तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जनवरी 13, 2013

देश को हांकने लगा है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया

वे दिन लद गए, जब या तो आकाशवाणी पर देश की हलचल का पता लगता था या फिर दूसरे दिन अखबारों में। तब किसी विवादास्पद या संवेदनशील खबर के लिए लोग बीबीसी पर कान लगाते थे। देश के किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर राय कायम करने और समाज को उसका आइना दिखाने के साथ दिशा देने का काम अखबार किया करते थे, जिसमें वक्त लगता था। आजादी के आंदोलन में समाचार पत्रों की ही अहम भूमिका रही। मगर अब तो सोसासटी हो या सियासत, उसकी दशा और दिशा टीवी का छोटा पर्दा ही तय करने लगा है। और वह भी लाइव। देश में पिछले दिनों हुई प्रमुख घटनाओं ने तो जो हंगामेदार रुख अख्तियार किया, वह उसका जीता जागता सबूत है।
आपको ख्याल होगा कि टूजी व कोयला घोटाले की परत दर परत खोलने का मामला हो या भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के आंदोलन को हवा देना, नई पार्टी आप के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल को ईमानदारी का राष्ट्रीय प्रतीक बनाना हो या दिल्ली गेंग रेप की गूंज व आग को दिल्ली के बाद पूरे देश तक पहुंचाना, या फिर महिलाओं को लेकर राजनीतिक व धार्मिक नेताओं की बयानों का बारीक पोस्टमार्टम, हर गरमागरम मुद्दे का पूरा स्वाद चखाने को इलैक्ट्रॉनिक मीडिया तत्पर रहता है। देश के बड़े समाचार पत्र किसी विषय पर अपनी राय कायम कर पाएं, उससे पहले तो हर छोटे-मोटे मुद्दे पर टीवी पर गरमागरम बहस हो चुकती है। यहां तक कि जो बहस संसद में होनी चाहिए, वह भी टीवी पर ही निपट लेती है। उलटे ज्यादा गरमागरम और रोचक अंदाज में, क्योंकि वहां संसदीय सीमाओं के ख्याल की भी जरूरत नहीं है। अब तो संसद सत्र की जरूरत भी नहीं है। बिना उसके ही देश की वर्तमान व भविष्य टीवी चैनलों के न्यूज रूम में तय किया जाने लगा है। संसद से बाहर सड़क पर कानून बनाने की जिद भी टीवी के जरिए ही होती है। शायद ही कोई ऐसा दिन हो, जब कि देश के किसी मुद्दे के बाल की खाल न उधेड़ी जाती हो। हर रोज कुछ न कुछ छीलने को चाहिए। अब किसी पार्टी या नेता को अपना मन्तव्य अलग से जाहिर करने की जरूरत ही नहीं होती, खुद न्यूज चैनल वाले ही उन्हें अपने स्टूडियो में बुलवा लेते हैं। हर चैनल पर राजनीतिक पार्टियों के नेताओं, वरिष्ठ पत्रकारों व विषय विशेषज्ञों का पैनल बना हुआ है। इसी के मद्देनजर पार्टियों ने भी अपने प्रवक्ताओं को अलग-अलग चैनल के लिए नियुक्त किया हुआ है, जो रोजाना हर नए विषय पर बोलने को आतुर होते हैं। अपनी बात को बेशर्मी के साथ सही ठहराने के लिए वे ऐसे बहस करते हैं, मानों तर्क-कुतर्क के बीच कोई रेखा ही नहीं है। यदि ये कहा जाए कि अब उन्हें फुल टाइम जॉब मिल गया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोगों को भी बड़ा मजा आने लगा है, क्योंकि उन्हें सभी पक्षों की तू-तू मैं-मैं चटपटे अंदाज में लाइव देखने को मिलने लगी है। खुद ही विवादित करार दिए गए बयान विशेष पर बयान दर बयान का त्वरित सिलसिला चलाने की जिम्मेदारी भी इसी पर है। अफसोसनाक बात तो ये है कि मदारी की सी भूमिका अदा करने वाले बहस संयोजक एंकर भी लगातार आग में घी का डालने का काम करते हैं, ताकि तड़का जोर का लगे।
बेशक, इस नए दौर में टीवी की वजह से जनता में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है। अब आम आदमी अपने आस-पास से लेकर दिल्ली तक के विषयों को समझने लगा है। नतीजतन जिम्मेदार नेताओं और अधिकारियों की जवाबदेही भी कसौटी पर कसी रहती है। इस अर्थ में एक ओर जहां पारदर्शिता बढऩा लोकतंत्र के लिए सुखद प्रतीत होता है, तो दूसरी वहीं इसका दुखद पहलु ये है कि बयानों के नंगेपन का खुला तांडव मर्यादाओं को तार-तार किए दे रहा है। हालत ये हो गई है कि किसी सेलिब्रिटी के आधे-अधूरे बयान पर ही इतना हल्ला मचता है कि मानो उसके अतिरिक्त इस देश में दूसरा कोई जरूरी मुद्दा बाकी बचा ही न हो। पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन राव भागवत व आध्यात्मिक संत आशाराम बापू के महिलाओं के किसी अलग संदर्भ में दिए अदद बयान पर जो पलटवार हुए तो उनकी अब तक कमाई गई सारी प्रतिष्ठा को धूल चटा दी गई। एक मन्तव्य से ही उनके चरित्र को फ्रेम विशेष में फिट कर दिया गया। बेलाग बयानों की पराकाष्ठा यहां तक पहुंच गई कि आशाराम बापू ने टीवी चैनलों को कुत्तों की संज्ञा दे दी और खुद को हाथी बता कर उनकी परवाह न होने का ऐलान कर दिया। पारदर्शिता की ये कम पराकाष्ठा नहीं कि उसे भी उन्होंने बड़े शान से दिखाया।
विशेरू रूप से महिलाओं की मर्यादा और उनकी स्वतंत्रता, जो स्वच्छंदता चाहती है, का मुद्दा तो टीवी पर इतना छा गया कि विदेश में बैठे लोग तो यही सोचने लगे होंगे कि भारत के सारे पुरुष दकियानूसी और बलात्कार को आतुर रहने वाले हैं। तभी तो कुछ देशों के दूतावासों को अपने नागरिकों को दिल्ली में सावधान रहने की अपील जारी करनी पड़ी। आधी आबादी की पूरी नागरिकता स्थापित करने के लिए महिलाओं के विषयों पर इतनी जंग छेड़ी गई, मानो टीवी चैनलों ने महिलाओं को सारी मर्यादाएं लांघने को प्रेरित कर स्वतंत्र सत्ता स्थापित करवाने का ही ठेका ले लिया हो। इस जद्दोजहद में सांस्कृतिक मूल्यों को पुरातन व अप्रासंगिक बता कर जला कर राख किया जाने लगा। क्या मजाल जो किसी के मुंह से महिलाओं की मर्यादा व ढंग के कपड़े पहनने की बात निकल जाए, उसके कपड़े फाड़ दिए गए। जिन के भरोसे ये देश चल रहा है, उन भगवान को ही पता होगा कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए कैसा देश बनने जा रहा है। अपनी तो समझ से बाहर है। नेति नेति।
-तेजवानी गिरधर