तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, जुलाई 15, 2019

क्या भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना कभी साकार हो पाएगा?

यह एक सर्वविदित सत्य है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के आखिरी दिनों तक जब प्रमुख विपक्षी दल भाजपा अपनी भूमिका में पूरी तरह से नाकामयाब रहा, तब समाजसेवी अन्ना हजारे का आंदोलन खड़ा हुआ। वह इतना प्रचंड था कि कांग्रेस की जड़ें ही हिला कर रख दीं। अन्ना हजारे की गलती ये थी कि वे व्यवस्था परिवर्तन की जमीन तो बनाने में कामयाब हो गए, मगर उसका विकल्प नहीं दे पाए। अर्थात वैकल्पिक राजनीतिक दल नहीं दे पाए। नतीजतन उनके ही शिष्य अरविंद केजरीवाल को उनसे अलग हो कर नया दल आम आदमी पार्टी का गठन करना पड़ा।  मगर चूंकि वह भ्रूण अवस्था में था, इस कारण खाली जमीन पर भाजपा को कब्जा करने का मौका मिल गया। वह भी तब जबकि उसने नरेन्द्र मोदी को एक ब्रांड के रूप में खड़ा किया। ब्रांडिंग के अपने किस्म के भारत में हुए इस अनूठे व पहले प्रयोग को जबरदस्त कामयाबी मिली और कांग्रेस के खिलाफ आंदोलित हुई जनता ने कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के साथ मोदी को प्रतिष्ठापित कर दिया। मोदी ने प्रयोजित तरीके से पूरी भाजपा पर कब्जा कर लिया और अपने से कई गुना प्रतिष्ठित व वरिष्ठ नेताओं यथा लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सरीखों को सदा के लिए हाशिये पर डाल दिया। पूरे पांच साल के कार्यकाल को उन्होंने एक तानाशाह की तरह जिया और मंत्रीमंडल के अपने समकक्ष सहयोगियों अरुण जेठली, राजनाथ सिंह व सुषमा स्वराज सरीखे नेताओं को दबा कर रखा।
पांच साल तक नोटबंदी व जीएसटी जैसे पूरी तरह से नाकायाब कदमों और महंगाई, रोजगार व धारा 370 जैसे मुद्दों पर रत्तीभर की सफलता हासिल न कर पाने के कारण ऐसा लगने लगा कि मोदी ब्रांड की जीवन अवधि बस पांच साल ही थी। इसके संकेत कुछ विधानसभाओं के चुनाव में भाजपा की हार से मिल रहे थे। मगर चुनाव के नजदीक आते ही संयोग से उन्हें सर्जिकल स्ट्राइक करने का मौका मिल गया और यकायक उपजे नए राष्ट्रवाद ने मोदी की सारी विफलताओं पर चादर डाल दी। चुनाव आयोग सहित अन्य प्रमुख सवैंधानिक संस्थाओं को कमजोर कर उन्होंने बड़ी आसानी ने पहले से भी ज्यादा बहुमत से सत्ता अपने शिकंजे में ली ली। उन्होंने न केवल उत्तर प्रदेश में महागठबंध को धाराशायी कर दिया, अपितु पश्चिम बंगाल में धमाकेदार एंट्री भी की। यहां तक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी पुश्तैनी सीट तक को नहीं बचा पाए। हार की जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। ये पंक्तियां लिखे जाने तक गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के नए अध्यक्ष को लेकर उहापोह दिखाई दे रही है। ऐसे में भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा कामयाब होता दिखाई दे रहा है। गोवा व कर्नाटक में हुई उठापटक उसी दिशा में बढ़ते कदम हैं। यहां तक कि राजस्थान व मध्यप्रदेश की बारी आने के दावे किए जा रहे हैं।
इन सब के बावजूद यदि ये कहा जाए कि कांग्रेस मुक्त भारत का सपना कभी साकार नहीं हो पाएगा, वह अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, मगर यह एक सच्चाई है। कोई माने या न माने। हां, प्रयोग के बतौर गांधी-नेहरू परिवार मुक्त कांग्रेस जरूर बनाई जा सकती है, मगर पलेगी वह इसी परिवार के आश्रय में। रहा सवाल कांग्रेस मुक्त भारत का तो वह इसीलिए संभव नहीं है, क्योंकि कांग्रेस महज एक पार्टी नहीं, वह एक विचारधारा है। धर्मनिरपेक्षता की। ठीक वैसे ही जैसे मोदी एक आइकन हैं, मगर उनकी पृष्ठभूमि को ताकत हिंदूवाद की विचारधारा से मिलती है। हिंदूवाद जिंदा रहेगा, और भी बढ़ सकता है, मगर साथ ही धर्मनिरपेक्षता भी सदा जिंदा रहेगी। और सच तो ये है कि देश का आम आदमी लिबरल है। देश में अस्सी फीसदी हिंदुओं के बावजूद हिंदूवाद की झंडाबरदार भाजपा को अपेक्षित कामयाबी इस कारण नहीं मिल पाती, चूंकि हिंदुओं का एक बड़ा तबका धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखता है। इसके साथ ही हिंदू जातिवाद व क्षेत्रवाद में भी बंटा हुआ है।  पाकिस्तान के प्रति सहज नफरत के चलते उपजाया गया तथाकथित राष्ट्रवाद उसे प्रभावित तो करता है, नतीजतन भाजपा को 303 सीटें मिल जाती हैं, मगर फिर भी वह धार्मिक रूप से कट्टर नहीं है। कभी उफनता भी है तो फिर शांत भी हो जाता है, जैसे पानी को कितना भी गरम किया जाए, सामान्य होते ही शीतल हो जाता है। अकेली इसी फितरत की वजह से उग्र हिंदूवाद को लंबे समय तक जिंदा रखना आसान नहीं है। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता सदा कायम रहने वाली है। भले ही कांग्रेस कमजोर हो जाए, मगर विचारधारा के नाम पर कांग्रेस का वजूद बना रहेगा। अगर कांग्रेस किसी दिन खत्म होने की कल्पना कर भी ली जाए, तब भी धर्मनिरपेक्षता किसी और नाम से जिंदा रहेगी, उसे खत्म करने की किसी में ताकत नहीं है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, जुलाई 10, 2019

