तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, अगस्त 30, 2019

धारा 370 का विरोध पाक परस्ती कैसे हो गया?

जो काम पिछले सत्तर साल में कोई सरकार नहीं कर पाई, वह भाजपा ने पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद कर दिखाया। जी, बात जम्मू-कश्मीर में धारा 370 व 35 ए को हटाने की है। यह भाजपा का जन्मजात चुनावी मुद्दा था। जाहिर तौर पर वह अपनी पीठ भी थपथपा रही है। पिछले पांच अगस्त को सरकार ने ऐतिहासिक कदम उठा तो लिया, चक्रव्यूह भेद तो दिया, मगर अब उसमें से कैसे निकला जाएगा, यह भविष्य के गर्भ में है, क्यों कि मामला दिन ब दिन पेचीदा होता जा रहा है। कश्मीर, विशेष रूप से घाटी सेना के पूर्ण कब्जे में है। जनजीवन ठप है। सरकार हालांकि हालात सामान्य जताने की कोशिश कर रही है, मगर मीडिया व संचार माध्यमों पर नियंत्रण के बावजूद छन-छन कर आ रही खबरें इशारा कर रही हैं कि हालात काफी गंभीर हैं।
इस बीच मौलिक अधिकारों के हनन व अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश की कड़ी आलोचना भी होने लगी है। लोकतंत्र में विरोध के इन सुरों को पाकिस्तान परस्ती करार दिया जा रहा है। जो भी खिलाफत कर रहा है, उसके प्रति नफरत फैलाई जा रही है। सवाल ये उठता है कि जब कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है तो उस पर पाकिस्तान के रुख व संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका की फिक्र क्यों की जा रही है? कश्मीर निस्संदेह हमारा ही है तो पाकिस्तान के रवैये का कॉग्लीजेशन काहे को ले रहे हैं? कहा जा रहा है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कश्मीर के हालात पर टिप्पणी करके पाकिस्तान परस्ती का काम किया है। पाकिस्तान को उनकी टिप्पणी को संयुक्त राष्ट्र संघ में कोट करने का मौका मिल गया है। केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने तो यहां तक कह दिया कि राहुल पाक के हाथ खेल रहे हैं।
असल में हुआ ये कि पाकिस्तान के मानवाधिकार मंत्री डॉ. चिरीन मजारी ने यूएनओ को आठ पेज की एक पिटीशन भेजी है, जिसमें न केवल राहुल के बयान का जिक्र है, अपितु हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर व खतौली के भाजपा विधायक विक्रम सैनी के बयान का भी हवाला है। ज्ञातव्य है कि राहुल ने कश्मीर में हालात खराब होने का बयान दिया है। इसी प्रकार खट्टर ने कहा था कि हमारे युवक अब कश्मीर की गोरी लड़कियों से शादी कर सकते हैं। सैनी ने कहा था कि अब हमारे मुस्लिम वर्कर अब कश्मीर में विवाह कर सकते हैं। आठ पेज के पत्र में राहुल का मामूली जिक्र है, मगर भाजपा प्रवक्ता राहुल पर बढ़-चढ़ कर हमले बोल रहे हैं। विपक्ष के धारा 370 को हटाने के विरोध को यूनए में वेटेज मिलेगा। दूसरी ओर खट्टर व सैनी के बयानों को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट में भी इसी मुद्दे पर हुए वाकये से जाहिर होता है कि सरकार प्रकरण यूएन में जाने से घबरा रही है। जब कुछ यचिकाओं की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पांच जजों की एक संविधान पीठ बनाने की मंशा जताई तो सरकार के अटार्नी जनरल के के वेनु गोपाल व सोलिसटिर जनरल तुषार महेता ने कहा कि आपके फैसले को पाकिस्तान यूएन में ले जाएगा।
प्रश्र ये है कि जो भी कश्मीर पर सरकार के कदम से इतर राय रखता है, उसे पाक परस्त बताया जा रहा है, तो क्या सुप्रीम कोर्ट का समीक्षा के लिए संविधान पीठ बनाना भी पाक परस्ती है? सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया की आजादी पर अंकुश को लेकर सरकार को नोटिस जारी किया है, तो वह भी क्या पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ में मुद्दा उठाने का हथियार माना जाए?
