तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, मार्च 23, 2018

वसुंधरा को न निगलते बन रहा है, न उगलते

-तेजवानी गिरधर-
हाल ही संपन्न लोकसभा उपचुनाव में 17 विधानसभा क्षेत्रों में बुरी तरह से पराजित होने के बाद भाजपा सकते में है। न तो वह यह निश्चय कर पा रही है कि मोदी लहर कम हो गई है और न ही ये कि यह केवल मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की अकुशल शासन व्यवस्था का परिणाम है। आरएसएस खेमा जहां इस हार को वसुंधरा के अब तक के शासन काल के प्रति जनता की नाराजगी से जोड़ कर देख रही है तो वहीं वसुंधरा खेमा यह मानता है कि ऐसे परिणाम आरएसएस की चुप्पी की वजह से आये हैं। असलियत ये है कि यह दोनों ही तथ्य सही है। एक सोची समझी रणनीति के तहत इस उपचुनाव को पूरी तरह से वसुंधरा राजे के मत्थे मढ़ दिया गया, जिसमें प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति व प्रचार का जिम्मा वसुंधरा पर ही था। आरएसएस की चुप्पी असर ये हुआ कि घर-घर से मतदाता को निकाल कर वोट डलवाने का माहौल कहीं भी नजर नहीं आया। यह सही है कि एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर ने काम किया गया, मगर संघ की अरुचि के कारण उसे रोका नहीं जा सका। दिलचस्प बात ये है कि भले ही इसे राज्य सरकार के प्रति एंटी इन्कंबेंसी से जोड़ा गया, मगर सच ये है कि इसमें मुख्य भूमिका केन्द्र सरकार की नोटबंदी व जीएसटी ने अदा की। अर्थात जनता की नाराजगी राज्य के साथ केन्द्र की सरकार के प्रति भी उजागर हुई। ऐसे में अकेले वसुंधरा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा पा रहा।
आपको ज्ञात होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वसुंधरा के प्रति नाइत्तफाकी काफी समय से चल रही है और यही वजह है कि कई बार उनको हटा कर किसी और को मुख्यमंत्री बनाने की चर्चाएं हुईं। अब जबकि वसुंधरा के नेतृत्व में लड़े गए उपचुनाव में भाजपा चारों खाने चित्त हो गई तो यही माना जाना चाहिए कि भाजपा हाईकमान नई रणनीति के तहत वसुंधरा को हटाए, मगर ऐसा होना आसान नहीं लग रहा। इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है कि आज जब वसुंधरा राजस्थान में हैं, तब भाजपा की ये हालत हुई है तो उन्हें दिल्ली बुलाए जाने पर क्या होगा। वसुंधरा के एरोगेंस के बारे हाईकमान अच्छी तरह से वाकिफ है। अगर उनके कद के साथ कुछ भी छेडख़ानी की जाती है तो वे किसी भी स्तर पर जा सकती हैं। अब दिक्कत ये है कि मजबूरी में भाजपा यदि वसुंधरा के चेहरे पर ही चुनाव लड़ती है तो परिणाम नकारात्मक आने का खतरा है और हटाती है तो और भी अधिक नुकसान हो सकता है। कुल मिला कर भाजपा ही हालत ये है कि वसुंधरा न निगलते बन रही है और न ही उगलते। यदि वजह है कि वसुंधरा के नेतृत्व में ही नई सोशल इंजीनियरिंग पर काम हो रहा है। मंत्रीमंडल में फेरबदल पर गंभीरता से विचार हो रहा है। डेमेज कंट्रोल के लिए पिछले दिनों किरोड़ी लाल मीणा की पूरी पार्टी का भाजपा में विलय होना इसी कवायद का हिस्सा है। ऐसा करके भाजपा ने मीणा समाज को जोडऩे का काम किया है। भाजपा अभी आनंदपाल प्रकरण से नाराज राजपूतों व वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी के कारण छिटक रहे ब्राह्मण समाज को भी साधने की जुगत में लगी हुई है। कदाचित इसी वजह से राजपूत व ब्राह्मण समाज से एक-एक उप मुख्यमंत्री तक की अफवाहें फैल रही हैं। हालांकि यह एक फार्मूला है, मगर अन्य फार्मूलों पर भी चर्चा हो रही है। संभव है, जल्द ही मंत्रीमंडल का नया स्वरूप सामने आ जाए।
राजनीति में कब क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि वसुंधरा पर इतना दबाव बना दिया जाए कि वे राजस्थान छोड़ कर दिल्ली जाने को राजी हो जाएं, मगर जिस तरह की हलचल चल रही है, उसे देखते हुए नहीं लगता कि पार्टी इतना बड़ा कदम उठाने का दुस्साहस करेगी। हद से हद ये होगा कि वसुंधरा यथावत रहेंगी और मोदी व पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के दबाव में विधानसभा चुनाव में संघ कोटे की सीटें बढ़ा दी जाएं। आगे आगे देखते हैं होता है क्या?

