तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, दिसंबर 28, 2012

कटारिया फिर कैसे आ गए फ्रंट फुट पर?

राजस्थान में भाजपा के जिन दिग्गज गुलाब चंद कटारिया की मेवाड़ यात्रा को लेकर पार्टी में बड़ा भूचाल आ चुका है, जिसकी प्रतिध्वनि आज तक गूंज रही है, वे ही अपनी स्थगित यात्रा को फिर से आरंभ कर चुके हैं तो सभी का चौंकना स्वाभाविक ही है। जो भाजपा कार्यकर्ता यह मान कर चल चुके हैं कि भारी विरोध के बाद भी चुनाव की कमान वसुंधरा के हाथों में होगी, इस नए पैंतरे को देख कर समझ ही नहीं पा रहे हैं कि पार्टी में आखिर ये हो क्या रहा है?
ज्ञातव्य है कि पिछली बार जब उन्होंने यात्रा निकालने का ऐलान किया था तो राजसमंद की विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने क्षेत्रीय वर्चस्व को लेकर उसका कड़ा विरोध किया और मामला इतना गरमाया कि उसे पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया। अपने बहुसंख्यक विधायकों के इस्तीफे एकत्रित कर उन्होंने हाईकमान को सकते में ला दिया था। इस पर पार्टी हित की दुहाई देते हुए कटारिया ने यात्रा स्थगित करने की घोषणा कर दी, तब जा कर मामला कुछ ठंडा पड़ा। अब जब कि वे फिर से पार्टी हित के नाम पर निजी स्तर पर यात्रा पर निकल चुके हैं तो इसका अर्थ यही लगाया जा रहा है कि पार्टी का एक धड़ा वसुंधरा के एकछत्र प्रभुत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। यह वही धड़ा है, जो बार-बार यह कह कर वसुंधरा खेमे के साथ छेडख़ानी करता है कि अगला चुनाव किसी एक व्यक्ति के नेतृत्व में नहीं लड़ा जाएगा। दूसरी ओर वसुंधरा खेमे का पूरा जोर इसी बात पर है कि वसुंधरा को ही भावी मुख्यमंत्री घोषित करके चुनाव लड़ा जाएगा। वसुंधरा के खासमखास सिपहसालार राजेन्द्र सिंह राठौड़ ने तो यहां तक कह दिया कि राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा हैं और भाजपा ही वसुंधरा है। इसको लेकर बड़ी बहस छिड़ गई थी। इसी टकराव के बीच कटारिया की यात्रा सीधे-सीधे वसुंधरा को मुंह चिढ़ाने जैसा है। अजमेर के भाजपा विधायक व पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो.वासुदेव देवनानी ने भी उनकी यात्रा को सही ठहरा कर संकेत दे दिया कि वसुंधरा खेमा आगामी चुनाव के मद्देनजर लामबंद होने लगा है। उसी का परिणाम है कि पिछले दिनों इस बात पर बड़ा विवाद हुआ था कि वसुंधरा अपने महल में टिकट के दावेदारों का फीड बैक कैसे ले रही हैं। यह काम तो पार्टी के स्तर पर होना चाहिए। कटारिया ने तो चलो सीधी टक्कर सी ली है, मगर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी व ललित किशोर चतुर्वेदी तक भी कई बार दुहरा चुके हैं कि आगामी चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा। उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए हाल ही वरिष्ठ नेता रामदास अग्रवाल ने भी वी से वी तक का जुमला इस्तेमाल कर साफ किया था कि कोई भी व्यक्ति पार्टी से ऊपर नहीं है। इन सारी गतिविधियों से यह जाहिर होता कि कि संघपृष्ठभूमि के नेता वसुंधरा को फ्री हैंड नहीं लेने देंगे। वे पूरा दबाव बना कर अपने धड़े के लिए अधिक से अधिक टिकटें झटकना चाहते हैं। कदाचित वे अपने खेमे के एक नेता को उपमुख्यमंत्री बनाने की शर्त रख दें।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, दिसंबर 26, 2012

अराजकता फैलाना चाहता है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया?

