जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना मदनी के इस कथन ने एक नई बहस को जन्म दिया है कि मैं तिलक नहीं लगा सकता तो मोदी भी टोपी क्यों पहनें। उनकी बात बहुत ही तार्किक, सीधी-सीधी गले उतरने वाली और वाजिब लगती है। इसी से जुड़ी हुई ये बात भी सटीक महसूस होती है कि जब मुस्लिम इस्लाम के मुताबिक अपनी रवायत पर कायम रखता है और उसे बुरा नहीं माना जाता तो किसी हिंदू के अपने धर्म के मुताबिक चलते हुए मुस्लिम टोपी पहनने को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। कुछ ऐसा ही मसला दोनों धर्मों के धर्म स्थलों को लेकर है। मुस्लिम मंदिर नहीं जाता तो इसे सहज में लिया जाता है, मगर कोई हिंदू मस्जिद अथवा दरगाह से परहेज रखता है तो उसे कट्टर क्यों माना जाना चाहिए। मगर सच ये है चंद हिंदुओं को छोड़ कर अधिसंख्य हिंदुओं को दरगाह, गिरिजाघर अथवा गुरुद्वारे में माथा टेकने में कोई ऐतराज नहीं होता।
अजमेर के संदर्भ में बात करें तो यह एक सच्चाई है कि देशभर से यहां आने वाले मुस्लिम जायरीन का एक प्रतिशत भी तीर्थराज पुष्कर नहीं जाता। जाता भी है तो महज तफरीह के लिए। दूसरी ओर देशभर से आने वाला अधिसंख्य हिंदू तीर्थयात्री दरगाह जरूर जाता है। अनेक स्थानीय हिंदू भी दरगाह में माथा टेकते देखे जा सकते हैं। तो आखिर इसकी वजह क्या है?
इसी सिलसिले में दरगाह में बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद के उस इकबालिया बयान पर गौर कीजिए कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। वजह साफ है। चाहे हिंदू भी ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। हिंदू संस्कृति स्वभावगत भी उदार प्रकृति की है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवी माता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। रहा सवाल मुस्लिमों का तो वह खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है।
बहरहाल, ताजा मामले में मौलाना मदनी ने नरेन्द्र मोदी को सुझाया है कि वे भी मुस्लिमों की तरह अपने धर्म के प्रति कट्टर बने रहें। उन्हें शायद इसका इल्म नहीं है कि मुसलमान भले ही बुत परस्ती के विरुद्ध होने के कारण तिलक नहीं लगाएगा, मगर सभी धर्मों को साथ ले कर चलने वाला हिंदू खुद के धर्म का पालन करते हुए अन्य धर्मों का भी आदर करता है। कदाचित इसी कारण हिंदूवादी संघ की विचारधारा से पोषित भाजपा के नेता भी दरगाह जियारत कर लेते हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने तो धर्मनिरपेक्षता के नाते बाकायदा मुस्लिम टोपी पहन कर दिखाई थी। इसे वोटों के गणित से भी जोड़ कर देखा जा सकता है। अलबत्ता संघ से सीधे जुड़े लोग परहेज करते हैं। मोदी भी उनमें से एक हैं, जिन्होंने एक बार टोपी पहनने से इंकार कर देश में एक बड़ी बहस को जन्म दिया है। स्वाभाविक बात है कि वोटों के ध्रुवीकरण की खातिर उन्होंने ऐसा किया। हालांकि बाद में जब बहुत आलोचना हुई तो यह कह कर आरोप से किनारा किया कि वे सभी धर्मों का सम्मान करते हैं, मगर पालन अपने धर्म का करते हैं, टोपी पहन कर नौटंकी नहीं कर सकते।
और ऐसा भी नहीं है कि पूरा मुसलमान कट्टर है। अजमेर के संदर्भ में बात करें तो पुष्कर की विधायक रहीं श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ तीर्थराज पुष्कर सरोवर को पूजा करती रही हैं, ब्रह्मा मंदिर के दर्शन करती रही हैं। भले ही इसे हिंदू वोटों की चाहत माना जाए, मगर धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने मुस्लिम को भी कुछ लचीला तो किया ही है। इसके अतिरिक्त भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान पर हिंदू संस्कृति का असर सूफी मत के रूप में साफ देखा जा सकता है। कट्टर मुस्लिम दरगाह में हाजिरी नहीं देते, जबकि अधिसंख्य मुस्लिम दरगाहों की जियारत करते हैं। इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान तक के कई मुस्लिम दरगाह जियारत करने आते हैं। सवाल ये उठता है कि मोदी के टोपी न पहनने का समर्थन करने वाले मौलाना मदनी मुस्लिमों को दरगाह जाने से रोक सकते हैं?
