तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, जून 23, 2012

भागवत ने दिया भाजपा को फिर जड़ों से जोडऩे का इशारा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से धर्मनिपरपेक्ष चेहरे को राजग की ओर प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाए जाने की मांग पर भाजपा अभी कुछ बोलती, इससे पहले ही भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने यह कह कर कि हिंदूवादी चेहरे का प्रधानमंत्री बनाने में क्या ऐतराज है, एक बार फिर उस पुरानी बहस को जन्म दे दिया है, जिसके चलते भाजपा को दोहरे चरित्र से जुड़ी कठिनाई आती रहती है।
हालांकि राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया के बीच यकायक प्रधानमंत्री पद का मुद्दा उठाने के पीछे नीतिश कुमार की जो भी राजनीति है, उसके अपने अर्थ हैं, मगर उसके जवाब में तुरंत भागवत का जवाब आना गहरे मायने रखता है। ऐसा लगता है कि नीतिश ने उपयुक्त समय समझ कर ही सवाल उठाया और भागवत को भी लगा कि इससे बेहतर मौका नहीं होगा, जबकि भाजपा को उसकी जड़ों से जोड़ा जाए।
इस प्रसंग में जरा पीछे मुड़ कर देखें। अखंड भारत और हिंदू राष्ट्र का सपना पाले हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राजनीतिक चेहरे जनसंघ को जब अकेले हिंदूवादी दम पर सत्ता पर काबिज होना कठिन लगा तो अन्य विचारधारा वाले संगठनों अथवा यूं कहें कि कांग्रेस विरोधी व कुछ उदारवादी संगठनों का सहयोग लेकर जनता पार्टी का गठन करना पड़ा। वह प्रयोग सफल रहा और नई पार्टी इमरजेंसी से आक्रोशित जनता के समर्थन से केन्द्र पर काबिज भी हुई। मगर यह प्रयोग इस कारण विफल हो गया क्योंकि उसमें फिर कट्टर हिंदूवादी और उदारपंथी का झगड़ा बढ़ गया। ऐसे में हिंदूवादी विचारधारा वाले अलग हो गए व भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया। भाजपा यह जानती थी कि वह अकेले अपने दम पर फिर सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती, इस कारण उसने फिर गैर कांग्रेसी दलों के साथ गठबंधन किया और फिर से सत्ता पर आरूढ़ हो गई।
जाहिर सी बात है कि ऐसे गठबंधन की सरकार को अनेक दलों के दबाव की वजह से अपना हिंदूवादी एजेंडा साइड में रखना पड़ा। उस वक्त संघ और हिंदूवादी संगठनों को तकलीफ तो बहुत हुई, मगर किया कुछ जा नहीं सकता था। इसी दौर में भाजपा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे को भुनाते हुए अपने बाहरी स्वरूप में बदलाव किया। भाजपा ने हिंदूवाद की परिभाषा को इस रूप में व्यक्त किया कि हिंदू यानि केवल सनातन धर्म को मानने वाले नहीं, बल्कि हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं। इसी दौर में तथाकथित राष्ट्रवादी मुसलमानों को भाजपा से परहेज छोड़ कर साथ आने में कोई बुराई नजर नहीं आई। संगठन को सर्व धर्म स्वीकार्य बनाने और अपना जनाधार बढ़ाने के लिए गैर संघ पृष्ठभूमि के लोगों को शामिल करना पड़ा। यहां तक कि कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी से आने वाले किसी भी उपयोगी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने या टिकिट देने में कोई संकोच नहीं किया, भले ही वह गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त रहने के कारण निकाला गया हो। इस नीति के लाभ भी हुए। कहीं सीधे सत्ता मिली तो कहीं पर प्रमुख विपक्षी दल बन कर उभरी और कांग्रेस विरोधियों अथवा अवसरवादियों का सहयोग लेकर सत्ता पर काबिज भी हुई। उसकी यह सफलता कम करके नहीं आंकी जा सकती कि जोड़ तोड़ के दम पर ही सही, मगर भाजपा न केवल राज्यों में सफल भी हुई अपितु 1998 से 2004 के बीच उसने देश के केन्द्र में गठबन्धन सरकार भी चलायी। मगर इन सब के बीच एक समस्या फिर उठ खड़ी हुई है। वो यह कि भाजपा एक बार फिर जनता पार्टी जैसी पार्टी बन गई है, जिससे पिंड छुड़ा कर वह भाजपा के रूप में आई थी। इसमें कट्टर व उदारवादी दोनों अपना अपना