दिल्ली गैंग रेप की जघन्य घटना के बाद दिल्ली सहित पूरे देश में जगह-जगह जो आक्रोश फूटा, वह स्वाभाविक और वाजिब है। इतना तो हमें संवेदनशील होना ही चाहिए। संयोग से यह मामला देश की राजधानी का था, इस कारण हाई प्रोफाइल हो गया, वरना ऐसे सामूहिक बलात्कार तो न जाने कितने हो चुके हैं। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे मुद्दा बनाया, वहां तक तो ठीक था, मगर जब यह अराजकता की ओर बढऩे लगा और बेकाबू हो गया, तब भी मात्र और मात्र सनसनी फैलाने की खातिर उसे हवा देने का जो काम किया गया, वह पूरा देश देख रहा था। सबके जेहन में एक ही सवाल था कि क्या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया देश में अराजकता फैलाना चाहता है? मगर... मगर चूंकि इस आंदोलन में युवा वर्ग का गुस्सा फूट रहा था, इस कारण किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि वह इस पर प्रतिक्रिया दे सके। सब जानते थे कि कुछ बोले नहीं कि मीडिया तो उसके पीछे हाथ धो कर पड़ ही ही जाएगा, युवा वर्ग का गुस्सा भी उसकी ओर डाइवर्ट हो जाएगा।
अव्वल तो इस मामले में पुलिस ने अधिसंख्य आरोपियों को पकड़ लिया और पीडि़त युवती को भी बेहतरीन चिकित्सा मिलने लगी। इसके बाद आरोपियों को जो सजा होनी है, वह तो कानून के मुताबिक न्यायालय को ही देनी है। चाहे सरकारी तंत्र कहे या विपक्ष या फिर आंदोलनकारी, कि कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, मगर सजा देने का काम तो केवल कोर्ट का ही है। उसकी मांग के लिए इतना बवाल करना और कड़ी से कड़ी सजा देने का आश्वासन देना ही बेमानी है। अलबत्ता, बलात्कार के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान करने का मांग अपनी जगह ठीक है, मगर उसकी एक प्रक्रिया है। यह बात मीडिया भी अच्छी तरह से जानता है, मगर बावजूद इसके उसने आंदोलन को और हवा दे कर उसने खूब मजा लिया।
जैसा कि मीडिया इस बात पर बार-बार जोर दे रहा था कि आंदोलन स्वत:स्फूर्त है, वह कुछ कम ही समझ में आया। साफ दिख रहा था कि इसके लिए पूरा मीडिया उकसा रहा था। मीडिया लगातार पूरे-पूरे दिन एक ही घटना दिखा-दिखा कर, पुलिस को दोषी व निकम्मा ठहरा-ठहरा कर, सरकार को पूरी तरह से नकारा बता-बता कर उकसा रहा था। भले ही इसके लिए यह तर्क दिया जाए कि हमारी सरकार आंदोलन के उग्र होने की हद पर जा कर सुनती है, इस कारण मुद्दे को इतना जोर-शोर से उठाना जरूरी था, मगर एक सीमा के बाद यह साफ लगने लगा कि मीडिया की वजह से ही हिंसा की नौबत आई। सब जानते हैं कि केमरा सामने होता है तो कोई भी आंदोलनकारी कैसा बर्ताव करने लग जाता है?
एक सामान्य बुद्धि भी समझ सकता है कि कोई भी आंदोलन बिना किसी सूत्रधार के नहीं हो सकता। ऐसा कत्तई संभव नहीं है कि गैंगरेप से छात्रों में इतना गुस्सा था कि वे खुद ब खुद घरों से निकल कर सड़क पर आ गए। एक दिन नहीं, पूरे पांच दिन तक। जानकारी तो ये है कि शुरू में कैमरा टीमों द्वारा प्रदर्शन की जगह और समय छात्रों एवं अन्य संगठनों से तय करके जमावड़ा किया गया। हर वक्त सनसनी की तलाश में रहने वाले इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी टीआरपी बढ़ाने की खातिर का जो ये खेल खेला, उसमें वाकई समस्याओं से तनाव में आये बुद्धिजीवी वर्ग और छात्रों को समाधान नजर आया। आंदोलन को कितना भी पवित्र और सच्चा मानें, मगर जिस तरह से मीडिया पुलिस व सरकार को कोसते हुए आंदोलनकारियों को हवा दे रहा था, उससे यकायक लगने लगा कि क्या हमारा मीडिया अराजकता को बढ़ाने की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि एक-दो चैनलों ने तो इंडिया गेट को तहरीर चौक तक की संज्ञा दे दी। यानि कि यह आंदोलन ठीक वैसा ही था, जैसा कि मिश्र में हुआ और तख्ता पलट दिया गया।
मीडिया की बदमाशी तब साफ नजर आई, जब एक वरिष्ठतम पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने एक ओछी हरकत की। उन्होंने आंदोलनकारियों में अपनी ओर से जबरन शब्द ठूंसे। रेप कांड के विरोध में प्रदर्शन के दौरान आंदोलनकारियों से मिलने को कोई भी जिम्मेदार मंत्री मिलने को नहीं आ रहा था तो उन्होंने खुद चला कर एक आंदोलनकारी से सवाल किया कि आपको नहीं लगता कि युवा सम्राट कहलाने वाले राहुल गांधी को आपसे मिलने को आना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि इसका उत्तर हां में आना था। इसके बाद उसने पलट कर एंकर की ओर मुखातिब हो कर दर्शकों से कहा कि लोगों में बहुत गुस्सा है और वे कह रहे हैं कि राहुल गांधी को उनसे मिलने को आना चाहिए। उनकी इस हरकत ने यह प्रमाणित कर दिया कि मीडिया आंदोलन को जायज, जो कि जायज ही था, मानते हुए एकपक्षीय रिपोर्टिंग करना शुरू कर दिया। एक और उदाहरण देखिए। एक चैनल की एंकर ने आंदोलन के पांचवें दिन आंदोलन स्थल को दिखाते हुए कहा कि बड़ी तादात में आंदोलनकारी इकत्रित हो रहे हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और फिर जैसे ही उसने रिपोर्टर से बात की तो उसने कहा कि फिलहाल बीस-पच्चीस लोग जमा हुए हैं और यह संख्या बढऩे की संभावना है। कैसा विरोधाभास है। स्पष्ट है कि एंकरिंग पर ऐसे अनुभवहीन युवक-युवतियां लगी हुई हैं, जिन्हें न तो पत्रकारिता का पूरा ज्ञान है और न ही उसकी गरिमा-गंभीरता-जिम्मेदारी व नैतिकता का ख्याल है। उन्हें बस बेहतर से बेहतर डायलॉग बनाना और बोलना आता है, फिर चाहे उससे अर्थ का अनर्थ होता रहे।
सवाल ये उठता है कि जायज मांग की खातिर आंदोलन का साथ देने वाला ये वही मीडिया वही नहीं है, जो कि धंधे की खातिर जापानी तेल और लिंगवर्धक यंत्र का विज्ञापन दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कमाई की खातिर विज्ञापनों में महिलाओं के फूहड़ चित्र दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कतिपय लड़कियों के अश्लील पहनावे पर रोक लगाने वाली संस्थाओं को तालीबानी करार देता है? तब उसे इस संस्कारित देश में आ रही पाश्चात्य संस्कृति पर जरा भी ऐतराज नहीं होता। स्पष्ट है कि जितना यह महान बनने का ढ़ोंग करता है, उसके विपरीत इसका एक मात्र मकसद है कि सनसनी फैलाओ, टीआपी बढ़ाओ, फिर चाहे भारत के मिश्र जैसी क्रांति की नौबत आ जाए।
-तेजवानी गिरधर