घूम फिर कर बात यही है कि राहुल गांधी की टिप्पणी व सुप्रीम कोर्ट के कदम से पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दा उठाने का मौका मिल गया है तो सरकार को चिंता क्यों हो रही है? जब आप कहते हैं कि कश्मीर हमारा है और वहां धारा 370 हटाने का निर्णय हमारा पूर्णत: आतंरिक मामला है तो हम पाकिस्तान के विरोध से क्यों घबरा रहे हैं? पाकिस्तान अगर संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारा विरोध करता भी है तो हम उससे क्यों डर रहे हैं? जब हम कह रहे हैं कि पूरी दुनिया के देश हमारे साथ हैं और पाकिस्तान अकेला है तो फिर डर काहे का है।
आपको याद होगा कि जब संसद में बहस के दौरान कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन ने यह सवाल किया था कि क्या कश्मीर द्विपक्षीय मामला है तो उन पर ताबड़तोड़ हमला किया गया था। आज सरकार खुद मामला द्विपक्षीय होते देख चिंतित है। वह यह उम्मीद करती है कि कोई भी सरकार के फैसले के खिलाफ न बोले।
अब बात करते हैं धारा 370 की। बेशक सरकार को यह अख्तियार था कि वह धारा 370 हटा दे। उसने संसद में बहुमत के आधार पर हटा भी दी। मगर क्या यह जरूरी है कि अन्य विपक्षी दल भी सरकार के कदम से सहमत हों। बेशक कुछ कांग्रेसी नेताओं ने सहमति जताई है, मगर धारा 370 को हटाने के तरीके पर सवाल भी उठाए हैं। उनका कहना है कि इसके लिए कश्मीर की जनता व वहां के जनप्रतिधियों को विश्वास में लिया जाना चाहिए था? अहम बात ये है कि धारा 370 हटाने की आलोचना करना पाकिस्तान परस्ती कैसे हो गई? धारा 370 को देशभक्ति व राष्ट्रवाद से जोड़ कर कैसे देखा जा सकता है? जो धारा 370 को हटाए जाने अथवा इसे हटाने के असंवैधानिक तरीके पर सवाल उठा रहे हैं, वे देश विरोधी कैसे हो गए? बेशक पाकिस्तान बिना हक के विरोध कर रहा है, मगर हम उसे दरकिनार भी तो कर रहे हैं। चूंकि धारा 370 पर हमारी राय पाकिस्तान से मेल खा रही है तो इसका मतलब ये तो नहीं हो सकता कि हम पाक के डर से हमारे आंतरिक मसले पर अपनी राय भी जाहिर न करें। कहीं हम पाकिस्तान का डर दिखा कर भारत के आंतरिक विषय को जानबूझ कर राष्ट्रवाद से तो नहीं जोड़ रहे? जब पाकिस्तान हमारे सामने पिद्दी है और उसके विरोध के कोई मायने नहीं हैं तो क्यों पाकिस्तान का हौवा खड़ा कर रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि चूंकि हर आम भारतीय के मन में पाकिस्तान के प्रति नफरत है, इस कारण जानबूझकर पाक खौफ दिखा कर इस मुद्दे को राष्ट्रीय हित का गढ़ रहे हैं?