महत्व रखते हैं। ऊपर से एक दिखने वाली भाजपा के अंदर दो धाराएं बह रही हैं। एक वह जो सीधे संघ से जुड़ी हुई है और दूसरी जो है तो बहुसंख्यक हिंदूवाद के साथ, मगर संघ से उसका कोई नाता नहीं और उदारवादी भी है। आज पार्टी में उदारवादी केवल महत्व ही नहीं रखते, अपितु कई जगह तो वे हावी हो गए हैं। जाहिर सी बात है ऐसे में संघ पृष्ठभूमि वालों को भारी तकलीफ हो रही है और वे फिर से छटपटाने लगे हैं। वे पार्टी की मौलिक पहचान खोते जाने और पार्टी विथ द डिफ्रेंस की उपाधि छिनने की वजह से बेहद दुखी हैं। अर्थात एक बार फिर मंथन का दौर चल रहा है। इसी मंथन के बीच जब नीतीश ने धर्मनिरपेक्षता का दाव चला तो भाजपा तिलमिला गई। तिलमिलाना स्वाभाविक भी है। पार्टी ने अपनी चाल भी बदली और उसके बाद भी यदि उसे अथवा उसके कुछ चेहरों को सांप्रदायिक करार दिया जाएगा तो बुरा लगना ही है। ऐसे में भागवत ने पहल करके अपना वार चल दिया है। उन्होंने न केवल हिंदूवाद की परिभाषा पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है, अपितु भाजपा में भी किंतु-परंतु में जी रहे नेताओं को इशारा कर दिया है कि हिंदूवाद किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा जाएगा। विशेष रूप से यह कि संघ की पसंद ही पार्टी की प्राथमिकता होगी। असल में संघ अपनी पसंद पिछले दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अहमियत भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के दौरान अहमियत बढ़ा कर जता चुका है, मगर जैसे ही नीतीश ने उसकी दुखती रग पर हाथ रखा तो भागवत को खुल कर सामने आना पड़ा। हालांकि उन्होंने मोदी का नाम तो नहीं लिया, मगर उनके बयान से साफ है कि वे मोदी की ही पैरवी कर रहे हैं। और इसी पैरवी के बहाने अपनी मौलिक नीति पर फिर से धार देने का इशारा भी कर रहे हैं। 

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

शनिवार, जून 09, 2012

संगठन की दुहाई देने वाली भाजपा में व्यक्ति हो गए हावी

यह बात सिद्धांतत: तो सही है कि लोकतंत्र में व्यक्तिवाद और परिवारवाद का कोई स्थान नहीं होना चाहिए और नीति व विचार को ही महत्व दिया जाना चाहिए, मगर सच्चाई ये है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कहलाने वाले हमारे भारत में परिवारवाद और व्यक्तिवाद ही फलफूल रहे हैं। कांग्रेस की आधारशिला तो टिकी ही परिवारवाद पर है, जबकि भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र होने के बावजूद व्यक्तिवाद का बोलबाला है।
ताजा उदाहरण ही लीजिए। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पार्टी पर इतने हावी हो गए हैं कि उनकी नाराजगी से डर कर संघ पृष्ठभूमि के संजय जोशी का पहले भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा लेना पड़ा और उसके बाद जब मोदी के खिलाफ एवं जोशी के समर्थन में पोस्टरबाजी होने लगी तो जोशी को पार्टी ही छोड़ देनी पड़ी। जोशी को पार्टी से बाहर निकाले जाने को मोदी की बड़ी जीत माना जा रहा है। इसमें भी रेखांकित करने लायक बात ये है कि मोदी भी संघ पृष्ठभूमि के ही हैं, इसके बाद भी जोशी को शहीद किया गया है। साफ है कि अब संघ में भी धड़ेबाजी हो गई है। यूं संघ की विशेषता ये रही है कि वह कभी व्यक्ति को अहमियत नहीं देता, विशेष रूप से नीति के मामले में। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण ये है कि जब संघ पृष्ठभूमि के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ में चंद शब्द कह दिए तो उन्हें पद से इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया गया। मगर अब ऐसा लगता है कि संघ भी व्यावहारिक होने लगा है। वह समझ रहा है कि जोशी भले ही बड़े काम के नेता हैं, मगर उनकी तुलना में मोदी का जनाधार कई गुना अधिक है। जोशी के चक्कर में मोदी की नाराजगी मोल नहीं ली जा सकती। ताजा मोदी-जोशी प्रकरण में संघ व भाजपा की जबरदस्त किरकिरी हो रही