नीतीश के छोड़ पूरा एनडीए मोदी के साथ?


गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद विभिन्न पार्टियों के दिग्गज नेताओं को देख कर मीडिया को लग रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू को छोड का पूरा एनडीए मोदी के साथ है और उसे मोदी के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी किए जाने पर ऐतराज नहीं करेगा। हालांकि इस प्रकार के कार्यक्रमों में आने को औपचारिकता ही माना जाता है, मगर समारोह में मौजूद नेताओं की लिस्ट पर नजर डालने के बाद मीडिया को उसमें 2014 के एनडीए की तस्वीर नजर आ रही है। नीतीश कुमार की गैर मौजूदगी का यह अर्थ निकाला गया है कि एनडीए की ओर से मोदी को प्रधानमंत्री के संभावित उम्मीदवार के रूप में प्रॉजेक्ट करने को लेकर उनके रुख में कोई बदलाव नहीं आया है।
उल्लेखनीय है कि समारोह में लालकृष्ण आडवाणी समेत बीजेपी के सभी दिग्गज नेता नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और वैंकेया नायडू, पार्टी शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्री मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह, गोवा के सीएम मनोहर पार्रिकर, कर्नाटक के मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के अलावा पंजाब के सीएम प्रकाश सिंह बादल तो मौजूद थे ही, आईएनएलडी के सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाल, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की नेता जे. जयललिता और एमएनएस नेता राज ठाकरे ने भी पहुंचकर भविष्य की राजनीति के संकेत दे दिए। सबसे चौंकाने वाली रही शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे, आरपीआई नेता रामदास अठावले और एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे की एक साथ मौजूदगी। बुलाए गए लोगों में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटानयक नहीं पहुंचे, पर जानकारी ये है कि वे मोदी के विरोध में नहीं हैं क्योंकि उन्होंने गुजरात की जीत के बाद मोदी को सबसे पहले बधाई दी थी। अलबत्ता मोदी के साथ खड़े होने से पहले नफा-नुकसान आकलन कर लेना चाहते हैं।
जहां पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सवाल है, माना ये जा रहा है कि अपने मुस्लिम वोटों के जनाधार को ध्यान में रखते हुए उन्होंने आना मुनासिब नहीं समझा। वैसे अभी ये भी पता नहीं लग पाया है कि मोदी ने उन्हें निमंत्रण दिया भी था कि नहीं। हां, नीतीश के बारे में यही कहा जा रहा है कि उनके पूर्व के रवैये और जीत पर बधाई न देने के रुख को देखते हुए उन्हें शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का आमंत्रण ही नहीं भेजा था।
कुल मिला कर मीडिया का आकलन है कि मोदी के इस शपथग्रहण समारोह ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करने की दिशा में कदम रखने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अब भाजपा पर निर्भर है कि वह मोदी पर एकमत होती या नहीं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, दिसंबर 23, 2012

