तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जनवरी 29, 2012

वसुंधरा के विरोध में कटारिया से एक कदम आगे हैं चतुर्वेदी


प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे से पीडि़त भाजपा के दिग्गजों को पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी व पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का श्रीमती राजे को अगला मुख्यमंत्री कहना रास नहीं आ रहा है। पहले संघ लॉबी से जुड़े पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया ने वसुंधरा के खिलाफ मुंह खोला तो अब एक ओर दिग्गज पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी भी खुल कर आगे आ गए हैं। कटारिया ने तो सिर्फ यही कहा कि पार्टी ने अब तक तय नहीं किया है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, लेकिन चतुर्वेदी तो एक कदम और आगे निकल गए। उन्होंने यहां तक कह दिया कि आडवाणी ने राजस्थान दौरे के दौरान ऐसा कहा ही नहीं कि अगला चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। उन्होंने भी यही कहा कि चुनाव में विजयी भाजपा विधायक ही तय करेंगे कि मुख्यमंत्री कौन होगा। एक के बाद एक दिग्गजों के वसुंधरा के खिलाफ उभरने से जहां हाईकमान चिंतित हैं, वहीं भाजपा कार्यकर्ता भी भ्रमित हो रहे हैं। ज्ञातव्य है कि ये वे ही दिग्गज नेता हैं, जिन्हें वसुंधरा ने अपने राज के दौरान खंडहर की उपमा दी थी। उस शब्द बाण का दर्द आज भी इन दिग्गजों को साल रहा है।
यहां उल्लेखनीय है कि पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अजमेर की सभा में बिलकुल खुले शब्दों में कहा था कि आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी। ऐसा लगता है कि चतुर्वेदी को या तो अजमेर में आडवाणी की ओर से की गई घोषणा की या तो जानकारी नहीं है या फिर वे जानबूझ कर वसुंधरा विरोधी बयान दे कर विवाद को जिंदा रखना चाहते हैं। इससे यह पूरी तरह से साफ हो गया है कि गडकरी व आडवाणी तो वसुंधरा के पक्ष में हैं, मगर राज्य स्तर पर अब भी वसुंधरा के प्रति एक राय नहीं है। विशेष रूप से संघ लॉबी के नेता वसुंधरा को नहीं चाहते, हालांकि उनकी संख्या कम ही है।
भाजपा में ही क्यों, कांगे्रस में भी मुख्यमंत्री पद को लेकर विवाद है। प्रदेश अध्यक्ष चंद्रभान अनेक बार कह चुके हैं कि कांग्रेस में भाजपा की तरह पहले से मुख्यमंत्री पद के दावेदार की घोषणा करने की परंपरा नहीं है। जो विधायक जीत कर आएंगे, उनकी राय और आलाकमान के निर्देशानुसार ही मुख्यमंत्री का निर्णय होगा। जाहिर तौर पर उनका कहना ये है कि अगला चुनाव मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में नहीं लड़ा जाएगा। ऐसा प्रतीत होता है कि वे जानबूझ कर ऐसा बयान दे रहे हैं, ताकि महिपाल मदेरणा प्रकरण के बाद नाराज चल रही जाट लॉबी के उफान पर कुछ ठंडे छींटे डाले जा सकें। वैसे भी गहलोत का इस बार का कार्यकाल काफी विवादग्रस्त रहा है। पिछले कार्यकाल में उन्होंने खासी लोकप्रियता हासिल की, मगर अकेले कर्मचारियों की नाराजगी ले बैठी। इस बार स्थिति और भी गंभीर है। कभी कार्यकर्ताओं चहेते रहे गहलोत ने इस बार कार्यकर्ताओं को ही नाखुश कर दिया है। लंबे समय बाद और वह भी आधी अधूरी राजनीतिक नियुक्तियों के कारण कार्यकर्ता बेहद खफा है। ऐसे में चंद्रभान को लगता है कि यदि अगला चुनाव गहलोत के नेतृत्व में लड़े जाने की गलतफहमी फैली तो पार्टी को नुकसान होगा, सो जानबूझ कर ऐसा बयान जारी कर रहे हैं। लेकिन उनकी इस बयानबाजी से यह तो संदेश जा रहा है कि सत्ता और संगठन में तालमेल का पूरी तरह से अभाव है। ये सच्चाई भी है। संगठन के जुड़े नेता कई बार गहलोत की कार्यप्रणाली को लेकर नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। हालत ये है कि पिछले दिनों जब पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व केन्द्रीय मंत्री सी. पी. जोशी ने जब वन मंत्री रामलाल जाट के इस्तीफे के बारे में षड्यंत्र के खुले संकेत दे कर मामला हाईकमान के सामने उठाने की बात कही तो गहलोत के खिलाफ बगावत होने की आशंका के चलते चंद्रभान को पार्टी नेताओं को सार्वजनिक बयानबाजी न करने के निर्देश देने पड़े।
कुल मिला कर कांग्रेस व भाजपा, दोनों में आग सुलग रही है। देखते हैं चुनाव आने तक यह क्या रूप लेती है।
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गडकरी के बयानों से और बढ़ेगा घमासान