मीडिया अब भी हमलावर है कांग्रेस पर

हमने पत्रकारिता में देखा है कि आमतौर पर मीडिया व्यवस्था में व्याप्त खामियों को ही टारगेट करता था। सरकार चाहे कांग्रेस व कांग्रेस नीत गठबंधन की या भाजपा नीत गठबंधन की, खबरें सरकार के खिलाफ ही बनती थीं। वह उचित भी था। यहां तक कि यदि विपक्ष कहीं कमजोर होता था तो भी मीडिया लोकतंत्र में चौथे स्तम्भ के नाते अपनी भूमिका अदा करता था। आपको ख्याल होगा कि जेपी आंदोलन व वीपी सिंह की मुहिम में भी मीडिया सरकार के खिलाफ साथ दे रहा था। जब मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल अंतिम चरण में था, और भाजपा विपक्ष की भूमिका ठीक से नहीं निभा पाया तो अन्ना आंदोलन को मीडिया ने भरपूर समर्थन दिया। मगर लगता है कि अब सारा परिदृश्य बदल गया है।
नरेन्द्र मोदी के पिछले कार्यकाल में लगभग सारा मीडिया उनका पिछलग्गू हो गया था। विपक्ष में होते हुए भी जब-तब कांग्रेस ही निशाने पर रहती थी। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले और चुनाव प्रचार के दौरान तो मीडिया बाकायदा विपक्ष में बैठी कांग्रेस पर प्रयोजनार्थ हमलावर था ही, नरेन्द्र मोदी को दूसरी बार मिली प्रचंड जीत के बाद भी उसका निशाना कांग्रेस ही है। न तो उसे तब पुरानी मोदी सरकार के कामकाज की फिक्र थी और न ही नई मोदी सरकार की दिशा व दशा की परवाह है। उसे चिंता है तो इस बात की कि कांग्रेस का क्या हो रहा है? राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा क्यों दिया? पहले कहा कि सब नौटंकी है, मान-मुनव्वल के बाद मान जाएंगे, अब जब यह साफ हो गया है कि उन्होंने पक्के तौर पर इस्तीफा दे दिया है तो कहा जा रहा कि वे कायर हैं और कांग्रेस को मझदार में छोड़ रहे हैं। या फिर ये कि अगर पद पर नहीं रहे तो भी रिमोट तो उनके ही हाथ में रहेगा। रहेगा तो रहेगा। कोई क्या कर सकता है? अगर कांग्रेसी अप्रत्यक्ष रूप से कमान उनके ही हाथों में रखना चाहते हैं तो इसमें किसी का क्या लेना-देना होना चाहिए। कुल मिला कर बार-बार राहुल गांधी का पोस्टमार्टम किए जा रहा है। कभी कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह राहुल को हर दम के लिए कुचल देना चाहता है। मोदी तो कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते रहे हैं, जबकि टीवी एंकरों का सारा जोर इसी बात है कि कांग्रेस गांधी-नेहरू परिवार मुक्त हो जाए। एक यू ट्यूब चैनल के प्रतिष्ठित एंकर तो कल्पना की पराकाष्ठा पर जा कर इस पर बहस करते दिखाई दिए कि अगर वाकई राहुल ने पूरी तौर से कमान छोड़ दी तो कांग्रेस नष्ट हो जाएगी।