एक अहम बात और। हाल ही कश्मीर के राज्यपाल ने जो बयान दिया कि चुनाव में लोग धारा 370 का विरोध करने वालों को जूते मारेगी, वह किस बात का संकेत है? यानि कि या तो आप सहमत हो जाएं वरना आपको जूते मारे जाएंगे। ये किस किस्म की तानाशाही है? बाद में क्या आप तो अब भी सवाल खड़े करने वालों को जूते मार रहे हैं। जूते तो बहुत कम बात है, आप तो उन्हें देश विरोधी ही करार दिए जा रहे हैं। समझा जा सकता है कि किसी भी भारतीय के लिए देश विरोधी शब्द डूब मरने के समान गाली है।
लब्बोलआब, मामला उलझता जा रहा है और कैसे सुलझेगा, कश्मीर के हालात कैसे सामान्य होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता।
तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, अगस्त 12, 2019

कांग्रेस का परिवारवाद : ऐतराज भी, अनिवार्यता भी

लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से पराजित होने के बाद नैतिकता के आधार पर राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोडऩे के पश्चात काफी दिन बाद भी नया पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं बनने से कांग्रेस के नेता व कार्यकर्ता चिंतित हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्यों कि इस मसले के साथ उनका राजनीतिक भविष्य जुड़ा हुआ है। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि उनसे भी अधिक चिंता मीडिया को है। यह वही मीडिया है जो कि कांग्रेस के परिवारवाद पर लगातार हमले करता है, मगर साथ यह भी कहता है कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का वजूद ही खत्म हो जाएगा। जब राहुल इस्तीफा देते हैं तो पहले कहते हैं कि वे नौटंकी कर रहे हैं, मगर जब राहुल अपने इस्तीफे पर अड़ ही जाते हैं तो कहता है कि उन्हें रणछोड़दास नहीं बनना चाहिए, इससे आम कांग्रेस कार्यकर्ता हतोत्साहित है और कांग्रेस बिखर जाएगी। गहन चिंतन-मनन के बाद जब पार्टी के अधिसंख्य नेता दबाव बनाते हैं तो सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनने को राजी हो जाती हैं, इस पर फिर वही राग छेड़ते हैं कि देखा, आखिर पार्टी परिवारवाद से छुटकारा नहीं कर पा रही। इस मुद्दे पर वाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के आदतन टिप्पणीकार बाकायदा मुहिम छेड़ हुए हैं, जिनमें कई अभद्र टिप्पणियां हैं।
चलो मीडिया को तो करंट मुद्दा चाहिए होता है, डिस्कशन करने को, मगर भाजपा नेता भी बड़े परेशान हैं। बात वे यह कह कर शुरू करते हैं कि यह कांग्रेस का आंतरिक मामला है, मगर फिर घूम फिर कर इस बात पर आ जाते हैं कि कांग्रेस परिवारवाद से बाहर नहीं आ पाएगी।
पहले मीडिया की बात। अमूमन कांग्रेस विरोधी व प्रो. मोदी रहे जाने-माने पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने हाल ही एक पोस्ट शाया की है। उनकी चिंता है कि कांग्रेस अपना अध्यक्ष कैसे चुने। वे कहते हैं कि कांग्रेस-जैसी महान पार्टी कैसी दुर्दशा को प्राप्त हो गई है ? राहुल गांधी के बालहठ ने कांग्रेस की जड़ों को हिला दिया है। कांग्रेस के सांसद और कई प्रादेशिक नेता रोज-रोज पार्टी छोडऩे का ऐलान कर रहे हैं। मुझे तो डर यह लग रहा है कि यही दशा कुछ माह और भी खिंच गई तो कहीं कांग्रेस का हाल भी राजाजी की स्वतंत्र पार्टी, करपात्रीजी की रामराज्य परिषद, लोहियाजी की समाजवादी पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरह न हो जाए।
वे सीधे तौर पर कांग्रेस की हालत बयां कर रहे हैं, मगर साथ ही यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत चिंताजनक चुनौती होगी। इस समय देश को एक मजबूत, परिपक्व और जिम्मेदार विपक्ष की बहुत जरूरत है। उसके बिना भारत एक बिना ब्रेक की मोटर कार बनता चला जाएगा।
