तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, अगस्त 28, 2012

सिर चढ़ कर बोल रहा है मोदी का जादू


मौजूदा हिंदूवादी युवा पीढ़ी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की कितनी दीवानी है, इसका नजारा सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर देखा जा सकता है। विशेष रूप से फेसबुक पर तो हालत ये है कि रोजाना सैकड़ों टिप्पणियां व फोटो मोदी को सपोर्ट करने के लिए डाले जा रहे हैं। ऐसी दीवानगी इससे पहले कभी किसी और भाजपा नेता के प्रति नहीं देखी गई। हालांकि पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी भी किसी जमाने में कट्टरपंथियों की पसंद रहे हैं, मगर मोदी जितने नहीं। कदाचित इसकी वजह ये भी हो सकती है कि आडवाणी जिस समय उरूज पर थे, तब सोशल नेटवर्किंक साइट्स इतनी प्रचलन में नहीं थी।
बहरहाल, हाल ही फेसबुक पर अजमेर निवासी अंशुल चौधरी की एक पोस्ट यहां प्रस्तुत है, जो कि खुद ही बयां कर देगी कि मोदी एक वर्ग विशेष के महानायक बन चुके हैं। प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर वे उस वर्ग के दिलों के राजा तो अभी से हैं। पेश है वह नोट:-
मेरे पास मोदी को वोट देने के लाख कारण हैं, लेकिन वोट न देने का सिर्फ
एक कारण होगा- मोदी का प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप मे सामने न
आना।
भाइयों, अभी से लोग मजमा लगा कर बरामदे में पड़ा तख्त तोडऩे पर उतारू हो गए हैं और मुझे मोदी को वोट क्यों दोगे का तर्क पूछते हैं, कुछ दिनों में आपको भी इसी तरह के सवालों से दो-चार होना पड़ेगा... इसके लिए अभी से तैयारी कर लें और हो सके तो दूसरों को भी बता दें-
1- यदि भारतीय हूं तो भी मैं मोदी को ही वोट दूंगा क्योंकि मोदी सबसे बड़े राष्ट्रवादी हैं और उनके नाम में एक भी गद्दारी का केस नहीं है।
2- यदि मैं हिंदू हूं तो मैं मोदी को ही वोट दूंगा क्योंकि उन्होंने हिंदू सहित हर धर्म की रक्षा का संकल्प लिया है और करके दिखा रहे हैं।
3-यदि मैं पिछड़ी जाति से हूं तो भी मैं मोदी को ही वोट दूंगा क्योंकि मोदी पिछड़ी जाति से हैं, तो ख्याल तो रखेंगे।
4-यदि मैं गरीब हूं तो भी मोदी को वोट दूंगा क्योंकि मोदी राज में सबको रोजगार मिलता है। सरकार गरीबों के लिए घर दे रही है।
5- यदि मैं व्यापारी हूं तो भी मोदी को वोट दूंगा क्योंकि मोदी राज में बिना गुंडागर्दी के अपना व्यापार खूब फलेगा। गुजरात जैसा पूरा भारत बनने से तो व्यापर में बहुत मजा आयेगा। मोदी तो टैक्स कम करने की भी बात कर रहे हैं।
6- यदि ब्राह्मण, ठाकुर या कोई और सवर्ण जाति से हूं तो भी मैं मोदी को वोट करूंगा क्योंकि मोदी जातिवादी नहीं हैं।
7-यदि मै गांव का हूं तो मैं मोदी को वोट जरूर दूंगा क्योंकि मोदी के राज में 24 घंटे बिजली मिलती है और हर गांव में उपलब्ध है, हर गांव में पक्की सड़क है। हर गांव में पानी का नल है। यहां तक कि हर गांव में इंटरनेट की सुविधा भी उपलब्ध है। खेती के लिए नर्मदा के पानी का जाल बिछा है। मोदी के यहां किसान आत्महत्या नहीं करते हैं।
8- यदि मैं बेरोजगार हूं तो मोदी को अवश्य वोट दूंगा क्योंकि मोदी के राज में सिर्फ 1 प्रतिशत बेरोजगारी है, जिसे अगले 3 साल में जीरो कर दिया जायेगा। मोदी जी तो भारत से 150 लाख अकेले सिर्फ टीचर ही पैदा करना चाहते हैं। बाकि की योजना तो बाद की बात है। वे कहते हैं की इतने रोजगार पैदा करो की अमेरिका वाले भारत में वीजा के लिए लाइन में खड़े हों।
9- यदि मैं मुस्लिम हूं तो भी मोदी को ही वोट करूंगा क्योंकि पिछले 10 साल में गुजरात में एक भी दंगा नहीं हुआ और न ही कभी कफ्र्यू लगा और पूरे भारत में सबसे ज्यादा विकास दर गुजरात की है।
10-यदि मैं ड्राइवर हूं तो भी मोदी को ही वोट दूंगा क्योंकि गुजरात में मोदी जी ने जो सड़क बनवाई है, वह कोई नहीं कर पाया और वहां कोई भी असुरक्षा वाली बात नहीं है।
11- यदि मैं विधवा हूं तो भी मोदी को वोट इसलिए दूंगी की मोदी के राज में औरतें सबसे सुरक्षित हैं।
12- यदि मैं अनाथ रहा हूं तो भी मोदी को ही वोट दूंगा क्योंकि अविवाहित, कर्मनिष्ठ, ईमानदार, समर्पित और कुशल प्रशाशक मोदी हमारे अभिभावक सिद्ध होंगे।
13- यदि मैं साधू-संत हूं तो भी मोदी को ही वोट दूंगा क्योंकि मोदी संतों को प्रिय हैं क्योंकि वे गौ-सेवक हैं। गाय काटने-मारने पर 7 साल की सजा देते हैं और दुग्ध-उत्पाद के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं।
अब सिर्फ एक ही विकल्प- मोदी...
मोदी लाओ देश बचाओ।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, अगस्त 27, 2012

केजरीवाल ने कर दी भाजपा की बोलती बंद


समाजसेवी अन्ना हजारे के खास सिपहसालार अरविंद केजरीवाल ने देश की राजधानी दिल्ली सहित अनेक शहरों में विरोध प्रदर्शन करवा कर जहां कांग्रेस सरकार पर एक और हमला बोला, वहीं प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के मुंह पर भी कालिख पोत दी। आंदोलन को अब क्रांति की संज्ञा देने वाले केजरीवाल को कितनी कामयाबी मिलेगी, यह तो वक्त ही बताएगा, मगर उन्होंने विदाई की दहलीज पर खड़ी कांग्रेस को तो एक धक्का और दिया ही, भाजपा के आगमन पर भी ब्रेक लगाने की कोशिश की है। कहते हैं न कि जहां सत्यानाश, वहां सवा सत्यानाश, कांग्रेस को इस मुहिम से उतना नुकसान नहीं हुआ, जितना भाजपा को। कांग्रेस तो पहले से बदनाम है, भाजपा भी बदनाम हो गई। कांग्रेस की कमीज पर पहले से अनेक दाग थे, एक ओर दाग लगने से कोई खास फर्क नहीं पड़ा, मगर भाजपा की सफेद झग कमीज पर लगा दाग अलग से ही चमक रहा है। कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की संलिप्ता के आरोपों के बहाने कांग्रेस सरकार को गिराने की कगार तक पहुंचाने को आतुर भाजपा की धार अब भोंटी हो गई है। वह इस वजह से भी कि जिस पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी को चोर की उपमा दी गई हो, वह पलट कर एक शब्द भी नहीं बोल पाई। ऐसे में यकायक वह विडंबना भी ख्याल में आ जाती है कि जिस भाजपा की पीठ पर सवार हो टीम अन्ना ने अपना कद ऊंचा किया, मौका पड़ते ही उसे भी धक्का दे दिया। केजरीवाल का यह वार कितना गहरा हुआ है, यह तो आगामी चुनाव में ही पता लगेगा, मगर इससे यह तो साबित हो ही केजरीवाल बड़े ही शातिर खिलाड़ी हैं।
अन्ना की गैर मौजूदगी और प्रमुख सहयोगी किरण बेदी की मतभिन्नता के बीच टीम केजरीवाल के नाम से शुरू हुई इस क्रांति की समीक्षा में यह साफ तौर पर उभर कर आया है कि इससे कांग्रेस को फौरी मगर बड़ी राहत मिली है। जिस तरह से तकरीबन दस घंटे तक दिल्ली में प्रदर्शनकारियों के प्रति नरम रुख के कारण नौटंकी का लाइव शो हो रहा था, उससे पूरे देश में  यह संदेश चला गया है कि कांग्रेस तो भ्रष्ट है ही, कांग्रेस को लगातार बदनाम करने वाली भाजपा के हाथ भी भ्रष्टाचार से रंगे हुए हैं। कांग्रेस यही तो चाहती थी। कदाचित इसी वजह से प्रदर्शनकारियों को मामूली रोक टोक के बीच अति सुरक्षा वाले प्रधानमंत्री आवास सहित सोनिया गांधी व नितिन गडकरी के निवास पर प्रदर्शन करने की खुली छूट दे दी गई। बाद में दिखावे के लिए  हल्का लाठीचार्ज करके पुलिस को भी अपनी इज्जत बचाने का मौका दे दिया। सरकार की कुटिल चतुराई उजागर करने के लिए क्या यह प्रमाण काफी नहीं है कि जिन आंदोलकारी नेताओं अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास, मनीष, गोपाल राज व संजय सिंह को सुबह ही पकड़ लिया गया था, उन्हें मामूली जद्दोजहद के बाद छोड़ दिया गया ताकि वे जंतर मंतर पर अपने समर्थकों के साथ गुरिल्ला युद्ध के लिए तैयार कर सकें। इतना ही नहीं कूच करने पर आंदोलनकारियों को रोकने का प्रयास तक नहीं किया गया। जबकि सच्चाई ये है कि मीडिया बार-बार जिस पुलिस को लाचार करार दे रही थी, वह चाहती तो उनको छठी का दूध याद दिला देती। साफ है कि यह सब सोची समझी रणनीति के तहत हो रहा था। भले ही इसे सरकार व केजरीवाल की मिलीभगत का संज्ञा नहीं दी जा सके, मगर जो नूरा कुश्ती हुई, उससे दोनों ही अपने-अपने मकसद में कामयाब हो गए। कांग्रेस इस बात से संतुष्ट है कि उसके साथ भाजपा भी बदनाम हो गई व अब उसके शब्द बाणों में वह तरारा नहीं रहेगा, वहीं केजरीवाल इस बात से कि पिछले नाकाम अनशन से हुई किरकिरी से हताश कार्यकर्ताओं में नए जोश का संचार हो गया। साथ ही आगामी आम चुनाव में राजनीतिक विकल्प देने का प्लेटफार्म तैयार हो गया।
हालांकि भाजपा के कोयला घोटाले में संलिप्त होने के सबूत कांग्रेस के पास भी हैं, मगर उसने संसद में बहस का न्यौता देकर उन्हें दबा रखा था। वह जानती थी कि अगर वह उस सच को उजागर करेगी तो उसका उतना असर नहीं होगा, क्योंकि खुद उसके हाथ भी कालिख से पुते हुए हैं। वैसे भी युद्ध में पहले जिसने वार किया हो, उसी की जीत नजर आती है, जवाब में किया गया वार सुरक्षा की श्रेणी में ही गिना जाता है। यही सच टीम केजरीवाल उजागर करेगी तो लोग ज्यादा विश्वास करेंगे। ठीक वैसा ही हुआ।
ऐसा नहीं है कि केजरीवाल ने इसमें पाया ही पाया है, कुछ खोया भी है। और यही वजह है कि चौपालों व पान की थडिय़ों पर उनकी समालोचना भी हो रही है। लोग पूछ रहे हैं कि संसद का अधिवेशन चलने के दौरान रविवार का ही दिन प्रदर्शन के लिए क्यों चुना? क्या इसके लिए सरकार से कोई टाईअप किया गया था? तय रणनीति से हट कर सुबह छह बजे ही धरना देने क्यों पहुंच गए? इस रणनीति का मीडिया को पता कैसे लगा? कहीं प्रदर्शन का असल मकसद प्रचार मात्र पाना था? पुलिस के नरम रुख के लिए हालांकि वही जिम्मेदार है, मगर इससे मिलीभगत की बू तो आती ही है, वरना कार्यकर्ता सारे सुरक्षा घेरे तोडऩे की हिमाकत कैसे कर गए?
लब्बोलुआब, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के सहारे हुए इस नाटक ने लोगों को नई बहस में उलझा दिया है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, अगस्त 26, 2012