गुरुवार, मार्च 08, 2018

मन से भगाए बिना नहीं भागेगा विधानसभा से भूत

-तेजवानी गिरधर-
भूत होते हैं या नहीं, इस पर विवाद सदैव से रहा है। भूतों को मानने वालों के पास इसका कोई सबूत नहीं है तो नहीं मानने वाले भी विपदा के समय आखिरी चारा न होने पर ऊपरी हवा का उपचार करवाने ओझाओं की शरण में चले जाते हैं। यह एक सीधी सट्ट सच्चाई है। पिछले दिनों विधानसभा में भूतों की मौजूदगी की अफवाह के चलते न केवल तांत्रिकों से जांच-पड़ताल करवाई गई, अपितु इस चर्चा को लेकर खूब हंसी-ठिठोली भी हुई। प्रिंट व इलैक्टॉनिक मीडिया ने तो इसका महा कवरेज किया ही, सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा छाया रहा। विधायकों व नेताओं की जितनी सामूहिक छीछालेदर हुई, उतनी शायद ही कभी हुई हो।
स्वाभाविक रूप से इक्कसवीं सदी में जबकि, विज्ञान व तकनीकी अपने चरम पर हैं, भूतों की बात बेमानी लगती है। सार्वजनिक मंच की बात करें तो वहां भूत अंधविश्वास के सिवाय कुछ भी नहीं, मगर सच्चाई इसके सर्वथा विपरीत है। अध्ययन-अध्यापन में कहीं भी भूतों की पुष्टि नहीं की जाती, मगर सच ये है कि भूत की मौजूदगी हमारी मान्यताओं में है और उसे कोई भी नकार नहीं सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है कि विधायक हों या नेता, या फिर आम आदमी, आम तौर पर भूत की मौजदगी की सर्वस्वीकार्यता है। तभी तो तांत्रिक व ओझाओं की झाड़-फूंक परंपरा कायम है। वस्तुत: बातें भले ही हम वैज्ञानिक युग की करें, मगर जब भी लाइलाज बीमारी या रहस्यपूर्ण आदिभौतिक समस्या आती है तो डॉक्टरों से इलाज के साथ तांत्रिकों व पीर-फकीरों की शरण में चले जाते हैं। यद्यपि इस सबका ग्राफ गिरा है, मगर भूतों अथवा ऊपरी हवा की मान्यता नकारी नहीं जा सकी है।  आपने कई बार ये भी सुना होगा कि अमुक बंगले में भूत का वास है, इस कारण वहां कोई नहीं रहता।
भूत-प्रेत से इतर बात करें तो यह सर्वविदित है कि हमारे नेतागण राजनीति चमकाने अथवा टिकट हासिल करने के लिए बाबाओं, ज्योतिषियों व तांत्रिकों के देवरे ढोकते हैं। इसे अन्यथा नहीं लिया जाता। यानि कि सारी की सारी अवैज्ञानिक मान्यताओं को हमारे समाज से सहमति दे रखी है। वास्तु को तो वैज्ञानिक मान्यता की तरह लिया जाने लगा है, जबकि आज भी उसका सटीक वैज्ञानिक व तर्कयुक्त आधार नहीं है। इसको लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं, मगर हम अपने निजी जीवन में उसे स्वीकार करते ही हैं। पूर्ण स्वीकार्यता भी नहीं और पूर्ण अस्वीकार्यता भी नहीं। पैंडुलम जैसी स्थिति है। 
ऐसे में अगर विधानसभा भवन में भूत-प्रेत अथवा वास्तुदोष का शगूफा छूटता है तो उस पर हम असहज हो जाते हैं। मीडिया तो ल_ लेकर ही पीछे पड़ जाता है। इसके विपरीत अगर हम मीडिया कर्मियों के निजी जीवन में झांकें तो वे भी कहीं न कहीं ऊपरी हवा से निजात के लिए तंत्र-मंत्र इत्यादि का सहज इस्तेमाल करते दिखाई दे जाएंगे। क्या यह सही नहीं है कि हम अपने घर में अज्ञात कारण से होने वाली अशांति से निपटने के लिए सुंदरकांड का पाठ नहीं करवाते? क्या ज्योतिषी के बताने पर पितरों की शांति के लिए अनुष्ठान नहीं करवाते? पुष्कर के निकट सुधाबाय में तो बाकायदा मंगल चौथ के दिन मेला भरता है और कुंड में डुबकी लगवा कर कथित रूप से प्रेत-बाधा से मुक्ति दिलवाने वालों का तांता लगा रहता है।
लब्बोलुआब, बात ये है कि हम निजी जीवन में तो पारंपरिक अंध विश्वासों को लिए हुए जीते हैं, मगर सार्वजनिक मंच पर उसका विरोध करने लगते हैं। यानि कि हम दोहरा चरित्र जी रहे हैं। न तो पूर्ण विज्ञान परक हो पाए हैं और न ही पुरानी परंपराओं को छोड़ पाए हैं। ऐसे में विधानसभा में भूतों की रहस्यमयी समस्या को लेकर बहस बेमानी सी लगती है।