तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, जुलाई 07, 2015

वसुंधरा राजे को हटाना हंसी-खेल नहीं

जैसी कि इन दिनों चर्चा है कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे आज हटीं, कल हटीं, फिर ये आया कि फिलहाल मामला टल गया है, ये बातें हैं, बातों का क्या? धरातल की सच्चाई इससे भिन्न है। हालांकि यह सही है कि आज भाजपा आलाकमान अमित शाह व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बहुत ताकतवर हैं और चाहें तो इतना बड़ा कदम उठा भी सकते हैं, मगर उन्हें भी ऐसा निर्णय करने से पहले कई बार सोचना होगा। वसुंधरा को यूं ही हटाना आसान नहीं है। संसद सत्र में हो सकता है कि विपक्ष भारी दबाव बनाए और वसुंधरा को हटाना मजबूरी हो जाए, फिर भी उन्हें हटाने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी भाजपा को। इसलिए भाजपा को इस मसले से जुड़े नफे नुकसान का ठीक से आकलन करना होगा।
वस्तुत: वसुंधरा को हटाना इसलिए नामुमकिन लग रहा है कि अगर भाजपा विपक्ष के दबाव में आ कर निर्णय लेगी तो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के इस्तीफे के लिए भी दबाव बढ़ेगा। राजस्थान की प्रचंड बहुमत वाली सत्तारूढ़ भाजपा में खलबली मचेगी, सो अलग। बेशक ताजा मसले से भाजपा की किरकिरी हुई है और विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठ रहे हैं। साथ ही कांग्रेस भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के भाजपा के नारे की बखिया उधेड़ रही है। मगर उससे अधिक नुकसान राजे को हटाने से होने की आशंका है।
यह सर्वविदित है कि वसुंधरा राजे सिंधिया राजघराने से ताल्लुक रखती हैं और वे विजयराजे सिंधिया की बेटी हैं, जिन्होंने भाजपा को शुरुआती दिनों में जबरदस्त आर्थिक मदद की थी। उनका अहसान भाजपा कभी नहीं भुला सकती। इसके अतिरिक्त वसुंधरा ने पूर्व में मुख्यमंत्री रहते भी पार्टी को भरपूर फंडिंग की थी। पहले जब केन्द्र में भाजपा सरकार में नहीं थी, तब पार्टी के नेताओं में इतना दम नहीं था कि वे राजे के वजूद के साथ छेड़छाड़ कर सकें।  यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी उन पर लगाम लगाने में नाकामयाब हो गया था। राजनाथ सिंह के बीजेपी अध्यक्ष के पहले कार्यकाल में राजे ने केंद्रीय नेतृत्व की तमाम कोशिशों के बावजूद राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की नेता का पद छोडऩे से मना कर दिया था। उस वक्त राजे ने सिंह के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन के लिए अपने समर्थक विधायकों को दिल्ली भी भेजा था। आखिर में जब यह पूरी तरह साफ हो गया कि उनके पास पद छोडऩे के सिवा कोई विकल्प नहीं है, तो उन्होंने पार्टी के दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी को अपना इस्तीफा पत्र सौंपा और सिंह से मुलाकात तक नहीं की। वे कितनी प्रभावशाली थीं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तकरीबन एक साल तक विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद खाली रहा। बाद में जब पार्टी को झुक कर फिर वसुंधरा को ही कमान सौंपनी पड़ी। उन्हें बाकायदा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया और चुनाव में उनका चेहरा ही आगे रखना पड़ा। वे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और आरएसएस पर यह दबाव बनाने में कामयाब रहीं कि 2013 का विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा जाए। यह अलग बात है कि जब भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला तो यही कहा गया कि मोदी लहर का असर था, मगर जानकार लोगों का पता था कि जीत की रणनीति वसुंधरा ने ही रची थी।
आज भी पार्टी विधायकों का एक बड़ा तबका उनके आभा मंडल के इर्दगिर्द घूमता है। हालांकि इसमें मत भिन्नता है कि विधायकों का बड़ा तबका वसुंधरा के ही साथ है। अधिसंख्य विधायकों ने अपना समर्थन राजे के पक्ष में जताया है, मगर संघ के सूत्रों का कहना है कि ये समर्थन केवल उनके पद पर रहने तक है, हटाने के बाद अधिसंख्य विधायक केन्द्रीय नेतृत्व के आगे नतमस्तक हो जाएगा। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कई ऐसे विधायक भी हैं, जो नजर तो वसुंधरा के साथ आ रहे हैं, मगर अंदर ही अंदर संघ व मोदी के प्रति निष्ठा जता रहे हैं। खैर, सच्चाई जो भी हो, इतना तय माना जा रहा है कि वसुंधरा को हटाते ही राजस्थान में भाजपा संगठन को बड़ा नुकसान हो सकता है। एक बात ये भी कि अगर वसुंधरा को हटाया गया तो वे भी चुप रहने वाली नहीं हैं। कोई न कोई खेल तो खेल ही लेंगी। यद्यपि बताया ये जा रहा है कि मोदी की राजे पर टेढ़ी नजर है और वे चाहें तो इस मौके पर उनको हटा सकते हैं, मगर उसके बाद जो स्थितियां बनेंगी, उनको समेटना मुश्किल होगा। इसी वजह से उनको हटाना आसान नहीं माना जा रहा। हां, इतना तय है कि अभी राजे भले ही हटाई न जा सकें, मगर पद पर रहते हुए भी वे और अधिक दबाव में काम करने को मजबूर रहेंगी। कदाचित भाजपा आलाकमान इसी वजह से बड़ा कदम उठाने से पहले बार-बार सोच रहा है।
-तेजवानी गिरधर