इसी प्रकार एक लेखक को चिंता है कि आखिर कौन संभालेगा अब सौ वर्ष से भी ज्यादा पुरानी पार्टी को? विशेष रूप से धारा 370 हटने के बाद जिस प्रकार पार्टी के बड़े नेताओं ने पार्टी लाइन से हट कर निर्णय का स्वागत किया है, उससे बगावत के हालात बन रहे हैं। उन्हें चिंता है कि जब कांग्रेस का स्वयं का नेतृत्व ही कमजोर है, तो विपक्ष की एकता क्या होगा? यानि कि वे कांग्रेस की अहमियत को भी समझ रहे हैं। इसी लिए सलाह देते हैं कि कांग्रेस को अपनी भूमिका जल्द तय करनी चाहिए। साथ ही राहुल गांधी को ये सलाह देते हैं कि वे यह अच्छी तरह समझ लें कि गांधी परिवार के बगैर कांगे्रस का कोई वजूृद नहीं है।
एक लेखक को दिक्कत है कि जिन सोनिया गांधी ने कभी राहुल गांधी को कहा था कि सत्ता जहर है, उन्होंने वापस कांग्रेस अध्यक्ष का पद इसलिए संभाल लिया, क्योंकि उन्हें पता है कि अब कांग्रेस को कई साल तक यह जहर पीना नसीब नहीं होगा। वे घोषित कर रहे हैं कि भले ही सोनिया ने पार्टी के उद्धार के लिए उसे अपने आंचल में समेट लिया है, मगर अब वह शायद जल्द संभव नहीं है। अधिसंख्य पत्रकारों की तरह उनको भी चिंता है कि कांग्रेस हालत देश और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। ये स्थिति सत्ता पक्ष को बेलगाम और तानाशाह बना सकती है।
कुल जमा निष्कर्ष ये है कि सभी कांग्रेस के परिवारवाद की आलोचना भी कर रहे हैं, साथ ये भी स्वीकार कर रहे हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस खत्म हो जाएगी। साथ ही यह चिंता भी जता रहे हैं कि अगर कांग्रेस की हालत खराब हुई तो मजबूत विपक्ष का क्या होगा, लोकतंत्र का क्या होगा? कैसा विरोधाभास है? अपने तो समझ से बाहर है। अपुन को तो यही लगता है कि मीडिया का जो भी मकसद हो, मगर ये मीडिया ही कांग्रेस के वजूद को कायम करने वाला है।
वैसे असल बात ये है कि भले ही कांग्रेस एक परिवार पर ही टिकी हो, मगर दरअसल यह एक पार्टी से कहीं अधिक एक विचारधारा है। चाहे हिंदूवादी विचारधारा कितनी भी प्रखर हो जाए, मगर धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा सदैव कायम रहेगी। किसी भी नाम से। कहते हैं न कि विचार कभी समाप्त नहीं होता। एक जमाना था, जब भाजपा के महज दो ही सांसद लोकसभा में थे। मगर पार्टी हतोत्साहित नहीं हुई। अपने विचार को लेकर चलती रही और आज सत्ता पर प्रचंड बहुमत के साथ काबिज है।
एक बड़ी सच्चाई ये भी है कि आम भारतीय कट्टर नहीं है, कभी हवा में बहता जरूर है, मगर फिर लिबरल हो जाता है, क्यों कि यही उसका स्वभाव है। ठीक वैसे ही, जैसे पानी को कितना भी गरम कर लो, मगर फिर अपने स्वभाव की वजह से शीतल हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, अगस्त 08, 2019

राष्ट्रवाद की खातिर संविधान को ताक पर रखने में क्या ऐतराज है?

ऐसा लगता है कि भारत के संविधान निर्माताओं से एक गलती हो गई।  उन्हें संविधान में यह भी लिख देना चाहिए था कि अगर देश हित का मुद्दा हो तो संविधान को तोडऩे-मरोडऩे में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। उनकी इसी गलती का परिणाम ये है कि कश्मीर में धारा 370 व 35 ए हटाने के मसले पर आज कुछ बुद्धजीवी यह हिमाकत कर रहे हैं कि वे केन्द्र सरकार के निर्णय को असंवैधानिक बता रहे हैं।
आज जब अधिसंख्यक भारतीय देशभक्ति के नाम पर सरकार के निर्णय को सही ठहरा रहे हैं, ऐसे में चंद बुद्धिजीवी यह कह कर सरकार की आलोचना कर रहे हैं कि सरकार ने पूरे कश्मीर को नजरबंद करने के साथ वहां के नेताओं व अवाम  को विश्वास में लिए बिना अपना निर्णय थोप दिया है। यह अलोकतांत्रिक है। कानूनी लिहाज से भले ही कश्मीर का मुद्दा संविधान की बारिकियों से जुड़ा हुआ हो, मगर सच्चाई ये है कि आज धारा 370 का मुद्दा राष्ट्रवाद से जोड़ा जा चुका है। जो भी इस धारा को हटाने के खिलाफ है, उसे राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है।