मीडिया के रवैये को देखना हो तो खोल लीजिए न्यूज चैनल। अधिसंख्य टीवी एंकर कांग्रेसी प्रवक्ताओं अथवा कांग्रेसी पक्षधरों के कपड़े ऐसे फाड़ते हैं, मानो घर में लड़ कर आए हों। साफ दिखाई देता है कि वे भाजपा के प्रति सॉफ्ट हैं, जबकि कांग्रेस के प्रति सख्त। कई टीवी एंकर कांग्रेस प्रवक्ताओं पर ऐसे झपटते हैं, मानो भाजपा प्रवक्ताओं की भूमिका में हों। और ढ़ीठ भी इतने हैं कि कांग्रेस प्रवक्ता उन पर बहस के दौरान खुला आरोप लगाते हैं कि आप ही काफी हो, भाजपा वालों को काहे बुलाते हो।
इलैक्ट्रॉनिक मीडिया भाजपा के प्रति कितना नरम है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पर्दे के पीछे भाजपा की भूमिका की चर्चा करने की बजाय कांग्रेस की रणनीति कमजोरी को ज्यादा उभार रहा है। भाजपा के अश्वमेघ यज्ञ के प्रति उसकी स्वीकारोक्ति इतनी है कि उसे बड़ी सहजता से यह कहने में कत्तई संकोच नहीं होता कि भाजपा का अगला निशाना मध्यप्रदेश व राजस्थान की सरकारें होंगी। वस्तुत: इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की यह हालत इस वजह से है कि एक तो इसका संचालन करने वालों में अधिसंख्य मोदी से प्रभावित हैं और दूसरा ये कि चैनल चलाना इतना महंगा है कि बिना सत्ता के आशीर्वाद के उसे चलाया ही नहीं जा सकता। बस संतोष की बात ये है कि हमारे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है और सत्ता से प्रताडि़त कुछ दिग्गज पत्रकार जरूर अपने-अपने यू ट्यूब चैनल्स के जरिए दूसरा पक्ष भी खुल कर पेश कर पा रहे हैं।
लब्बोलुआब, मीडिया के इस रूप के आज हम गवाह मात्र हैं, कर कुछ नहीं सकते।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, जुलाई 07, 2019

महुआ मोहित्रा के बहाने राहत इंदौरी पर फिर पलटवार

किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है बनाम ये मेरा घर है, मेरी जां, मुफ्त की सराय थोड़ी है
तेजवानी गिरधर
बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुबारा सत्ता में आने के बाद सबका साथ, सबका विकास नारे के साथ सबका विश्वास जोड़ दिया है, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि जिसको विश्वास में लेने की बात कही जा रही है, आज वही तबका मन ही मन भयभीत सा दिखता है। अपने हक-हकूक को लेकर चिंतित है। इसी की प्रतिध्वनि पिछले दिनों लोकसभा में सुनाई दी, जब सपा सांसद आजम खान ने लगभग कातर स्वर में ताजा हालात पर चिंता जाहिर की। तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोहित्रा के भाषण में तो वह और अधिक मुखर नजर आई। उन्होंने राहत इंदौरी के इन दो शेरों को बड़ी शिद्दत के साथ पढ़ कर अपना भाषण समाप्त किया-

