तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जनवरी 27, 2019

वसुंधरा के हटते ही भाजपा में बिखराव?

tejwani girdhar
राजस्थान विधानसभा चुनाव में भाजपा की पराजय के बाद पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर राजस्थान की राजनीति से साइड करने से भाजपा में बिखराव की नौबत आ गई दिखती है। हालांकि बिना किसी हील हुज्जत के जब वे उपाध्यक्ष बनने व धुर विरोधी गुलाब चंद कटारिया को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने देने को राजी हुईं तो यही लगा कि उनकी खुद की भी अब राजस्थान में रुचि नहीं रही है, मगर हाल ही जब उन्होंने कहा कि वे राजस्थान की बहू हैं और से यहां से उनकी अर्थी ही जाएगी तो ऐसे संकेत मिले कि वे यकायक अपनी दिलचस्पी कम करने वाली नहीं हैं। तो क्या एक ओर उनका राजस्थान के प्रति मोह और दूसरी ओर जयपुर नगर निगम के मेयर के चुनाव में भाजपा की पराजय व जिला परिषद में पेश भाजपा का अविश्वास प्रस्ताव खारिज होने को आपस में जोड़ देखा जाना चाहिए?
बेशक जिस प्रकार इन दोनों मामलों में भाजपा की किरकिरी हुई है, उसका वसुंधरा से सीधा कोई लेना-देना नहीं है, मगर इस मौके पर उनकी अनुपस्थिति भाजपा को खल रही होगी। अगर कमान उनके हाथ होती तो वे इतना आसानी से नहीं होने नहीं देतीं। यह नाकमयाबी साफ तौर पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मदनलाल सैनी के खाते में ही गिनी जाएगी। इसका अर्थ ये भी निकलता है कि जैसे ही वसुंधरा राज्य की राजनीति से अलग की गई हैं, सैनी कमजोर हो गए हैं। उनका नियंत्रण नहीं रहा है, जैसा कि वसुंधरा के रहते होता था। सिक्के का एक पहलु ये भी है कि भले ही वसुंधरा राज्य की राजनीति से पृथक दी गई हों, मगर संगठन में अधिसंख्य पदाधिकारी उनकी ही पसंद के हैं। तो सवाल उठता है कि क्या वसुंधरा की तरह उन्होंने भी रुचि लेना कम कर दिया है। इसे आसानी से समझा जा सकता है कि अकेले वसुंधरा को दिल्ली भेज दिए जाने से उनका गुट तो समाप्त तो नहीं हो गया होगा। दिल्ली जाने के बाद भी इस गुट के जरिए अपनी अंडरग्राउंड पकड़ बनाए रखना चाहेंगी।
जो कुछ भी है, यह स्पष्ट है कि ताजा हालात ये ही बयां कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव की तैयारियों के बीच भाजपा बिखराव की स्थिति में आ गई है। हो सकता है कि भाजपा हाईकमान ने वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत किए जाने के बाद उत्पन्न होने वाले हालात का अनुमान लगा रखा हो, मगर फिलवक्त लगता है कि हाईकमान को स्थितियों का नए सिरे से आकलन करना होगा। इतना ही नहीं, उसे वसुंधरा के मजबूत गुट के साथ संतुलन बनाने के लिए वसुंधरा को महत्व देना ही होगा। अन्यथा आगामी लोकसभा चुनाव में उसे भारी परेशानी का सामना करना होगा। होना तो यह चाहिए था कि वसुंधरा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए जाने के साथ यहां की संगठनात्मक चादर को नए सिरे से बिछाना चाहिए था, मगर लोकसभा चुनाव सिर पर ही आ जाने के कारण इतना बड़ा फेरबदल करना आसान भी नहीं था।
यह ठीक है कि स्थानीय इक्का-दुक्का हार की हाईकमान को चिंता नहीं है, मगर देखने वाली बात ये होगी कि वह उसके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण लोकसभा चुनाव में क्या रणनीति अपनाती है।

