तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, अक्तूबर 11, 2011

मैदान से बाहर रह कर मैदान का मजा ले रहे हैं अन्ना

भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम तथा जनलोकपाल विधेयक संसद में पेश किए जाने की मांग को लेकर पूरे देश में हलचल मचाने के दौरान खुद को राजनीति से दूर रखने की घोषणा करने वाले अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आने लगा है। असल में आ ही गया है। उनकी और उनके साथियों की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा साफ नजर आ रही है।
इस सिलसिले में मुझे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक सभा में कहा गया एक कथन याद आता है। उन दिनों अभी जनता पार्टी का राज नहीं आया था। नागौर शहर की एक सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस उन पर आरोप लगा रही है कि वे सत्ता हासिल करना चाहते हैं। हम कहते हैं कि इसमें बुराई भी क्या है? क्या केवल कांग्रेस ही राज करेगी, हम नहीं करेंगे? हम भी राजनीति में सत्ता के लिए आए हैं, कोई कपास कातने या कीर्तन थोड़े ही करने आए हैं। वाजपेयी जी ने तो जो सच था कह दिया, मगर अन्ना एंड कंपनी में शायद ये साहस नहीं है। वे राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। यदि वे भी ये कह कर कि हम भी राजनीति में आना चाहते हैं तो कदाचित जनता उनको इतना समर्थन नहीं देती। भाजपा को ही लीजिए न, आंदोलन तो उसने भी दिखाने को किया, विपक्षी दल की औपचारिकता निभाई, मगर जनसमर्थन नहीं मिला। वजह साफ थी कि जिस मुद्दे पर आंदोलन हुआ, उस मामले में वह भी दूध की धुली हुई है।
बहरहाल, अन्ना एंड कंपनी को जैसे ही लगा कि जनता उनका साथ दे रही है तो उनकी भी महत्वाकांक्षा जाग गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना हजारे को अंदाजा था। इसी कारण कदम दर कदम राजनीति की ओर सरक रहे हैं। पहले देशभक्ति का नाम दे कर जनता का समर्थन हासिल किया और अब अपनी ताकत भी नाप रहे हैं। उसमें भी चालाकी कर रहे हैं। खुद सीधे तौर पर राजनीति में नहीं उतर रहे। हिसार के उपचुनाव में अपना कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं कर रहे, मगर कांग्रेस को निशाना बना कर उसके विरोध में प्रचार कर रहे हैं। जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही अब रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है।
भले ही वे कहें कि जो भी जनलोकपाल बिल के प्रति सहयोगात्मक रुख नहीं रखेगा, उसका विरोध करेंगे, मगर केवल एक पार्टी विशेष पर निशाना साधने से उनके कृत्य में राजनीति की बू आने लगी है। अन्ना और उनके समर्थक भले ही शब्दों के कितने ही जाल फैलाएं, कितनी ही सफाई दें, मगर उनके ताजा कृत्य से जाहिर हो गया है कि वे अपने मूल मकसद से हटकर विवाद की ओर बढ़ रहे हैं। खुद उनकी ही टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्ना जाहिर कर चुके हैं। चलो कांग्रेस पर तो हमला हो रहा है, इस कारण वह राजनीति के तहत की पलट वार कर रही है। उसके इस आरोप में कितना दम है कि अन्ना भाजपा व संघ के हाथों की कठपुतली हैं या उनको राष्ट्रपति पद का साझा उम्मीदवार बनाने का लालच दिया गया है, कुछ कह नहीं सकते, मगर आमजन में भी यह प्रतिक्रिया तो है कि आखिर अन्ना हजारे व उनके साथियों मकसद वास्तव में है क्या?  