जो आज साहिबे मसनद हैं
वो कल नहीं होंगे
किराएदार हैं
जाति मकान थोड़ी है

सभी का खून शामिल है
यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का
हिंदुस्तान थोड़ी है

जिस भाव से राहत इंदौरी में ये शेर कहे, ठीक वैसी ही तल्खी महुआ मोहित्रा के अंदाज में नजर आई। जरा दूसरे शेर पर गौर फरमाइये। इसका अर्थ साफ है कि सभी समुदायों का खून इस मिट्टी में है, भारत केवल किसी एक समुदाय का थोड़े ही है।
यह तो हुआ सिक्के का एक पहलु। मगर पलट कर दूसरा पहलु आया तो लगा कि राहत इंदौरी ने जिस हक की बात कर रहे हैं, दूसरा पक्ष उनकी ही शिद्दत से दूसरे समुदाय पर तंज कसने से बाज नहीं आ रहा।
कोई अशोक प्रीतमानी हैं, जिनके नाम से सोशल मीडिया पर दूसरा पहलु वायरल हो रहा है। यह प्रीतमानी ने ही लिखा है या किसी और के लिखे हुए की कॉपी की है, पता नहीं। यहां उसे हूबहू दिया जा रहा है:-
राहत इंदौरी साहब मेरे कुछ पसंदीदा शायरों में से एक शायर हैं। मैं उनकी तहे दिल से इज्जत करता हूं। पर इज्जतदार बने रहना उनकी जिम्मेदारी थी और है। मैंने राहत इन्दौरी के शेर को सुना है, लेकिन इस शेर को पढऩे का उनका अंदाज इतना तल्ख था कि हैरानी हुई और दुख भी। हुआ यूं कि जब उन्होंने मुल्क को अपनी जागीर बनाने की कोशिश की तब मैंने उनके इस रवैये का प्रतिरोध उनके लहजे में कर दिया था। अब दुर्भाग्य यह है कि उसी संदर्भ को ले कर सांसद महुआ मोइत्रा राहत इंदौरी साहब के हवाले से तकरीर पेश कर रही हैं। ऐसे में पेश है मेरी अपनी प्रतिक्रिया-
उनको उन्ही की भाषा में विनम्र जवाब:-

खफा होते हैं हो जाने दो, घर के मेहमान थोड़ी हैं।
जहां भर से लताड़े जा चुके हैं, इनका मान थोड़ी है।

ये कृष्ण-राम की धरती, सजदा करना ही होगा।
मेरा वतन, ये मेरी मां है, लूट का सामान थोड़ी है।

मैं जानता हूं, घर में बन चुके है सैकड़ों भेदी।
जो सिक्कों में बिक जाए वो मेरा ईमान थोड़ी है।

मेरे पुरखों ने सींचा है इसे लहू के कतरे कतरे से।
बहुत बांटा मगर अब बस, खैरात थोड़ी है।

जो रहजन थे, उन्हें हाकिम बना कर उम्र भर पूजा।
मगर अब हम भी सच्चाई से अनजान थोड़ी हैं।

बहुत लूटा फिरंगी तो कभी बाबर के पूतों ने।
ये मेरा घर है, मेरी जां, मुफ्त की सराय थोड़ी है।

आप मेरे पसंदीदा शायर हैं, होंगे पर मुल्क से बढ़ कर थोड़ी हैं।
समझे राहत इंदौरी।
वंदे मातरम .... जय हिंद।
समझा जा सकता है कि भारत पर अपने हक को लेकर दोनों समुदायों के कुछ लोग किस कदर खींचतान करने पर आमादा हैं। बेशक दूसरा पक्ष राहत इंदौरी की तल्खी का प्रत्युत्तर है, मगर यह तो स्पष्ट है कि दोनों ओर विष भरा हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी भले ही सबका विश्वास जीतने की बात कह रहे हों, मगर धरातल पर इस प्रकार का संदेश नहीं पहुंच पाया है। यही चिंता का विषय है। जब तक जमीन पर सदाशयता नहीं होगी, तब तक मोदी की प्रतिबद्धता के कोई मायने नहीं हैं। उससे भी ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि उनकी ही विचारधारा के लोगों पर उनका असर नहीं दिखाई पड़ रहा। वे लगातार ऐसी वारदातें कर रहे हैं, बयानबाजी कर रहे हैं, मानों उन्हें किसी बात की परवाह ही नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000