गांधीवादी अन्ना हजारे के सफल अनशन के बाद योग गुरू बाबा रामदेव का आंदोलन सफलता का किनारा छूते-छूते राजनीति के गर्त में डूब गया। बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर जाहिर तौर पर व्यापक विरोध प्रदर्शन अब भी देशभर में जारी है, मगर सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि बाबा की नब्बे फीसदी मांगों पर सहमति के बाद भी सरकार पुलिस कार्यवाही करने को मजबूर हो गई और बाद में जारी अनशन को तुड़वाने में सरकार ने कोई रुचि नहीं ली?
सक्रिय राजनीति में संतों की भागीदारी कितनी उचित?
वस्तुत: मौलिक सवाल ये उठा कि क्या किसी संन्यासी अथवा योग गुरू को सक्रिय राजनीति करनी चाहिए, लेकिन इसे यह तर्क दे कर नकार दिया गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना-रोकना ठीक नहीं है। इस सिलसिले में कहावत का उल्लेख प्रासंगिक लगता है, और वह ये कि कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। कमोबेश इसी स्थिति से बाबा रामदेव को गुजरना पड़ गया। अगर इतिहास पर नजर डालें तो संतों का राजनीति में आना सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए भी उनका राजनीति करना खास सफल नहीं हो पाया है। बाबा रामदेव से पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। ठीक इसी प्रकार न केवल बाबा का आंदोलन राजनीति का शिकार हो गया, अपितु वे खुद भी विवादास्पद हो गए। कहां तो पूर्व में राजनेता उनके यहां आशीर्वाद लेने को आतुर रहते थे और कहां अब आरोपों की बौछार हो रही है।
भाजपा व आरएसएस का समर्थन पड़ गया भारी
इसके कारणों पर नजर डालें तो कदाचित इसकी एक वजह ये समझ में आती है कि वे राजनीति की डगर पर कुछ ज्यादा ही आगे निकल पड़े। आंदोलन की शुरुआत में ही उनकी ओर से की गई यह घोषणा कि सारी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हैं और वे अपनी पार्टी बना कर उसे चुनाव मैदान में उतारेंगे। गुरू तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यम्भावी हो जाता है। व्यवस्था और सरकार की आलोचना करते-करते जब उनके प्रहार सीधे कांग्रेस पर ही होने लगे तो प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने भी उन पर निशाना साधना शुरू कर दिया। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाते हुए उन्हें ढोंगी ही करार दे दिया। जहां तक भाजपा का सवाल है, वह पहले तो देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों से अपने आपको अलग की रखे रही, लेकिन जैसे ही वे अनशन पर उतारू हो गए तो भाजपा व आरएसएस को लगा कि वे उनकी जमीन ही खिसका देंगे, इस कारण मजबूरी में समर्थन दे दिया। बाबा भी सहर्ष उस समर्थन को लेने को तैयार हो गए। बस यहीं गड़बड़ हो गई। बाबा रामदेव से गलती ये हुई कि वे अन्ना हजारे की तरह अपने आंदोलन को राजनेताओं से बचा नहीं पाए और जमाने में देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाली साध्वी ऋतम्भरा को ही मंच पर बैठा दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि बाबा को भाजपा का मुखौटा होने का आरोप सहना पड़ा।
इसलिए बदल गई आंदोलन की दिशा
जहां तक उनके आंदोलन के कामयाब होते-होते बिखर जाने का सवाल है, बाबा सरकार से नब्बे प्रतिशत मांगों पर सहमति हासिल करने और अनशन समाप्त करने का लिखित आश्वासन देने के बाद भी अज्ञात कारणों से डटे रहे। खुद उन्होंने ही घोषणा कर दी कि दूसरे दिन बड़ी तादात में उनके समर्थक अनशन स्थल पर आएंगे। ऐसे में सरकार उनकी मंशा के प्रति आशंकित हो गई और मात्र योग कराने की अनुमति होने और समर्थकों की अधिकतम संख्या पांच हजार होने की शर्त का बहाना बना कर पुलिस कार्यवाही कर बैठी। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सरकार ने आखिर किस वजह से जानते-बूझते हुए भी दमन का रास्ता अख्तियार कर लिया।
और इस प्रकार घटा ली अपनी प्रतिष्ठा
बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचलने की सर्वत्र भत्सर्ना हो रही है, लेकिन साथ ही बाबा की कुछ त्रुटियां भी चर्चा में हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोते दिखाई दिए तो दूसरी ओर खुद महिलाओं के कपड़े पहन कर दो घंटे तक अनशन परिसर में दुबके रहे। इतना ही नहीं वहां से भागने का प्रयास भी किया। इसमें भी चतुराईपूर्ण दंभ प्रकट किया। इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से कर बैठे। एक ओर सरकार की तानाशाही के लिए सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते रहे तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से सरकार को माफ भी कर दिया। कैसी विडंबना रही एक ओर तो अत्याचार को लेकर पूरा देश आक्रोश में रहा, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। बाबा को अन्ना हजारे से तुलना करके भी देखा जा रहा है कि वे कई बार बड़बोलापन कर जाते हैं, जबकि अन्ना संयत हो कर तर्कपूर्ण बात करते हैं। उनकी कुछ मांगों ने भी लोगों को यह चर्चा करने का मौका दे दिया कि उन्हें कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की पूरी समझ नहीं है और बाल हठ करते हुए आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा देने, बड़े नोट समाप्त करने, तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगों पर अड़ रहे हैं।
कुल जमा एक पवित्र मकसद के लिए कामयाबी के निकट पहुंचा आंदोलन फिस्स हो गया। इसकी प्रमुख वजह की ओर अन्ना का ये इशारा कुछ समझ में आता है कि वे भले ही शीर्षस्थ योग गुरू हैं, मगर उनमें आंदोलन चलाने की राजनीतिक व कूटनीतिक समझ नहीं है।
-गिरधर तेजवानी
सक्रिय राजनीति में संतों की भागीदारी कितनी उचित?