टीम केजरीवाल को मिला अन्ना का आशीर्वाद


कोयला घोटाले को लेकर रविवार को देश की राजधानी दिल्ली में हुए आईएसी के प्रदर्शन को भले ही टीम केजरीवाल का आंदोलन माना जा रहा हो, जो कि वाकई उनके ही नेतृत्व में हुआ और अन्ना हजारे कहीं नजर नहीं आए, मगर उसे उनका आशीर्वाद जरूर हासिल हुआ। अन्ना हजारे ने बाकायदा अपने ब्लॉग अन्ना हजारे सेज पर सभी क्रांतिकारियों को बधाई दी है।
असल में कोयला घोटाले के मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के निवासों पर प्रदर्शन की घोषणा से लेकर रविवार को हुए प्रदर्शन तक अन्ना हजारे की चर्चा कहीं पर भी नहीं थी। ऐसा माना जा रहा था कि टीम अन्ना भंग करने के बाद अन्ना हजारे मायूस हो कर एकांतवास में चले गए हैं। प्रदर्शन में अन्ना हजारे की भूमिका नगण्य होने का प्रमाण यही है कि प्रदर्शनकारियों के सिर पर मैं अन्ना हूं वाली टोपियां नदारद थीं। कुछ कार्यकर्ताओं ने तो मैं केजरीवाल हूं वाली टोपी लगा रखी थी। दिन भर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया भी इसका बार-बार उल्लेख कर रहा था कि अन्ना हजारे का कहीं अता-पता नहीं है। मगर शाम होते-होते अन्ना हजारे से रहा नहीं गया। प्रदर्शन के कामयाब होने पर उन्होंने ब्लॉग लिख ही डाला।
आइये, देखते हैं कि उन्होंने अपने ब्लॉग पर क्या लिखा है:-
सभी क्रांतिकारियों को बधाई
दिनांक 26 अगस्त 2012 दिल्ली में जो अहिंसक मार्ग से आंदोलन हुआ उस आंदोलन में जो जो आंदोलनकारी शामिल हुए उन सबको मैं बधई देता हूं, उनका अभिनंदन करता हूं। पुलिस वाले मार पिटाई करते रहे लेकिन किसी भी आंदोलनकारी ने हाथ नहीं उठाया, पानी के बौछार से मारा, अश्रधुर छोड़ा लेकिन सब सहन करते आंदोलन किया यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण लगी।
आंदोलनकारी अपने लिए, अपने परिवार के लिए अपने संस्था के लिए क्या मांग रहे है? आंदोलनकारी इतना ही मांग रहे थे कि कोयला घोटाला के बारे में संसद में छ: दिन से चर्चा नहीं हो रही, यह जनता का पैसा आप बर्बाद क्यों कर रहे हैं। कोयले घोटाले में कांग्रेस क्या और बीजेपी क्या दोनों पक्ष और पार्टी के लोक जिम्मेदार हैं। जनता की दिशाभूल करने के लिए संसद में तू-तू मैं-मैं हो रही है। आंदोलनकारियों का कहना है कि देश के आजादी के लिए लाखों शहीदों ने अपनी कुर्बानी दी है, हसते हसते फांसी पर चले गए उनका देश और देश की जनात की खुशहाली के बारे में बहुत बड़ा सपना था। आज राजनीति के कई लोगों ने सत्ता से पैसा और पैसे से सत्ता इसी सोच में उनका सपना मिट्टी में मिला दिया। वह सपना पूरा करने का इन आंदोलनकारियों की कोशिश है। हम पुलिस के डंडे खायेंगे इतना ही नहीं गोली भी खायेंगे लेकिन उन शहीदों का सपना पूरा करने की कोशिश करेंगे। मैं जब टीवी देख रहा था कि आंदोलनकारी पुलिस के सामने खड़ा है और पुलिस उसको एक जानवर की तरह डंडे से पीट रही थी लेकिन किसी भी आंदोलनकारी ने अपना हाथ नहीं उठाया। उस  दृश्य  को देखकर मुझे उन नव जवानों पर बड़ा गर्व महसूस हो रहा था और अनुभव कर रहा था कि देश में परिवर्तन का समय आ गया है। ऐसे परिवर्तन लाने के लिए यही रास्ता है, जो यह युवक कर रहे थे।
आजादी की दूसरी लड़ाई में सफल होना है तो मार खाना पड़ेगा, लाठी खानी पड़ेगी। समय आ गया तो गोली भी खानी पड़ेगी। अब संपूर्ण परिवर्तन के लिए आजादी की दूसरी लड़ाई की शुरूआत हो गई  है। उसका प्रदर्शन आंदोलनकारी युवकों ने किया है। इस प्रदर्शन से देश के युवकों को एक नई दिशा मिलेगी, नई प्रेरणा मिलेगी और दिल्ली की अहिंसक मार्ग से शुरू हुई आजादी की दूसरी लड़ाई की चिंगारी अब देश में फैल जाएगी और संपूर्ण परिवर्तन के तरफ यह  आंदोलन जाएगा। मैं फिर से युवकों को आह्वान करता हूं कि राष्ट्रीय संपत्ती हमारी संपत्ती है, उसका कोई भी नुकसान ना हो रास्ते स गुजरने वाले सभी भाई बहन हमारे भाई बहन है, उनको तकलीफ ना हो, तकलीफ हमने सहन करनी है, आत्मकलेश हमने सहन करना है और उनकी वेदना ये जनता को होनी है। जैसे आज पुलिस वाले आंदोलनकारियों के पिट रहे थे लेकिन वेदना देश की जनता को हो रही थी।
आज के दिल्ली के आंदोलन का आदर्श देश के युवाओं को लेना है और आगे कोई भी हिंसा ना करते हुए अहिंसा के मार्ग से आंदोलन करना है। मुझे विश्वास हो रहा है कि आजादी की दूसरी लड़ाई में हम कामयाब हो जाएंगे। सभी आंदोलनकारियों का फिर से धन्यवाद।
भवदीय,
कि. बा. उपनाम अण्णा हजारे