बुधवार, जनवरी 02, 2019

मोदी की वजह से निपटी वसुंधरा

तेजवानी गिरधर
हाल ही संपन्न विधानसभा चुनाव में हालांकि मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि वसुंधरा राजे की सरकार नाकामियों के कारण हार गई या फिर एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर ने काम किया, मगर बारिकी से देखा जाए तो इसकी वजह रही नरेन्द मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां और जनता से की गई वादा खिलाफी। ठेठ आम मतदाता को इतनी समझ नहीं होती है कि सरकार कैसे काम रही है, उसे तो केवल महंगाई से वास्ता होता है या फिर बदलाव की प्रवृत्ति। स्वाभाविक रूप से जो भी सरकार काम करती है तो जनता की सारी अपेक्षाएं पूरी हो नहीं पाती, नतीजतन असंतुष्ट मतदाता एंटी इंन्कंबेंंसी का हिस्सा बन जाता है। उसे ही विपक्षी दल भुनाता है।
ऐसा नहीं कि अकेले मोदी फैक्टर की वजह से ही वसुंधरा हारीं। उनकी सरकार की भी कमजोरियां थीं। कई मोर्चों पर नाकामियां रहीं। राजपूत वोट बैंक खिलाफ हो गया। आखिर में तो कर्मचारी भी नाराज हो गए। मगर आम मतदाता मूल रूप से मोदी की आर्थिक अराजकता के कारण गुस्से में थी। राजस्थान में भी निष्प्राण प्राय: हो चुकी कांग्रेस को प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने जीवित करने का प्रयास किया तो उन्होंने स्वाभाविक रूप से वसुंधरा सरकार पर ही हमले बोले। उधर संघ निष्ट भाजपाइयों ने भी सुनियोजित तरीके से यह नारा चला दिया कि मोदी से तेरे से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं। अर्थात वसुंधरा के प्रति नाराजगी दिखाते हुए भी वे मोदी के नाम पर वोट मांग रहे थे। वे यह जानते थे कि जनता में असल में मोदी की नोटबंदी, जीएसटी व महंगाई की वजह से रोष है, लेकिन अगर यही मुद्दे उभर कर आए तो आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सुरक्षित मोदी ब्रांड को खतरा उत्पन्न हो जाएगा, इस कारण गुस्से को वसुंधरा की ओर डाइवर्ट कर दिया गया। एक बारगी तो ऐसा माहौल बना दिया गया कि अगर वसुंधरा को नहीं हटाया गया तो भाजपा बुरी तरह से पराजित हो जाएगी। इसके लिए लोकसभा उपचुनाव में जानबूझ कर संघ ने असहयोग किया, ताकि सारा दोष वसुंधरा पर मढ़ा जाए। वसुंधरा को हटाने व कमजोर करने की कोशिशें भी कम नहीं हुईं, मगर चूंकि वे मजबूत थीं, इस कारण हाईकमान चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाया। अगर जबरन हटाने की कोशिश होती तो पार्टी दो फाड़ भी हो सकती थी। प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने के दौरान जो कुछ हुआ, वह सर्वविदित ही है। हालत ये हो गई कि उसे वसुंधरा को ही आगे रख कर चुनाव लडऩा पड़ा। हालांकि यह सही है कि अगर भाजपा अपना चेहरा बदलती तो उसका उसे कुछ फायदा होता। उसी ने लगभग साल भर पहले वसुंधरा के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया था। उसे उम्मीद थी कि ऐसा करने से वसुंधरा की जगह किसी और चेहरे पर चुनाव लड़ा जा सकेगा। यदि चेहरा नहीं भी मिला तो मोदी के नाम पर वोट मांगे जाएंगे।
भाजपा हाईकमान जानता था कि महंगाई कम करने का वादा तो पूरा हुआ नहीं, उलटे बढ़ गई, जिससे आम जनता त्रस्त थी। कहां तो बड़े पैमाने पर रोजगार देने का सपना दिखाया गया था और कहां नोटबंदी के चलते बाजार में मंदी आ गई व बेरोजगारी और अधिक बढ़ गई। रही सही कसर जीएसटी ने की। आमतौर पर भाजपा के साथ रहने वाला व्यापारी तबका भी बेहद त्रस्त रहा। गुस्सा इतना अधिक था कि आखिर में मोदी व अमित शाह की ताबड़तोड़ सभाएं भी कुछ नहीं कर पायीं। जमीनी हकीकत यही है। जनता को ये कत्तई भान नहींं था कि वसुंधरा ने अच्छा काम किया या नहीं। अब चूंकि चुनाव राज्य सरकार का था तो स्वाभाविक रूप से मतदाता का रोष वसुंधरा के खिलाफ गिना गया। गिना क्या गया, जानबूझ कर भाजपा खेमे से ऐसा ही गिनवाया गया। भाजपा के नीति निर्धारकों को वसुंधरा के शहीद होने की चिंता नहीं थी, एक राज्य चला भी जाए तो कोई बात नहीं, उन्हें तो फिक्र थी मोदी ब्रांड की, जो यदि डाउन हुआ तो लोकसभा चुनाव में सत्ता में वापस लौटना मुश्किल हो जाएगा।
खैर, अब जबकि यह मान ही लिया गया है कि वसुंधरा राजे की ही वजह से भाजपा पराजित हुई है, समझा जाता है कि उन्हें लोकसभा चुनाव लड़वा कर राजस्थान से रुखसत किया जाएगा। हालांकि यह भी तभी होगा, जबकि वसुंधरा खुद इसके लिए राजी होंगी। वैसे यह पक्का है कि लोकसभा चुनाव में मोदी का चेहरा ही अहम भूमिका में होगा, मगर राजस्थान में वसुंधरा की मौजूदगी समाप्त करने पर विचार किया जा सकता है।
-तेजवानी गिरधर
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