वस्तुत: मौलिक सवाल ये उठा कि क्या किसी संन्यासी अथवा योग गुरू को सक्रिय राजनीति करनी चाहिए, लेकिन इसे यह तर्क दे कर नकार दिया गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना-रोकना ठीक नहीं है। इस सिलसिले में कहावत का उल्लेख प्रासंगिक लगता है, और वह ये कि कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। कमोबेश इसी स्थिति से बाबा रामदेव को गुजरना पड़ गया। अगर इतिहास पर नजर डालें तो संतों का राजनीति में आना सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए भी उनका राजनीति करना खास सफल नहीं हो पाया है। बाबा रामदेव से पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। ठीक इसी प्रकार न केवल बाबा का आंदोलन राजनीति का शिकार हो गया, अपितु वे खुद भी विवादास्पद हो गए। कहां तो पूर्व में राजनेता उनके यहां आशीर्वाद लेने को आतुर रहते थे और कहां अब आरोपों की बौछार हो रही है।
भाजपा व आरएसएस का समर्थन पड़ गया भारी
इसके कारणों पर नजर डालें तो कदाचित इसकी एक वजह ये समझ में आती है कि वे राजनीति की डगर पर कुछ ज्यादा ही आगे निकल पड़े। आंदोलन की शुरुआत में ही उनकी ओर से की गई यह घोषणा कि सारी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हैं और वे अपनी पार्टी बना कर उसे चुनाव मैदान में उतारेंगे। गुरू तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यम्भावी हो जाता है। व्यवस्था और सरकार की आलोचना करते-करते जब उनके प्रहार सीधे कांग्रेस पर ही होने लगे तो प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने भी उन पर निशाना साधना शुरू कर दिया। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाते हुए उन्हें ढोंगी ही करार दे दिया। जहां तक भाजपा का सवाल है, वह पहले तो देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों से अपने आपको अलग की रखे रही, लेकिन जैसे ही वे अनशन पर उतारू हो गए तो भाजपा व आरएसएस को लगा कि वे उनकी जमीन ही खिसका देंगे, इस कारण मजबूरी में समर्थन दे दिया। बाबा भी सहर्ष उस समर्थन को लेने को तैयार हो गए। बस यहीं गड़बड़ हो गई। बाबा रामदेव से गलती ये हुई कि वे अन्ना हजारे की तरह अपने आंदोलन को राजनेताओं से बचा नहीं पाए और जमाने में देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाली साध्वी ऋतम्भरा को ही मंच पर बैठा दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि बाबा को भाजपा का मुखौटा होने का आरोप सहना पड़ा।
इसलिए बदल गई आंदोलन की दिशा
जहां तक उनके आंदोलन के कामयाब होते-होते बिखर जाने का सवाल है, बाबा सरकार से नब्बे प्रतिशत मांगों पर सहमति हासिल करने और अनशन समाप्त करने का लिखित आश्वासन देने के बाद भी अज्ञात कारणों से डटे रहे। खुद उन्होंने ही घोषणा कर दी कि दूसरे दिन बड़ी तादात में उनके समर्थक अनशन स्थल पर आएंगे। ऐसे में सरकार उनकी मंशा के प्रति आशंकित हो गई और मात्र योग कराने की अनुमति होने और समर्थकों की अधिकतम संख्या पांच हजार होने की शर्त का बहाना बना कर पुलिस कार्यवाही कर बैठी। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सरकार ने आखिर किस वजह से जानते-बूझते हुए भी दमन का रास्ता अख्तियार कर लिया।
और इस प्रकार घटा ली अपनी प्रतिष्ठा
बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचलने की सर्वत्र भत्सर्ना हो रही है, लेकिन साथ ही बाबा की कुछ त्रुटियां भी चर्चा में हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोते दिखाई दिए तो दूसरी ओर खुद महिलाओं के कपड़े पहन कर दो घंटे तक अनशन परिसर में दुबके रहे। इतना ही नहीं वहां से भागने का प्रयास भी किया। इसमें भी चतुराईपूर्ण दंभ प्रकट किया। इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से कर बैठे। एक ओर सरकार की तानाशाही के लिए सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते रहे तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से सरकार को माफ भी कर दिया। कैसी विडंबना रही एक ओर तो अत्याचार को लेकर पूरा देश आक्रोश में रहा, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। बाबा को अन्ना हजारे से तुलना करके भी देखा जा रहा है कि वे कई बार बड़बोलापन कर जाते हैं, जबकि अन्ना संयत हो कर तर्कपूर्ण बात करते हैं। उनकी कुछ मांगों ने भी लोगों को यह चर्चा करने का मौका दे दिया कि उन्हें कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की पूरी समझ नहीं है और बाल हठ करते हुए आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा देने, बड़े नोट समाप्त करने, तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगों पर अड़ रहे हैं।
कुल जमा एक पवित्र मकसद के लिए कामयाबी के निकट पहुंचा आंदोलन फिस्स हो गया। इसकी प्रमुख वजह की ओर अन्ना का ये इशारा कुछ समझ में आता है कि वे भले ही शीर्षस्थ योग गुरू हैं, मगर उनमें आंदोलन चलाने की राजनीतिक व कूटनीतिक समझ नहीं है।
-गिरधर तेजवानी