मोदी को डर व लालच में दिया मुसलमानों ने वोट


गुजरात विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को रिझाने का प्रहसन करने के बावजूद एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिए पर सभी राजनीति जानकार चक्कर में पड़ गए। और मजे की बात ये रही कि मोदी को मुस्लिम बहुल सीटों पर वोट भी भरपूर मिले। इससे विश्लेषकों की माथापच्ची और बढ़ गई। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि आखिर इसकी वजह क्या है। इस बीच खुद भाजपा के ही राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र ने यह कह कर सभी को चौंका दिया है कि गुजरात में मुसलमानों ने भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया, क्योंकि इसके पीछे उनका डर व लालच था। डर इस बात का कि वे मोदी के खिलाफ जाकर उनकी आंखों की किरकिरी नहीं बनना चाहते थे और लालच था विकास का।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने मोदी को ही वोट दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी की ही सरकार बननी है तो फिर काहे को उनसे दुश्मनी मोल ली जाए। उनकी इस बात में काफ दम नजर आता है। इसके पीछे एक तर्क भी समझ में आता है। वो यह कि मोदी के राज में गिनती के कट्टरपंथी मुसलमानों को उन्होंने कुचल दिया, इस कारण टकराव मोल लेने वाला कोई रहा ही नहीं। रहा सवाल शांतिप्रिय व व्यापार करने वाले अधिकतर मुसलमान का तो उसे तो अमन की जिंदगी चाहिए, फिर भले ही सरकार मोदी ही क्यों न हो। वह यह भी जानता है कि मोदी रहे तो कट्टरपंथी कभी उठ ही नहीं पाएगा, ऐसे में टकराव कौन मोल लेगा। यही सोच कर उन्होंने मोदी को वोट दिया। कदाचित वे यह समझते थे कि अगर कांग्रेस आई तो एक बार फिर तुष्टिकरण के चलते कट्टरपंथी ताकतवर होगा कि उनकी शांतिप्रिय जिंदगी के लिए परेशानी का सबब ही बनेगा। ऐसे में बेहतर यही है कि मोद को वोट दे दिया जाए, ताकि मोदी खुश भी हो जाएं ओर तंग नहीं करें।
मुसलमानों के दमन का आरोप झेल रहे मोदी के लिए यह राहत की बात रही कि एक भी मुसलमान को टिकट नहीं देने के बाद भी मुसलमानों ने उनका समर्थन किया। शायद इसी वजह से उन्होंने अपनी जीत के बाद आयोजित सबसे पहली सभा में इशारों ही इशारों में मुसलमानों से उन्हें हुई किसी भी प्रकार की तकलीफ के लिए माफी मांग ली।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, दिसंबर 20, 2012

