असल में श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन रखना एक गहरे सम्मान और संवेदना का प्रतीक होता है। इसके पीछे कई सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं।
मौन रहकर हम उस व्यक्ति के जीवन और योगदान को याद करते हैं। यह एक शांत और गंभीर तरीका होता है यह दिखाने का कि हम उन्हें दिल से सम्मान देते हैं। मौन का समय हमें भीतर झांकने, अपने विचारों और भावनाओं से जुड़ने का मौका देता है। हम उस व्यक्ति के साथ अपने संबंध को याद करते हैं। जब एक समूह एक साथ मौन धारण करता है, तो यह एकता और सहानुभूति का भाव पैदा करता है। यह दिखाता है कि हम सब मिलकर उस क्षति को महसूस कर रहे हैं। मौन अपने आप में ध्यान का रूप होता है। यह पल थोड़ी देर के लिए संसार की हलचल से हटकर शांति और स्थिरता में जाने का अवसर देता है। दो मिनट का मौन सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि कई देशों में युद्ध, आपदा या किसी महान व्यक्तित्व के निधन पर श्रद्धांजलि के रूप में अपनाया जाता है। दो मिनट का मौन रखने की परंपरा की शुरुआत प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई थी। 1919 में, ब्रिटेन और उसके सहयोगी देशों ने प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सैनिकों की याद में एक दो मिनट का मौन रखा था। इसे पहली बार 11 नवम्बर 1919 को सुबह 11 बजे मनाया गया। यह पहल किंग जॉर्ज पंचम ने की थी। उन्होंने लोगों से अपील की कि वे युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए दो मिनट का मौन रखें।
भारत में भी यह परंपरा अपनाई गई, विशेषकर महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (30 जनवरी) पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। इसके अलावा, किसी भी राष्ट्रीय शोक या बड़ी दुर्घटना पर यह मौन रखा जाता है।
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