जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर स्थित लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भाजयुमो के निर्णय और उस पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयान पर बवाल शुरू हो गया है। बवाल होना ही है। जब अपने ही देश में तिरंगा फहराने पर दंगा होने की चेतावनी दी जाएगी तो आग लगेगी ही। होना तो यह चाहिए था कि उमर अब्दुल्ला ये कहते कि भले ही कैसे भी हालात हों, मगर वे झंडा फहराने के लिए पूरी सुरक्षा मुहैया करवाएंगे। मगर उन्होंने यह कह कर कि भाजयुमो के झंडा फहराने पर दंगा हुआ तो उसकी जिम्मेदारी उसी की होगी, एक तरह से साफ मान लिया है कि वहां सरकार आतंवादियों के दबाव में ही काम कर रही है और सरकार का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है। और यदि नियंत्रण नहीं है तो फिर उनको पद बने रहने का कोई अधिकार भी नहीं है। असल बात तो ये है कि उन्हें एक कमजोर मुख्यमंत्री होने के कारण पहले ही हटाने की नौबत आ गई थी, मगर तब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यह कह कर बचा लिया कि उन्हें हालात से निपटने के लिए और समय दिया जाना चाहिए। लेकिन उमर अब्दुल्ला के ताजा बयान देने से यह साफ हो गया है कि उनका राज्य के जमीनी हालात पर नियंत्रण बिलकुल नहीं है। वे एक अनुभवहीन राजनेता हैं, जिनके लिए कश्मीर जैैसे जटिलताओं से भरे राज्य का नेतृत्व संभालना कत्तई संभव नहीं है। उनको और समय देने का कोई फायदा ही नहीं है।
हालांकि यह सही है आतंकवादियों ने यह चुनौती दी है कि भाजयुमो झंडा फहरा कर तो देखे अर्थात वे टकराव करने की चेतावनी दे रहे हैं, मगर एक मुख्यमंत्री का झंडा न फहराने की नसीहत देना साबित करता है कि वे आतंकवादियों से घबराये हुए हैं। भले ही उन्होंने कानून-व्यवस्था के लिहाज से ऐसा वक्तत्व दिया होगा, मगर क्या उन्होंने यह नहीं सोचा कि ऐसा कहने पर आतंकवादियों के हौसले और बुलंद होंगे। ऐसा करके न केवल उन्होंने हर राष्ट्रवादी को चुनौती दी है, अपितु आतंकवादियों को भी शह दे दी है।
यहां उल्लेखनीय है कि भाजयुमो के मूल संगठन भाजपा शुरू से कहती रही है कि कश्मीर के हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। भाजपा का आरोप स्पष्ट आरोप है कि पाकिस्तान कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी को आसान और प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इसके लिए अलगाववाद प्रभावित जिलों में बाकायदा ट्रकों में भर-भरकर पत्थर लाए जाते हैं। प्रति ट्रक एक हजार से बारह सौ रुपए की दर से पत्थरों की सप्लाई होती है और पथराव करने वाले युवकों को पांच सौ रुपए प्रति दिन के हिसाब से भुगतान किया जाता है। केंद्र और राज्य सरकार ने भाजपा के आरोप को गंभीरता से नहीं लिया था। बाद में केंद्र और राज्य को इस बात का अहसास हुआ है कि पत्थरबाजी कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है, बल्कि बाकायदा फिलस्तीन की तर्ज पर रणनीति के बतौर इस्तेमाल की जा रही है। कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर किए जा रहे हमले भी इसी रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जरूरत तो इस बात की थी कि अपनी जान जोखिम में डालकर घाटी में आतंकवादियों का सामना कर रहे सुरक्षा बलों के हाथ मजबूत किए जाते और उन्हें जमीनी हालात को ध्यान में रखते हुए जवाबी कार्रवाई करने की छूट दी जाती। उलटे सीआरपीएफ को तथाकथित असंयमित प्रतिक्रिया के लिए कटघरे में खड़ा कर दिया गया। केंद्र सरकार शायद पाकिस्तान के साथ जारी बातचीत की ताजा प्रक्रिया के मद्देनजर इस दिशा में चुप्पी साधे हुए है, लेकिन गौर करने की बात यह है कि क्या दूसरा पक्ष पाकिस्तान भी ऐसा ही नजरिया अपना रहा है? राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर जरूरत से ज्यादा संयम दिखाकर हम भारत विरोधी तत्वों और कश्मीर की जनता को सही संकेत नहीं दे रहे। एक ओर पूरा देश कश्मीर की घटनाओं से चिंतित है और दूसरी तरफ राज्य सरकार की निष्क्रियता और अदूरदर्शिता ने हालात को और नाजुक बना दिया है।
जम्मू कश्मीर की ताजा गुत्थी को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा फौरन कदम उठाए जाने की जरूरत है। वहां पाकिस्तान, अलगाववादियों, आतंकवादियों, विपक्षी दलों और लापरवाह प्रशासन जैसे सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए प्रभावी रणनीति बनाने की जरूरत है।