बसपा फिर कर रही है राजस्थान में चुनाव की तैयारी

हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद राजस्थान के सभी बसपा विधायकों के कांग्रेस में शामिल होने से बसपा को बड़ा भारी झटका लगा था, मगर अपने वोट बैंक के दम पर बसपा ने फिर से चुनाव मैदान में आने की तैयारियां शुरू कर दी हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती को उम्मीद है कि पदोन्नति में आरक्षण के लिए सतत प्रयत्नशील रहने के कारण बसपा के वोट बैंक में और इजाफा होगा, जिसे वे किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहेंगी।
असल में बसपा ने अपना जनाधार तो बसपा के संस्थापक कांशीराम के जमाने में ही बना लिया था और कांगे्रेस से नाराज अनुसूचित जाति अनेक मतदाता बसपा के साथ जुड़ गए थे। स्वयं कांशीराम ने भी भरपूर कोशिश की, मगर अच्छे व प्रभावशाली प्रत्याशी नहीं मिल पाने के कारण उन्हें कुछ खास सफलता हासिल नहीं हो पाई। इसके बाद भी बसपा सक्रिय बनी रही और उसे पिछले चुनाव में छह विधायक चुने जाने पर उल्लेखनीय सफलता हासिल हुई। मगर मायावती के उत्तरप्रदेश में व्यस्त होने के कारण वे राजस्थान में ध्यान नहीं दे पाईं। नतीजतन पार्टी के सभी छहों विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए और पार्टी को एक बड़ा झटका लग गया। असल में बसपा का मतदाता आज भी मौजूद है, मगर पार्टी को कोई दमदार राज्यस्तरीय चेहरा नहीं मिल पाने के कारण संगठनात्मक ढ़ांचा बन नहीं पा रहा। समझा जाता है कि उत्तरप्रदेश में सत्ता गंवाने के बाद मायावती ने राजस्थान पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया है। इस बार उन्हें कोई दमदार चेहरा यहां मिल पाता है या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर इतना जरूर तय है कि पार्टी पूरे जोश-खरोश से एक बार फिर चुनाव मैदान में जरूर उतरेगी। लक्ष्य यही है कि किसी भी प्रकार दस-बीस सीटें हासिल कर ली जाएं, ताकि बाद में सरकार के गठन के वक्त नेगासिएशन किया जा सके।
हालांकि अभी राजस्थान में बसपा की कोई गतिविधियां नहीं हैं, मगर उसका जनाधार तो है ही। वस्तुत: बसपा अपनी वोट बैंक की फसल को ठीक से काट नहीं पा रही है। बसपा का राजस्थान में कितना जनाधार है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव में बसपा ने 199 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें से 53 सीटें ऐसी थीं, जिनमें बसपा ने 10 हजार से अधिक वोट हासिल किए थे। छह पर तो बाकायदा जीत दर्ज की और बाकी 47 सीटों पर परिणामों में काफी उलट-फेर कर दिया।
बेशक बसपा राजस्थान में अभी तीसरा विकल्प नहीं बन पाई है, मगर उसका ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। आपको ख्याल होगा कि बसपा ने राजस्थान में 1998 में खाता खोला था। तब पार्टी के 110 में से 2 प्रत्याशी बानसूर से जगत सिंह दायमा और नगर से मोहम्मद माहिर आजाद जीते थे। इसके बाद 2003 में 124 प्रत्याशी मैदान में उतरे थे, उनमें से बांदीकुई से मुरारीलाल मीणा और करौली से सुरेश मीणा विधानसभा पहुंचे। इसी प्राकर 2008 में 199 प्रत्याशियों में से 6 ने जीत दर्ज कर जता दिया कि बसपा धीरे-धीरे ही सही, तीसरे विकल्प की ओर बढ़ रही है। हालांकि उसके सभी विधायक कांग्रेस में चले गए, मगर इससे उसके वोट बैंक पर कोई असर पड़ा होगा, ऐसा समझा जाता है। प्रसंगवश बता दें कि 2008 में नवलगढ़ से राजकुमार शर्मा, उदयपुरवाटी से राजेन्द्र सिंह गुढ़ा, बाडी से गिर्राज सिंह मलिंगा, सपोटरा से रमेश, दौसा से मुरारीलाल मीणा और गंगापुर से रामकेश ने जीत दर्ज की थी। इसके अतिरिक्त दस सीटों सादुलपुर, तिजारा, भरतपुर, नदबई, वैर, बयाना, करौली, महवा, खींवसर और सिवाना पर कड़ा संघर्ष करते हुए दूसरा स्थान हासिल किया था। वोटों के लिहाज से देखें तो पार्टी को सादुलपुर व करौली में चालीस हजार से ज्यादा वोट मिले। इसी प्रकार नदबई, खींवसर, हनुमानगढ़ व लूणी में तीस हजार से ज्यादा वोट मिले। तिजारा, भरतपुर, वैर, बयाना, महवा, सिवाना, करनपुर, रतनगढ़, सूरजगढ़, मंडावा, अलवर ग्रामीण, धौलपुर, मकराना, पीपलदा सूरतगढ़, संगरिया व हिंडौन में बीस हजार से ज्यादा वोट हासिल किए। कुल मिला आंकड़े यह साफ जाहिर करते हैं कि यहां बसपा का उल्लेखनीय जनाधार तो है, बस उसे ठीक मैनेज कर सीटों में तब्दील करने के लिए रणनीति बनाई जाए। जानकारी के अनुसार इस बार खुद मायावती इस ओर ध्यान दे रही हैं। उनकी रणनीति क्या होगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, दिसंबर 17, 2012

