टीम अन्ना के भंग होने के बाद जिस प्रकार अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने अलग-अलग राह पकड़ी है और दोनों के बीच बढ़ते मतभेद खुल कर सामने आ रहे हैं, उससे साफ है कि केजरीवाल ने अन्ना को अपनी ओर से तो उल्लू बनाया ही था। अपने ठगे जाने के बाद धीरे-धीरे अन्ना की पीड़ा बाहर आने लगी है। उन्हें लगता है कि पहले तो केजरीवाल ने उनके कंधों पर सवार हो कर खुद को राष्ट्रीय क्षितिज पर उभारा और अब टीम भग होने के बाद भी वे उनके नाम को भुनाने वाले हैं।
अपने ब्लॉग पर लिखे अन्ना के इस कथन में गहरी व्यथा साफ महसूस की जा सकती है कि सरकार के कई लोग सोचते थे कि टीम अन्ना को कैसे तोड़ें? सरकार के लगातार दो साल प्रयास करने के बावजूद भी टीम नहीं टूटी थी, लेकिन इस वक्त सरकार की कोशिश के बिना ही सिर्फ राजनीति का रास्ता अपनाने से टीम टूट गयी। यह इस देश की जनता के लिए दुर्भाग्य की बात है। शायद टीम टूटने के कारण सरकार के कई लोगों ने खुशी मनाई होगी।
अन्ना को लगता है कि केजरीवाल जो पार्टी बनाने जा रहे हैं, उसमें वे उनके नाम और चेहरे को भुना लेंगे, सो अभी से आगाह कर रहे हैं कि ऐसा न किया जाए। उधर केजरीवाल बड़ी चतुराई से अन्ना को अपने पिता तुल्य बता कर, दिल में बसे होने की बातें करके परोक्ष रूप से उनके नाम का लोगों की भावनाएं भुनाने की कोशिश लगातार जारी रखे हुए हैं। असल में अगर केजरीवाल की पार्टी के प्रत्याशी अन्ना के नाम व फोटो का इस्तेमाल न भी करें तब भी अन्ना की अगुवाई में जुटी कार्यकर्ताओं और समर्थकों की जमात को इस्तेमाल तो करेंगे ही। तस्वीर का एक पहलु ये भी है कि आज अन्ना को लगता है कि उनका चेहरा एक ब्रांड बन गया है तो इसे ब्रांड बनाने का काम टीम अन्ना ने ही किया है। अन्ना हों भले ही कितने ही भले और महान, मगर राष्ट्रीय स्तर पर पुजवाने का काम टीम ने ही किया था। अन्ना में खुद इतनी अक्ल कहां थी।
राजनीतिक दिशा के लिए जिम्मेदार कौन?
देश के उद्धार के लिए दूसरे गांधी के रूप में उभरे अन्ना के आंदोलन को राजनीतिक दिशा किसने दी, इस पर भी दोनों के बीच मतभेद हैं। केजरीवाल का कहना है कि पार्टी बनाने का निर्णय उनका नहीं बल्कि अन्ना हजारे का था। केजरीवाल का कहना है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी से बैठक के बाद अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का निर्णय ले लिया था। उन्होंने उसका नाम भी तय कर लिया था-भ्रष्टाचार मुक्त भारत। केजरीवाल का ये कहना है कि अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का मन बनाने के बाद मुझसे पूछा था कि मैं क्या सोचता हूं इस बारे में। यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी इसलिए मैंने अन्ना से सोचने के लिए थोड़ा समय मांगा था। बाद में मैं भी उनके विचार से सहमत हो गया। पार्टी बनाने पर राय लेने के लिए सर्वेक्षण करवाने का विचार अन्ना हजारे ने स्वयं ही दिया था। दूसरी ओर अन्ना कह रहे हैं कि राजनीति के रास्ते जाने वाला ग्रुप बार बार ये कहता था कि अन्ना कहें तो हम पक्ष और पार्टी नहीं बनायेंगे, लेकिन मेरे पार्टी नहीं बनाने के निर्णय के बावजूद उन्होंने पार्टी बनाने का फैसला लिया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि उन्होंने पार्टी बनाने को कहा था।
