तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जनवरी 08, 2017

50 दिन बाद मोदी का लटका मुंह ताकते ही रह गए लोग

नोटबंदी से हो रही परेशानी से कोई राहत नहीं दे पाए
ध्यान बंटाने के लिए की गई नई घोषणाएं अप्रासंगिक 

-तेजवानी गिरधर-
हर आम आदमी, ठेठ मजदूर तक को उम्मीद थी कि पचास दिन की मोहलत पूरी होने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नोटबंदी के संत्रास से मुक्ति का कोई ऐलान करेंगे, मगर निराशा ही हाथ लगी। न वो पहले जैसी दहाड़, न फड़कती भुजाएं, न वो गर्मजोशी, न विपक्ष की कमजोरी पर होता अट्टहास, बस एक बुझा हुआ, लटका हुआ चेहरा सामने आया। कहने को कुछ था ही नहीं।  कहने लायक रहा भी नहीं था। मजबूरी थी पचास दिन बाद रूबरू होने की, सो हो गए। जिसकी उम्मीद थी, उस पर कुछ नहीं बोले। मात्र ध्यान बंटाने के लिए होम लोन के ब्याज में छूट के साथ किसानों, वरिष्ठ नागरिकों व गर्भवति महिलाओं को लुभावने वाली कुछ घोषणाएं कीं, जो पूरी तरह से अप्रासंगिक थीं। अप्रांसगिक इसलिए चूंकि इनका ऐलान तो आने वाले बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली भी कर सकते थे। बेशक इन घोषणाओं का लाभ पाने वाले कुछ खुश होंगे, मगर जिस आर्थिक संताप से राहत की उम्मीद पाले उनके मन की बात सुनने को लोग आतुर थे, उन्होंने सिर पीट लिया।
कैसी विडंबना है कि नोटबंदी लागू करने के बाद आम आदमी को हुई भारी तकलीफ, जिसका कि उन्हें अंदाजा भी नहीं था, का पता लगने पर पचास दिन की मोहलत मांगने वाले प्रधानमंत्री को चौराहे पर सजा दिए जाने का मर्यादाहीन जुमला फैंकने का जरा भी अफसोस नहीं था। पचास दिन बाद भी मुंह चिढ़ाते कैश लेस एटीएम को देख कर परेशान आम जनता को राहत देने का एक आश्वासन तक उनके पास नहीं था। बैंकों के बाहर लगी लंबी लाइनों में आर्थिक आपातकाल का शिकार हुए एक सौ से ज्यादा निर्दोष नागरिकों के प्रति भी संवेदना का एक शब्द तक मुंह से नहीं फूटा। एक तानाशाह के बिना किसी तैयारी के लागू किए गए फैसले से परेशान जनता के लिए अगर राहत की बात थी तो इतनी कि उसे उस तानाशाह ने महान जनता करार दिया, जो कि बैंकों के बाहर पुलिस डंडे खा कर भी चुपचाप सहन कर गई। अब तक कर रही है।
नोटबंदी की विफलता तो इसी से साबित हो गई कि इसे लागू करते वक्त महान ऐतिहासिक कदम करार देने वाले के पास उससे हुए लाभ का कोई आंकड़ा नहीं था। जिस काले धन का हल्ला मचाया था, वह कितना आया, उसका भी कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाए। हालत ये थी कि जिन बैंक वालों की काली करतूत के कारण किल्लत ज्यादा हुई, उन्हीं की उन्हें तारीफ करनी पड़ी। बेशक ज्यादा लूट मचाने वाले चंद बैंक कर्मियों को सजा देने की बात कही, मगर वह मात्र औपचारिक थी, जबकि उनकी ही वजह से जनता त्राहि त्राहि कर उठी है। वे जानते थे कि बैंक वाले बड़े यूनाइटेड हैं। एक भी कड़ी टिप्पणी की तो लेने के देने पड़ जाएंगे। आखिर कैश का लेने देन उन्हीं के जरिए तो करना है। उन्हें भला नाराज कैसे करें?
तेजवानी गिरधर
असल में कैश कि किल्लत मूलत: बिना तैयारी के कदम उठाने के कारण ही हुई है, मगर बैंक वालों ने उसमें करेला और नीम चढ़ा वाली कहावत चरितार्थ कर दी।  देश के इतिहास में पहली बार बेईमानी की तमगा हासिल करने वाले बैंक वाले अब भी अपनों को ऑब्लाइज करने और आम आदमी को ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आ रहे। नमक में आटा डालने वाले जरूर आइडेंटिफाई हो गए, मगर चौबीस हजार रुपए तक की लिमिट के अंतर्गत बैंक वालों को मिली लिबर्टी का जिस तरह आज भी हर बैंक में दुरुपयोग किया जा रहा है, उसका उपाय अब भी नहीं तलाशा गया है। कदाचित सरल व सीधा उपाय है भी नहीं। बैंकों में इतना बारीक चैक सिस्टम लागू करना बेहद मुश्किल है। फिर, जब पचास दिन में जितनी गालियां मिलनी थी, मिल चुकीं, थोड़ी और सही। जनता भी परेशानी सहन करते करते उसकी आदी हो चुकी है। उसे भी समझ में आ गया है कि और भोगना पड़ेगा तो पड़ेगा, मोदी के पास भी कोई उपाय नहीं। मांग की तुलना में जिस गति से नए नोट छप रहे हैं, उसके अनुसार तो अभी और कष्ट झेलना ही है। वैसे भी मोदी की मारक मुद्राएं विरोधियों को डराने, बेईमानों को धमकाने और भ्रष्ट लोगों को बच कर निकल जाने के भ्रम से निकालने के लिए ही हैं।
कुल मिला कर ताजा हालात ये हैं कि दिहाड़ी मजदूर का भी सारा पैसा बैंकों में जमा है और वह खाली जेब भटक रहा है। भिवंड़ी का 50 फीसदी मजदूर खाली बैठा है। मुंबई के हजारों बंगाली ज्वेलरी कारीगर अपने गांव लौट गए हैं। आगरा में तिलपट्टी बनाने वाले भी हाथ पर हाथ धरे हैं। मुंबई का कंस्टरक्शन मजदूर भी बेकार बैठा है और फिल्मों के लिए अलग-अलग काम में दिहाड़ी काम करने वाले करीब दो लाख लोग भी गांव लौट गए हैं। नोटबंदी की मार मनरेगा के मजदूर पर इस कदर पड़ेगी, यह सरकार ने भी पता नहीं सोचा था या नहीं।
बहरहाल, आज सवाल यह नहीं है कि अब अचानक कोई जादू की छड़ी अपना काम शुरू कर देगी, सवाल ये है कि नोटबंदी के बाद देश, तकदीर के जिस तिराहे पर आ खड़ा हुआ है, वहां से जाना किधर है, यह समझ से परे होता जा रहा है। ऐसे में सरकार देश की नोटों की मांग पूरी न कर पाने के लाचारी की हालत से उबरने के लिए कैशलेस हो जाने का राग आलाप रही है। लेकिन जिस देश की करीब 30 फीसदी प्रजा को गिनती तक ठीक से लिखनी नहीं आती हो, जहां के 70 फीसदी गांवों में इंटरनेट तो छोड़ दीजिए, बिजली भी हर वक्त परेशान करती हो। उस हिंदुस्तान में कैशलेस के लिए मोबाइल बटुए, ईपेमेंट, पेटीएम और क्रेडिट कार्ड की कोशिश कितनी सार्थक होगी, यह भी एक सवाल है।