है। दोनों संगठन समझ रहे हैं कि यह विवाद पार्टी हित में नहीं है, मगर उनकी नजर में आगामी लोकसभा चुनाव में जीत का लक्ष्य सबसे अहम है। हालांकि अभी तय नहीं है कि मोदी ही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे, मगर चाहे-अनचाहे वे दावेदार तो हो ही गए हैं। इसके अतिरिक्त एक राज्य गुजरात में उनका व्यक्तिगत बोलबाला है। भले ही ताजा प्रकरण में मोदी एक व्यक्ति के रूप में ताकतवर बन कर उभर आए हैं और यह संघ व भाजपा की नीतियों के अनुकूल नहीं है, मगर सत्ता में आने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी नीति को तिलांजलि देनी पड़ रही है। इसकी आलोचना भी हो रही है। बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने तो साफ कहा है कि पार्टी से बड़ा कोई नहीं। संजय जोशी से जिस तरह से इस्तीफा लिया गया वह आंतरिक लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, मगर उसके बाद भी यदि संघ व भाजपा को जोशी को हटाना उचित लग रहा है, तो इसका मतलब साफ है कि सत्ता में आने के लिए वह आंतरिक लोकतंत्र को छोडऩे संबंधी आलोचना सहने को तैयार है।
इतिहास में जरा पीछे जाएं तो अंदाजा लग जाएगा कि आज संघ पर हावी हो चुके मोदी संघ की ताकत से ही भाजपा के दिग्गजों से टक्कर ले चुके हैं। मोदी की वजह से जब पार्टी पर सांप्रदायिक होने का आरोप लग रहा था, तब भी भाजपा हाईकमान में इतनी ताकत नहीं थी कि उन्हें इस्तीफे के लिए कह सके। संघ के दम पर मोदी अपना हठ तब भी दिखा चुके हैं, जब गुजरात दंगों के बाद हुए विधानसभा चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं के कहने के बावजूद उन्होंने हरेन पंड्या को टिकट देने से इंकार कर दिया था।
भाजपा में व्यक्तिवाद का मोदी ही अकेला उदाहरण नहीं हैं। राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे कई राज्य हैं, जहां के क्षत्रपों ने न सिर्फ पार्टी आलाकमान की आंख से आंख मिलाई, अपितु अपनी शर्तें भी मनवाईं। मजे की बात है कि उसके बाद भी पार्टी सर्वाधिक अनुशासित कहलाती है। और उसी में अनुशासनहीनता की सर्वाधिक घटनाएं होती हैं।
आपको याद होगा कि राजस्थान में पार्टी आलाकमान के फैसले के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया था। बड़ी मुश्किल से उन्होंने पद छोड़ा, वह भी राष्ट्रीय महासचिव बनाने पर। उनके प्रभाव का आलम ये था कि तकरीबन एक साल तक नेता प्रतिपक्ष का पद खाली ही पड़ा रहा। आखिरकार पार्टी को झुकना पड़ा और फिर से उन्हें फिर से इस पद से नवाजा गया। ऐसे में भाजपा के इस मूलमंत्र कि 'व्यक्ति नहीं, संगठन बड़ा होता है�, की धज्जियां उड़ गईं। हाल ही पूर्व गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया की यात्रा के विवाद में भी वसुंधरा की ही जीत हुई। कटारिया को अपनी यात्रा रद्द करनी पड़ी। केवल इतना ही नहीं, विवाद की आड़ में वसुंधरा इस बात पर अड़ गई कि रोजाना की किचकिच खत्म करते हुए घोषित कर दिया जाए कि राजस्थान में आगामी चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा। हालांकि पार्टी इसकी घोषणा तो नहीं कर पाया, मगर जानकारी ये ही है कि नीतिगत रूप से उनकी मांग मानी ली गई है। मतलब साफ है, मोदी की तरह वसुंधरा भी पार्टी पर हावी हैं। मोदी तो फिर भी संघ पृष्ठभूमि के हैं, मगर राजस्थान में तो संघ से विपरीत चल रही वसुंधरा के आगे पार्टी व संघ को झुकना पड़ रहा है।
इसी प्रकार कर्नाटक में पार्टी को खड़ा करने वाले निवर्तमान मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का कद पार्टी से बड़ा हो गया। वो तो लोकायुक्त की रिपोर्ट का भारी दबाव था, वरना मुख्यमंत्री पद छोडऩे के पार्टी के आदेश को तो वे साफ नकार ही चुके थे। कुछ दिन शांत रहने के बाद वे अब भी फिर से मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए दबाव बना रहे हैं।