इस लिंक पर क्लिक करके आप ब्लॉग भी देख सकते हैं
अन्ना हजारे सेज

-तेजवानी गिरधर

बुधवार, अगस्त 22, 2012

पाक से आने वाले हिंदुओं का स्वागत, मगर जरा संभल कर

इन दिनों पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार और वहां से भाग कर भारत आने का मुद्दा गरमाया हुआ है। भारत आए हिंदुओं की दास्तां सुनें तो वाकई दिल दहल जाता है कि पाकिस्तान में किन हालात में हिंदू जी रहे हैं। ऐसे में दिल ओ दिमाग यही कहता है कि भारत में शरण को आने वाले हिंदुओं का स्वागत किया ही जाना चाहिए। मगर साथ ही धरातल का सच यह भी इशारा करता है कि सहानुभूति की आड़ में कहीं हमारे साथ धोखा तो नहीं हो जाएगा? कहीं यह भारत में घुसपैठ का नया तरीका तो नहीं, जो बाद में देश की सुरक्षा में नई सेंध बन जाए?
वस्तुत: पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदुओं की समस्या ने पिछले सितंबर से जोर पकड़ा है। तीस दिन का धार्मिक वीजा लेकर यहां आने वाले हिंदू भारत आकर बता रहे हैं कि पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ अमानवीय अत्याचारों की हद पार की जा रही है। कहीं सरेआम लूटा जा रहा है तो कहीं किसी हिंदू लड़कियों के साथ बलात्संग, कहीं जबरन धर्म परिवर्तन तो कहीं जबरन निकाह जैसे आम बात हो गई है। जाहिर है उनकी बातें सुन कर कठोर से कठोर दिल वाले को भी दया आ जाए। ऐसे में इन हिंदुओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किये जाने की पैरवी की जाती है।
लेकिन सिक्के का दूसरे पर नजर डालें तो वह और भी भयावह लगता है। इस प्रकार झुंड के झुंड भारत आ रहे पाकिस्तानी हिंदुओं पर शक करने वाले कहते हैं कि पाकिस्तान और भारत के कटु रिश्तों को देखते हुए भारत को ऐसे मामले में सतर्क रहना होगा। पाकिस्तानी हिंदुओं की स्थिति बेशक मार्मिक है, लेकिन यहां आ रहे लोग हिंदू ही हैं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। कई जानकार और रक्षा विशेषज्ञ इस आवाजाही को घुसपैठ का एक तरीका मान रहे हैं। उनके अनुसार पीडि़तों की आड़ में पाकिस्तान इन हिंदुओं के रूप में अपने आतंकी भी भारत में भेज रहा है, जो देश की सुरक्षा में एक बड़ा सेंध साबित होने वाले हैं।
मौजूदा समस्या के सिलसिले में इस पर चर्चा करना प्रासंगिक ही होगा कि भारत में घुसपैठ की समस्या बहुत पुरानी है। आज तक उसका पक्का आंकड़ा नहीं मिल पाया है। सरकार और विपक्ष इस पर अपनी चिंता जाहिर करते रहे हैं। बावजूद इसके पाकिस्तानियों के अतिरिक्त बांग्लादेशियों की घुसपैठ आज तक नहीं रोकी जा सकी है। भाजपा ने तो हाल ही असम संकट उभरने पर घुसपैठ के खिलाफ जागृति अभियान भी छेड़ दिया है। अवैध रूप से घुसपैठ से इतर वैध तरीके से हो रही घुसपैठ भी कम चिंताजनक नहीं है।
सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि पिछले तीन साल में डेढ़ लाख से ज्यादा पाकिस्तानी नागरिक वैध वीजा पर भारत पहुंचे। गृह राज्यमंत्री एम रामचंद्रन ने गत दिनों लोकसभा को बताया कि वर्ष 2009 में 53 हजार 137, 2010 में 51 हजार 739 और 2011 में 48 हजार 640 पाकिस्तानी भारत आए थे। पाकिस्तानी नागरिकों की वीजा अवधि बढ़ाने के आंकड़ों का केंद्रीय लेखा-जोखा नहीं रखा गया था। नतीजतन इसका पक्का आंकड़ा नहीं है कि कितने वापस लौटे ही नहीं। सूत्रों के अनुसार हिंदूवादी संगठन आरएसएस के गढ़ नागपुर में ही तकरीबन दो हजार से अधिक पाकिस्तानी नागरिक अपने विजिटिंग वीजा की समयावधि पूरी होने के बावजूद नागपुर में रह रहे हैं। तकरीबन 9 हजार 705 पाकिस्तानी नागरिकों को भारत में नागपुर आने के लिए विजिटिंग वीजा प्राप्त हुआ था। यह वीजा 30, 45, 60, और 90 दिनों का था। करीब 2 हजार 46 पाकिस्तानी नागरिक यहां लंबी अवधि का वीजा लेकर आए थे और इनमें से 533 ने भारतीय नागरिकता प्राप्त कर ली थी। मगर इनमें से करीब 2013 पाकिस्तानी नागरिक वीजा अवधि समाप्ति के बावजूद अपने देश लौटे ही नहीं हैं। पुलिस ने स्वीकार किया कि 1994 से यहां रह रहे पाकिस्तानी नागरिकों के नाम और पते की जानकारी नहीं है।
सूत्रों के अनुसार राजस्थान में पिछले पांच साल में करीब 23 हजार पाक नागरिक आए थे। इनमें से 4,624 लोग वीजा अवधि खत्म होने के बाद भी नहीं लौटे। 4,273 लोग पुलिस की जानकारी में आ गए। इन्होंने वीजा अवधि बढ़ाने के लिए आवेदन कर रखा है, जबकि चार अन्य की मौत हो गई है। चौंकाने वाला तथ्य ये है कि इनमें से 347 पाक नागरिकों का अता-पता नहीं है। खुफिया एजेंसियों को आशंका है कि इनमें से कुछ यहां आईएसआई के लिए बतौर रेजीडेंट एजेंट काम कर रहे हैं। एडीजी इंटेलीजेंस दलपत सिंह दिनकर का कहना है कि पिछले चार साल में चार हजार से भी अधिक लोगों ने पाक लौटने से मना किया है। उनमें से अधिकांश ने शपथ-पत्र देकर पाक में प्रताडि़त किए जाने आरोप लगाए हैं।
पिछले दिनों जब पाक कमिश्नर सलमान बशीर अजमेर में पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की ओर से दरगाह शरीफ में 5 करोड़ 47 लाख 48 हजार 905 रुपये का नजराना देने आए तो उनसे पाकिस्तानियों के यहां आ कर गायब होने बाबत मीडिया ने सवाल किया, इस पर उनके पास कोई वाजिब जवाब नहीं था और यह कह कर टाल दिया कि पाकिस्तान आने वाले भारतीय भी तो वहां गायब हो रहे हैं। उनकी संख्या यहां गायब होने वालों से भी ज्यादा है। ऐसे में यह कहना ठीक नहीं है कि उन्हें कोई भेज रहा है। उनके जवाब से स्पष्ट है कि पाकिस्तान भलीभांति जानता है कि हकीकत क्या है, मगर बहानेबाजी कर रहा है। इसी बहानेबाजी के पीछे पाकिस्तान की कुत्सित चाल का संदेह होता है।
लब्बोलुआब, बेशक हमें शरणार्थी बन कर आ रहे हिंदुओं के प्रति पूरी संवेदना बरती जानी चाहिए, मगर देश की अस्मिता के साथ खिलवाड़ की कीमत पर नहीं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, अगस्त 19, 2012