यानि कि हेडली मामले से सबक नहीं लिया


ब्रह्मा मंदिर
अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह की जियारत के नाम पर बिना वीजा के पाकिस्तानियों के आने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। हाल ही दो पाकिस्तानी नागरिकों का पुष्कर आ कर लौट जाना और उसके बाद उनके आने का खुलासा होना यह साबित करता है कि अजमेर की पुलिस व खुफिया एजेंसियों ने मुंबई ब्लास्ट के मास्टर माइंड डेविड कॉलमेन हेडली के पुष्कर की रेकी करके चले जाने वाली सनसनीखेज घटना से कोई सबक नहीं लिया है। इस ताजा घटना से पुलिस तंत्र की नाकामी साफ साबित हो रही है। अब जिस होटल में वे पाक नागरिक ठहरे थे, उसके प्रबंधन व पुलिस एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि 10 दिसम्बर को मुम्बई पहुंचे करांची निवासी इम्तियाज हुसैन और लाहौर निवासी जमशेख बशीर भाटी के पास 7 दिन का वैध वीजा था। इसके तहत वे मुम्बई, आगरा और अजमेर घूम सकते थे, लेकिन ये लोग भारतीय नियमों को धत्ता बताते हुए पुष्कर के अनन्ता होटल में आकर वापस चले गये। गौरतलब है कि विश्व का एक मात्र ब्रह्मा मंदिर और इजरायलियों का धर्म स्थल बेद खबाद आतंकियों के निशाने पर हैं। इसके बावजूद सुरक्षा को लेकर ना तो पुलिस गंभीर है न ही गुप्तचर एजेंसियां।
यहां उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व भी बिना वीजा के अजमेर व पुष्कर में पाक नागरिकों के आने की अनेक घटनाएं हो चुकी हैं। कितने अफसोस की बात है कि एक ओर बम विस्फोट के बाद दरगाह को और अधिक संवेदनशील माना जा रहा है और सुरक्षा के कड़े इंतजाम करने के दावे किए जाते हैं, दूसरी ओर पाकिस्तानी नागरिक बिना वीजा के बड़ी आसानी से यहां चले आते हैं। दावे चाहे जो किए जाएं, मगर न तो हमने दरगाह बम विस्फोट से सबक लिया है और न ही मुंबई ब्लास्ट के मास्टर माइंड व देश में आतंकी हमले करने का षड्यंत्र रचने के आरोप में अमेरिका में गिरफ्तार डेविड कॉलमेन हेडली के सीआईडी की आंख में सुरमा डालने से कुछ सीखा है। हेडली मामले में तो पुलिस तंत्र की बड़ी किरकिरी हुई थी।
बेद खबाद
बिना वीजा-पासपोर्ट के अजमेर आने वालों का सिलसिला काफी लंबा है। अब तक अनेक पाकिस्तानी व बांग्लादेशी पकड़े जा चुके हैं, मगर इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकाला जा सका है। पकड़े गए घुसपैठिये तो रिकार्ड पर हैं, पर जो नहीं पकड़े जा सके हैं, उनका तो अनुमान ही लगाना कठिन है। ज्यादा चौंकाने वाली बात तो ये है कि अपराधी किस्म के या मकसद विशेष के लिए अजमेर आने वाले तो चलो शातिर हैं, मगर केवल जियारत के मकसद से भी यहां बड़ी आसानी से पहुंच रहे हैं। स्पष्ट है कि न तो सीमा पर पूरी चौकसी बरती जा रही है और न ही अजमेर जैसे संवेदनशील स्थान के बारे में पुलिस गंभीर है। रहा सवाल सरकार का तो वह भी सख्त नजर नहीं आती है। जरूर इस प्रकार बिना वीजा-पासपोर्ट के पाकिस्तान या बांग्लादेश से आने वालों पर अंकुश लगाने के लिए प्रावधान लचीले हैं, तभी तो घुसपैठियों में कोई खौफ नहीं है।
बहरहाल, इस प्रकार लगातार बढ़ती जा रही धुसपैठ की घटनाओं से अंदेशा यही है कि अजमेर में कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है। कोई आतंकी भी इस प्रकार बिना पासपोर्ट व वीजा के अजमेर या पुष्कर पहुंच जाएगा और वह कोई हरकत कर गायब हो जाएगा और पुलिस हाथ ही मलती रह जाएगी।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, दिसंबर 13, 2012