-तेजवानी गिरधर
अजमेर के संदर्भ में बात करें तो यह एक सच्चाई है कि देशभर से यहां आने वाले मुस्लिम जायरीन का एक प्रतिशत भी तीर्थराज पुष्कर नहीं जाता। जाता भी है तो महज तफरीह के लिए। दूसरी ओर देशभर से आने वाला अधिसंख्य हिंदू तीर्थयात्री दरगाह जरूर जाता है। अनेक स्थानीय हिंदू भी दरगाह में माथा टेकते देखे जा सकते हैं। तो आखिर इसकी वजह क्या है?
इसी सिलसिले में दरगाह में बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद के उस इकबालिया बयान पर गौर कीजिए कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। वजह साफ है। चाहे हिंदू भी ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। हिंदू संस्कृति स्वभावगत भी उदार प्रकृति की है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवी माता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। रहा सवाल मुस्लिमों का तो वह खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है।
बहरहाल, ताजा मामले में मौलाना मदनी ने नरेन्द्र मोदी को सुझाया है कि वे भी मुस्लिमों की तरह अपने धर्म के प्रति कट्टर बने रहें। उन्हें शायद इसका इल्म नहीं है कि मुसलमान भले ही बुत परस्ती के विरुद्ध होने के कारण तिलक नहीं लगाएगा, मगर सभी धर्मों को साथ ले कर चलने वाला हिंदू खुद के धर्म का पालन करते हुए अन्य धर्मों का भी आदर करता है। कदाचित इसी कारण हिंदूवादी संघ की विचारधारा से पोषित भाजपा के नेता भी दरगाह जियारत कर लेते हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने तो धर्मनिरपेक्षता के नाते बाकायदा मुस्लिम टोपी पहन कर दिखाई थी। इसे वोटों के गणित से भी जोड़ कर देखा जा सकता है। अलबत्ता संघ से सीधे जुड़े लोग परहेज करते हैं। मोदी भी उनमें से एक हैं, जिन्होंने एक बार टोपी पहनने से इंकार कर देश में एक बड़ी बहस को जन्म दिया है। स्वाभाविक बात है कि वोटों के ध्रुवीकरण की खातिर उन्होंने ऐसा किया। हालांकि बाद में जब बहुत आलोचना हुई तो यह कह कर आरोप से किनारा किया कि वे सभी धर्मों का सम्मान करते हैं, मगर पालन अपने धर्म का करते हैं, टोपी पहन कर नौटंकी नहीं कर सकते।
और ऐसा भी नहीं है कि पूरा मुसलमान कट्टर है। अजमेर के संदर्भ में बात करें तो पुष्कर की विधायक रहीं श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ तीर्थराज पुष्कर सरोवर को पूजा करती रही हैं, ब्रह्मा मंदिर के दर्शन करती रही हैं। भले ही इसे हिंदू वोटों की चाहत माना जाए, मगर धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने मुस्लिम को भी कुछ लचीला तो किया ही है। इसके अतिरिक्त भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान पर हिंदू संस्कृति का असर सूफी मत के रूप में साफ देखा जा सकता है। कट्टर मुस्लिम दरगाह में हाजिरी नहीं देते, जबकि अधिसंख्य मुस्लिम दरगाहों की जियारत करते हैं। इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान तक के कई मुस्लिम दरगाह जियारत करने आते हैं। सवाल ये उठता है कि मोदी के टोपी न पहनने का समर्थन करने वाले मौलाना मदनी मुस्लिमों को दरगाह जाने से रोक सकते हैं?
-तेजवानी गिरधर