अब जायज लग रहा है सोशल मीडिया पर लगाम कसना

उत्तर पूर्व के लोगों को धमकाने पर चेती सरकार, फेसबुक यूजर्स में भी आई जागृति
आज जब सोशल मीडिया के दुरुपयोग की वजह से उत्तर पूर्व के लोगों का देश के विभिन्न प्रांतों से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है और सरकार की ओर से सुरक्षा की बार-बार घोषणा का भी असर नहीं हो रहा तो लग रहा है कि वाकई सोशल मीडिया पर नियंत्रण की मांग जायज है। इससे पूर्व केन्द्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने जैसे ही यह कहा थ कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रहा है तो बवाल हो गया था। अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार बुद्धिजीवी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के रूप में परिभाषित करने लगे, वहीं मौके का फायदा उठा कर विपक्ष ने इसे आपातकाल का आगाज बताना शुरू कर दिया था। अंकुश लगाए जाने का संकेत देने वाले केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल को सोशल मीडिया पर जम कर गालियां बकी जा रही थीं कि वे नेहरू-गांधी परिवार के तलुए चाट रहे हैं। सिब्बल के बयान को तुरंत इसी अर्थ में लिया गया कि वे सोनिया व मनमोहन सिंह के बारे में आपत्तिजनक सामग्री हटाने के मकसद से ऐसा कर रहे हैं। एक न्यूज चैनल ने तो बाकायदा न्यूज फ्लैश में इसे ही हाइलाइट करना शुरू कर दिया, हालांकि दो मिनट बाद ही उसने संशोधन किया कि सिब्बल ने दोनों का नाम लेकर आपत्तिजनक सामग्री हटाने की बात नहीं कही है। हालांकि सच यही था कि नेहरू-गांधी परिवार पर अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के समर्थकों सहित हिंदूवादी संगठन अभद्र और अश्लील टिप्पणियां कर रहे थे और अब भी कर रहे हैं, इसी वजह से अंकुश लगाए जाने का ख्याल आया था। यह बात दीगर है कि बीमार मानसिकता के लोग अन्ना व बाबा को भी नहीं छोड़ रहे। सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने वाली सामग्री के साथ अश्लील फोटो भी खूब पसरी हुई है।
असल में ऐसा प्रतीत होता है कि सोशल मीडिया के मामले में हम अभी वयस्क हुए नहीं हैं। हालांकि इसका सदुपयोग करने वाले भी कम नहीं हैं, मगर अधिसंख्य यूजर्स इसका दुरुपयोग कर रहे हैं। केवल राजनीतिक टिप्पणियां ही नहीं, बल्कि अश्लील सामग्री भी जम कर परोसी जा रही है। लोग बाबा रामदेव और अन्ना तक को नहीं छोड़ रहे। लोगों को लग रहा है कि जो बातें प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर आचार संहिता की वजह से नहीं आ पा रही, सोशल मीडिया पर बड़ी आसानी से शेयर की जा सकती है। और शौक शौक में लोग इसके मजे ले रहे हैं। साथ ही असामाजिक तत्व अपने कुत्सित मकसद से उसका जम कर दुरुपयोग कर रहे हैं।
आपको याद होगा कि चंद माह पहले ही भीलवाड़ा में भी एक धर्म विशेष के बारे में घटिया टिप्पणी की वजह से सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हो गया था। मगर चूंकि कोई बड़ी वारदात नहीं हुई, इस कारण न तो सरकार चेती न ही इंटरनेट कंपनियां। उलटे अभिव्यक्ति की आजादी की पैरवी करने वाले हावी हो रहे थे कि सरकार केवल नेहरू-गांधी परिवार को बचाने के लिए ही अंकुश की बातें कर रही है। आज जब इसी सोशल मीडिया का उत्तर पूर्व के लोगों को धमकाने के लिए किया जा रहा है और वे अखंड भारत में अपने राज्य की ओर पलायन करने को मजबूर हैं तो राजनीतिक दलों को भी लग रहा है कि इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव सहित अन्य ने तो बाकायदा संसद में मांग उठाई। सरकार ने भी इंटरनेट कंपनियों को नफरत फैलाने वाली सामग्री हटाने को कहा है। गृह मंत्रालय ने फेसबुक, ऑरकुट व ट्विटर जैसे सोशल साइट पर भी नजर रखने को कहा है। कुछ जागरूक फेसबुक यूजर्स भी दुरुपयोग नहीं करने की अपील कर रहे हैं।
आपको याद होगा कि पूर्व में जब सोशल मीडिया पर लगाम कसने की खबर आई तो उस पर देशभर के बुद्धिजीवियों में जम कर बहस छिड़ गई थी। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की दुहाई देते हुए जहां कई लोग इसे संविधान की मूल भावना के विपरीत और तानाशाही की संज्ञा दे रहे थे, वहीं कुछ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने चाहे जिस का चरित्र हनन करने और अश्लीलता की हदें पार किए जाने पर नियंत्रण पर जोर दे रहे थे।
वस्तुत: पिछले कुछ सालों में हमारे देश में इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बढ़ रहा है। आम तौर पर प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर जो सामग्री प्रतिबंधित है अथवा शिष्टाचार के नाते नहीं दिखाई जाती, वह इन साइट्स पर धड़ल्ले से उजागर हो रही है। किसी भी प्रकार का नियंत्रण न होने के कारण जायज-नाजायज आईडी के जरिए जिसके मन जो कुछ आता है, वह इन साइट्स पर जारी कर अपनी कुंठा शांत कर रहा है। अश्लील चित्र और वीडियो तो चलन में हैं ही, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली सामग्री भी पसरती जा रही है।
जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, मोटे तौर पर यह सही है कि ऐसे नियंत्रण से लोकतंत्र प्रभावित होगा। इसकी आड़ में सरकार अपने खिलाफ चला जा रहे अभियान को कुचलने की कोशिश कर सकती है, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने यह है कि फेसबुक, ट्विटर, गूगल, याहू और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं, विचारों और व्यक्तिगत भावना से खेलने तथा अश्लील तस्वीरें पोस्ट करने की छूट दे दी जाए? व्यक्ति विशेष के प्रति अमर्यादित टिप्पणियां और अश्लील फोटो जारी करने दिए जाएं? किसी के खिलाफ भड़ास निकालने की खुली आजादी दे दी जाए? सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों जो कुछ हो रहा है, क्या उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वीकार कर लिया जाये?
राजनीतिक दृष्टिकोण से हट कर भी बात करें तो यह सवाल तो उठता ही है कि क्या हमारा सामाजिक परिवेश और संस्कृति ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आ रही अपसंस्कृति को स्वीकार करने को राजी है? माना कि इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग के फैलते जाल में दुनिया सिमटती जा रही है और इसके अनेक फायदे भी हैं, मगर यह भी कम सच नहीं है कि इसका नशा बच्चे, बूढ़े और खासकर युवाओं के ऊपर इस कदर चढ़ चुका है कि वह मर्यादाओं की सीमाएं लांघने लगा है। अश्लीलता व अपराध का बढ़ता मायाजाल अपसंस्कृति को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। जवान तो क्या, बूढ़े भी पोर्न मसाले के दीवाने होने लगे हैं। इतना ही नहीं फर्जी आर्थिक आकर्षण के जरिए धोखाधड़ी का गोरखधंधा भी खूब फल-फूल रहा है। साइबर क्राइम होने की खबरें हम आए दिन देख-सुन रहे हैं। जिन देशों के लोग इंटरनेट का उपयोग अरसे से कर रहे हैं, वे तो अलबत्ता सावधान हैं, मगर हम भारतीय मानसिक रूप से इतने सशक्त नहीं हैं। ऐसे में हमें सतर्क रहना होगा। सोशल नेटवर्किंग की  सकारात्मकता के बीच ज्यादा प्रतिशत में बढ़ रही नकारात्मकता से कैसे निपटा जाए, इस पर गौर करना होगा।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, अगस्त 17, 2012

जिस गंदगी को गाली दी, उसी में जा गिरे रामदेव


करीब डेढ़ साल पहले 25 फरवरी 2011 को अनेक न्यूज पोर्टल पर अपने एक आलेख में मैने आशंका जाहिर की थी कि कहीं खुद की चाल भी न भूल जाएं। आखिर वही हुआ, जिस गंदगी को वे पानी पी पी कर गालियां दे रहे थे, आखिर उसी गंदगी में जा कर गिरे।
बेशक हमारे लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर किसी को भी विचार रखने की आजादी है। इस लिहाज से बाबा रामदेव को भी पूरा अधिकार है। विशेष रूप से देश हित में काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना और उसके प्रति जनता में जागृति भी स्वागत योग्य है। इसी वजह से कुछ लोग तो शुरुआत में ही बाबा में जयप्रकाश नारायण तक के दर्शन करने लगे थे। अब तो करेंगे ही, क्योंकि बाबा अब उसी राह पर चल पड़े हैं। जयप्रकाश नारायण ने भी व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर कांग्रेस सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ी। मुहिम इस अर्थ में कामयाब भी रही कि कांग्रेस सरकार उखड़ गई, मगर व्यवस्था जस की तस ही रही। उस मुहिम की परिणति में जो जनता पार्टी बनी, उसका हश्र क्या हुआ, किसी से छिपा हुआ नहीं है। बाबा पहले तो बार बार यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर आखिर कांग्रेस मात्र के खिलाफ बिगुल बजाने के साथ ही उनका एजेंडा साफ हो गया है। बाबा का अभियान देश प्रेम से निकल कर कांग्रेस विरोध तक सिकुड़ कर रह गया है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि बाबा का अभियान एनडीए की रामदेव लीला बन कर रह गया है। पिछले साल रामलीला मैदान में संपन्न हुई रणछोड़ लीला के बाद साख की जो शेष पूंजी बची थी, वो 13 अगस्त को रामलीला मैदान में कांग्रेस विरोध के नाम पर एनडीए के हाथों लुट गयी।
ऐसा नहीं कि हमारे देश में आध्यात्मिक व धर्म गुरू राजतंत्र के जमाने से राजनीति में शुचिता पर नहीं बोलते थे। वे तो राजाओं को दिशा देने तक का पूरा दायित्व निभाते रहे हैं। हालांकि बाबा रामदेव कोई धर्म गुरू नहीं, मात्र योग शिक्षक हैं, मगर जीवन चर्या और वेशभूषा की वजह से अनेक लोग उनमें भी धर्म गुरू के दर्शन करते रहे हैं। लाखों लोगों की उनमें व्यक्तिगत निष्ठा है। उनके शिष्य मानें या न मानें, मगर यह कड़वा सच है कि राजनीतिक क्षेत्र में अतिक्रमण करते हुए जिस प्रकार आग उगलते हैं, जिस प्रकार अकेली कांगे्रस के खिलाफ निम्न स्तरीय भाषा का उपयोग करते हैं, उससे उनकी छवि तो प्रभावित हुई ही है। उनकी मुहिम कितनी कामयाब होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आई आंच को वे बचा नहीं पाएंगे। असल में गुरु तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में कूद पड़ता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यंभावी है।
यह सर्वविदित ही है कि जब वे केवल योग की बात करते हैं तो उसमें कोई विवाद नहीं करता, लेकिन भगवा वस्त्रों के प्रति आम आदमी की श्रद्धा का नाजायज फायदा उठाते हुए राजनीतिक टीका-टिप्पणी की तो उन्हें भी दिग्विजय सिंह जैसे शातिर राजनीतिज्ञों की घटिया टिप्पणियों का सामना करना पड़ा। तब बाबा के शिष्यों को बहुत बुरा लगता था। भला ऐसा कैसे हो सकता था कि केवल वे ही हमला करते रहते। हालांकि शुरू में वे यह रट लगाए रहते थे कि उनकी कांग्रेस से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर काले धन के बारे में बोलते हुए गाहे-बगाहे नेहरू-गांधी परिवार को ही निशाना बनाते रहे। शनै: शनै: उनकी भाषा भी कटु होती गई, जिसमें दंभ साफ नजर आता था।
रहा सवाल जिस कालेधन की वे बात करते हैं, क्या वे उस काले धन की वजह से ही आज वे सरकार पर हमला बोलने की हैसियत में नहीं आ गए हैं। हालांकि यह सही है कि अकूत संपत्तियां बाबा रामदेव के नाम पर अथवा निजी नहीं हैं, मगर चंद वर्षों में ही उनकी सालाना आमदनी 400 करोड़ रुपए तक पहुंचने का तथ्य चौंकाने वाला ही है। कुछ टीवी चैनलों में भी बाबा की भागीदारी है। बाबा के पास स्कॉटलैंड में दो मिलियन पौंड की कीमत का एक टापू भी बताया जाता है, हालांकि उनका कहना है वह किसी दानदाता दंपत्ति ने उन्हें भेंट किया है। भले ही बाबा ने खुद के नाम पर एक भी पैसा नहीं किया हो, मगर इतनी अपार धन संपदा ईमानदारों की आमदनी से तो आई हुई नहीं मानी जा सकती। निश्चित रूप से इसमें काले धन का योगदान है। इस लिहाज से पूंजीवाद का विरोध करने वाले बाबा खुद भी परोक्ष रूप से पूंजीपति हो गए हैं। और इसी पूंजी के दम पर वे अब खम ठोक कर कह रहे हैं कि कांगे्रस को उखाड़ कर नई सरकार बनाएंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि योग और स्वास्थ्य की प्रभावी शिक्षा के कारण करोड़ों लोगों के उनके अनुयायी बनने से बाबा भ्रम में पड़ गए हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि आगामी चुनाव में जब वे खुल कर भाजपा सहित कुछ पार्टियों के प्रत्याशियों को समर्थन देंगे तो वे सभी अनुयायी उनके कहे अनुसार मतदान करेंगे। योग के मामले में भले ही लोग राजनीतिक विचारधारा का परित्याग कर सहज भाव से उनके इर्द-गिर्द जमा हैं, लेकिन जैसे ही वे सक्रिय राजनीति का चोला धारण करेंगे, लोगों का रवैया भी बदल जाएगा।
जहां तक देश के मौजूदा राजनीतिक हालात का सवाल है, उसमें शुचिता, ईमानदारी व पारदर्शिता की बातें लगती तो रुचिकर हैं, मगर उससे कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, इस बात की संभावना कम ही है। ऐसा नहीं कि वे ऐसा प्रयास करने वाले पहले संत है, उनसे पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है।  इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाबा रामदेव भी न तो पूरे राजनीतिज्ञ हो पाएं और न ही योग गुरू जैसे ऊंचे आसन की गरिमा कायम रख पाएं।
कुल मिला कर यह बेहद अफसोस की बात है कि जनभावनाओं के अनुरूप पिछले एक डेढ़ साल में राजनीतिक दलों के खिलाफ दो बड़े आंदोलन पैदा हुए लेकिन अन्ना का आंदोलन राजनीतिक दल बनाने की घोषणा के साथा खत्म हो गया तो बाबा रामदेव का गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों का समर्थन लेकर व उनका समर्थन करने की घोषणा के साथ समाप्त हो गया।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, अगस्त 14, 2012

वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे पर असमंजस

राजस्थान में आगामी विधानसभा चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा के नेतृत्व में घोषित रूप से लड़े जाने पर अभी असमंजस बना हुआ है। भाजपा का संघनिष्ठ धड़ा हालांकि भाजपा की सरकार बनने पर श्रीमती वसुंधरा को ही मुख्यमंत्री बनाने पर सहमत है, मगर उन्हें पहले से मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट न करने पर जोर डाल रहा है। इस संबंध में उसका तर्क ये है कि जिस प्रकार गुजरात में मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी के कहीं न कहीं पार्टी लाइन से ऊपर होने के कारण वहां हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं, ठीक उसी प्रकार की स्थिति राजस्थान में भी होती जा रही है। ऐसे में बेहतर ये होगा कि उन्हें पहले से मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित न किया जाए, बाद में भले ही भाजपा को बहुमत मिलने पर उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाए।
इसी के साथ एक महत्वपूर्ण जानकारी ये भी है कि संघ का धड़ा वसुंधरा को फ्रीहैंड दिए जाने के पक्ष में भी नहीं है। उसका कहना है कि ऐसा करने पर वे अपने समानांतर धड़े को निपटाने की कोशिश कर सकती हैं, जैसा कि वे पहले भी कर चुकी हैं। कई पुराने नेता हाशिये पर धकेल दिए गए। और यदि ऐसा हुआ तो चुनाव में पार्टी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। असल में उनका इशारा इस संभावना की ओर है, जिसके तहत यह माना जा रहा है कि चुनाव से पहले वसुंधरा राजे को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का जिम्मा सौंपा जा सकता है। संघ का यह धड़ा मौजूदा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी को हटाए जाने के पक्ष में भी नहीं है। चतुर्वेदी को हटाए जाने को वह अपनी हार के रूप में देख रहा है।
वस्तुत: श्रीमती राजे को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए दबाव बनाने वालों का कहना है कि अगर पार्टी को चुनाव में जीत हासिल करनी है तो वसुंधरा को टिकट वितरण अपने हिसाब से करने की छूट देनी होगी। इसके पीछे उनका तर्क ये है कि यदि प्रदेश अध्यक्ष कोई और होता है तो वह टिकट वितरण के समय रोड़ा अटका सकता है, जिसकी वजह से गलत प्रत्याशियों को टिकट मिल जाने की आशंका रहेगी। अपनी इस बात पर जोर डालने के लिए वे पिछले चुनाव का जिक्र करते हैं कि तब प्रदेश अध्यक्ष ओम माथुर के कुछ टिकटों के लिए अड़ जाने के कारण ऐसे प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारने पड़े, जो कि हार गए और भाजपा जीती हुई बाजी हार गई। हालांकि वे इस बात पर सहमत हैं कि संघ लॉबी को भी पूरी तवज्जो दी जानी चाहिए और उनके सुझाये हुए प्रत्याशियों को भी टिकट दिए जाएं, मगर कमान केवल वसुंधरा के हाथ में दी जाए। वसुंधरा खेमा इस बात पर भी नजर रखे हुए है कि कहीं संघ लॉबी कुछ ज्यादा हावी न हो जाए। अगर ऐसा होता है तो वे पहले की ही तरह फिर से इस्तीफा हस्ताक्षर अभियान जैसी किसी मुहिम की रणनीति अपना सकते हैं।
समझा जाता है कि फिलहाल पार्टी हाई कमान इस बात को लेकर असमंजस में है कि वसुंधरा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाए अथवा नहीं। इस बात की संभावना भी तलाशी जा रही है कि वसुंधरा विरोधी लॉबी को संतुष्ट करने के लिए किसी ऐसे नेता को प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व सौंपा जाए, जो कि संघ और वसुंधरा दोनों को स्वीकार्य हो। इस सिलसिले में पूर्व गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया का नाम सामने आ रहा है। हालांकि पिछले दिनों कटारिया की प्रस्तावित मेवाड़ यात्रा को लेकर जो बवाल हुआ, उससे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे वसुंधरा को चुनाती देने जा रहे हैं और दोनों के बीच संबंध काफी कटु हो चुके हैं, जबकि वस्तुस्थिति ये है कि वह विवाद केवल मेवाड़ अंचल में व्याप्त धड़ेबाजी की वजह से उत्पन्न हुआ। वहां वर्चस्व को लेकर कटारिया व किरण में जबरस्त खींचतान है और उसी वजह से इतना बड़ा नाटक हो गया। उस झगड़े की जड़ किरण माहेश्वरी थीं। अर्थात वसुंधरा व कटारिया के संबंध उतने कटु नहीं हैं, जितने कि समझे जा रहे हैं। कटारिया के अतिरिक्त पूर्व अध्यक्ष ओम माथुर का नाम भी सामने आ रहा है।
कुल मिला कर ताजा स्थिति ये है कि हाईकमान इस मुद्दे पर और विचार कर लेना चाहता है। विशेष रूप से दिसंबर में राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का कार्यकाल बढ़ाए जाने अथवा स्थितियां बदलने की संभावना के बीच राजस्थान के मसले को एक तरफ ही रखने के पक्ष में है। वैसे उसका एक मात्र मकसद राजस्थान पर फिर काबिज होना है। इसके लिए वह दोनों धड़ों के बीच तालमेल बनाए रखने पर ही पूरी ताकत लगाएगा। वजह ये है  कि एक ओर जहां वसुंधरा खेमा ताकतवर होने के कारण आक्रामक है, वहीं संघ के हार्डकोर नेताओं की मंशा ये है कि इस बार येन केन प्रकारेण वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत कर दिया जाए। यह स्थिति पार्टी के लिए बेहद घातक साबित हो सकती है। लब्बोलुआब राजस्थान भाजपा का मसला बेहद नाजुक है और उसे बड़ी सावधानी से निपटाए जाने की कोशिश की जा रही है।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

सोमवार, अगस्त 13, 2012

आधी अधूरी आजादी में जी रहे हैं हम

इस बार 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की एक और वर्षगांठ मना रहे हैं। जाहिर सी बात है कि हर बार की तरह यह वर्षगांठ भी महज एक रस्म अदायगी मात्र ही है। हम सिर्फ यह कह-सुन कर आपस में खुश हो लेते हैं कि हम आजाद हैं, लेकिन सच में हम कितना आजाद हैं, यह तो हमारा दिल ही जानता है। यही वजह है कि आजादी का आंदोलन देख चुकी हमारी बुजुर्ग पीढ़ी बड़े सहज भाव में कहती सुनाई देती है कि इससे तो अंग्रेजों का राज अच्छा था।
वस्तुत: हमारी आजादी आधी अधूरी ही है। इसकी वजह ये है कि हम 15 अगस्त 1947 को अग्रेजों की दासता से तो मुक्त हो गए, मगर जैसी शासन व्यवस्था है, उसमें अब हम अपनों की ही दासता में जीने को विवश हैं। सबसे बड़ी समस्या है आतंकवाद और सांप्रदायिक विद्वेष की। इसके चलते देश के अनेक इलाकों में आजाद होने के बावजूद व्यक्ति को अगर अपने ही घर में संगीनों के साए में रहना पड़े, तो यह कैसी आजादी। लचर कानून व्यवस्था और लंबी न्यायिक प्रक्रिया के कारण संगठित अपराध इतना बढ़ गया है कि हम निर्भीक होकर सड़क पर चल नहीं सकते। हमारी बहन-बेटियों को अपने ही मोहल्लों में अपनी अस्मिता का भय बना रहता है। हम अपने ही देश में न्याय के लिये भटकते रहते हैं। शासन और प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिये यदि हमें फिल्म शोले के वीरू की तरह टंकी या टॉवर पर चढना पड़े या आत्मदाह की कोशिश करनी पड़े तो उसे आजादी कैसे कहा जा सकता है।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या हमारे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने इसी आजादी के लिये अपना बलिदान दिया था? क्या महात्मा गांधी ने ऐसी ही आजादी के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था? क्या हम सिर्फ फिरंगियों की सत्ता से घृणा करते थे? फिरंगियों की सत्ता से हमने भले ही मुक्ति पा ली, लेकिन फिरंगी मानसिकता से आज हम 62 साल बाद भी मुक्त नहीं हो सके हैं। जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहींं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है।  'फूट डालो, राज करोÓ की जगह 'फूट डालो और वोट पाओÓ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है।
संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले हम फिंरगियों के जुल्म सहते थे, अब अपनों के जुल्म सह रहे हैं। पहले भी सत्ता के खिलाफ बोलने पर आवाज बंद करने की कोशिश की जाती थी, आज भी ऐसा चल रहा है। पहले आजादी के संघर्ष में जान जाती थी, आज तो पता नहीं, कब चली जाए। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। पहले भी सत्ता की ओर से तुगलकी फरमान जारी होते थे, आज भी ऐसे फरमान जारी हो रहे हैं। आजादी के लिए बलिदान देने वालों को देश भुला चुका है। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। पहले भी लोग भूख से मरते थे, आज भी मर रहे हैं। सत्ता से चिपके रहने वाले लोग फिंरगी  शासन में भी ऐश कर रहे थे, आज भी सत्ता से चिपके रहने वाले ही सारे सुख भोग रहे हैं। आखिर यह कैसी आजादी है? क्या आम आदमी को भय और भूख से मुक्ति मिली है?  क्या आम आदमी को उसके जीवन की गांरंटी दी जा सकी है? क्या नारी की अस्मिता सुरक्षित है? क्या व्यक्ति अपनी बात निर्भीकता से रखने के लिए स्वतंत्र है? जाहिर है, इनके जवाब ना में ही होंगे। और जब ऐसा है, तब फिर इस आजादी के आम आदमी के लिए क्या मायने?
दरअसल, अब हम एक  ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओ के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्र्र्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके , तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं। हालांकि हाल ही समाजसेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने भ्रष्ट तंत्र व काले धन के खिलाफ पूरे देश को जगाने का काम किया है, मगर यह ताकतवर भ्रष्ट ताकतों के कारण यह आंदोलन सिरे चढ़ता नजर नहीं आ रहा। लोगों के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष तो है, मगर व्यवस्था परिवर्तन के लिए कोई तैयार नहीं है।
हर भारतीय की इच्छा है कि आजादी केवल किताबों और शब्दों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर भी दिखनी चाहिये। हमें गंाधी के सपनों का भारत चाहिये। हमें देश के महान क्रांतिकारियों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना है। विडंबना यह है कि हम आजादी के पर्व पर इन तथ्यों पर जरा भी चिंतन नहीं करते। हम सिर्फ इस दिन रस्म अदायगी करते हैं। सुबह झंडा फहरा कर और बड़े-बड़े भाषण देकर हम अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं और दूसरे ही दिन पुराने ढर्ऱे वाली आपाधापी में व्यस्त हो जाते हैं।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, अगस्त 07, 2012