तेजवानी गिरधर
उन चंद बुद्धिजीवियों का कहना है कि संविधान में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि राष्ट्रपति धारा 370 को हटा सकते हैं, मगर उससे पहले उन्हें जम्मू कश्मीर विधानसभा से राय मश्विरा करना होगा। चूंकि वर्तमान में जम्मू कश्मीर में विधानसभा अस्तित्व में नहीं है और राज्य पर केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल का नियंत्रण है, इस कारण सरकार का निर्णय असंवैधानिक है। उनका तर्क ये है कि चूंकि राज्यपाल केन्द्र का ही प्रतिनिधि है, इस कारण उसकी राय के कोई मायने ही नहीं रह जाते। एक तरह से यह एकतरफा निर्णय है, जिसमें कश्मीर की जनता या वहां के प्रतिनिधियों को नजरअंदाज किया गया है। उनके मुताबिक चूंकि इस मामले में संविधान की अवहेलना की गई है, इस कारण इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौति दी जा सकती है। एक व्यक्ति ने चुनौति दे भी दी है। संभव है कुछ और लोग या कांग्रेस की ओर से भी चुनौति दी जाए। मगर उससे भी बड़ा सवाल ये है कि जब भाजपा, जिसके चुनावी एजेंडे में शुरू से इस धारा को हटाने पर जोर दिया जाता रहा है, के साथ अन्य विपक्षी दल भी सरकार के निर्णय से सहमत हैं, तो हमारे महान लोकतंत्र में बहुसंख्यक की राय को गलत कैसे कहा जा सकता है? यहां तक कि पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त जम्मू कश्मीर को केन्द्र शासित प्रदेश बनाए जाने पर भी आम आदमी पार्टी के कर्ताधर्ता अरविंद केजरीवाल, जो कि दिल्ली के मुख्यमंत्री भी हैं, ने निर्णय का स्वागत किया है, जबकि वे जब से मुख्यमंत्री बने हैं, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की पैरवी करते रहे हैं। संभवत: यह पहला मौका है, जबकि किसी पूर्ण राज्य, जो कि विशेषाधिकार प्राप्त भी है, को केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया है। कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने भी सरकार के निर्णय का स्वागत किया है। कुछ लोग कांग्रेस के सरकार के इस ऐतिहासिक निर्णय के खिलाफ खड़े होने को आत्मघाती कदम बताया जा रहा है। कांग्रेस देश के मूड को समझने की बजाय उस पाले में खड़ी है, जहां से वह रसातल में चली जाएगी। समझा जा सकता है कि अरविंद केजरीवाल सहित कुछ कांग्रेसी इस कारण सरकार के निर्णय के साथ खड़े होने को मजबूर हैं, क्योंकि विरोध करने पर बहुसंख्यक हिंदूवादी समाज पूरी तरह से उनके खिलाफ जो जाएगा। केजरीवाल को तो जल्द ही चुनाव का सामना भी करना है। ऐसा सिद्धांत जाए भाड़ में, जिसके चक्कर में सत्ता हाथ से निकल जाए।
वैचारिक रूप से भाजपा से भिन्न बसपा भी सरकार के साथ है। बताया जा रहा है कि चूंकि मायावती का मूलाधार दलित वोट हैं, वे समझती हैं कि फैसले से जम्मू-कश्मीर में दलित हिन्दुओं को नागरिकता एवं अच्छी नौकरी मिल सकेगी। कुछ मानते हैं कि मायावती ने स्वयं और अपने भाई को जेल जाने से बचाने के लिए ऐसा किया है। मायावती ने आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में भाई आनन्द सहित जेल जाने से बचने एवं हाल ही में उनके भाई के लगभग 4 सौ करोड़ रूपए के जब्त किए गए बेनामी प्लाट्स को वापस हासिल करने के लिए यह कदम उठाया है।
