहार कर रहा है। सरकार व सेना के बीच कथित विवाद को उभारने का प्रसंग इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसे वक्त रहते समझना होगा। कल सरकार यदि अंकुश की बात करे, जो कि प्रेस की आजादी पर प्रहार ही होगा, तो इससे बेहतर यही है कि वह बाजार की गला काट प्रतिस्पद्र्धा में कुछ संयम बरते और अपने लिए एक आचार संहिता बनाए।
-तेजवानी गिरध
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tejwanig@gmail.com

सोमवार, अप्रैल 09, 2012

पाक राष्ट्रपति जरदारी की जियारत के साथ जुड़ गए विवाद


पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की महान सूफी संत हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह जियारत तो सुकून से हो गई, मगर इसके साथ ही दो बड़े विवाद जुड़ गए हैं। एक तो दरगाह दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान द्वारा उचित पास न मिलने के कारण बहिष्कार और जरदारी की ओर से की गई पांच करोड़ रुपए देने की घोषणा।
दरगाह दीवान
दरगाह के दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान को पूरे परिसर को अधिकृत पास नहीं देने से वे काफी खफा हैं। उनके सचिव सैयद अलाऊद्दीन आरिफ ने बाकायदा लिखित बयान जारी कर संकेत दिया है कि इस घटना के बाद दरगाह दीवान साहब ने अपने कानूनी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट जाने का मानस बना लिया है।
उनका कहना है कि जरदारी की की दरगाह पर यात्रा के समय जिला प्रशासन ने सैकड़ों साल पुरानी परंपरा को तिलांजलि दे दी। प्रशासन ने दीवान पूरे दरगाह परिसर का अधिकृत पास नहीं दिया, जिसके चलते उन्होंने जरदारी की यात्रा का बॉयकाट किया। उन्होंने कहा कि हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में सज्जादानशीन, खादिम और दरगाह कमेटी की अपनी अपनी भूमिका है। जहां दरगाह कमेटी दरगाह एक्ट के अनुसार प्रबंधन का कार्य करती है, वहीं सज्जादानशीन ख्वाजा साहब के वंशज की हैसियत से धार्मिक रस्में अदा करते आ रहे हैं। प्राचीन परंपराओं के अनुसार दरगाह दीवान किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के निजाम गेट पर आगवानी करने के बाद मजार तक साथ जाते हैं। मजार शरीफ पर खादिम द्वारा जियारत कराई जाती है। उनका कहना है कि इस मरतबा अतिविशिष्ट व्यक्ति की यात्रा के दौरान दीवान साहब को निजाम गेट तक का पास दिया गया था।
 दरगाह दीवान के सचिव ने सैयद जैनुल आबेदीन अली खान क े हवाले से कहा कि  सैकड़ों साल पुरानी परंपरा को प्रशासन कैसे तोड़ सकता है? पाकिस्तानी राष्ट्रपति के लिए परंपराओं को नहीं तोड़ा जा सकता है। प्रशासन में कुछ ऐसे तत्व हैं जो दोनों देशों के बीच दोस्ती का माहौल  नही चाहते हैं और उन्होने बेवजह का विवाद पैदा कर दीवान साहब और खादिमों के कथित विवाद की आड़ लेकर सैकड़ों वर्षो की परंपराओं को तोड़ा है। उन्होंने बताया कि वर्ष 2005 में पाक के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के आगमन, बंगलादेश की राष्ट्रपति शेख हसीना के अलावा इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के यात्रा के दौरान दरगाह दीवान साहब पुरानी रस्मों के साथ आगवानी की थी। इस समय नए विवाद को जन्म दिया गया है। उन्होंने बताया कि बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की अजमेर जियारत के दौरान भी इस तरह का विवाद उत्पन्न हुआ था, लेकिन प्रशासन ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए ऐन वक्त पर समस्त दरगाह परिसर का पास जारी किया। उन्होंने कहा कि ताजा प्रकरण में सरकार का रवैया दगाह पर आस्था रखने वाले करोड़ों श्रद्धालुओं की धार्मिक अस्था को ठेस पहुंचाने वाला है।
असल में ऐसा प्रतीत होता है कि दरगाह दीवान, खुद्दामे ख्वाजा व दरगाह कमेटी के बीच चलती वर्षों पुरानी खींचतान के चलते ही प्रशासन ने विवाद से बचने के लिए दीवान को पास नहीं दिया होगा, मगर उसे यह ख्याल नहीं रहा कि उसने एक नई बला को न्यौता दे दिया है। हालांकि ख्वाजा साहब के वंशज के मामले में वर्षों से विवाद होता रहता है, मगर इतना तो तय है कि परंपरा के मुताबिक दरगाह दीवान किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के निजाम गेट पर अगवानी करने के बाद मजार तक साथ जाते हैं और परंपरा के ही मुताबिक मजार शरीफ पर जियारत खादिम द्वारा कराई जाती है। इस मरतबा दीवान को केवल निजाम गेट तक का ही पास दिया गया था।
यहां उल्लेखनीय है कि दरगाह दीवान अपने हकों के लिए वर्षों से लड़ रहे हैं और इसके लिए वे किसी भी सीमा तक चले जाते हैं। दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट से संबंधित किताबें तो उन्हें कंठस्थ याद हैं। कानून के भी पक्के जानकार हैं। और कोई छोटा मसला होता तो कदाचित गम भी खा जाते, मगर पाक राष्ट्रपति का मसला काफी बड़ा है। प्रशासन के पास भले ही नगर निगम मेयर कमल बाकोलिया, भाजपा विधायक वासुदेव देवनानी, पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत की बहिन व पुत्री आदि को पास जारी न करने का कोई संतोषजनक जवाब हो, मगर दरगाह शरीफ की धार्मिक परंपरा से जुड़े मसले पर उठे विवाद से निपटने में प्रशासन को जोर आएगा।
जरदारी की इस यात्रा के साथ जुड़ा विवाद ये है कि उन्होंने जियारत के दौरान पांच करोड़ रुपए देने की घोषणा की। इस पर उनको जियारत कराने वाले खादिम और खादिमों की संस्था अंजुमन सैयद जादगान का कहना है कि वे नजराने के तौर पर घोषणा करके गए हैं, इस कारण उस राशि पर उनका हक है, दूसरी ओर दरगाह कमेटी का मानना है कि वे दरगाह के विकास के लिए घोषणा करके गए हैं, अत: यह राशि उसको मिलनी चाहिए, ताकि वह उसका दरगाह के विकास में उपयोग कर सके। बहरहाल, अब यह विवाद तभी समाप्त होगा, जब जरदारी राशि भेजते समय उसका क्या उपयोग करना है, यह साफ करते हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, अप्रैल 08, 2012