प्रोजेक्ट न करने की कह कर भी जंग बढ़ा रहे हैं गडकरी

बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में अस्वीकार किए जाने पर हालांकि भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भले ही यह कह कर एनडीए में विवाद को विराम देने की कोशिश की हो कि भाजपा प्रधानमंत्री के रूप में किसी को प्रोजेक्ट नहीं करेगी, मगर साथ भाजपा में एक से अधिक नेताओं को प्रधानमंत्री पद के योग्य बता कर अपनी ही पार्टी में घमासान को बढ़ावा दे दिया है। कौन-कौन नेता प्रधानमंत्री पद के योग्य है, इसकी गिनती करवाने से जाहिर सी बात है कि वे खुद ब खुद दावेदारी की स्थिति में आ जाते हैं। लोगों की छोडिय़े, अगर खुद पार्टी अध्यक्ष ही कुछ नेताओं को प्रधानमंत्री पद के योग्य करार देंगे तो स्वाभाविक है कि वे मौका पडऩे पर दावेदारी करने से क्यों चूकेंगे।
ज्ञातव्य है कि हाल ही आगरा में गडकरी ने कहा कि भाजपा प्रधानमंत्री के रूप में किसी को प्रोजेक्ट नहीं करेगी। भावी प्रधानमंत्री पर फैसला लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए करेगा। हालांकि उन्होने पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री पद के दावेदारों का नाम भी गिना दिया। उन्होंने कहा कि भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं। साथ ही गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय नेता बता कर उन्हें भी उसी श्रेणी में शामिल कर दिया।
यहां उल्लेखनीय है कि घोटालों से घिरी कांग्रेस नीत यूपीए गठबंध की सरकार के फिर सत्ता में नहीं आने की धारणा के बीच भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए पहले से ही घमासान जारी है। भाजपा भले ही वह अकेले अपने दम पर सरकार न बना पाए, मगर भाजपा नीत एनडीए तो सत्ता में आने की उम्मीद है ही। जाहिर तौर पर भाजपा सबसे बड़ा विपक्षी दल होगा, तो उसी का नेता प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाएगा। यही वजह है कि भाजपा नेताओं में इस पद को लेकर लार टपक रही है।
पिछली बार कमजोर मनमोहन सिंह बनाम मजबूत लाल कृष्ण आडवाणी के नाम पर चुनाव में पराजय हासिल होने के बाद आडवाणी की दावेदारी स्वत: ही काफी कमजोर हो गई थी, बावजूद इसके वे अपनी दावेदारी को कमतर नहीं मानते। इसी के चलते उन्होंने पिछले दिनों रथयात्रा निकाली। जब यह सवाल उठा कि क्या वे प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने की तैयारी कर रहे हैं तो उन्होंने साफ कर दिया कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं। अब एक बार फिर खुद गडकरी ही उन्हें प्रधानमंत्री के योग्य बता कर उनके दावे को मजबूत कर रहे हैं।
जहां तक सुषमा स्वराज व अरुण जेटली का सवाल है, वे खुद ही अपने आपको प्रबल दावेदार मानते हैं और इसी के चलते पैंतरेबाजी करते रहते हैं। दोनों के बीच चल रही प्रतिस्पद्र्धा किसी से छिपी नहीं है।
अगर मोदी की बात करें तो वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि वे कभी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर सकेंगे या दावेदार माने भी जाएंगे, मगर गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल की व्यवस्था को उन्होंने अपनी सांप्रदायिक छवि को सुधारने के रूप में इस्तेमाल किया। उसी दौरान अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च रिपोर्ट में उनकी तारीफ करते हुए ऐसा माहौल बना दिया गया कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का मुकाबला मोदी और राहुल गांधी के बीच हो सकता है। इससे मोदी का हौंसला और बढ़ गया और 'शांति और साम्प्रदायिक सद्भावÓ के लिए तीन दिन के उपवास के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता बनने का प्रयास किया। हालांकि तब भी शरद यादव ने मोदी के उपवास का उपहास किया था, मगर मोदी का अभियान नहीं रुका। कट्टरवादी हिंदू मानसिकता के लोगों ने तो बाकायदा फेसबुक व ट्विटर पर अभियान सा छेड़ रखा है। बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से उनके पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है। इसी से चिढ़े बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने ताल ठोक कर कह दिया कि एनडीए को धर्मनिरपेक्ष चेहरा ही स्वीकार्य होगा। उनका सीधा सा इशारा मोदी को प्रोजेक्ट न किए जाने को लेकर है। हालांकि इस बात को लेकर एनडीए संयोजक शरद यादव ने ऐतराज किया है कि इस विषय को उठाना ठीक नहीं है। वैसे भी यह भाजपा का अंदरुनी मामला है कि वह किसी को प्रोजेक्ट करती है या नहीं। उसके बाद भी किसी को अंतिम रूप से प्रोजेक्ट किए जाने का निर्णय एनडीए को करना है। अत: अभी से इस पर चर्चा करके माहौल नहीं बिगाड़ा जाना चाहिए। कदाचित इसी वजह से गडकरी ने यह कह कर उफनते दूध  पर छींटे डालने की कोशिश की है कि भाजपा किसी को प्रोजेक्ट नहीं करेगी। मगर साथ ही जब मोदी सहित कुछ और नेताओं को प्रधानमंत्री पद के योग्य करार दिया तो क्या इस बात की आशंका नहीं रहेगी कि वे एक-दूसरे को काटने की कोशिश करेंगे। सुना तो यह तक जाता है कि कुछ दिग्गज नेता मोदी का नाम ज्यादा प्रचारित होने से परेशानी में हैं और यदि उनका जोर चला तो वे मोदी को गुजरात विधानसभा चुनाव में ही निपटा देंगे।
यदि निष्पक्ष पर्यवेक्षकों की राय मानें तो भले ही मोदी व आडवाणी का जनाधार अन्य नेताओं के मुकाबले अधिक है, लेकिन दोनों पर कट्टरपंथी माना जाता है, इस कारण राजग के घटक दल उनके नाम पर सहमति नहीं देंगे। सुषमा व जेटली अलबत्ता कुछ साफ सुथरे हैं, मगर उनकी ताकत कुछ खास नहीं। इसलिए वे चुप रह कर मौके की तलाश कर रहे हैं। वे जानते हैं कि जैसे ही सरकार बनाने के लिए अन्य दलों के सहयोग की जरूरत होगी तब मोदी व आडवाणी की तुलना में उन्हें पसंद किया जाएगा।
कुल मिला कर गडकरी के ताजा बयान से भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए चल रही खींचतान और बढ़ेगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, अगस्त 05, 2012