अब तक की सर्वाधिक बदनाम कांग्रेस सरकार की विदाई की उम्मीद में भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो चुका है। बड़े मजे की बात ये है कि उस घमासान समाप्त करने अथवा छुपाने की जिम्मेदारी जिस शख्स पर है, खुद वही नित नए विवाद की स्थिति पैदा कर रहा है। इशारा आप समझ ही गए होंगे।
बात भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की चल रही है। हाल ही उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बता कर अन्य दावेदारों को सतर्क कर दिया था। अभी इस पर चर्चा हो कर थमी ही नहीं थी उन्होंने एक बयान में अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधानमंत्री के योग्य करार दे दिया। हालांकि यह सही है कि उन्होंने जैसा सवाल वैसा जवाब दिया होगा और उनका मकसद किसी को अभी से स्थापित करने का नहीं होगा, बावजूद इसके उनके बयानों से पार्टी कार्यकर्ताओं में तो असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो ही रही है। होता अमूमन ये है कि पत्रकार ऐसे पेचीदा सवाल पूछते हैं कि उसमें नेता को हां और ना का जवाब देना ही पड़ता है और जो भी जवाब दिया जाता है, जाहिर तौर पर उसके अर्थ निकल कर आ जाते हैं। जवाब देने वाला खुद भी यह समझ नहीं पाता कि ऐसा कैसे हो गया। उसका मकसद वह तो नहीं था, जो कि प्रतीत हो रहा होता है। कमोबेश स्थिति ऐसी ही लगती है। पता नहीं किस हालात में गडकरी ने मोदी को प्रधानमंत्री के पद के योग्य बताया और पता नहीं किस संदर्भ में उन्होंने सुषमा व जेटली को भी उस पंक्ति में खड़ा कर दिया। मगर जब इन सभी जवाबों को एक जगह ला कर तुलनात्मक समीक्षा की जाती है तो गुत्थी उलझ जाती है कि आखिर वे कहना क्या चाहते हैं। संभव है कि उन्होंने कोई विवाद उत्पन्न करने के लिए ऐसा नहीं किया हो, मगर उनके बयानों से पार्टी में असमंजस तो पैदा होता ही है।
जरा पीछे झांक कर देखें। आडवाणी के रथयात्रा निकालने के निजी फैसले पर जब पार्टी ने मोहर लगाई और उनका पूरा सहयोग किया, तब ये मुद्दा उठा कि आडवाणी अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं अथवा पार्टी उन्हें फिर से प्रोजेक्ट करने की कोशिश कर रही है। तब खुद गडकरी को ही यह सफाई देनी पड़ गई कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं है। उस वक्त आडवाणी की दावेदारी को नकारने वाले गडकरी के ताजा बयान इस कारण रेखांकित हो रहे हैं कि वे क्यों मोदी, सुषमा व जेटली को दावेदार बता कर विवाद पैदा कर रहे हैं। स्वाभाविक सी बात है कि उनके मौजूदा बयानों से लाल कृष्ण आडवाणी और उनके करीबी लोगों को तनिक असहज लगा होगा कि गडकरी जी ये क्या कर रहे हैं। इससे तो आडवाणी का दावा कमजोर हो जाएगा। संभावना इस बात की भी है कि उन्होंने ऐसा जानबूझ कर किया हो, ताकि कोई एक नेता अपने आप को ही दावेदार न मान बैठे, लेकिन उनकी इस कोशिश से मीडिया वालों को अर्थ के अर्थ निकालने का मौका मिल रहा है। विशेष रूप से तब जब कि जिस गरिमापूर्ण पद वे बैठे हैं, उसके अनुरूप व्यवहार नहीं करते। उनकी जुबान फिसलने के एकाधिक मौके पेश आ चुके हैं। उनके कुछ जुमलों को लेकर भी मीडिया ने गंभीर अर्थ निकाले हैं। जैसे एक अर्थ ये भी निकाला जा चुका है कि भाजपा के इतिहास में वे पहले अध्यक्ष हैं, जिन्होंने अपनी बयानबाजी से पार्टी को एक अगंभीर पार्टी की श्रेणी पेश कर दिया है। इसे भले ही वे अपनी साफगोई या बेबाकी कहें, मगर उनकी इस दरियादिली से पार्टी में तंगदिली पैदा हो रही है। इससे पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर चल रही जंग को नया आयाम मिला है।
उल्लेखनीय है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही इस पद को लेकर प्रतिस्पद्र्धा चल रही थी। बाद में गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर तीन दिवसीय उपवास कर की, जो कि साफ तौर पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बनाने के रूप में ली गई। यूं पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी दावेदारी की जुगत में हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुल कर दावा पेश कर देंगे। कुल मिला कर भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहे घमासान को गडकरी के बयानों से हवा मिल रही है।