तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, मई 02, 2017

भाजपा विस्तारक कर पाएंगे संघ प्रचारकों की तरह सेवा?

भाजपा ने आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक नया प्रयोग शुरू किया है, जिसके तहत पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए पार्टी के विस्तारकों को जिम्मेदारी दी जा रही है। परिकल्पना ये है कि जिस प्रकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में प्रचारक अपना घर छोड़ कर नि:स्वार्थ भावना से काम करते हैं, ठीक वैसे ही पार्टी के पुराने नेता बिना किसी राजनीतिक लाभ की कामना किए हुए पार्टी को जमीन पर मजबूत करें। कहने और बताने में लगता तो यह अच्छा है, मगर यह एक आदर्श स्थिति है, धरातल पर यह प्रयोग कामयाब होगा, इसको लेकर पार्टी के भीतर ही संशय है।
ज्ञातव्य है कि हाल ही जयपुर के केशव विद्यापीठ में भाजपा के प्रदेश भर के विस्तारकोंं का दो दिवसीय शिविर हुआ। इसमें मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने उपदेश दिया कि विस्तारक स्वयं को विधानसभा चुनाव का टिकट बांटने वाला नेता न समझें। विस्तारक का काम केवल अपने आवंटित विधानसभा क्षेत्र के मतदान केंद्रों पर जाकर कार्यकर्ताओं को सक्रिय करना है। इसके अतिरिक्त विस्तारक टिकट अथवा किसी पद की लालसा न रखें। इतना ही नहीं पहले चरण में लगातार छह माह तक आवंटित क्षेत्र में ही रहना पड़ेगा। कोई विस्तारक अपने गृह जिले में नहीं रहेगा। वसुंधरा ने जोर देकर यह इसलिए कहा कि वे जानती हैं कि जो भी व्यक्ति सक्रिय राजनीति में है या रह चुका है, वह बिना स्वार्थ के काम नहीं करेगा। करेगा तभी, जब उसकी एवज में उसे कुछ न कुछ मिले। बहरहाल, इसी के साथ विस्तारक बनाए गए पुराने नेताओं के सपनों पर पानी फिर गया। जब वे विस्तारक बनाए गए तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वे हाशिये पर नहीं हैं, बल्कि पार्टी उनकी कद्र कर रही है, मगर यदि बिना किसी लालच के काम करना है तो वह तो वे अपने कार्यकर्ता काल में कर चुके हैं, तो ऐसा विस्तारक का तमगा लगाने से क्या फायदा, अब तो राजनीतिक ईनाम की उम्मीद है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा ही एक मात्र राजनीतिक संगठन है, जिसके बारे में ऐसी धारणा है कि उसका कार्यकर्ता घर की रोटी खा कर और अपनी जेब का पेट्रोल भाग-दौड़ करता है। विशेष रूप से संघनिष्ट कार्यकर्ता तो वाकई तन, मन और यथासंभव धन से सेवा कार्य करता है। यह कुछ हद तक सही है, मगर उसमें अब परिवर्तन आने लगा है। वो जमाना गया, जबकि पार्टी थी ही विपक्ष में। सत्ता व सत्ता का सुख एक सपना ही था। तब न तो पार्टी के पास इतना धन था कि वह कार्यकर्ताओं पर खर्च करे, और न ही पार्टी के नेता ऐसी स्थिति में थे। वह संघर्ष का दौर था। लेकिन अब जबकि पार्टी नेता सत्ता का स्वाद चख चुके हैं, कार्यकर्ता भी लाभ की उम्मीद करता ही है। ऐसे में सत्ता का तनिक सुख भोग चुके पुराने नेताओं से फोकट में घिसने की आशा करना बेमानी ही है।
बात अगर संघ के प्रचारकों की करें तो वे वाकई घर का परित्याग कर समर्पित भाव से जुटे रहते थे। मगर अब वह आदर्श स्थिति नहीं रही। हालांकि अब भी कुछ प्रचारक परंपरागत तरीके के ही हैं, मगर अनेक ऐसे भी हैं, जो पार्टी नेताओं की मिजाजपुर्सी पसंद करने लगे हैं। और उसकी एक मात्र वजह ये है कि भाजपा की असली ताकत संघ में ही मानी जाती है। अगर उसे रिमोर्ट कंट्रोल की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। संघ की सिफारिश पर टिकटों का बंटवारा होता है। संघ प्रचारक व पदाधिकारी भी जानते हैं कि वे तो नींव की ईंट बने हुए हैं, मगर उनकी कृपा से सत्ता पर काबिज नेता सुख भोग रहे हैं। ऐसे में वे भी अतिरिक्त सम्मान की उम्मीद करते हैं।
पार्टी में यह सोच बनी है कि जिस प्रकार संघ के प्रचारक आदर्श जीवन जीते हैं, ठीक वैसे ही पार्टी के पुराने नेता भी नि:स्वार्थ जीवन जीएं।  मगर धरातल का सच ये है कि जिस नेता ने एक बार सत्ता का सुख भोग लिया या किसी साथी को सत्ता सुख भोगते हुए देख लिया, उसमें नि:स्वार्थ भाव पैदा होना कठिन है। मुख्यमंत्री वसुंधरा भले ही कितना भी जोर दें, मगर ऐसे विस्तारक तैयार करना बेहद कठिन है। वसुंधरा ने यह कह कर और पानी फेर दिया कि विस्तारक स्वयं को विधानसभा चुनाव का टिकट बांटने वाला नेता न समझें। अगर ऐसा है तो टिकट का दावेदार भला उसे क्यों गांठेगे? अगर उनकी रिपोर्ट पर किसी को टिकट नहीं मिलेगा तो विधायक बनने बनने वाला उसका अहसान भी क्यों मानेगा?
ऐसा नहीं है कि वसुंधरा अथवा पार्टी के बड़े नेता इस स्थिति से अनभिज्ञ हैं। वे भलीभांति जानते हैं कि यह टास्क कठिन है। ऐसे में संभव है कि विस्तारकों को कोई न कोई लॉलीपॉप पर विचार किया जाए।
-तेजवानी गिरधर
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