पकड़े रहो नए जिले बनने का झुनझुना

राजस्थान में नए जिले बनाने को लेकर सरकार कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इसी बात से लग रहा है कि इसके लिए गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट देने के लिए तीन माह का और समय मांग लिया है। यानि कि फिलहाल सब्र करना होगा और आगामी विधानसभा चुनाव से पहले होने वाले बजट सत्र तक आशा को मन में संजो कर रखना होगा।
इस मुद्दे पर एचबीसी न्यूज चैनल के डीडवाना संवाददाता हनु तंवर निशब्द ने फेसबुक पर लिखा है कि राज्य सरकार नए जिलों की घोषणा के लिए श्री जीएस संधू की अध्यक्षता में बनाई गई विशेष समिति ने जिलों की घोषणा से सम्बंधित रिपोर्ट के लिए तीन माह का समय और मांगा है । अभी तक इस समिति के पास 31 दिसंबर तक का समय था जिसमें समिति को नए जिलों के प्रस्ताव सरकार को देने थे । गत बजट में राज्य सरकार ने नए जिले बनाने के लिए एक समिति गठन करने की घोषणा की थी बजट में इस समिति को सितम्बर में रिपोर्ट देनी थी लेकिन इस अवधि को बढाकर बाद में दिसंबर कर दिया गया लेकिन दिसंबर में भी समिति अपनी रिपोर्ट नहीं दे पायेगी । एक तरफ जहाँ राज्य सरकार ने नए जिलों की मांग कर रहे कस्बो को और आम नागरिकों को इस घोषणा के बाद बड़े बड़े आयोजन करके शक्ति प्रदर्शनों के लिए मजबूर कर दिया वहीँ अब सरकार इन घोषणाओं को रोक कर जनता की भावनाओं के साथ कुठारघात कर रही है । मिडिया के जरिये बार बार सरकार जनता को भ्रमित भी करने की कोशिश कर रही है । जिले बनाने की क़तार में खड़े शहरों की आम जनता सरकार के चार वर्ष पूर्ण करने के समारोह को बड़ी आशा की नज़रों से देख रहे थे लेकिन 13 तारिख निकलते ही इन शहरों की जनता की भावनाओ के साथ एक बार और कुठारघात हुआ और जिलों की घोषणा नहीं हुई । लेकिन लोगों को आशा अभी भी है की चुनाव से पूर्व आने वाले बजट में सरकार इन जिलों की घोषणा अवश्य करेगी । लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह अवश्य ही जनता की भावनाओ के साथ खिलवाड़ होगा और इसमे कोई अतिस्योक्ति नहीं होगी की जनता इसका हिसाब चुनावों में अवश्य चुकाएगी।
निशब्द की इस टिप्पणी पर प्रतिटिप्पणी करते हुए केकड़ी के पत्रकार पीयूष राठी ये विचार जाहिर किए हैं:- चाहे ये शहर जिले बने न बने मगर जनता को तो क्षेत्रीय राजनेताओ और सरकार ने एक झुनझुना पकड़ा ही दिया है और इस झुनझुने को पत्रकारों द्वारा भी बड़े जोश फरोश के साथ हिलाया जा रहा है...और जैसे एक मदारी अपना खेल दिखाने से पूर्व झुनझुना हिला कर लोगो का आकर्षण प्राप्त करता है ठीक वैसे ही हालात इन शहरों में निवास कर रही जनता के है...जिला बने न बने मगर ये अपनी डफली बजा कर एक मांग जर्रूर कर लेंगे की भाई इस बार तो तकनीकी खामिया रह गयी एक बार और जीता दो तो जिला बनने से इस क्षेत्र को कोई नहीं रोक सकता...मगर ये पब्लिक है सब जानती है....
एक समाचार पत्र के सर्वे के अनुसार राजस्थान में मौजूदा क्षेत्रीय विधायकों से उनकी क्षेत्रीय जनता काफी नाखुश है....अब देखो आखिर क्या होता है जिलों का....या फिर ये जिल्जिला ही रह जाता है....
कुल मिला कर यह माना जा सकता है कि सरकार कभी अपना स्टैंड साफ नहीं करती और लोगों को झुनझुना पकड़ा देती है। ब्यावर को जिला बनाने की मांग को ही लीजिए। यह मांग पिछले बीस साल से हो रही है। कांग्रेस व भाजपा, दोनों के ही नेताओं स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत व अशोक गहलोत ने आश्वासन दे कर वोट हासिल किए और बाद में चुप्पी साध ली। ब्यावर अभी जिला बना नहीं और उससे पहले ही केकड़ी के विधायक व सरकारी मुख्य सचेतक डॉ. रघु शर्मा ने अगला चुनाव जीतने के लिए केकड़ी को जिला बनवाने का वादा कर दिया। अब देखना ये है कि क्या आगामी बजट सत्र में इस पर कुछ होता है या नहीं।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, दिसंबर 08, 2012