वस्तुत: अन्ना की मुहिम के राजनीति की ओर अग्रसर होने की वजह मुहिम के आखिरी अनशन के असफला रही। चूंकि टीम अन्ना के कई प्रमुख सदस्यों के आमरण अनशन पर बैठने के बावजूद सरकार ने कोई खैर खबर नहीं ली तो आंदोलन दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया। या तो आंदोलन को और लंबा खींच कर केजरीवाल सहित अन्य जानों को खतरे में डाला जाता या आंदोलन को अधर में छोड़ दिया जाता। ये दोनों की संभव नहीं थे, इस कारण स्वयं अन्ना को भी न चाहते हुए तीसरा विकल्प चुनना पड़ा और खुद को ही घोषणा भी करनी पड़ी। इसकी जहां बुद्धिजीवियों ने आलोचना की तो राजनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ अंध अन्ना भक्तों ने सराहना। ऐसे में धरातल की सच्चाई समझते हुए अन्ना बिदक गए और केजरीवाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सर्वे के अनुकूल परिणाम का बहाना बना कर राजनीतिक पार्टी बनाने पर अड़ गए।
यहां दिलचस्प बात ये है कि आंदोलन से सच्चे मन से जुड़े कार्यकर्ता अपने आपको ठगा सा महसूस करते हुए भी मन को समझाने के लिए यह कह रहे हैं कि राजनीतिक पार्टी के मुद्दे को लेकर रास्ते भले ही अलग-अलग क्यों न चुन लिए हों परंतु इन दोनों का मकसद तो एक ही है। मगर सच्चाई ये है कि केवल आंदोलन के पक्षधर कार्यकर्ता भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते केजरीवाल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। उधर अन्ना भी अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए नए सिरे से कवायद कर रहे हैं।
दोनों धाराओं की सफलता संदिग्ध
जहां तक इन दोनों धाराओं के सफल होने का सवाल है, यह साफ नजर आता है कि अलग अलग होना दोनों के लिए ही घातक रहेगा। अन्ना हजारे केलिए अपना आंदोलन फिर से उरोज पर लाना बेहद मुश्किल काम होगा। कम से कम पहले जैसा ज्वार तो उठने की संभावना कम ही है। रहा सवाल केजरीवाल का तो उनका मार्ग भी बेहद कठिन है। जिस प्रकार की आदर्शवादी बातें कर रहे हैं, उनके चलते उनकी मुहिम धूल में ल_ चलाने जैसी ही होती प्रतीत होती है। वे तब तक कुछ सफलता हासिल नहीं कर पाएंगे, जबकि राजनीतिक हथकंडे नहीं अपनाते, जिनका कि वे शुरू से विरोध करते रहे हैं।
कुल मिला कर कल तक देश की राजनीतिक दशा-दिशा बदलने का दावा करने वाले आज खुद दिशाहीन नजर आ रहे हैं। भोले भाले अन्ना केजरीवल के हाथों ठगे जा चुके हैं। अन्ना को अगर थोड़ा चतुर मान भी लिया जाए तो इस अर्थ में कि जैसे ही उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ, अपने आप को अलग कर लिया। मगर वे उस गन्ने की तरह हो गए हैं, जो कि चूसा जा चुका है।
-तेजवानी गिरधर
अपने ब्लॉग पर लिखे अन्ना के इस कथन में गहरी व्यथा साफ महसूस की जा सकती है कि सरकार के कई लोग सोचते थे कि टीम अन्ना को कैसे तोड़ें? सरकार के लगातार दो साल प्रयास करने के बावजूद भी टीम नहीं टूटी थी, लेकिन इस वक्त सरकार की कोशिश के बिना ही सिर्फ राजनीति का रास्ता अपनाने से टीम टूट गयी। यह इस देश की जनता के लिए दुर्भाग्य की बात है। शायद टीम टूटने के कारण सरकार के कई लोगों ने खुशी मनाई होगी।
अन्ना को लगता है कि केजरीवाल जो पार्टी बनाने जा रहे हैं, उसमें वे उनके नाम और चेहरे को भुना लेंगे, सो अभी से आगाह कर रहे हैं कि ऐसा न किया जाए। उधर केजरीवाल बड़ी चतुराई से अन्ना को अपने पिता तुल्य बता कर, दिल में बसे होने की बातें करके परोक्ष रूप से उनके नाम का लोगों की भावनाएं भुनाने की कोशिश लगातार जारी रखे हुए हैं। असल में अगर केजरीवाल की पार्टी के प्रत्याशी अन्ना के नाम व फोटो का इस्तेमाल न भी करें तब भी अन्ना की अगुवाई में जुटी कार्यकर्ताओं और समर्थकों की जमात को इस्तेमाल तो करेंगे ही। तस्वीर का एक पहलु ये भी है कि आज अन्ना को लगता है कि उनका चेहरा एक ब्रांड बन गया है तो इसे ब्रांड बनाने का काम टीम अन्ना ने ही किया है। अन्ना हों भले ही कितने ही भले और महान, मगर राष्ट्रीय स्तर पर पुजवाने का काम टीम ने ही किया था। अन्ना में खुद इतनी अक्ल कहां थी।
राजनीतिक दिशा के लिए जिम्मेदार कौन?