जरदारी की उम्मीद अलबत्ता पूरी हो जाए, हमारी नहीं होगी

पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी भारत की यात्रा पर हैं। उनकी यह यात्रा पूरी तरह से निजी है और उनका असल मकसद महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में हाजिरी देना है। जाहिर सी बात है कि वे फिर कोई उम्मीद ले कर आ रहे हैं। बेहद परेशानी में हैं। उन पर लगे भ्रष्टाचार के मामलों को दोबारा खोलने के लिए पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट प्रधानमंत्री गिलानी पर दबाव बना रहा है। जरूर उससे राहत पाने की दुआ करने को वे ख्वाजा साहब के दर पर आ रहे हैं। इससे पहले भी उनकी उम्मीद पूरी हो चुकी है। जेल से रिहाई होने पर वे अपनी बेगम पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती बेनजीर भुट्टो के साथ मन्नत का धागा खोलने और शुक्राना अदा करने आ चुके हैं। जैसा कि सब जानते हैं कि ख्वाजा सबकी झोली भरते हैं, सो उम्मीद है कि इस बार भी वे जो उम्मीद ले कर आ रहे हैं, वह पूरी होगी, मगर उनसे भारत को उम्मीद करना बेमानी है।
हालांकि इस निजी यात्रा के दौरान वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मिल रहे हैं, मगर वह औपचारिक ही है। बातचीत का कोई एजेंडा नहीं है। ज्ञातव्य है कि इन दिनों आतंकवादी हाफिज सईद के सिर पर इनाम रखा हुआ है, इस कारण वह मुद्दा बेहद गर्माया हुआ है, मगर इस मुलाकात में इस पर कोई चर्चा होने की कोई उम्मीद नहीं है। उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। खुद जरदारी ने भी लाहौर में रवाना होने से पहले उम्मीद जता दी है कि मनमोहन इस मुद्दे को नहीं उठाएंगे। उनके पास कुछ जवाब देने को है ही नहीं।
असल में जरदारी का भारत आना तय होते ही पाकिस्तान में रोना-धोना शुरू हो गया था। कई विरोधी दल और कट्टरपंथी संगठन छाती पीट रहे हैं कि एक ओर आतंकवादी हाफिज सईद के सिर पर इनाम रखा जा रहा है और दूसरी ओर हमारे राष्ट्रपति दुश्मन देश की यात्रा कर रहे हैं। वस्तुत: जरदारी पाकिस्तान के बेहद कमजोर राष्ट्रपति हैं, जो अपनी पत्नी बेनजीर भुट्टो की शहादत की वजह से इस कुर्सी तक पहुंच तो गए, लेकिन ख़ुद पाकिस्तान में कोई उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं देता। हालत तो ये है कि वहां तख्ता पलट तक की चर्चा होती रहती हैं। हकीकत ये है कि पाकिस्तान में सरकार जरदारी या गिलानी नहीं, बल्कि सेना, आईएसआई और आतंकवादी चलाते हैं। जाहिर सी बात है कि जिस मुल्क में अवाम ने भी आतंकवादियों को ही अपना रहनुमा मान लिया हो, उस मुल्क में बेचारा प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति क्या कर सकता है। आतंकवादियों के डर से जब उसने अपने आका अमेरिका को ओसामा बिन लादेन नहीं सौंपा, तो एक दुश्मन देश को हाफिज सईद को सौंपने की हिम्मत कैसे जुटा सकता है। ऐसे में भारत का उनसे सईद के मामले में उम्मीद करना पूरी तरह से बेमानी है, भले वे शहंशाहों के शहंशाह ख्वाजा गरीब नवाज से अपनी उम्मीद पूरी करवा कर लौटें।
-तेजवानी गिरधर
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