चलो मुद्दे पर आते हैं। आपने एक कहावत सुनी ही होगी। जिसकी लाठी, उसकी भैंस। यह जंगल में तो लागू है ही, सामाजिक व्यवस्था में भी फिट बैठती है। हर जगह ताकत की ही महत्ता है। हर ताकतवर अपने से कम ताकतवर को दबा रहा है और हर कम शक्तिमान अपने से अधिक शक्तिमान की खुषामद करने को मजबूर है। इस सत्य को मैने वृहत्तर स्तर पर देखने की कोशिश की है। यह पूरी प्रकृति में भी तो यह लागू होता है।
हम सब जानते हैं कि आदमी सर्वगुणसंपन्न नहीं है। न ही हो सकता है। कोई कितना भी शक्ति संपन्न क्यों न हो, एक सीमा के बाद उसे हाथ खड़े करने ही होते हैं। और तब उसे प्रकृति को सलाम ठोकना पड़ता है। वह सर्वशक्तिमान ईश्वर या किसी न किसी देवता के आगे आत्म समर्पण कर देता है। हालांकि हम उसे आस्था का नाम देते हैं, मगर असल में है वह खुषामद ही। ऋगवेद में ईश्वर का महिमा गान हो अथवा किसी भी देवी-देवता की चालीसा या आरती, उसमें आपको विरुदावलि ही नजर आएगी। यानि कि हम देवी-देवताओं को रिझाने के लिए, स्वार्थ पूर्ति के लिए उनके गुणों का गान करते हैं। वह भी खुषामद ही तो है। बस फर्क ये है कि गुणगान शब्द सुसंस्कृत है और खुषामद शब्द घटिया। चलो गुणगान तक तो ठीक है, मगर खुषामद का आलम ये है कि हम देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए उन्हें प्रसाद तक अर्पित करते हैं। अर्जी लगाते हैं कि हमारी अमुक मनोकामना पूरी होगी तो इतने रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगा। देवता का अर्थ है, जो हमें देता है। जैसे वरुण देवता, वायु देवता, सूर्य देवता, अग्नि देवता, धरती माता इत्यादि। वे सब हमारे जीवन के आधार हैं। कैसा विरोधाभास है कि जो हमें देते हैं, उन्हीं को हम दे कर पटाने की कोशिश करते हैं। प्रसाद चढ़ाने के विधान का जो भी रहस्य हो, मगर मोटे तौर पर तो यही सही है न कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा करके हम उन्हें प्रसन्न कर रहे हैं और वे भी अपनी दी हुई भौतिक वस्तु के अर्पण से प्रसन्न हो रहे हैं।
यदि ये सही है कि प्रसाद चढ़ाने व गुणगान करने से देवी-देवता राजी होते हैं, तो इसका अर्थ ये है कि वे भी खुषामद पसंद हैं। उन्हें भी अपनी जय जयकार पसंद है। देवी-देवता ही क्यों, इस सृष्टि को उत्पन्न करने, पालन करने और संहार करने वाले ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी आराधना करने पर वर देते हैं। उसमें मेरिट-डिमेरिट कुछ नहीं देखते। तभी तो राक्षस उन्हें रिझा कर वर हासिल कर लेते हैं। बाद में उसी वर का उपयोग वे देवताओं के खिलाफ करते हैं। देवता परेशान हो कर त्राहि-त्राहि माम करते हैं, तब जा कर वे उनकी रक्षा करते हैं। समझ में नहीं आता कि क्या वर दाताओं को यह ख्याल नहीं होता कि वे जिसे वर दे रहे हैं, वह उसका पात्र है भी या नहीं? या फिर उन्हें यह पता ही नहीं होता कि जिसे वे वर दे रहे हैं, उसके मन में क्या दुर्भावना है? या फिर आराधना के वक्त राक्षस पूर्ण सद्भावी होते हैं और वर हासिल करने के बाद उसका दुरुपयोग करते हैं? या उनको तो इससे सरोकार है कि किसने उनकी आराधना के लिए कितनी कठोर तपस्या की है? जो कुछ भी हो, मगर इतना तय है कि आराधना अर्थात चमचागिरी से वे प्रसन्न होते हैं। हो सकता है कि मुझे इस सत्य का दर्शन पूर्ण रूप से नहीं हो रहा हो, नहीं ही हो रहा होगा, मगर जहां तक मेरी समझ पहुंच पाई है, उससे मेरा नजरिया ये ही बना है कि खुषामद कोई बुरी बात नहीं है, वह करनी ही चाहिए, चूंकि पूरी प्रकृति का विधान यही है।
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