टीम अन्ना ने ही अंधे कुएं में धकेल दिया आंदोलन

जिस अन्ना टीम ने देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त आंदोलन खड़ा किया, उसी ने अपनी नादानियों, दंभ और मर्यादाहीन वाचालता के चलते उसे एक अंधे कुएं में धकेल दिया है। यह एक कड़वी सच्चाई है, मगर कुछ अंध अन्ना भक्तों को यह सुन कर बहुत बुरा लगता है और वे यह तर्क देकर आंदोलन की विफलता को ढ़ंकना चाहते हैं कि टीम अन्ना ने देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण तो पैदा किया ही है। बेशक देश के हर नागरिक के मन में भ्रष्टाचार को लेकर बड़ी भारी पीढ़ा थी और उसे टीम अन्ना ने न केवल मुखर किया और उसे एक राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल दी, मगर जिस अंधे मोड़ पर ले जाकर हाथ खड़े किए हैं, वह आम जनता की आशाओं पर गहरा तुषारापात है। एक अर्थ में यह जनता के साथ विश्वासघात है। जिस जनता ने उन पर विश्वास किया, उसे टीम अन्ना ने एक मुकाम पर ला कर ठेंगा दिखा दिया। अब हम भले ही आशावादी रुख अपनाते हुए आंदोलन की गर्म राख में आग की तलाश करें, मगर सच्चाई ये है एक बहुत बड़ी क्रांति का टीम अन्ना ने सत्यानाश कर दिया।
टीम अन्ना में चूंकि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लोग थे, इस कारण उनमें कभी  भी मतैक्य नहीं रहा। उनके मतभेद समय-समय पर उजागर होते रहे, जिसकी वजह से कई बार सामूहिक नेतृत्व के मुद्दे पर उनसे जवाब देेते नहीं बना। 
जहां तक स्वयं अन्ना हजारे का सवाल है, वे खुद तो पाक साफ हैं और बने रहे, मगर उनकी टीम कई बार विवादों में आई। कभी अरविंद केजरीवाल पर आयकर विभाग ने उंगली उठाई, तो कभी किरण बेदी पर विमान की टिकट का पैसा बचाने का आरोप लगा। भूषण बाप-बेटे की जोड़ी पर भी तरह-तरह के आरोप लगे। सबसे ज्यादा विवादित हुए अपने घटिया बयानों की वजह से।
टीम अन्ना कितने मतिभ्रम में रही, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कभी जिन बाबा रामदेव से वह कोई संबंध नहीं रखना चाहती थी, बाद में उसी से मजबूरी में हाथ मिला लिया। उसके बाद भी बाबा रामदेव को लेकर भी टीम दो धड़ों में बंटी नजर आई। यही वजह रही कि जब टीम से बाबा से गठबंधन किया तो न केवल उनके विचारों में भिन्नता बनी रही, अपितु मनभेद भी साफ नजर आता रहा। एक ओर बाबा रामदेव गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से गलबहियां करते रहे तो दूसरी और टीम अन्ना के सदस्य इस मुद्दे पर अलग-अलग सुर उठाते नजर आए। हालत ये हो गई कि जो बाबा रामदेव अपने वायदे के मुताबिक टीम अन्ना के ताजा अनशन के पहले दिन कुछ घंटे नजर आए, बाद में गायब हो गए और आखिरी दिन अनशन तुड़वाने के लिए आने पर कहने पर साफ मुकर गए। टीम अन्ना कभी सभी राजनीतिक दलों से परहेज करती रही तो कभी पलटी और कांग्रेस को छोड़ कर अन्य सभी दलों के नेताओं के साथ एक मंच पर आई। टीम अन्ना की नीयत और नीति सदैव अस्पष्ट ही रही। यही कारण रहा कि शुरू में जो संघ व भाजपा कांग्रेस विरोधी आंदोलन होने की वजह से साथ दे रहे थे, वे  खुद को भी गाली पडऩे पर अलग हो गए।
टीम अन्ना दंभ से इतनी भरी है कि वह अपने आगे किसी को कुछ नहीं गांठती। उसने कई बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व अन्य मंत्रियों और नेताओं  पर अपमाजनक टिप्पणियां कीं। पिछले साल स्वाधीनता दिवस पर खुद अन्ना ने मनमोहन सिंह पर टिप्पणी की कि वे किस मुंह से राष्ट्रीय झंडा फहरा रहे हैं। यहां तक कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान तो प्रणव मुखर्जी पर आरोप लगाए ही, उनके चुने जाने पर इसे देश का दुर्भाग्य करार दिया। यह बेशर्म सदाशयता ही कही जाएगी कि पहले जानबूझकर प्रणब मुखर्जी का चित्र अपने मंच पर लगाया और बाद में खीसें निपोरते हुए उसे कपड़े से ढंक दिया।
जहां तक टीम की एकता का सवाल है, अन्ना हजारे कहने मात्र को टीम लीडर थे, मगर भीतर अरविंद केजरीवाल तानशाही करते रहे। अकेले उनके व्यवहार की वजह से एक के बाद एक सदस्य टीम से अलग होते गए। एक ओर तो टीम अन्ना लोकतंत्र और पारदर्शिता की मसीहा बनती रही, दूसरी ओर खुद कुलड़ी में गुड़ फोडऩे की नीति पर चलती रही। मौलाना शमून काजमी की टीम से छुट्टी उसी का ज्वलंत उदाहरण है। यह वही टीम है, जिसने सरकार के साथ शुरुआती बहस की वीडियो रिकार्डिंग करवाने की जिद की और दूसरी ओर अन्ना हजारे केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद से गुप्त वार्ता करने से नहीं चूके। पोल खुलने पर उनका चेहरा देखने लायक था, जो हर एक ने टीवी पर देखा।
जो आखिरी अनशन आंदोलन के पटाक्षेप और राजनीति की ओर पहल का सबब बना, वह भी बिना किसी रणनीति के शुरू हुआ। इसका दोष भले ही सरकार को दिया जाए कि उसने उनको इस बार गांठा ही नहीं, मगर यह टीम अन्ना की रणनीतिक कमजोरी ही मानी जाएगी कि नौवें दिन तक आते-आते किंकतव्र्यविमूढ़ हो गई। वजह साफ थी। टीम अन्ना की बेवकूफियों  व अपरिपक्वता की वजह से आंदोलन जनाधार खो चुका था। जब भीड़ नहीं जुटी तो उस टीम के होश फाख्ता हो गए, जो कि सबसे पहले व दूसरे अनशन के दौरान अपार जनसमर्थन की वजह से बौरा गई थी। जब मीडिया ने भीड़ की कमी को दिखाया तो अन्ना के समर्थक बौखला गए। उन्हीं मीडिया कर्मियों से बदतमीजी पर उतर आए, जिनकी बदौलत चंद दिनों में ही नेशनल फीगर बन गए थे। यहां तक कि सोशल मीडिया पर केजरवाल को भावी प्रधानमंत्री तक करार दिया जाने लगा।
असल में मीडिया किसी का सगा नहीं होता। वो तो उसने इसी कारण टीम अन्ना को जरूरत से ज्यादा उभारा क्योंकि उसे लग रहा था कि टीम एक अच्छे उद्देश्य के लिए काम कर रही है, मगर टीम अन्ना ने समझ लिया कि मीडिया उनका अनुयायी हो गया है। जैसे ही मीडिया तटस्थ हुआ और आंदोलन की कमियां भी उजागर करने लगा तो आंदोलन की रही सही हवा भी निकल गई। इसी के साथ यह भी साफ हो गया था कि पूरा आंदोलन टीवी व इंटरनेट पर की जा रही शोशेबाजी पर टिका हुआ था।
इस बार बलिदान होने की घोषणा करके अनशन पर बैठे अरविंद केजरीवाल की बुलंद आवाज तब ढ़ीली पड़ गई, जब आठ दिन बाद भी उन्हें सरकार ने तवज्जो नहीं दी। हालत ये हो गई कि अपना अनशन खुद ही तोड़ लेने का फैसला करना पड़ा। और बहाना बनाया इक्कीस लोगों की उस चि_ी को, जिस में पार्टी बनाने की कोई सलाह या उस में शामिल होने की कोई इच्छा नहीं लिखी गई थी। आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर आ कर खड़ा हो गया, जहां मुंह बाये खड़ी जनता को जवाब देना जरूरी था। जवाब कुछ था नहीं, सो आखिर विकल्प के लिए वही रास्ता चुना, जिसके लिए वे लगातार आनाकानी करते रहे। अर्थात सत्ता परिवर्तन की मुहिम। व्यवस्था परिवर्तन तो कर नहीं पाए। हालांकि अधिसंख्य अन्ना समर्थक सहित खुद टीम अन्ना भी यह जानती है कि ये रास्ता कम से कम उनके हवाई संगठन के लिए धन के अभाव में कत्तई नामुमकिन है, मगर नकटे बन कर यही कह रहे हैं कि हम सत्ता परिवर्तन कर दिखाएंगे। अनेक ऐसे भी हैं, जो आंदोलन से जुड़ कर अब पछता रहे हैं कि यदि इसी प्रकार राजनीति में आना था तो काहे को समय बर्बाद किया। जिन्हें लोग असली राष्ट्रभक्त के रूप में सम्मान दे रहे थे, उन्हें अब उसी तरह हिकारत की नजर से देखा जाएगा, जैसा कि वे राजनीतिक कार्यकर्ताओं व नेताओं को देखा करते थे।
कुल मिला कर आंदोलन की निष्पत्ति ये है कि गलत रणनीतिकारों की मदद लेने से लाखों लोगों की आशा का केन्द्र अन्ना हजारे की चमक फीकी हो गई है, अलबत्ता उनकी छवि आज भी उजली ही है। बाकी पूरी टीम तो एक्सपोज हो गई है। शेष रह गया है आंदोलन, जो आज भी आमजन के दिलों में तो है, मगर उसे फिर नए मसीहा की जरूरत है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, अगस्त 03, 2012

दैनिक भास्कर व रजनीगंधा में से कौन सच्चा, कौन झूठा?