असल में धारा 370 का मसला पाकिस्तान से चिर दुश्मनी, देश भक्ति, राष्ट्रवाद और हिंदू-मुस्लिम से जुड़ गया है। उसके अपने अनेक कारण हैं। पाकिस्तान आए दिन सीमा पर गड़बड़ी करता है। अशांति फैलाने के लिए अपने आतंकवादियों को लगातार वहां भेज रहा है। कश्मीर के अनेक अलगाववादी अपने आप को भारतीय ही नहीं मानते। विशेष रूप से घाटी तो कश्मीरी पंडितों से विहीन हो गई है। अलगाववादियों के बहकावे में कश्मीर के युवक सरकारी सैनिकों पर पत्थरबाजी करते हैं। नतीजा ये हुआ है कि आम भारतीयों, विशेष रूप से हिंदूवादियों को मुस्लिम कश्मीरियों से नफरत सी हो गई है। अब तकलीफ इस बात से नहीं कि भारी तादाद में सेना व पैरामिलिट्री फोर्सेस की तैनाती से कश्मीरी कितनी यंत्रणा भुगत रहा है। मतलब इस बात से है कि कश्मीर की जमीन पर हमारा नियंत्रण है। ऐसे माहौल में जो भी कश्मीरियों के नागरिक अधिकारों या संविधान की बात करेगा, वह देशद्रोही व पाकिस्तान परस्त माना जाएगा।
बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी है, जो सरकार के निर्णय के बाद देशभर के सोशल मीडिया पर हो रही छींटाकशी से आशंकित है कि कहीं इससे हालात और न बिगड़ जाएं। एक पोस्ट में लिखा है कि इस ऐतिहासिक फैसले को सही साबित करना भी हमारी जिम्मेदारी है, क्योंकि नोटबंदी भी एक ऐतिहासिक फैसला था, जिसे अपने ही भ्रष्ट तंत्र ने विफल कर दिया था। भाषायी संयम बनाए रखें।  कश्मीरवासियों को भी यह अहसास करवाएं कि हम आपके साथ हैं। प्लॉट खरीदने जैसे लालची उपहास बना कर घृणा मत बोइये। यह कोई कबड्डी का मैच नहीं था, जो कोई हार गया है और उसे हारग्या जी हार ग्या कह कर चिढ़ाओ। फब्तियां कभी भी मोहब्बत के बीज नहीं बो सकती, नफरत ही पैदा करेगी।
एक और बानगी देखिए:-
न कश्मीर की कली चाहिए
न हमें प्लॉट चाहिए
मेरे किसी फौजी भाई का
शरीर तिरंगे में लिपट कर न आये
बस यही हिंदुस्तान चाहिए
इस पोस्ट से समझा जा सकता है कि ये उन लोगों को नसीहत है, जो कश्मीर की लड़की से शादी करने व वहां प्लॉट खरीदने वाली पोस्टें डाल रहे हैं।
मोदी के भक्तों के फैसले के समर्थन तक तो ठीक है, मगर बाकायदा मोदी का महिमामंडन और फारुख अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती पर तंज कसती अपमानजनक टिप्पणियां करने से माहौल के सुधरने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। कश्मीरी युवतियों के बारे में बेहद अश्लील पोस्टें डाली जा रही हैं, मानों वे इसी दिन का इंतजार कर रहे थे। मोदी भक्त उन बुद्धिजीवियों व कानून विशेषज्ञों को भी ट्रोल कर रहे हैं, जो फैसले की कानूनी व संवैधानिक समीक्षा कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि कोई भी किसी भी प्रकार का विरोध न करे। बस मोदी-शाह ने जो कर दिया, उसे चुपचाप मान जाओ।
फैसले की खिलाफत करने वालों के अपने तर्क हैं, जिनमें दम भी है। वो है:-
आर्टिकल 371 ए नागालैंड, आर्टिकल 371 बी असम, आर्टिकल 371 सी मणिपुर, आर्टिकल 371 एफ सिक्किम और आर्टिकल 371जी मिज़ोरम, इतने स्टेट हैं, वर्तमान गृहमंत्री को केवल जम्मू-कश्मीर का ही आर्टिकल 370 और आर्टिकल 35 ए ही नजऱ आ रहा है। बदलाव करना है, तो सब में करो, दिक्कत क्या है। एक और तर्क ये कि नागालैंड को अलग संविधान, अलग झंडा और विशेष अधिकार आपकी सरकार ने ही दिया है न, तो फिर ये तो दोगलापन ही हुआ न। बदलाव हो रहा है, तो सब में करो।
बहरहाल, अब जब कि सरकार फैसला कर ही चुकी है, तो अब चिंता इस बात की है कि कहीं फोर्स हटाने पर बवाल न हो जाए। फैसले से पहले पूरे कश्मीर को कैद में करने से ही ये जाहिर है कि सरकार को भी उत्पात होने की आशंका है।
रहा सवाल पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती के वजूद का तो वह भी अधर में है। आजाद होने पर उनका रुख क्या होगा, कुछ पता नहीं।
कुल जमा बात ये है कि भले ही ताजा फैसले से भाजपा के एजेंडे का एक वादा पूरा हो गया हो, मगर जिस प्रकार मोदी वादी इस मामले में बढ़-चढ़ कर अंटशंट टिप्पणियां कर रहे हैं, उससे माहौल बिगड़ेगा ही।
-तेजवानी गिरधर
7742067000