देश के उद्धार के लिए दूसरे गांधी के रूप में उभरे अन्ना के आंदोलन को राजनीतिक दिशा किसने दी, इस पर भी दोनों के बीच मतभेद हैं। केजरीवाल का कहना है कि पार्टी बनाने का निर्णय उनका नहीं बल्कि अन्ना हजारे का था। केजरीवाल का कहना है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी से बैठक के बाद अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का निर्णय ले लिया था। उन्होंने उसका नाम भी तय कर लिया था-भ्रष्टाचार मुक्त भारत। केजरीवाल का ये कहना है कि अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का मन बनाने के बाद मुझसे पूछा था कि मैं क्या सोचता हूं इस बारे में। यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी इसलिए मैंने अन्ना से सोचने के लिए थोड़ा समय मांगा था। बाद में मैं भी उनके विचार से सहमत हो गया। पार्टी बनाने पर राय लेने के लिए सर्वेक्षण करवाने का विचार अन्ना हजारे ने स्वयं ही दिया था। दूसरी ओर अन्ना कह रहे हैं कि राजनीति के रास्ते जाने वाला ग्रुप बार बार ये कहता था कि अन्ना कहें तो हम पक्ष और पार्टी नहीं बनायेंगे, लेकिन मेरे पार्टी नहीं बनाने के निर्णय के बावजूद उन्होंने पार्टी बनाने का फैसला लिया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि उन्होंने पार्टी बनाने को कहा था।
वस्तुत: अन्ना की मुहिम के राजनीति की ओर अग्रसर होने की वजह मुहिम के आखिरी अनशन के असफला रही। चूंकि टीम अन्ना के कई प्रमुख सदस्यों के आमरण अनशन पर बैठने के बावजूद सरकार ने कोई खैर खबर नहीं ली तो आंदोलन दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया। या तो आंदोलन को और लंबा खींच कर केजरीवाल सहित अन्य जानों को खतरे में डाला जाता या आंदोलन को अधर में छोड़ दिया जाता। ये दोनों की संभव नहीं थे, इस कारण स्वयं अन्ना को भी न चाहते हुए तीसरा विकल्प चुनना पड़ा और खुद को ही घोषणा भी करनी पड़ी। इसकी जहां बुद्धिजीवियों ने आलोचना की तो राजनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ अंध अन्ना भक्तों ने सराहना। ऐसे में धरातल की सच्चाई समझते हुए अन्ना बिदक गए और केजरीवाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सर्वे के अनुकूल परिणाम का बहाना बना कर राजनीतिक पार्टी बनाने पर अड़ गए।
यहां दिलचस्प बात ये है कि आंदोलन से सच्चे मन से जुड़े कार्यकर्ता अपने आपको ठगा सा महसूस करते हुए भी मन को समझाने के लिए यह कह रहे हैं कि राजनीतिक पार्टी के मुद्दे को लेकर रास्ते भले ही अलग-अलग क्यों न चुन लिए हों परंतु इन दोनों का मकसद तो एक ही है। मगर सच्चाई ये है कि केवल आंदोलन के पक्षधर कार्यकर्ता भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते केजरीवाल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। उधर अन्ना भी अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए नए सिरे से कवायद कर रहे हैं।
दोनों धाराओं की सफलता संदिग्ध
जहां तक इन दोनों धाराओं के सफल होने का सवाल है, यह साफ नजर आता है कि अलग अलग होना दोनों के लिए ही घातक रहेगा। अन्ना हजारे केलिए अपना आंदोलन फिर से उरोज पर लाना बेहद मुश्किल काम होगा। कम से कम पहले जैसा ज्वार तो उठने की संभावना कम ही है। रहा सवाल केजरीवाल का तो उनका मार्ग भी बेहद कठिन है। जिस प्रकार की आदर्शवादी बातें कर रहे हैं, उनके चलते उनकी मुहिम धूल में ल_ चलाने जैसी ही होती प्रतीत होती है। वे तब तक कुछ सफलता हासिल नहीं कर पाएंगे, जबकि राजनीतिक हथकंडे नहीं अपनाते, जिनका कि वे शुरू से विरोध करते रहे हैं।
कुल मिला कर कल तक देश की राजनीतिक दशा-दिशा बदलने का दावा करने वाले आज खुद दिशाहीन नजर आ रहे हैं। भोले भाले अन्ना केजरीवल के हाथों ठगे जा चुके हैं। अन्ना को अगर थोड़ा चतुर मान भी लिया जाए तो इस अर्थ में कि जैसे ही उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ, अपने आप को अलग कर लिया। मगर वे उस गन्ने की तरह हो गए हैं, जो कि चूसा जा चुका है।
-तेजवानी गिरधर