दिल्ली का उदाहरण लीजिए। मदन लाल खुराना की जगह मुख्यमंत्री बने साहिब सिंह वर्मा ने हवाला मामले से खुराना के बरी होने के बाद उनके लिए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी को छोडऩे से साफ इंकार कर दिया था। जब उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपने लिए पद देने का प्रस्ताव दिया गया, तब जा कर माने। उत्तर प्रदेश में तो बगावत तक हुई। कल्याण सिंह से जब मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा लिया गया तो वे पार्टी से अलग हो गए और नई पार्टी बना कर भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाया। उनका आधार भी जातिवादी ही था। इसी प्रकार उत्तराखण्ड में भगत सिंह कोश्यारी और भुवन चंद्र खंडूरी को हाईकमान के कहने पर मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा, मगर जब वहां विधानसभा चुनाव हुए तो पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के कहने के बावजूद उस रैली में खंडूरी और कोश्यारी नहीं पहुंचे। मध्यप्रदेश में उमा भारती का मामला भी छिपा हुआ नहीं है। वे राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को खुद पर कार्रवाई की चुनौती देकर बैठक से बाहर निकल गई थीं। शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर उन्होंने अलग पार्टी ही गठित कर ली। एक लंबे अरसे बाद उन्हें पार्टी में शामिल कर थूक कर चाटने का मुहावरा चरितार्थ किया गया। इसी प्रकार झारखण्ड में शिबू सोरेन की पार्टी से गठबंधन इच्छा नहीं होने के बावजदू अर्जुन मुण्डा की जिद के आगे भाजपा झुकी। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर में वरिष्ठ नेता चमन लाल गुप्ता का विधान परिषद चुनाव में कथित रूप से क्रास वोटिंग करना और महाराष्ट्र के वरिष्ठ भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे का दूसरी पार्टी में जाने की अफवाहें फैलाना भी पार्टी के लिए गंभीर विषय रहे हैं।
कुल मिला कर आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली पार्टी में अब विभिन्न क्षत्रप व व्यक्ति उभर आए हैं, जो कि संघ व भाजपा पर हावी हो चुके हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, जून 06, 2012

वसुंधरा को डुबाने वाले माथुर अब उनके मुरीद कैसे हो गए?

प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे व संघ लॉबी के बीच चल रहे विवाद पर हालांकि भाजपा हाईकमान ने अंतिम निर्णय नहीं दिया है अथवा निर्णय किया भी है तो उसे घोषित नहीं किया है, या फिर घोषणा करने से होने वाले संभावित नुकसान के कारण फिलहाल चुप है, मगर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर को कुछ ज्यादा ही जल्दी है। उन्होंने तो घोषित कर ही दिया है कि राजस्थान में आगामी चुनाव भाजपा श्रीमती वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ेगी। ये स्थिति तब है, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के वसुंधरा को भावी मुख्यमंत्री होने पर गुलाब चंद कटारिया व ललित किशोर चतुर्वेदी ने असहमति जताई थी और उसकी परिणति कटारिया की यात्रा के विवाद के रूप में पार्टी को झेलनी पड़ी।
हालांकि अंदरखाने की खबर यही है और भाजपा के पास मौजूदा हालात में वसुंधरा राजे के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है, मगर चूंकि साफ तौर पर वसुंधरा का नाम घोषित करने से संघ खेमा सक्रिय हो जाएगा और पार्टी में पहले से मौजूद धड़ेबाजी और बढ़ जाएगी, इस कारण हाईकमान ने फिलहाल मौन धारण कर रखा है, मगर माथुर हाल ही अजमेर आए तो पत्रकारों से बात करते हुए घोषणा कर गए, मानों उन्हें ऐसा करने के लिए अधिकृत किया गया हो। माना कि सवाल पत्रकारों ने ही उठाया था, मगर माथुर तो मानों इसी सवाल का इंतजार कर रहे थे, ताकि वसुंधरा के प्रति अपनी वफादारी जता सकें। उनकी इस घोषणा से एक बार फिर पार्टी के भीतर बहस छिड़ गई है। विशेष रूप से यह कि आज अचानक माथुर का वसुंधरा प्रेम कैसे जाग गया?