दैनिक भास्कर के 29 जुलाई के अंक में छपी खबर के साथ दी गई रिपोर्ट
पान मसाले पर भी प्रतिबंध लगाए जाने की दैनिक भास्कर की मुहिम के बीच एक विरोधाभासी मगर साथ ही हास्यास्पद तथ्य उभर कर सामने आया है। विरोधाभासी इसलिए कि एक ओर दैनिक भास्कर को मिली केन्द्रीय तंबाकू अनुसंधान संस्थान उर्फ सीटीआरआई, राजमुंदरी में बताया गया है कि पान मसाला रजनीगंधा में 2.26 प्रतिशत निकोटिन है, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, जबकि दूसरी ओर रजनीगंधा ने एक विज्ञापन जारी कर खुलासा किया है कि सेंट्रल टोबेको रिसर्च इंस्टीट्यूट-इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रिकलचर, राजुमंदरी से यह प्रमाणित हो चुका है कि उनके उत्पाद में निकोटिन नहीं है। असल में ये संस्थान और इंस्टिट्यूट एक ही हैं, केवल हिंदी और अंग्रेजी में नाम का फर्क है। और हास्यास्पद इसलिए कि जिस पान मसाला विरोधी मुहिम के तहत दैनिक भास्कर ने 29 जुलाई के अंक में रजनीगंधा सहित अन्य पान मसालों के बारे में रिपोर्ट छापी है, उसी दैनिक भास्कर के 2 अगस्त के प्रथम पृष्ठ पर रजनीगंधा का विज्ञापन छापा है।
सवाल ये उठता है कि आखिर किसकी रिपोर्ट सही है? दैनिक भास्कर को मिली रिपोर्ट, जिसके आधार पर उसने मुहिम पर और अधिक जोर दिया है या फिर रजनीगंधा की ओर से उल्लेखित रिपोर्ट, जो कि बाकायदा विज्ञापन के जरिए बता रहा है कि उसके उत्पाद में न तम्बाकू है और न ही निकोटिन। इसलिए अपने पसंदीदा रजनीगंधा पान मसाला की शुद्धता का आनंद पूरे विश्वास के साथ लीजिए। एक ही संस्थान भला दो तरह की विरोधाभासी रिपोर्ट कैसे जारी कर सकता है? जरूर कोई घालमेल है। उससे भी अफसोसनाक ये कि जो समाचार पत्र पान मसाला विरोधी मुहिम का श्रेय ले रहा है और उत्पाद विशेष का हवाला दे रहा है, वह भला कैसे उसी पान मसाला का विज्ञापन छाप रहा है। ऐसा करके खुद भास्कर ने अपनी ही खबर का खंडन कर दिया है। मगर इससे पाठक तो भ्रमित हो रहा है। वह भला कहां जाए? उसे असलियत कौन बताएगा?
इतना ही नहीं इससे तो गुटका गोवा 1000, गुटका आरएमडी, खैनी राजा व खैनी चैनी-खैनी के बारे में छपी रिपोर्ट पर भी संदेह होता है, जिसमें बताया गया है कि उनमें क्रमश: 2.04, 1.88, 1.02 व .58 प्रतिशत निकोटिन है। और इस तरह से दैनिक भास्कर की वह मुहिम ही सिरे से खारिज होती नजर आ रही है, जिसके अनुसार सादा पान मसाला में भी निकोटिन मौजूद है, अत: उस पर भी रोक लगाई जानी चाहिए।
भास्कर में छपा  रजनीगंधा का  विज्ञापन
यहां बता दें कि भास्कर ने अपनी खबर में बताया है कि बाजार में जीरो टोबेको के नाम से बिक रहे मशहूर ब्रांडों के पान मसाला भी गुटखा और तंबाकू जितने ही खतरनाक हैं। इनमें गुटखा और तंबाकू उत्पादों से कहीं ज्यादा मात्रा में निकोटिन पाया गया है, जबकि यह जीरो प्रतिशत होना चाहिए। यह खुलासा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की सिफारिश पर केंद्रीय तंबाकू अनुसंधान संस्थान सीटीआरआई, राजमुंदरी की जांच रिपोर्ट में हुआ। सीटीआरआई ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की सिफारिश पर बाजार में मौजूद पान मसाला, तंबाकू और गुटखा उत्पादों के सैंपल लेकर निकोटिन की मात्रा की जांच की थी। रजनीगंधा में 2.26 प्रतिशत निकोटिन पाया गया, जो सभी सैंपलों में सबसे ज्यादा था। सीटीआरआई तंबाकू पर शोध करने वाली केंद्र सरकार की सर्वोच्च संस्था है। यह संस्थान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आईसीएआर के अधीन काम करता है। इसकी रिपोर्ट विश्वसनीय मानी जाती है।
दैनिक भास्कर के तीन अगस्त की खबर में भी इसी बात पर जोर दिया जा गया है कि राज्य सरकार की ओर से गुटखे पर लगाई गई पाबंदी के आदेशों में हर उस खाद्य पदार्थ पर बैन है, जिसमें निकोटिन मिला है। इसके बावजूद प्रदेश में ऐसे पान मसाले की बिक्री खुले आम की जा रही है, जिनकी जांच में खतरनाक निकोटिन की पुष्टि हो चुकी है। सरकार अब इसे यह कहकर टाल रही है कि केंद्रीय कानून फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड एक्ट में संशोधन किए बिना रोक संभव नहीं है, लेकिन सरकार के आदेश में स्पष्ट है कि वे खाद्य पदार्थ, जिनमें निकोटिन है उनके भंडारण, उत्पादन व बिक्री पर रोक रहेगी।
लब्बोलुआब, बड़ा सवाल ये है कि जब सादा पान मसालों में निकोटिन होने की रिपोर्ट पर ही सवालिया निशान लग गया है तो दैनिक भास्कर की इस मुहिम के मायने ही क्या रह जाते हैं?
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, अगस्त 02, 2012

डॉ. शर्मा संभालेंगे पूरे देश में निशुल्क दवा योजना?


ऐसी चर्चा सुनने में आ रही है कि राजस्थान में मुख्यमंत्री निशुल्क दवा योजना को लागू करने में अहम भूमिका निभाने वाले राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कारपोरेशन के प्रबंध निदेशक डॉ. समित शर्मा को यह योजना पूरे देश में लागू किए जाने की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। हालांकि राजस्थान में इस योजना को लागू करने के साथ कुछ विसंगतियां अब भी मौजूद हैं। साथ ही यह उतनी लोकप्रिय नहीं हो पाई, जितनी कि उम्मीद थी, मगर उसके लिए मूलत: योजना की कमी की बजाय अन्य कारकों को जिम्मेदार माना जा रहा है। अर्थात मोटे तौर पर योजना को सफल ही माना जा रहा है।
चूंकि योजना का खाका डॉ. शर्मा ने ही तैयार किया है और वे ही इसकी देखरेख कर रहे हैं, इस कारण केन्द्र सरकार पूरे देश में इसे लागू करवाने में उनकी मदद लेने की सोच रही है। इसी सिलसिले में केन्द्र सरकार के निर्देश पर पिछले दिनों उत्तरप्रदेश व महाराष्ट्र के मुख्य सचिवों के साथ हुई बैठक को इसे अमलीजामा पहनाने की दिशा में एक कदम माना जा रहा है।
शर्मा साहब, जरा इस पर भी गौर करिये-
बेशक यह योजना अपने आप में अनूठी है और किसी भी सरकार के लिए इससे बड़ी लोकहितकारी योजना नहीं हो सकती, मगर वर्षों से दवा माफियाओं के चंगुल में फंसा मेडिकल व्यवसाय अब भी इसमें बाधक बना हुआ है। इस महत्वाकांक्षी योजना का सबसे उल्लेखनीय पहलु ये है कि सरकार लाख कोशिशों के बाद भी दवा माफिया के कुप्रचार से नहीं निपट पाई है। आपको याद होगा कि योजना से पहले जब सरकार ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाई ही लिखने के लिए बाध्य किया, तब भी माफिया के निहित स्वार्थों के कारण उस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया था। दवा माफिया ने ब्रांडेड और उन्नत किस्म की दवा के नाम पर बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी चला रखी है। कमीशन के आदी हो चुके डॉक्टर अब भी इसी ढर्ऱे पर चल रहे हैं कि वे सरकार के कहने पर अमुक जेनेरिक दवाई लिख तो रहे हैं और वह अस्पताल में मिल भी जाएगी, मगर असर नहीं करेगी। यदि असरकारक दवाई चाहिए तो अमुक ब्रांडेड दवाई लेनी होगी।
असल में शुरू से यह कुप्रचार किया जाता रहा कि जेनेरिक दवाई सस्ती भले ही हो, मगर वह ब्रांडेड दवाइयों के मुकाबले घटिया है और उससे मरीज ठीक नहीं हो पाता। यह धारणा आज भी कायम है। इसकी खास वजह ये है कि सरकार के नुमाइंदे ये तो कहते रहे कि जेनेरिक दवाई अच्छी होती है, मगर आम जनता में उसके प्रति विश्वास कायम करने के कोई उपाय नहीं किए गए। इसी कारण दवा माफिया का दुष्प्रचार अब भी असर डाल रहा है।
हालांकि योजना से लोगों को काफी राहत मिली है, लेकिन अब भी इसकी पर्याप्त उपलब्धता नहीं हो पाई है। यह आशंका शुरू से थी कि क्या सरकार वाकई उतनी दवाई उपलब्ध करवा पाएगी, जितनी कि जरूरत है? क्या सरकार ने वाकई पूरा आकलन कर लिया है कि प्रतिदिन कितने मरीजों के लिए कितनी दवाई की खपत है? इसके अतिरिक्त क्या समय पर दवा कंपनियां माल सप्लाई कर पाएंगी? ये आशंकाएं सही ही निकलीं। सरकार यह सोच रही थी कि जब मरीज को अस्पताल में ही मुफ्त दवाई उपलब्ध करवा दी जाएगी तो वह बाजार में जाएगा ही नहीं, मगर जरूरत के मुताबिक दवाइयां उपलब्ध न करवा पाने के कारण वह सोच धरी रह गई है। हालत ये है कि मरीज अस्पताल में लंबी लाइन में लग कर पर्ची लिखवाने के बाद सरकारी स्टोर पर जाता है तो उसे छह में से चार दवाइयां मिलती ही नहीं। मजबूरी में उसे बाजार में जाना पड़ता है और वहां उसे ब्रांडेड दवाई ही खरीदनी पडती है।
एक छिपा हुआ तथ्य ये भी है कि जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता कायम रखने का दावा भले ही जोरशोर से किया जा रहा हो, मगर असल स्थिति ये है कि टेंडर के जरिए दवा कंपनियों को दिए गए आदेश को लेकर उठे सवालों पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है। ऐसे में यह सवाल तो कायम ही है कि जो कंपनी राजनीतिक प्रभाव अथवा कुछ ले-दे कर आदेश लेने में कामयाब हुई है, वह दवाई बनाने के मामले में कितनी ईमानदारी बरत नहीं होगी।
-तेजवानी गिरधर