सवाल ये भी उठने लगा है कि वे जनलोकपाल विधेयक को संसद में पारित कराने की बजाय खुल कर कांग्रेस की खिलाफत पर क्यों उतर आए? जाहिर तौर पर इसका भारतीय जनता पार्टी समर्थित उम्मीदवार के रूप में हरियाणा जनहित कांगेस के उम्मीदवार कुलदीप बिश्रोई को फायदा होगा, जो कि परोक्ष रूप से उनका समर्थन करने के ही समान है। खुद अन्ना भी स्वीकार कर रहे हैं कि ऐसा तो होता ही है, एक का विरोध करने पर दूसरे को फायदा होता है। मगर आश्चर्य है कि वे इसे दूसरे का समर्थन करार दिए जाने को गलत मानते हैं। क्या यह एक चतुराई नहीं है कि वे राजनीति के मैदान को गंदा बताते हुए उसमें आ भी नहीं रहे और उसमें टांग भी अड़ा रहे हैं? यानि राजनीति से दूर रह कर अपने आपको महान भी कहला रहे हैं और उसके मजे भी ले रहे हैं। गुड़ से परहेज दिखा रहे हैं और गुलगुले बड़े चाव से खा रहे हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई शादी न करके उसकी परेशानियों से दूर भी बना रहे और शादी से मिलने वाले सुख को भोगता रहे।
एक दिलचस्प बात और है। वो ये कि अन्ना हजारे खुद ही हिसार के दंगल को आगामी लोकसभा चुनाव का सेंपल सर्वे तक करार दिए रहे हैं, जो कि नितांत हास्यास्पद है। हर लोकसभा क्षेत्र के चुनावी समीकरण काल, परिस्थितियों सहित अनेकानेक पहलुओं पर निर्भर करता है। गौर करने लायक बात ये भी है कि अरविंद केजरीवाल अपने भाषणों में जैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह किसी सदाशयी की भाषा तो कत्तई नहीं दिखाई देती। साफ तौर पर वे राजनीति के गिरे हुए स्तर पर जा कर बोल रहे हैं। उनकी भाषा में वैसी ही कुटिलता है, जैसी आमतौर पर राजनीतिकज्ञों की भाषा में होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि खुद अन्ना एंड कंपनी इस उपचुनाव को अपने लिए सेंपल सर्वे कर रही है, ताकि बाद में अन्ना की उस घोषणा पर भी काम शुरू किया जा सके, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे ऐसे स्वच्छ लोगों की तलाश में हैं जो आगामी लोकसभा चुनाव में उतारे जा सकें। वे ऐसे लोगों को पूरा समर्थन देंगे। कुल मिला कर इससे अन्ना और उनकी टीम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा खुलकर सामने आ गई है और ये भी जाहिर हो गया है कि अन्ना शुरू से ही अपने आंदोलन को सत्ता संघर्ष के लिए एक सीढ़ी बना कर चल रहे हैं।
रहा सवाल अन्ना के भाजपा या संघ की कठपुतली होने का तो भले ही यह आरोप सीधे तौर पर गलत हो, मगर यह तो सच है ही कि अन्ना के आंदोलन की सफलता में भाजपा का भी हाथ रहा है, भले ही उसके कार्यकर्ता अपनी पहचान छुपा कर शामिल हुए हों। संघ प्रमुख मोहन भागवत सहित भाजपा के नेताओं ने तो साथ स्वीकार कर ही लिया कि देशहित की खातिर संघ ऐसे आंदोलन का समर्थन करता है और करता रहेगा, भले अन्ना उनके समर्थन होने की बात से इंकार करें।
बहरहाल, अन्ना एंड कंपनी जो कुछ कर रही है, वह इस लोकतांत्रिक देश में उनकी स्वतंत्रता है, मगर यदि वे वाकई राजनीति के इसी स्तर पर आने का छुपा एजेंडा ले कर चल रहे थे तो उस युवा पीढ़ी के साथ जरूर धोखा होगा, जो देशभक्ति के जज्बे के कारण उनके साथ हो ली थी। उन पर क्या बीतेगी जो, राष्ट्र प्रेम की खातिर निष्छल भाव से भ्रष्टाचार मुक्त देश बनाने की खातिर जुटे थे?
-tejwanig@gmail.com