पार्टी नेताओं को अच्छी तरह से याद है कि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के लिए जो कारण तलाशे गए थे, उनमें एक यह भी था कि टिकट वितरण में माथुर का अडिय़ल रवैया तकलीफ दे गया। हाईकमान तो समझ रहा था कि अगर दुबारा सत्ता में आना है तो वसुंधरा को फ्री हैंड देना ही होगा, मगर माथुर अड़ गए और अपने कुछ चहेतों को टिकट दिलवाने के चक्कर में कुछ सीटें हरवा दीं। अगर वे उस वक्त जिद नहीं करते तो वसुंधरा के दुबारा मुख्यमंत्री बनने में कोई बाधा नहीं थी। इसका परिणाम ये हुआ कि जब पार्टी की हार की समीक्षा की गई तो इसके लिए माथुर को भी जिम्मेदार माना गया। और यही वजह थी कि उन्हें हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोडऩा पड़ा। हालांकि हार जिम्मेदारी वसुंधरा पर भी आयद की गई, इसी कारण उन्हें विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद छोडऩे को कहा गया। ये बात दीगर है कि अधिसंख्य विधायकों के समर्थन की वजह से कई दिन तक तो उन्होंने पद नहीं छोड़ा और छोड़ा भी तो किसी और को उस पद पर काबिज नहीं होने दिया। आखिरकार एक साल बाद फिर उन्हें ही अनुनय विनय करके यह पद संभालने को कहा गया।
खैर बात चल रही थी माथुर की तो जैसे ही उन्होंने वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की बात कही तो सभी चौंके कि इस बार कौन सी गणित ले कर आने वाले हैं। कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि कहीं उन्हें पुन: अध्यक्ष पद सौंप कर वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की रणनीति तो नहीं बनाई जा रही या वे हकीकत से वाकिफ हैं, इस कारण अपने चहेतों की टिकटें पक्की करने के लिए अभी से वसुंधरा जिंदाबाद कह रहे हैं। वे फिर महत्वपूर्ण भूमिका में होंगे, इसके संकेत उन्होंने यह कह कर भी दिये कि अगर वे पिछले दिनों में जयपुर में हुई कोर कमेटी की बैठक में होते तो वरिष्ठ नेता गुलाब चंद कटारिया के यात्रा विवाद को तूल नहीं पकडऩे देते। उनके इस कथन को राजस्थान पत्रिका ने डींग हांकने की संज्ञा तो दी ही, साथ यह भी खुलासा किया कि वे कोर कमेटी की बैठक में मौजूद थे। पत्रकारों से प्रतिप्रश्न किया तो सरासर झूठ ही बोल गए कि वे उस दिन जैसलमेल में थे, मीडिया को गलत जानकारी है कि वे बैठक में मौजूद थे। वे झूठ क्यों बोले, इसका तो पता नहीं, मगर पार्टी नेता उनके इस बयान पर जरूर गौर कर रहे हैं कि वे यह दावा कैसे कर सकते हैं? जिस व्यक्ति की जिद के चक्कर में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा हो वही अगर ये कहे कि वे होते तो विवाद नहीं होता, हास्यास्पद ही लगता है।
खैर, जो भी हो, माथुर की बॉडी लैंग्वेज यही बता रही थी कि वे फिर महत्वपूर्ण भूमिका में आ रहे हैं। उनके अब अहम रोल अदा करने को पार्टी के अन्य नेता व कार्यकर्ता और विशेष रूप से टिकट के दावेदार किस रूप में लेते हैं, इस बात को छोड़ भी दिया जाए तो वसुंधरा को तो कम से सोच समझ कर चलना होगा। कहीं वे फिर वसुंधरा को मिलने वाले फ्री हैंड में फच्चर तो नहीं डालेंगे। 

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, जून 01, 2012

आडवाणी को रिटायर होने की सलाह देने वाले अंशुमान हैं कौन?

भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने जैसे ही अपने ब्लाग में बीजेपी : एक हब आफ होप शीर्षक से आलेख लिख कर अपनी ही पार्टी की आलोचना की तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के करीबी अंशुमान मिश्रा ने आडवाणी को पत्र लिख कर रिटायर होने की सलाह दे डाली। उन्होंने आडवाणी को सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं को मौका देने की सलाह देते हुए कहा कि देश को ए के हंगल नहीं, आमिर और रणबीर कपूर की जरूरत है।
आइये जानते हैं कि ये अंशुमान मिश्रा हैं कौन? ये वे ही हैं जो पिछले दिनों राज्यसभा चुनाव के दौरान चर्चा में आए थे। निर्दलीय के रूप में राज्यसभा पहुंचने की तमन्ना लिए अंशुमान को जब भाजपा ने यह कह कर समर्थन देने से इंकार कर दिया कि उसके विधायक झारखंड में वोट ही नहीं डालेंगे तो अंशुमान मिश्रा को अपना नामांकन वापस लेना पड़ा। इस पर वे नाराज हो गए और उन्होंने धमकी दी थी कि वे एक-एक करके सभी भाजपा नेताओं को नंगा करेंगे। सबसे पहला नंबर उन्होंने डा. मुरली मनोहर जोशी का लिया और आरोप लगाया कि 2जी घोटाले की जांच करते समय उसने कुछ उन कंपनियों के अधिकारियों से जोशी की मुलाकात करवाई थी, जो 2जी घोटाले के आरोपी थे। मतलब साफ है कि अंशुमान विरोधी उनको शाहिद बलवा का करीबी बता कर उसका राज्यसभा टिकट काट रहे थे, तो वही अंशुमान मिश्रा उन्हीं टूजी आरोपियों से भाजपा को शिकार करने में जुट गए। मिश्रा ने खुली चुनौती दे दी है कि जोशी के फोन रिकार्ड जांच लिये जाएं, सारी सच्चाई सामने आ जाएगी। अंशुमान सिंह की इस हरकत पर समाचार विश्लेषकों का मानना था कि वे भाजपा के नए भस्मासुर साबित हो सकते हैं।
मीडिया यह पता लगाने में जुट गया था कि आखिर अंशुमान मिश्रा हैं कौन? बताया जाता है वे मूलत: उत्तर प्रदेश के कुशीनगर के रहनेवाले हैं। उनकी जड़ें उत्तर प्रदेश में ज्यादा गहरी हैं । राजनीति की एबीसीडी उन्होंने महर्षि महेश योगी के आश्रम ओहियो में सीखी। उन्होंने वहां जम कर तरक्की की। उनका दावा है कि विदेशों में रहने के दौरान वे ओवरसीज फ्रेंड्स आफ बीजेपी का काम भी देखते थे और भाजपा के लिए चंदा भी उगाहते थे। इस चंदा उगाही के कारण बकौल मिश्रा लालकृष्ण आडवाणी व डा. मुरली मनोहर जोशी सहित अनेक नेताओं के करीबी हो गए। मिश्रा का दावा है कि उसे ये सारे नेता उसे फोन करते थे। अंशुमान मिश्रा की पकड़ नरेन्द्र मोदी तक भी थी और 2011 में जब मोदी ने महात्मा मन्दिर में वाइब्रंट गुजरात का आयोजन किया था तो यह अंशुमान मिश्रा फ्रंट सीट के अतिथि थे।
पिछले विधानसभा चुनाव में गडकरी ने उत्तर प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व को अंशुमान मिश्र की प्रतिभा की जानकारी देते हुए कहा था ये हर तरह की मदद करेंगे। बताया जाता है कि अंशुमान ने इससे पहले पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी पर दबाव डाल कर न सिर्फ शीर्ष पदों पर नियुक्तियां करवाई, बल्कि पार्टी के पुराने कार्यकर्ता गिरिजेश शाही का टिकट कटवा कर अपने भाई राजीव मिश्रा को टिकट दिलवा दिया। इस पर शाही बागी हो गए और उन्हें दूसरे नंबर पर 44687 वोट मिले, जबकि राजीव मिश्रा को 17442 वोट ही मिल पाए। यहां उल्लेखनीय है कि राज्यसभा चुनाव में भले ही पार्टी ने उनसे दूरी जहिर की मगर इससे पूर्व वे गडकरी के निर्देश पर पार्टी के जन संपर्क अभियान की अप्रत्यक्ष कमान संभाले रहे थे। गोरखपुर रैली में अंशुमान मिश्र गडकरी के साथ ही मंच पर भी मौजूद थे।
बहरहाल, हाल ही जब उन्होंने आडवाणी को इस्तीफे की सलाद दी है तो अनुमान लगाया जा रहा है कि या तो उन्होंने ऐसा गडकरी के इशारे पर किया है या फिर गडकरी के प्रति अपनी वफादारी जाहिर करने के लिए उन्होंने ऐसा किया है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com