तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, अक्तूबर 28, 2024

ज्ञानी की छाया नहीं बना करती?

विद्वान कहते हैं कि ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति की छाया नहीं बनती। इस पर सहसा यकीन नहीं होता। भला किसी व्यक्ति की छाया कैसे नहीं बन सकती। धूप के सामने खडे होंगे तो छाया बनेगी ही। अतः कुछ विवेचकों ने इसका अर्थ यह निकाला है कि यह कथन भौतिक नहीं, बल्कि गहन और आध्यात्मिक है, जिसका संबंध आत्मबोध, आत्मज्ञान या आध्यात्मिक जागरूकता से है। अर्थत जब व्यक्ति वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो वह कर्म बंध व भौतिकता से परे हो जाता है। यह विचार खासकर अद्वैत वेदांत व बौद्ध धर्म से आया हुआ प्रतीत होता है। छाया भौतिक संसार की सीमाओं, माया या अज्ञानता का प्रतीक हो सकती है। जब व्यक्ति ज्ञान के उच्चतम स्तर पर पहुंचता है, तो वह माया या भौतिक बंधनों से मुक्त हो जाता है, और इस कारण उसकी छाया नहीं बनती। छाया का न बनना यह दर्शाता है कि वह व्यक्ति अब आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चुका है, जो असीम और अप्रभावित है।

छाया का अभाव यह भी इंगित करता है कि उस व्यक्ति में कोई भ्रम या अज्ञानता शेष नहीं रहती, क्योंकि वह अब पूर्ण ज्ञान में है। छाया के मायने हैं संचित कर्म। जो मृत्यु के बाद अगले जन्म में साथ चलते हैं। ज्ञानी चूंकि अनासक्त भाव से कृत्य करता है, इस कारण छाया के रूप में कर्मबंधन बनता ही नहीं। सारे कर्म पानी पर खींची गई रेखा के समान होते हैं। कदाचित कथन भौतिक रूप से सही भी हो। ज्ञातव्य है कि सामुद्रिक षास्त्र में यह मान्यता है कि जब व्यक्ति की मृत्यु निकट होती है तो कर्मों के रूप में संचित छाया आगे की या़त्रा के लिए षरीर से विलग हो जाती है। छाया बनना बंद हो जाती है। इस विचार की रोषनी में यह ठीक प्रतीत होता है कि ज्ञानी की छाया वाकई नहीं बनती हो, क्योंकि उसने कर्मों का संचय किया ही नहीं है।