यूपीए की नहीं असल जीत तो मायावती की हुई


बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष सुश्री मायावती ने एफडीआई के मामले में राज्यसभा में सरकार के पक्ष में मतदान करके एक तीर से कई शिकार कर लिए। हालांकि इस मामले में भाजपा की करारी हार हुई और कांग्रेस की तिकड़मी जीत, मगर मायावती ने जो जीत हासिल की है, उसके गहरे राजनीतिक मायने हैं।
बेशक मायावती पर भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने दोहरी भूमिका का जो सवाल उठाया, उसका सीधा सपाट जवाब मायावती के पास नहीं है, मगर पलट कर उन्होंने जो कटाक्ष किए, उससे भाजपा की बोलती बंद हो गई। उनका साफ मतलब था कि वे कब क्या करेंगी, कुछ नहीं कहा जा सकता और अपनी पार्टी के हित के लिये वे जो कुछ उचित समझेंगी, करेंगी। ऐसा नहीं कि मायावती ने ऐसा पहली बार किया है, इससे पहले भी इसी तरह की चालें चल चुकी हैं। ये वही मायावती हैं, जिन्होंने सत्ता की खातिर कथित सांप्रदायिक पार्टी भाजपा से हाथ मिला कर उत्तरप्रदेश में समझौते की सरकार ढ़ाई साल चलाई, पूरा मजा लिया और जैसे ही भाजपा का नंबर आया, समझौता तोड़ दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि मायावतीवाद यही है कि साम, दाम, दंड, भेद के जरिए येन केन प्रकारेण दलित को सत्ता में लाया जाए। उसमें फिर कोई भी आदर्श आड़े नहीं आता। असल में यह उन सैकड़ों वर्षों का प्रतिकार है, जिनमें सवर्ण वर्ग ने दलितों का सारे आदर्श और मानवता ताक पर रख कर दमन किया। इसी प्रतिकार की जद में उन्होंने अपने धुर विरोधी मुलायम सिंह को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने कांग्रेस को जो समर्थन दिया, उसके पीछे एक कारण ये भी है कि वे दूसरे पलड़े में बैठ कर मुलायम का वजन कम करना चाहती हैं। ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता से माया को बेदखल करने वाले मुलायम लगातार कोशिश कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव जल्दी हो जाएं। विधानसभा चुनावों में जो अप्रत्याशित बहुमत एसपी को मिला था वह लोकसभा में भी मिले। ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर वह दिल्ली में ताकत बढ़ाना चाहते हैं ताकि दिल्ली पर राज करने का सपना पूरा कर सकें। इसके लिए उन्होंने तैयारी भी कर ली है। मगर मायावती चाहती हैं कि केन्द्र सरकार स्थिर बनी रहे और कुछ समय और निकाले, ताकि विधानसभा चुनावों के समय जो माहौल एसपी के पक्ष में बना था, वह धीरे-धीरे कम हो जाए। जो फायदा एसपी को अभी मिल सकता है वह 2014 में नहीं मिलेगा। इसके अतिरिक्त वे मुलायम की बार्गेनिंग पावर को भी कम करना चाहती हैं और सरकार को स्पष्ट समर्थन देकर यह संदेश दे दिया है कि सरकार का आंकड़ा पूरा है और समय से पहले चुनाव की कोई संभावना नहीं है। यह भी साफ हो चुका है कि मुलायम केंद्र का साथ छोड़ दें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। माया का समर्थन उसके लिए काफी होगा।
कुल मिला कर मायावती की कार्यशैली की चाहे जितनी आलोचना की जाए, मगर राजनीतिक हथकंडों में उनका कोई सानी नहीं है। यूं कुछ इसी प्रकार की फितरत मुलायम भी रखते हैं। जब मीडिया ने उनसे पूछा कि आप संसद में एफडीआई का विरोध करते हैं ओर उसे लागू करने के लिए अपरोक्ष रूप से कांग्रेस को संबल प्रदान करते हैं, इस पर वे बोले कि ये तो राजनीति है, हम कोई साधु-संन्यासी थोड़े ही हैं। यानि कि भले ही भाजपा लोकतंत्र और मर्यादा की लाख दुहाई दे, मगर जातिवाद के जरिए राजनीति पर हावी मायावती व मुलायम वही करेंगे, जो कि उन्हें करना है।
 -तेजवानी गिरधर

रविवार, दिसंबर 02, 2012

सुषमा ने कब कहा कि मोदी पीएम इन वेटिंग हैं?

इन दिनों जैसे ही किसी नेता के मुंह से कुछ निकलता है, मीडिया तुरंत उसका पोस्ट मार्टम करने लग जाता है। सच कहें तो मुंह से निकलता नहीं, बल्कि जबरन मुंह में ठूंस दिया जाता है। मीडिया सवाल ही ऐसे करता है कि नेता को जवाब देना पड़ जाता है। फिर उसकी हां या ना के अपने हिसाब से मायने निकाल लिए जाते हैं।
लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज को ही लीजिए। उन्होंने अपनी ओर से कहीं नहीं कहा कि मोदी पीएम इन वेंटिंग हैं, अथवा पार्टी की ओर दावेदारी कर रहे हैं। उनसे पूछा गया था कि क्या मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं, इस पर उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि मोदी हर दृष्टि से प्रधानमंत्री पद के लायक हैं। इसका अर्थ ये कत्तई नहीं होता कि वे भाजपा की ओर से पेश किए जा रहे हैं अथवा वे दावेदारी कर रहे हैं। मगर अर्थ ये ही निकाला गया कि वे मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के पक्ष में हैं। न केवल अर्थ निकाला गया अपितु उस पर बड़ी बड़ी स्टोरीज तक चलाई जाने लगी।
कल्पना की कीजिए कि अगर वे कहतीं कि मोदी दावेदार नहीं हो सकते तो उसके कितने खतरनाक मायने होते। सीधी से बात है कि वे ये तो किसी भी सूरत में नहीं कह सकती थीं कि वे दावेदार नहीं हो सकते। उन्हें तो कहना ही था कि हां, दावेदार हो सकते हैं, जो कि एक सच भी है। इसी सच को जैसे ही उन्होंने स्वीकारोक्ति दी, मीडिया ने तो भाजपा की ओर से मोदी को प्रधानमंत्री ही बना दिया।
मीडिया का अगर यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा आएगा कि नेता लोग मीडिया के सामने आना ही बंद कर देंगे कि वे कुछ का कुछ अर्थ निकाल लेते हैं। इसके अतिरिक्त वे मीडिया की इस आदत का फायदा भी उठा सकते है और जो बात उन्हें राजनीति के बाजार फैंकनी होगी, उसका हल्का का इशारा कर देंगे।
-तेजवानी गिरधर